स्थापना (शंभु छन्द)
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से, महावीर तक करूँ नमन।
चौबीसों जिनवर की पावन, जन्मभूमियों को वन्दन।।
जैनी संस्कृति के दिग्दर्शक, इन तीर्थों का करूँ यजन।
मेरी आत्मा बने अजन्मा, जन्मभूमि का कर पूजन।।१।।
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण प्रधान।
पूजन के प्रारंभ में, है यह विधि महान।।२।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगा में डुबकी लगा-लगा, मैंने निज को पावन माना।
अब भावकर्ममल धोने को, पूजन में जलधारा डाला।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
निज आत्मशांति पाने हेतू, तीरथ वंदन अवलंबन है।
उनके अर्चन के लिए घिसा, मैंने मलयागिरि चंदन है।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।२।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
अक्षयपद की प्राप्ति हेतु, जहाँ से जिनवर के कदम बढ़े।
उन जन्मक्षेत्र के परमाणू को, मेरे अक्षतपुंज चढ़े।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।३।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
जहाँ विषयभोग का सारा सुख, क्षणभर में प्रभु ने त्याग दिया।
उन पावन पूज्य नगरियों को, मैंने पुष्पांजलि चढ़ा दिया।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।४।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
जहाँ स्वर्ग का भोजन आता था, फिर भी प्रभु उसको छोड़ चले।
अब मेरा यह नैवेद्य थाल, अर्पित है उन तीर्थों के लिए।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।५।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
जहाँ मोह राग का बंधन भी, जिनवर को नहीं लुभा पाया।
उन जन्मभूमियों की आरति, करने को दीप जला लाया।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।६।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
कर्मों को शीघ्र जलाने का, जिनवर ने जहाँ पुरुषार्थ किया।
मैंने भी धूप जला तीरथ की, पूजन का पुरुषार्थ किया।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।७।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
संसार सुखों को भोग जहाँ, मुक्तीफल की अभिलाषा थी।
फल से पूजा करते-करते, मैंने भी यह अभिलाषा की।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।८।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
जल गंध व अक्षत पुष्प चरु ले, दीप धूप फल आदि सहित।
‘‘चन्दनामती’’ ये अष्ट द्रव्य, प्रभु जन्मभूमियों को अर्पित।।
तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमियाँ, युग की अमिट धरोहर हैं।
इन तीर्थों का अर्चन करके, चाहूँ अब अजर अमर पद मैं।।९।।
ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मभूमितीर्थेभ्यः
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
दोहा-कंचन झारी में भरा, प्रासुक निर्मल नीर।
शांतीधारा कर प्रभो, पाऊँ भवदधि तीर।।
शांतये शांतिधारा
भाँति-भाँति के पुष्प को, अंजलि में भर लाय।
पुष्पांजलि करते हृदय, की कलिका खिल जाय।।
दिव्य पुष्पांजलिः
इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में, शाश्वत तीर्थ अयोध्या है।
जहाँ सदा जन्मते तीर्थंकर, इन्द्रों से पूज्य सर्वदा है।।
लेकिन हुण्डावसर्पिणी में, कुछ कालदोष का कारण है।
उन्नीस प्रभू के जन्म हुए, अन्यत्र तभी वे पावन हैं।।
तीर्थंकर अरु तीर्थ को, नमन करूँ शत बार।
