-दोहा-
समवसरण में राजते, तीर्थंकर भगवंत।
नमूँ अनंतो बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।१।।
-शंभु छंद-
कैवल्य सूर्य के उगते ही, प्रभु समवसरण गगनांगण में।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हंत बनें।।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से, तत्क्षण ही धनपति आ करके।
बस अर्धनिमिष में समवसरण, रच देता दिव की संपति से।।२।।
सौधर्म इन्द्र इंद्राणी सह, ऐरावत गज पर आते हैं।
सब शेष प्रमुख बत्तीस इंद्र निज-निज वाहन चढ़ आते हैं।।
आगे-आगे किल्विषिक देव, चल रहे नगाड़े बजा रहे।
फिर इन्द्रराज सामानिक त्रायस्त्रिंश पारिषद देव रहें।।३।।
सुर आत्म रक्ष अरु लोकपाल, पुनरपि सेना के देव चलें।
नंतर प्राकीर्णक देव निजी, परिकर ले वाहन बैठ चलें।।
अप्सरियां नृत्य करें, उस क्षण गंधर्व बजाते बाजे हैं।
किन्नरियाँ गातीं प्रभु के गुण, सुरगण जय जय ध्वनि करते हैं।।४।।
सुरपति आज्ञा से चउ निकाय के देव सपरिकर आते हैं।
अच्युत स्वर्गों तक के इन्द्रादिक देव सपरिकर आते हैं।।
आकाश व्याप्त कर असंख्यात सुर मध्यलोक में आते हैं।
प्रभु समवसरण को देख दूर से नमते शीश झुकाते हैं।।५।।
प्रभु समवसरण वैभव देखें, अतिशय विस्मित हो जाते हैं।
टिमकार रहित हो बार-बार दर्शन करते हर्षाते हैं।।
निज जन्म सफल करते सुरगण, अतिशय आनंद मनाते है।
क्रम से वंदन पूजन करते, तीर्थंकर सन्निध्य आते हैं।।६।।
त्रय प्रदक्षिणा देते प्रभु का, वंदन कर पूजन करते हैं।
बहु विध स्तोत्र पढ़ें स्वर से, अतिशय पुण्यार्जन करते हैं।।
फिर निज-निज कोठों में बैठे, प्रभु दिव्यध्वनी को सुनते हैं।
जिनवच अमृत पी तृप्त हुए, सम्यग्दर्शन निधि लभते हैं।।७।।
-नरेन्द्र छंद-
तीर्थंकर की धर्मसभा में अतिशय लक्ष्मी शोभे।
त्रिभुवन का अतिशायी वैभव, सुर नर खग मन लोभे।।
तीर्थंकर की अंतर लक्ष्मी, ज्ञान दर्श सुख वीरज।
इनसे युत चौबीसों जिनवर, यहाँ पूज्य हैं नीरज।।८।।
इस विधान में समवसरण ही पूज्य बना अतिशायी।
इसकी पूजा नर नारी को सबविध है सुखदायी।।
इस भव में धन धान्य संपदा, यश सुख संतति देती।
परभव में इंद्रादि संपदा, चक्रीपद भी देती।।९।।
जिनपूजा है अमोघ शक्ती, निश्चित ही फलती है।
सांसारिक अभ्युदय सभी दे, त्रिभुवन वश करती है।।
आध्यात्मिक पीयूष पिलाकर, परमानंद सुख देती।
जन्म जन्म का भ्रमण मिटाकर, सिद्धि संपदा देती।।१०।।
-दोहा-
गणधर मुनिगण आर्यिका, नमें नमें नत शीश।
मैं भी श्रद्धा से नमूँ, अंजलि पर धर शीश।।११।।
अथ समवसरणपूजायज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(अनुष्टुप् छंद)
पुरुदेव! नमस्तुभ्यं, युगादिपुरुषाय ते।
इक्ष्वाकुवंशसूर्याय, वृषभाय नमो नम:।।१।।
नमस्तेऽजितनाथाय, कर्मशत्रुजयाय ते।
अजयेशक्ति-लाभार्थ-मजिताय नमो नम:।।२।।
भवसंभवदु:खार्त्ति-नाशिने परमेष्ठिने।
नमो संभवनाथाया-नंत विभवलब्धये।।३।।
