श्री तीर्थंकर धर्मनाथ ने, रत्नपुरी में जन्म लिया।
धर्मतीर्थ का वर्तन करके, जन्मभूमि को धन्य किया।।
पन्द्रहवें तीर्थंंकर की, उस जन्मभूमि को वन्दन है।
आह्वानन स्थापन सन्निधिकरण विधी से अर्चन है।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र
अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र
मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनम् ।
शीतल झरनों का जल पीकर, तत्काल प्यास कुछ शांत हुई।
पर पुनः प्यास लग जाने से, वह इच्छा फिर से जाग गई।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि श्री रत्नपुरी, की पूजन को जल लाया हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घिस लेपन करने से भी, दाह न मेरी शान्त हुई।
बस उसका असर क्षीण होते ही, दाह पुनः प्रारम्भ हुई।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि श्री रत्नपुरी, पूजन को चन्दन लाया हूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रतिक्षण क्षय होती काया में, अक्षय इक आत्मतत्व ही है।
इस काया से तप कर अखंड, मिलता परमात्मतत्त्व भी है।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूूँ।
तुम जन्मभूमि श्री रत्नपुरी, पूजन को अक्षत लाया हूूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये
विनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रियविषयों को भोग भोग कर, बहुत बार छोड़ा मैंने।
उनको तज यदि ले लिया योग, कुछ कर्मबन्ध तोड़ा मैंने।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूूँ।
तुम जन्मभूमि के अर्चन हित, फूलों का गुच्छा लाया हूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छित पकवानों को खाकर, तन की तो क्षुधा कुछ शांत हुई।
पर पुनः भूख लग जाने से, फिर क्षुधा की बाधा जाग गई।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि के अर्चन हित, नैवेद्यथाल भर लाया हूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगमग ज्योति से भरे हुए, संसार में यद्यपि रहता हूँ।
अन्तर्ज्योती नहिं प्राप्त हुई, भवभ्रमण तभी मैं करता हूँ।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि के अर्चन हित, घृतदीपक भर कर लाया हूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल सुगंधि के लिए प्रभो! मैंने बहु धूप जलाई है।
नहिं कर्मनाश के लिए प्रभो! युक्ती मेरे मन आई है।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ! तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि के अर्चन हित, मैं धूप बनाकर लाया हूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अष्टकर्म-
दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हर मौसम के फल खाकर मैंने, तन मन को कुछ तृप्त किया।
नहिं पूजन में फल चढ़ा तभी, शिवफल बिन मन संतप्त रहा।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ! तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि के अर्चन हित, फल थाल सजाकर लाया हूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय मोक्षफल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल ले आया।
चन्दनामती मैं पद अनर्घ्य, पाने का भाव बना लाया।।
इसलिए प्रभो हे धर्मनाथ, तुम चरणों में मैं आया हूँ।
तुम जन्मभूमि श्री रत्नपुरी को, अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपद
प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले ज्ञान साम्राज्य, तिहुंजग में भी शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
तीर्थ अर्चनालाभ, पाऊँ सुख संपति भरूँं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः
(इति मण्डलस्योपरि एकादशमदले पुष्पांजल् क्षिपेत्)
तर्ज-जहाँ डाल-डाल पर सोने की……….
श्री रत्नपुरी तीरथ अर्चन का भाव हृदय में आया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।टेक.।।
वैशाख सुदी तेरस को जहाँ, धनपति ने रतन बरसाया।
प्रभु धर्मनाथ का गर्भकल्याणक, उत्सव खूब मनाया।।उत्सव…….
पितु भानु मात सुव्रता के मन में, आनंद अद्भुत छाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।१।।
उस गर्भकल्याणक से पवित्र, धरती को शत वन्दन है।
सरयू तट निकट अयोध्या के, वह बसा तीर्थ पावन है।। वह बसा……
बस उसी रत्नपुरि नगरी को, मैं अर्घ्य चढ़ाने आया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथगर्भकल्याणक पवित्ररत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
श्री रत्नपुरी तीरथ अर्चन का भाव हृदय में आया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।
शुभ माघ शुक्ल तेरस के दिन, जहाँ धर्मनाथ प्रभु जन्मे।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, सौधर्म इन्द्र वहाँ पहुँचे।।सौधर्म…
जिनबालक को लख प्रथम शची का रोम-रोम हर्षाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।१।।
कर मेरु शिखर पर जन्मोत्सव, वस्त्राभूषण पहनाये।
उस जन्मकल्याणक नगरी की, पूजा करने सब आये।।पूजा…….
