दोहा-ग्रह अरिष्ट यदि सूर्य हो, पूजो पद्मजिनेन्द्र।
कर्म असाता दूर हों, पा जाऊँ सुखसिन्धु।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
(अष्टक) नंदीश्वर पूजन की चाल
गंगा का निर्मल नीर, झारी भर लाऊँ।
धारा दे भवदधि तीर, मैं अब हो जाऊँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।१।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन की गन्ध अपार, प्रभु पद में चर्चूं।
प्रगटें गुण हृदय हजार, ऐसी भक्ति रचूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।२।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम तन्दुल श्वेत, लेकर पुञ्ज धरूँ।
अक्षयपद प्राप्ती हेत, प्रभु पद पुँज करूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।३।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपक वर हरसिंगार, फूल मंगाया है।
अंजलि भर प्रभु ढिग आज, स्वयं चढ़ाया है।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।४।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ी पेड़ा पकवान, अर्पण कर पूजूँ।
हो क्षुधारोग की हान, तुम सम पद ले लूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।५।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक ज्योति जलाय, ज्ञानप्रकाश करूँ।
अज्ञान तिमिर नश जाय, आतम स्वस्थ करूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।६।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि धूप जलाय, गंध सुगंध करूँ।
सब कर्म नष्ट हो जाय, आतम स्वस्थ करूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।७।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल सेव अनार खजूर, फल का थाल भरूँ।
मुझ आत्म लक्ष्य हो पूर्ण, चरणों भाल धरूँ।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।८।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, अर्घ्य बनाय लिया।
‘‘चन्दना’’ बसूं शिव जाय, अतः चढ़ाय दिया।।
हे पद्मनाथ भगवान्, मुझमें शक्ति भरो।
ग्रह सूर्य ताप हो शान्त, ऐसी युक्ति करो।।९।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रविग्रह शांती हेतु मैं, धारा दूूँ त्रयबार।
पद्मप्रभ के चरण में, मिलती शांति अपार।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब ले, पुष्पांजलि विकिरन्त।
पद्मप्रभ के निकट में, दुःखों का हो अन्त।।
दिव्य पुष्पांजलिः।।
(अब निम्न पद्य पढ़कर मंडल पर श्रीफल सहित अर्घ्य चढ़ावें।)
तर्ज-चन्दा प्रभु के दर्शन करने……..
पद्मप्रभ तीर्थंकर की, पूजा सब पाप नशाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरन्त भग जाएगी।।
जल चन्दन अक्षत पुष्प और, नैवेद्य दीप वर धूप लिया।
फल आदि आठ द्रव्यों से युत, ‘‘चन्दना’’ अर्घ्य का थाल लिया।।
प्रभु चरणों में अर्पण करते ही, आश मेरी फल जाएगी।
रविग्रह से होने वाली ग्रह-बाधा तुरन्त भग जाएगी।।११।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मण्डलस्योपरि प्रथम कोष्ठकमध्ये महार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारकश्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।
श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र सूर्य ताप को हरें।
श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र सर्वशांति को करें।।
श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र रोग शोक परिहरें।
श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र तन में स्वस्थता भरें।।१।।
माता के गर्भ में तुम्हारे आने से पहले।
की रत्नवृष्टि धनद ने तुम मात के महले।।
तब से धरा वसुन्धरा बन धन्य हुई है।
माता पिता के संंग प्रजा धन्य हुई है।।२।।
थी लाल कमल के समान काया आपकी।
सुकुमारता सौन्दर्य में तुलना न आपकी।।
देवेन्द्र सदा सेवा में प्रस्तुत रहा करता।
किंकर समान भक्ति के ही शब्द उचरता।।३।।
जैसे कमल खिलाने में सूरज निमित्त है।
प्रभु मनकमल खिलाने में रवि के ही सदृश हैं।।
मैंने सुना है आपने कितनों को है तारा।
कितने ही भक्तों का प्रभो! संकट है निवारा।।४।।
बस आज मैंने इसलिए तुम शरण लही है।
मुझ मन में तेरी भक्ति की गंगा जो बही है।।
तुम सम मुझे भी स्वस्थ तन की प्राप्ति हो जावे।
मुझ ‘‘चन्दनामती’’ की व्याधि शांत हो जावे।।५।।
ॐ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
पद्मप्रभ की अर्चना, हरती मन सन्ताप।
चरणकमल की वन्दना, हरे ‘‘चन्दना’’ पाप।।१।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।