गुणसमृद्धियुक्ताय, जिनचंद्राय ते नम:।
अभिनंदनदेवाय, नम: स्वगुणवृद्धये।।४।।
ध्वस्तकुमतिदेवाय, जन्ममृत्युप्रमार्थिने।
नमो सुमतिनाथाय, सुष्ठुमतिप्रदायिने।।५।।
मुक्तिपद्मासुकांताय, पद्मवर्ण! नमोस्तु ते।
पद्मप्रभजिनेशाय, जिनलक्ष्म्यै नमो नम:।।६।।
भवपाशच्छिदे तुभ्यं, श्रीसुपार्श्व! नमो नम:।
संसृतिपार्श्वदूराय, मुक्तिपार्श्वविधायिने।।७।।
वागमृतकरैर्भव्य- पोषिणे जिनचंद्र! ते।
नमो नमोऽस्तु चन्द्राय, सर्वसंतापहानये।।८।।
पुष्पदंतजिनेंद्राय, पुष्पवाणच्छिदे नम:।
तुष्टिपुष्टिप्रदातस्ते, स्वात्मपुष्ट्यै नमो नम:।।९।।
शीतलेश! नमस्तुभ्यं, वचस्ते सर्वतापहृत्।
श्रीमत्शीतलनाथाय, शीतीभूताय देहिनाम्।।१०।।
श्रेयस्करो जगत्यस्मिन्, श्री श्रेयन्! ते नमो नम:।
अन्वर्थनामधृत् देव! श्रेयो मे कुरुतात् सदा।।११।।
वासुपूज्यो जगत्पूज्य:, पूज्यपूजातिदूरग:।
पूज्यो जन: प्रसादात्ते, भवेत्तुभ्यं नमो नम:।।१२।।
कर्ममलविनिर्मुक्तो, विमलाय नमो नम:।
तव नामस्मृतिर्लोकं, नैर्मल्यं कुरुते क्षणात्।।१३।।
अनंतनाथ! दृग्ज्ञान-वीर्यसौख्यैरनन्तग:।
अनंतसौख्यलाभाय, भक्त्या तुभ्यं नमो नम:।।१४।।
नमोऽस्तु धर्मनाथाय, धर्मतीर्थंकराय ते।
धर्मचक्रेश! मे नित्यं, धर्म्यध्यानं विधीयताम्।।१५।।
स्वकर्मक्षयत: शांतिं, लब्ध्वा शांतिकरोऽभवत्।
शांतिनाथ! नमस्तुभ्यं, मन:क्लेशप्रशांतये।।१६।।
अहिंसां कुंथुजीवेषु, कृत्वा कुंथुजिनोऽभवत्।
रक्षां विधेहि मे नित्यं, कुंथुनाथ! नमोऽस्तु ते।।१७।।
जगत्त्रयविभुर्सूर्यो, मोहान्धकारहृज्जिन:।
हंताप्यरेर्नमस्तुभ्य-मरनाथ! नमो नम:।।१८।।
कर्ममल्लभिदे तुभ्यं, मल्लिनाथ! नमो नम:।
स्वमोहमल्लनाशाय, भववल्लिभिदे नम:।।१९।।
महाव्रतधरो धीर:, सुव्रतो मुनिसुव्रत:।
नमस्तुभ्यं तनुतान्मे, रत्नत्रयस्य पूर्णताम्।।२०।।
सर्वसंगविरक्त: सन्, मुक्तिश्रीरक्तमानस:।
नमिनाथ! नमस्तुभ्यं, मह्यं मुक्तिश्रियं दिश।।२१।।
राजीमतीं परित्यज्य, महादयार्द्रमानस:।
लेभे सिद्धिवधूं सिद्ध्यै, नेमिनाथ! नमोऽस्तु ते।।२२।।
सर्वंसहो जिन: पार्श्वो, दैत्यारिमदमर्दक:।
सहिष्णुतां प्रपुष्यान्मे, नित्यं तुभ्यं नमो नम:।।२३।।
वर्धमानो महावीरो-ऽतिवीरो सन्मतिर्जिन:।
वीरनाथो नमस्तुभ्यं, सन्मतिं वितनोतु मे।।२४।।
चतुर्विंशतितीर्थेशान्, त्रिसंध्यं स्तौति यो नर:।
प्राप्नोति स त्वरं लक्ष्मीं, ज्ञानमत्या समन्विताम्।।२५।।
ॐ नमो मंगलं कुर्यात्, ह्रीं नमश्चापि मंगलम्।
मोक्षबीजं महामंत्रं, अर्हं नम: सुमंगलम्।।२६।।
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।२७।।
या कैवल्यविभा निहन्ति भविनां ध्वान्तं मन:स्थं महत्।
सा ज्योति:प्रकटीक्रियात् मम मनो-मोहान्धकारं हरेत्।।
या आश्रित्य वसन्ति द्वादशगणा वाणीसुधापायिन:।
तास्तीर्थेशसभा अनन्तसुखदा: कुर्वन्तु नो मंगलम्।।२८।।
अथ समवसरणमण्डपान्त: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।