जन्मभूमियों को सभी, प्रणमूँ बारम्बार।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
पहले तीर्थंकर ऋषभदेव, फिर हुए अजित अभिनन्दन हैं।
फिर सुमतिनाथ एवं अनन्त, इन पाँच प्रभू को वन्दन है।।
इस युग में तीर्थ अयोध्या में, जन्मे ये पाँच जिनेश्वर हैं।
अतएव अयोध्या नगरी के प्रति, मेरा अर्घ्य समर्पित है।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर ऋषभदेव अजितनाथ अभिनन्दननाथ सुमत्नाथ अनंतनाथ
पंचतीर्थंकराणां जन्मभूमिअयोध्या तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर संभवनाथ तृतिय, श्रावस्ती नगरी में जन्में।
कार्तिक सुदि पूनो तिथि के दिन, मेला लगता प्रति वर्षों में।।
उत्तुंग जिनालय जहाँ तीर्थ की, महिमा को बतलाता है।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ नित, प्रभु दर्शन की अभिलाषा है।।२।।
ॐ ह्रीं तृतीय तीर्थंकर श्री संभवनाथ जिनेन्द्रस्य जन्मभूमि श्रावस्ती तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
छट्ठे तीर्थंकर पदम प्रभु से, कौशाम्बी नगरी पावन।
जिन जन्म समय में इन्द्रों ने भी, आकर उसको किया नमन।।
प्राचीन जिनालय उस भूमी की, गौरव गाथा कहता है।
यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, आतमसुख की बस इच्छा है।।३।।
ॐ ह्रीं षष्ठतीर्थंकर श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि कौशाम्बी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वाराणसि नगरी में, सुपार्श्व अरु पारस तीर्थंकर जन्मे।
पन्द्रह-पन्द्रह महिने जहाँ बरसे, रत्न मात के आँगन में।।
वाराणसि का वह क्षेत्र आज भी, पावन माना जाता है।
उस तीरथ का कण-कण पूजूं, वहाँ जिनमंदिर सुखदाता है।।४।।
ॐ ह्रीं सप्तमतीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ त्रयोविंशतितम तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ
जिनेन्द्र जन्मभूमिवाराणसी तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की, जन्मभूमि है चन्द्रपुरी।
जहाँ जिनवर के जन्मोत्सव में, आई थी पूरी स्वर्गपुरी।।
वाराणसि नगरी के समीप, निर्मित प्राचीन जिनालय है।
उस चन्द्रपुरी को अर्घ्य चढ़ा, मैं चाहूँ निज सुख आलय है।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टमतीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि चन्द्रपुरी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
काकन्दी में प्रभु पुष्पदन्त, नवमें तीर्थंकर जन्मे थे।
वहाँ पन्द्रह महिने तक कुबेर के, द्वारा रत्न बरसते थे।।
सौधर्म इन्द्र शचि इन्द्राणी के, साथ जहाँ पर था आया।
उस पुण्य तीर्थ काकन्दी की, पूजन करने मैं भी आया।।६।।
ॐ ह्रीं नवमतीर्थंकर श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्रस्य जन्मभूमिकाकन्दीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशवें तीर्थंकर शीतलप्रभु, भद्रिकापुरी जन्मस्थल है।
जहाँ खेले वे जिनराज, देवताओं के संग बालकपन में।।
जिनवर के पुण्य प्रभावों से, वह नगरी अब भी वंद्य कही।
उस भद्दिलपुर को अर्घ्य चढ़ा, मैं पाना चाहूँ पुण्यमही।।७।।
ॐ ह्रीं दशमतीर्थंकर श्रीशीतलजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि भद्रिकापुरी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ, जन्मे थे सिंहपुरी।
जो सारनाथ से है प्रसिद्ध, निकटस्थ है वाराणसि नगरी।।
प्रभु की अतिशयकारी विशाल, प्रतिमा वहाँ सुखद विराज रहीं।
