-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
-दोहा-
सरस्वती लक्ष्मी जहाँ, नितप्रति करें प्रणाम।
पुण्यमयी उस धाम का, समवसरण है नाम।।
समवसरण का स्वरूप
छंद-विष्णुपद (कहाँ गये चक्री-बारहभावना)
जहाँ पहुँचते ही दर्शक का पाप शमन होता।
जहाँ पहुँचते ही मानी का मान गलन होता।।
सबको शरण प्रदाता वह ही समवसरण माना।
जिनवर की उस धर्मसभा को नमूँ परमधामा।।१।।
समवसरण के स्वामी
तीर्थंकर प्रभु तप करके बनते केवलज्ञानी।
वे ही बन अरिहंत कहाते समवसरण स्वामी।।
इन्द्राज्ञा से धनकुबेर रचता इक धर्मसभा।
नमूँ उसे नश जाती जिससे भव की पूर्ण व्यथा।।२।।
मानस्तंभ का महत्व
समवसरण की चार दिशा में मानस्तंभ बने।
जिनवर से बारह गुणिते ऊँचे अप्रतिम घने।।
मुख्यद्वार में जाते ही उनका दर्शन होता।
नमूँ वही मानस्तंभ जहाँ मिथ्यात्व वमन होता।।३।।
चैत्यप्रासाद भूमि
प्रथम कोट जो धूलिसाल उससे आगे भूमी।
चैत्यभवन एवं महलों से सहित प्रथम भूमी।।
देव मनुज क्रीड़ा करते वहाँ जाते पुण्यात्मा।
जिनप्रतिमा युत चैत्य भूमि को नमें महानात्मा।।४।।
खातिका भूमि
वेदी के पश्चात् खातिका भू में पुष्प खिले।
जो नव पुष्प कहीं नहिं मिलते वे भी वहाँ मिलें।।
जल से भरी खातिका में भव्यों के भव दिखते।
पावन समवसरण की भू को नमूँ सदा शुचि से।।५।।
लताभूमि
पुन: वेदिका के नन्तर है लताभूमि सुन्दर।
जाते जहाँ मनोरंजन करने को इन्द्र प्रवर।।
कहीं न दिखने वाली दिव्य लताएँ मन हरतीं।
नमूँ तृतिय भूमी को जो संताप सभी हरती।।६।।
उपवन भूमि
दूजे परकोटे के नन्तर उपवन भूमी है।
सप्तच्छद चंपक अशोक वन आम्र की पंक्ती हैं।।
चैत्यवृक्ष चारों दिश में एकेक कहे जाते।
नमूँ जिनेन्द्रों की प्रतिमा मन उपवन खिल जाते।।७।।
ध्वजा भूमि
वेदी के पश्चात् पाँचवी ध्वजाभूमि आती।
दशचिन्हों से युक्त ध्वजा केशरिया लहराती।।
परम अहिंसा का ध्वज लेकर जग में लहराओ।
भक्तिसहित प्रभु समवसरण को बंधु! शीश नावो।।८।।
कल्पभूमि
परकोटा तृतीय के नन्तर कल्पवृक्ष भूमी।
दशविध कल्पवृक्ष से जनता मांग करे पूरी।।
वहाँ बने सिद्धार्थ वृक्ष में सिद्धों की प्रतिमा।
उन सिद्धों को नमते ही निज कार्य सिद्धि करना।।९।।
भवनभूमि
पुन: वेदिका के नन्तर इक भवनभूमि आती।
नव नव स्तूपों से युत महिमा गाई जाती।।
अर्हत् सिद्धों की प्रतिमाएँ उनमें राज रहीं।
उसी भवनभूमी को वंदूँ जो है पुण्यमही।।१०।।
श्रीमण्डपभूमि
चौथा स्फटिकमयी परकोटा श्रीमण्डपभूमी।
समवसरण में सबसे अंतिम है अष्टमभूमी।।
वहाँ बने द्वादश कोठों में भव्यजीव बैठें।
नमन करूँ इस भू को जिसके सम्मुख जिन तिष्ठें।।११।।
बारह सभा वर्णन
