-शंभु छंद-
स्वात्मा में सुस्थित होकर जो, निज तनु प्रमाण आकार धरें।
फिर भी निज ज्ञान किरण से ही, सब जानें त्रिभुवन व्याप्त करें।।
ऐसे प्रभु ऋषभदेव आदी-ब्रह्मा, युगस्रष्टा माने हैं।
उनके श्रीचरण कमल प्रणमूँ, वे भव भव के दु:ख हाने हैं।।१।।
जो भूत भविष्यत् वर्तमान, त्रैकालिक तीर्थंकर माने।
जो हुये अनन्तों, होते हैं, होवेंगे भी मुनिगण जाने।।
जो भावी तीर्थंकर मानें, वे आज यहाँ संसारी हैं।
फिर भी उनका वंदन निश्चित, हम भक्तों को सुखकारी है।।२।।
अर्हंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय, साधु पंचपरमेष्ठी हैं।
जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा, जिनमंदिर देते सिद्धी हैं।।
इन नवों देवताओं का नित, जो वंदन पूजन करते हैं।
वे नवनिधि ऋद्धि सिद्धि पाकर, संपूर्ण सुखों को भरते हैं।।३।।
गणधर गुरु वृषभसेन आदिक, से गौतम गणधर तक वंदन।
ये विघ्न विनाशी सर्वसिद्धि, दाता इनके गुण का कीर्तन।।
संपूर्ण अमंगल दूर करे, सब रोग शोक दारिद्र्य हरें।
इनके श्रीचरणों में प्रणमूँ, ये मम रत्नत्रय सिद्ध करें।।४।।
श्री सरस्वती को नमन करूँ, निजज्ञान कली खिल जावेगी।
संपूर्ण लोक की यात्रा भी, यहाँ ही बैठे हो जावेगी।।
श्री विषापहार स्तुति पूजा, संपूर्ण सौख्य भरणी होगी।
सब रोग शोक मोहारि सर्प के, विष की अपहरणी होगी।।५।।
-दोहा-
श्री धनंजय कविरचित, स्तोत्र विषापहार।
उसकी पूजा मैं रचूँ, अल्पबुद्धि सुखकार।।६।।
इस विधान को भक्ति से, करो कराओ भव्य।
पूर्ण स्वस्थता प्राप्त कर, नित सुख पावो नव्य।।७।।
इसके स्वामी ऋषभजिन, आदितीर्थ करतार।
मन वच तन से नित्य मैं, नमूँ अनन्तों बार।।८।।
अथ श्री विषापहारस्तोत्र पूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।