उस तीरथ सिंहपुरी की रज को, वंदूं पाऊँ जन्म वहीं।।८।।
ॐ ह्रीं एकादशमतीर्थंकर श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि सिंहपुरी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपापुर में प्रभु वासुपूज्य, तीर्थंकर जन्मे सुखदाता।
उनके पाँचों कल्याणक से, वह सिद्धक्षेत्र भी कहलाता।।
उस चम्पापुर की अष्टद्रव्य ले, पूजन करने को आया।
तीरथ वन्दन का पुण्य मिले, बस यही आश मन में लाया।।९।।
ॐ ह्रीं द्वादशमतीर्थंकर श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि चम्पापुरी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कम्पिलापुरी में तेरहवें, तीर्थंकर विमलनाथ जन्मे।
इक भव्य जिनालय बना हुआ, है कम्पिल जी के परिसर में।।
भगवान विमल प्रभु तीर्थंकर की, प्रतिमा भी मनहारी है।
आत्मा को तीर्थ बनाने हेतू, पूजन यह सुखकारी है।।१०।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशम तीर्थंकर श्री विमलनाथजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि कम्पिलतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ जन्मस्थल रत्नपुरी।
इस नगरी से अतिशयकारी, गजमोती की इक कथा जुड़ी।।
दो सत्य कथानक कहने वाली, रत्नपुरी को वंदन है।
श्री धर्मनाथ तीर्थंकर के, चरणों में अर्घ्य समर्पण है।।११।।
ॐ ह्रीं पञ्चदशम तीर्थंकर श्रीधर्मनाथजिनेन्द्रस्य जन्मभूमिरत्नपुरी तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिकुंथु अरनाथ प्रभू की, जन्मभूमि हस्तिनापुरी।
सोलहवें सत्रहवें अट्ठारहवें, तीर्थंकर त्रय की।।
तीरथ प्राचीन कहा ही है, वहाँ जम्बूद्वीप बना प्यारा।
उस जन्मभूमि का अर्चन कर, मैं सफल करूँ जीवन सारा।।१२।।
ॐ ह्रीं षोडशम सप्तदशम अष्टादशम तीर्थंकरत्रयश्रीशांतिकुंथ्वरजिनेन्द्राणां जन्मभूमि
हस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथिलानगरी श्री मल्लिनाथ, नमिनाथ की जन्मस्थली कही।
दोनों तीर्थंकर के युग में, वहाँ रत्नवृष्टि भी खूब हुई।।
इन्द्रों द्वारा यह वंदित है, इस नगरी का वन्दन कर लो।
ले अष्टद्रव्य का थाल प्रभू की, जन्मभूमि अर्चन कर लो।।१३।।
ॐ ह्रीं एकोनविंशतितम एकविंशतितमद्वयतीर्थंकर श्री मल्लिनाथनमिनाथ जिनेन्द्रयोः
जन्मभूमि मिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर मुनिसुव्रत प्रभु जी, जन्मे राजगृह नगरी में।
वहाँ खड्गासन मुनिसुव्रत प्रभु की, प्रतिमा अतिशय सुन्दर है।।
महावीर प्रभू की प्रथम दिव्यध्वनि, वहीं खिरी विपुलाचल पर।
उस पंचपहाड़ी से शोभित, राजगृहि को पूजूँ रुचिधर।।१४।।
ॐ ह्रीं विंशतितम तीर्थंकर श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि राजगृही तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शौरीपुर नगरी है प्रसिद्ध, नेमिप्रभु के जन्मस्थल से।
राजुल को ब्याहन चले जहाँ से, नेमिनाथ जूनागढ़ में।।
नहिं ब्याह किया लेकिन वे तो, चल दिये मुक्तिकन्या वरने।
उस शौरीपुर को नमन करूँ, औ अर्घ्य चढ़ाऊँ भक्ती से।।१५।।
ॐ ह्रीं द्वाविंशतितम तीर्थंकर श्रीनेमिनाथजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि शौरीपुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिसवें अंतिम तीर्थंकर का, जन्म हुआ कुण्डलपुर में।
जो नालंदा औ राजगृही के, निकट बसा अद्यावधि है।।
वहाँ नंद्यावर्त महल परिसर में, महावीर प्रभु मंदिर है।
उस प्रान्त बिहार का कुण्डलपुर, सचमुच जिनशासन का दिल है।।१६।।
