-नरेन्द्र छंद-
रत्नों के खंभों पर सुस्थित, मुक्तामालाओं से सुन्दर।
श्री मंडपभूमि आठवीं है, द्वादशगण रचना से मनहर।।
इनमें जो मुनी आर्यिका हैं, हम उनका वंदन करते हैं।
इन समवसरण युत जिनवर का, आह्वानन कर हम यजते हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चाल-नंदीश्वर पूजा-
यमुना नदि का शुचि नीर, झारी पूर्ण भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि, तीर, तुमपद धार करूँ।।
श्री मंडप भूमि महान्, बारह गण धारे।
हो स्वपर भेद विज्ञान, पूजूँ रुचि धारे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सार, गंध सुगंध करे।
चर्चूं जिनपद सुखकार, मन की तपन हरे।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम अक्षत लाय, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज अक्षय पद को पाय, यहाँ न आऊँ मैं।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला मचकुंद गुलाब, चुन चुन के लाऊं।
अर्पूं जिनवर चरणाब्ज निजसुख यश पाऊँ।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं लड्डू मोतीचूर, थाली भर लाऊँ।
हो क्षुधा वेदना दूर, अर्पत सुख पाऊँ।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति, जग अंधेर हरे।
मुझ मोह तिमिर हर ज्योति, ज्ञान उद्योत करे।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेऊँ अगनी में।
उड़ती दशदिश में धूम्र, फैले यश जग में।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अंगूर अनार, श्रीफल भर थाली।
अर्पूं जिन आगे सार, मनरथ नहिं खाली।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ बनाय, उसमें रत्न मिला।
जिन आगे नित्य चढ़ाय, पाऊँ सिद्ध शिला।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपदधार करंत।
तिहुंजग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंधि कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ
त्रिभुवन का साम्राज्य, प्राप्त किया कर्मारि हन।
मिले निजातम राज्य, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
श्री वृषभदेव का समवसरण, बारहयोजन१ मुनि गाते हैं।
उसमें श्रीमंडपभूमी में, बारह कोठे बन जाते हैं।।
मुनि आर्या देव देवियां नर, पशु गण अगणित वहाँ बैठे हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, ये भव भव के दुख मेटें हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीवृषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथ का समवसरण साढ़े ग्यारह योजन मानों।।
चहुँदिश माला की सुरभी से, भविजन यश पैâल रहा मानों।।
सोलह स्फटिक दिवालों से चउ गली व बारह कोठे हैं।
जो पूजें उनके धनधान्यों से भर जाते सब कोठे हैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीअजितनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनवर का समवसरण, ग्यारह योजन का व्यास धरे।
श्री मंडपभूमी में मोती, माला वंदनवारादि भरें।।
इस मंडप में इक साथ तीन, जग के सब जीव समा सकते।
यह अतिशय जिनवर का ही है, हम पूजत निजपद सुख लभते।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीसंभवनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन जिनका समवसरण, साढ़े दस योजन विस्तृत है।
जो कभी नहीं मुरझायें ऐसी, पुष्पमाल से सुरभित है।।
सुर असुर असंख्यातों इसमें, बाधा बिन सुख से रहते हैं।
यह जिनवर का माहात्म्य अहो, पूजत ही विघ्न विनशते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीअभिनंदनजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमतिनाथ का समवसरण, दश योजन का मुनि कहते हैं।
श्रीमंडप की दीवालों पर, त्रिभुवन पदार्थ भी झलके हैं।।
स्फटिकमणी की दीवालें, बहुचित्र विचित्र शोभती हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ाकर ये, शिव लक्ष्मी को भि मोहती हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीसुमतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपद्मप्रभू का समवसरण, साढ़े नव योजन माना है।
उसमें श्रीमंडप गगनसदृश, अतिशय उत्तुंग बखाना है।।
चौंसठ ऋद्धीधारी गणधर, पहले कोठे में राज रहे।
हम पूजें श्रीमंडपभूमी, निज समरस सुधा प्रवाह बहे।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीपद्मप्रभजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नों के खंभों पर ठहरा, श्रीमंडप सार्थक नाम धरे।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से, इसको कुबेर ही रचा करे।।