गणधर मुनि साक्षात् प्रभू के वचन ग्रहण करते।
प्रथम सभा में इसीलिए स्थान ग्रहण करते।।
पुन: आर्यिका देव-देवियाँ मनुज पशू रहते।
जिनवर की दिव्यध्वनि सुनकर जन्म सफल करते।।१२।।
गंधकुटी की महिमा
समवसरण के मध्य गंधकुटी में हैं तीर्थंकर।
मुख है एक तथापी दिखते सभी ओर जिनवर।।
इसीलिए तो चतुर्मुखी ब्रह्मा माने जाते।
नमूँ प्रभू की गंधकुटी जहाँ दिव्य सुरभि व्यापे।।१३।।
तीर्थंकर महिमा
धर्मतीर्थ जो करें प्रवर्तित तीर्थंकर होते।
चार घातिया कर्म नाश कर वे जिनवर होते।।
उनके कल्याणक में रत्नों की वृष्टी होती।
उन्हें नमूँ तो निश्चित ही मेरी मुक्ती होगी।।१४।।
ॐकाररूप दिव्यध्वनि
तीर्थंकर की दिव्यध्वनि ॐकारमयी खिरती।
सात शतक अट्ठारह भाषामय हो परिणमती।।
समवसरण में देव मनुज पशु सभी समझ जाते।
नमूँ दिव्यध्वनि को जिसको केवलज्ञानी पाते।।१५।।
गणधर की महिमा
श्रीजिनेन्द्र की वाणी गणधर ही झेला करते।
चारज्ञान से द्वादशांग की रचना वे करते।।
भव्यों के प्रश्नों का उत्तर उनसे ही मिलता।
चौदह सौ बावन गणधर को नमूँ हृदय खिलता।।१६।।
प्रमुख श्रोता का पुण्य
दिव्यध्वनि को सुनने वाले एक प्रमुख श्रोता।
होते हैं प्रत्येक समवसरण में इक श्रोता।।
प्रथम भरत अंतिम श्रेणिक ने प्रश्न किये बहुते।
मैं भी बनूँ प्रमुख श्रोता वन्दन कर प्रभु पद में।।१७।।
समवसरण का प्रभाव
जहाँ-जहाँ तीर्थंकर का शुभ समवसरण बनता।
वहाँ-वहाँ दुर्भिक्ष आदि सारा संकट टलता।।
शेर गाय भी वैर छोड़ मैत्री धारण करते।
समवसरण के इस प्रभाव को नमूँ भक्ति करके।।१८।।
तीर्थंकर के श्रीविहार में स्वर्णकमल रचना
केवलज्ञानी तीर्थंकर जब श्रीविहार करते।
समवसरण विघटित हो जाता गगन गमन करते।।
देवप्रभू के चरणकमल तल स्वर्ण कमल रचते।
सोने में सुगंधि को वे चरितार्थ तभी करते।।१९।।
समवसरण दर्शन का महत्व
इस कलियुग में समवसरण साक्षात् नहीं बनते।
चूँकि यहाँ पर तीर्थंकर अब जन्म नहीं धरते।।
फिर भी ये जिनमंदिर भी हैं समवसरण माने।
कालचतुर्थ सदृश इनके दर्शन से भव हानें।।२०।।
समवसरण श्रीविहार की महिमा
ऐसा ही इक समवसरण इस धरती पर आया।
ऋषभदेव के उपदेशों को उसने फैलाया।।
गणिनी माता ज्ञानमती की सूझबूझ जानो।
कलियुग में भी सतयुग का दर्शन पाया मानो।।२१।।
उपसंहार
हे प्रभु! वर दो मुझको सच्चा समवसरण पाऊँ।
समवसरण के स्वामी तीर्थंकर का पद पाऊँ।।
जब तक वह पद मिले नहीं सम्यक्त्व नहीं छूटे।
उसके बाद ‘‘चंदनामति’’ चाहे सब कुछ छूटे।।१।।
-दोहा-
वीर संवत् पच्चीस सौ, चौबिस की कृति जान।
दुतिया कृष्ण आषाढ़ में, किया प्रभू गणगान।।१।।
समवसरण की भक्ति यह, पूर्ण करे सब आश।
यही चन्दनामति हृदय, में है शुभ अभिलाष।।२।।