ॐ ह्रीं अंतिम तीर्थंकर श्रीमहावीरजिनेन्द्रस्य जन्मभूमि कुण्डलपुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिस तीर्थंकर भगवन्तों की, सोलह जन्मभूमियाँ हैं।
है प्रथम अयोध्या एवं अंतिम, कुण्डलपुर की महिमा है।।
जिनवर के जन्मों से पावन, भारतभूमि का कण-कण है।
इस भरतक्षेत्र के भारत को, इसलिए मेरा शत वंदन है।।१७।।
ॐ ह्रीं अयोध्याप्रभृति कुण्डलपुर पर्यन्त वर्तमानकालीन चतुर्विंशति तीर्थंकराणां
समस्तजन्मभूमितीर्थक्षेत्रेभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं षोडशजन्मभूमिपवित्रीकृतश्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नमः।
जय जय जिनेन्द्र जन्मभूमियाँ प्रधान हैं।
जय जय जिनेन्द्र धर्म की महिमा महान है।।
जय जय सुरेन्द्रवंद्य ये धरा पवित्र हैं ।
जय जय नरेन्द्र वंद्य ये तीरथ प्रसिद्ध हैं।।१।।
मिश्री से जैसे अन्न में मिठास आती है।
वैसे ही पवित्रात्मा तीरथ बनाती हैं।।
हो गर्भ जन्म दीक्षा व ज्ञान जहाँ पर।
वे तीर्थ कहे जाते हैं आज धरा पर।।२।।
जिनवर जनम से पहले वहाँ इन्द्र आते हैं।
नगरी को सुसज्जित कर उत्सव मनाते हैं।।
सुंदर महल सजाया जाता है वहाँ पर।
जिनवर के पिता-माता रहते हैं वहाँ पर।।३।।
पहली जनमभूमि तो नगरी है अयोध्या।
तीर्थंकरों की शाश्वत जननी है अयोध्या।।
इस युग में किन्तु पाँच जिनेश्वर वहाँ जन्मे।
वृषभाजित अभीनंदन सुमति अनंत हैं।।४।।
श्रावस्ती ने संभव जिनेन्द्र को जनम दिया।
कौशाम्बी में श्रीपद्मप्रभू ने जनम लिया।।
वाराणसी सुपार्श्व पार्श्व से पवित्र है।
श्रीचन्द्रपुरी चन्द्रप्रभू से प्रसिद्ध है।।५।।
काकन्दी को सौभाग्य मिला पुष्पदंत का।
है भद्रपुरी जन्मस्थल शीतल जिनेन्द्र का।।
श्रेयाँसनाथ से पवित्र सारनाथ है।
जिनशास्त्रों में जो सिंहपुरी से विख्यात है।।६।।
श्रीवासुपूज्य जन्मभूमि चम्पापुरी है।
कम्पिल जी विमलनाथ जिनकी जन्मस्थली है।।
तीरथ रतनपुरी है धर्मनाथ की भूमी।
रौनाही से प्रसिद्ध है वह आज भी भूमी।।७।।
श्रीशांति कुंथु अरहनाथ हस्तिनापुर में।
जन्मे जिनेन्द्र तीनों त्रयलोक भी हरषे।।
मिथिलापुरी में मल्लि व नमिनाथ जी जन्मे।
तीर्थेश मुनिसुव्रत जी राजगृही में।।८।।
है जन्मभूमि शौरीपुर नेमिनाथ की।
महावीर से कुण्डलपुरी नगरी सनाथ थी।।
चौबीस जिनवरों की जन्मभूमि को नमूँ।
कर बार-बार वंदना सार्थक जनम करूँ।।९।।
श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा मिली।
कई जन्मभूमियों में नई ज्योति तब जली।।
उन प्रेरणा से ही यह पूजा रची गई।
तीरथ की भक्ति मेरे मन में बसी हुई।।१०।।
प्रभु बार-बार मैं जगत में जन्म ना धरूँ।
इक बार जन्मधार बस जीवन सफल करूँ।।
इस भाव से ही जन्मभूमि अर्चना करूँ।
निज भाव तीर्थ प्राप्ति की अभ्यर्थना करूँ।।११।।
बस ‘‘चन्दनामती’’ की इक आश है यही।
संयम की ही परिपूर्णता जीवन की हो निधी।।
यह भक्तिसुमन थाल है जयमाल का प्रभु जी।
अर्पण करूँ है भावना यात्रा करूँ सभी।।१२।।
जन्मकल्याणक तीर्थ की, पूजन है सुखकार।
जो कर ले श्रद्धा सहित, वह हो भव से पार ।।१३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां जन्मकल्याणकतीर्थक्षेत्रेभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भव्य प्राणी जिनवरों की, जन्मभूमी को नमें।
तीर्थंकरों की चरण रज से, शीश उन पावन बनें।
कर पुण्य का अर्जन कभी तो, जन्म ऐसा पाएंगे।
तीर्थंकरों की शृँखला में, ‘‘चन्दना’’ वे आएंगे।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।