जिनवर सुपार्श्व का समवसरण, नवयोजन का ही होता है।
इसको पूजें हम अर्घ लिये, यह रोग शोक दुख खोता है।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीसुपार्श्वनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन चंदाप्रभु का समवसरण, बस योजन साढ़े आठ रहा।
इसकी श्रीमंडपभूमी में, सब भविजन जिनध्वनि सुने वहां।।
मंडप की उज्ज्वल कांति में, मानों भविजन स्नान करें।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, मेरे भी कलिमल साफ करें।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीचन्द्रप्रभजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश स्फटिक मणी निर्मित, चौथा परकोटा ऊँचा है।
चउ गोपुर द्वारों से सुंदर, यह कोट सात खन ऊँचा है।।
जिन पुष्पदंत का समवसरण, बस योजन आठ व्यास वाला।
परकोटे आगे मंडप भू, पूजत पाऊँ गुण मणिमाला।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीपुष्पदंतजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतल जिनका समवसरण, बस योजन साढ़े सात कहा।
स्फटिक कोट के द्वारों पर, मंगल दर्पण बहु धरें वहां।।
इन दर्पण में नित दर्शक गण, निज पूरब भव को देखे हैं।
मंडपभूमी को अर्घ चढ़ा, हम पूजें निज को देखे हैं।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीशीतलजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांसनाथ का समवसरण, यह योजन सात कहा मुनि ने।
इसमें श्रीमंडपभूमि अतुल, उसमें सब बैठै ध्वनि सुनने।।
हम सात परम स्थान हेतु, सातों तत्वों का मनन करें।
जिन पूजा सब कुछ दे सकती, इसलिए यहाँ हम यजन करें।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीश्रेयांसनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीवासुपूज्य का समवसरण, साढ़े छह योजन सरधानो।
जिनवचनामृत को पी पीकर, निज के भवरोग सभी हानों।।
समकित संयम की रक्षा हो, बस अन्त समाधीमरण मिले।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, मेरी मनकलियाँ शीघ्र खिलें।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीवासुपूज्यजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री विमलनाथ का समवसरण, छह योजन इन्द्रनीलमणि का।
खाई वनभूमि लताओं से, अतिशोभ रहा यह पचरंगा।।
इन्द्रों के मुकुटों से चुंबित, जिन चरण सरोरुह पुण्य भरें।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, ये शीघ्र भवोदधि पार करें।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीविमलनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर अनंत का समवसरण, यह योजन साढ़े पांच कहा।
जो भव्यनिकट संसारी हैं, वे ही जा दर्शन करें वहाँ।।
जो हैं अभव्य मिथ्यादृष्टि, पाखंडी वे निंह जा सकते।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, मेरे भव भवपातक टलते।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीअनंतनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ का समवसरण, योजन हि पांच विस्तार धरे।
उसमें सब त्रिभुवन का वैभव, लाकर कुबेर इक साथ धरे।।
जिनदेव देव की महिमा यह प्रभु धर्मामृत बरसाते हैं।
जो पूजें अर्घ चढ़ा करके, वे आतम अनुभव पाते हैं।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीधर्मनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ का समवसरण, साढ़े चउ योजन मुनि कहते।
जग शांति विधाता शांतिनाथ, सब उनकी एक शरण गहते।।
जो पूर्ण शांति के इच्छुक हैं, वे शांतिनाथ को भजते हैं।
जो पूजें अर्घ चढ़ाकर वे परमानंदामृत चखते हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीशांतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कुंथुनाथ का समसरण, चउ योजन माना अतिशायी।
श्री मंडपभूमी में तिष्ठे, भविजन ध्वनि सुनते सुखदायी।।
जो पंचेंद्रिय को वश करते, संसार पंच से डरते हैं।
वे पंचम गति को पा लेते, अतएव यहां हम यजते हैं।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीकुंथुनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरहनाथ का समवसरण, साढ़े त्रय योजन मुनि गाते।
उसके अन्दर के वैभव को गणधर भी कहकर थक जाते।।
यह महिमा जिनवर सन्निध की, जो जिनगुण इच्छुक होते हैं।
वे ही जिनवर की पूजा कर, सब पाप पंक को धोते हैं।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीअरनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मल्लिनाथ का समवसरण, त्रय योजन व्यास धरें सुंदर।