मैं भी उस पावन जन्मभूमि का वन्दन करने आया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मकल्याणक पवित्ररत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
श्रीरत्नपुरी तीरथ अर्चन का भाव हृदय में आया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।टेक.।।
प्रभु धर्मनाथ तीर्थंकर ने, जहाँ उल्कापात को देखा।
सब राजपाट तज दिया तुरत, फिर मुड़कर भी नहिं देखा।।फिर……
शुभ माघ सुदी तेरस को ही मन में वैराग्य समाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।१।।
जिस धरती पर लौकांतिक देवों का आगमन हुआ था।
जहाँ नमः सिद्ध कह धर्मनाथ ने, मुनिव्रत ग्रहण किया था।। मुनिव्रत……
उस रत्नपुरी के कण-कण को मैंने यह अर्घ्य चढ़ाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथदीक्षाकल्याणक पवित्ररत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
श्री रत्नपुरी तीरथ अर्चन का भाव हृदय में आया,
मैं रत्नथाल भर लाया ।। टेक. ।।
जिस नगरी के उपवन में प्रभु को, केवलज्ञान हुआ था।
जहाँ समवसरण की रचना का, तत्क्षण निर्माण हुआ था। तत्क्षण…..
कर घातिकर्म का नाश जहाँ निज को भगवान बनाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।१।।
जहाँ पौष शुक्ल पूनम के दिन, दिव्यध्वनि प्रभु ने खिराई।
ऊँकारमयी निजवाणी से, जन-जन की प्यास बुझाई।।जन जन की…….
उस ज्ञानभूमि को अर्घ्य चढ़ाकर रोम-रोम हर्षाया,
मैं रत्नथाल भर लाया।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्ररत्नपुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं…….।।४।।
पन्द्रहवें जिनवर धर्मनाथ के, जहाँ चार कल्याण हुए।
सम्मेदशिखर को वंदूँ मैं, जहाँ से वे प्रभु शिवधाम गये।।
मैं उन चारों कल्याणक से, पावन धरती को नमन करूँ।
पूर्णार्घ्य थाल ले रत्नपुरी को, अर्पण कर मैं नमन करूँं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथगर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानचतुःकल्याणक
पवित्ररत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं रत्नपुरीजन्मभूमिपवित्रीकृत श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय नमः।
श्रीरत्नपुरी तीर्थ की मैं वन्दना करूँ।
प्रभु धर्मनाथ के चरण की अर्चना करूँ।।टेक.।।
सौ इन्द्र भी तीर्थंकर के पद कमल जजें।
गणधर गुरु भी गुण का वर्णन न कर सकें।।
श्रीरत्नपुरी तीर्थ की मैं वंदना करूँ।
प्रभु धर्मनाथ के चरण की अर्चना करूँ।।१।।
पाँचों ही कल्याणक जिन्हों के देव मनाते।
उत्सवविशेष जन्मकल्याणक में रचाते।।श्रीरत्नपुरी०।।२।।
यह पुण्य भी सौधर्म इन्द्र का विशेष है।
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक मनाते हैं।।श्रीरत्नपुरी०।।३।।
वे विक्रिया पृथक् करें अपने शरीर की।
निज स्वर्ग में रहता है असली शरीर ही ।।श्रीरत्नपुरी०।।४।।
जब रत्नपुरी में भी धर्मनाथ जी जनमे।
सौधर्म इन्द्र स्वर्ग से तुरत वहाँ पहुँचे।।श्रीरत्नपुरी०।।५।।
चारों ही कल्याणक मनाये देवों ने आके।
सम्मेदशिखर से प्रभू निर्वाण गये थे।।
श्रीरत्नपुरी तीर्थ की मैं वंदना करूँ।
प्रभु धर्मनाथ के चरण की अर्चना करूँ।।६।।
उस रत्नपुरी तीर्थ से इतिहास इक जुड़ा।
देवों के द्वारा निर्मित मंदिर वहाँ मिला।।श्री रत्नपुरी०।।७।।
दर्शनकथा में हुई ख्यात जो मनोवती।
दर्शन मिले रतनपुरी में धन्य वो सती।।श्रीरत्नपुरी०।।८।।
है आज भी मंदिर वहाँ प्रभु धर्मनाथ का।
तिथि माघ शुक्ल तेरस मेला लगा करता।।श्रीरत्नपुरी०।।९।।
मैं रत्नपुरी तीर्थ को पूर्णार्घ्य समर्पूं।
निजभाव तीर्थ प्राप्त हेतु नाथ को अर्चूं।।श्रीरत्नपुरी०।।१०।।
प्रभु जन्मभूमि पूजन से जन्म सफल हो।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ सभी पुरुषार्थ सफल हों।।श्रीरत्नपुरी०।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
गीता छन्दजो भव्यप्राणी जिनवरों की जन्मभूमि को नमें।
तीर्थंकरों की चरण रज से शीश उन पावन बनें।।
कर पुण्य का अर्जन कभी तो जन्म ऐसा पाएंगे।
तीर्थंकरों की शृँखला में ‘‘चंदना’’ वे आएंगे।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।