उसमें श्रीमंडपभू अष्टम, जहाँ द्वादश गण बैठे सुखकर।।
स्फटिक कोट के द्वारों पर सुर कल्पवासि रक्षा करते।
हम समवसरण को नित पूजें, ये इष्टसिद्धिनवनिधि भरते।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीमल्लिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत जिनका समवसरण, ढाई योजन का माने हैं।
उसमें भू आठ कोट चउ हैं, वेदिका पांच सरधाने हैं।।
जिन परमौदारिक देह धरें, इस समवसरण में तिष्ठे हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, पूजा से भव दुख मिटते हैं।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीमुनिसुव्रतजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीनमि जिनवर का समवसरण, दो योजन कहा मुनीश्वर ने।
केवलज्ञानी श्रुतज्ञानी मुनि, रहते हैं सब श्री मंडप में।।
व्यवहार व निश्चय रत्नत्रय पा जाऊँ मैं इस इच्छा से।
नित पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, मनवचतन कर अतिशय रुचि से।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीनमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ का समवसरण, छह१ कोश कहा निश्चित मानो।
गणधर मुनिगण सुरनर पशुगण, निज निज कोठे बैठे जानो।।
जो समवसरण पूजा करते, वे निश्चित ही वहाँ जायेंगे।
निज में ही निज को पा करके, शिवलक्ष्मी को पा जायेंगे।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीनेमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ का समवसरण, है पाँच कोश का अति सुंदर।
वहाँ बीस हजार सीढ़ियों से, जाकर दर्शन करते ऊपर।।
कमठासुर भी वहाँ आ करके, सब वैरछोड़ सम्यक्त्व लिया।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, हो जावें सुगम मोक्ष गलियाँ।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीपार्श्वनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर प्रभू का समवसरण, है चार कोश विस्तार धरे।
उसमें भी त्रिभुवन की संपत्, धनपति लाकर एकत्र करे।।
यह वीर प्रभू का ही प्रभाव, जो भव्य असंख्ये ध्वनि सुनते।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित मेरे भी मनवाञ्छित फलते।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
चौबीसों जिनराज के, समवसरण गुणखान।
श्री मंडपभूमी जजूँ, होऊं निज गुणवान।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-त्रिभंगी छंद-
जय जय तीर्थंकर, समवसरणवर, घातिकर्म का नाश किया।
नव केवल लब्धी, जिन उपलब्धी, पाकर केवलज्ञान लिया।।
तुम समवसरण में, निज दर्पण में, भविजन निजभवदेख रहे।
रत्नत्रय पाकर, मोह हटाकर, मुनि बनकर शिवपंथ गहे।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
मोह पर से छुटे ध्यान हो आपना।।
श्री समोसर्ण में आठवीं भूमि में।
सोलहों भित्ति से कोष्ठ बारह बने।।पूरिये.।।२।।
सामने कोष्ठ में गणधरा मुनिवरा।
नाथ ध्वनि सुन रहें जो महासुख करा।।पूरिये.।।३।।
दूसरे कोष्ठ में कल्प१ की देवियां।
तीसरे आर्यिका श्राविकायें वहां।।पूरिये.।।४।।
ज्योतिषी व्यंतरी फिर भवनवासियाँ२।
भौन सुर व्यंतरा ज्योतिषी सुर३ वहाँ।।पूरिये.।।५।।
ये सभी क्रम से फिर देव हैं स्वर्ग के।
ग्यारमें चक्रवर्ती मनुज बैठते।।पूरिये.।।६।।
बारवें सिंह हरिणादि हैं प्रेम से।
इस तरह बारहों गण सभा नेम से।।पूरिये.।।७।।
देव देवी असंख्यों वहां बैठते।
नर पशू सर्व बाधा बिना तिष्ठते।।पूरिये.।।८।।
नाथ की दिव्यध्वनि तीन संध्या खिरे।
एक योजन तके सब सुने रुचि धरे।।पूरिये.।।९।।
ह्वाँ समोसर्ण में रोग शोकादि ना।
भूख प्यासादि बाधा जनममृत्यु ना।।पूरिये.।।१०।।
वैर उत्पात आतंक भीती नहीं।
सर्वथा हर्ष ही हर्ष सुख की मही।।पूरिये.।।११।।
धन्य मैं धन्य मैं अर्चना कर रहा।
धन्य ये जन्म मेरा सफल हो रहा।।पूरिये.।।१२।।
आत्म पीयूष निर्झर पिऊँ प्रेम से।
स्वात्मसिद्धी मिले एक ही क्षेम से।।पूरिये.।।१३।।
-दोहा-
श्रीमंडप भू बेढ़कर, पंचम वेदी स्वच्छ।
नमूँ नमूँ कर जोड़कर, करो हृदय मम स्वच्छ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो समवसरण विधान करते, भव्य श्रद्धा भाव से।
तीर्थंकरों की बाह्य लक्ष्मी, पूजते अति चाव से।।
फिर अंतरंग अनन्त लक्ष्मी, को जजें गुण प्रीति से।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्य कर, वे मोक्षलक्ष्मी सुख भजें।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।