मुक्तिपद्मासुकान्ताय, पद्मवर्ण! नमोऽस्तु ते।
पद्मप्रभजिनेंद्राय, निजलक्ष्म्यै नमो नम:।।१।।
(श्रीसमन्तभद्राचार्य—विरचितं)
पद्मप्रभ:पद्म-पलाशलेश्य:, पद्मालया-लिंगित-चारुमूर्ति:।
बभौ भवान् भव्य-पयोरुहाणां, पद्मा-कराणा-मिव पद्मबन्धु:।।१।।
बभार पद्मां च सरस्वतीं च, भवान्पुरस्तात्प्रति-मुक्तिलक्ष्म्या:।
सरस्वती-मेव समग्रशोभां, सर्वज्ञ-लक्ष्मीं ज्वलितां विमुक्त:।।२।।
शरीर-रश्मि-प्रसर: प्रभोस्ते, बालार्क-रश्मिच्छवि-रालिलेप।
नरामरा-कीर्णसभां प्रभावच्छैलस्य पद्माभ-मणे: स्वसानुम्।।३।।
नभस्तलं पल्लव-यन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुज-गर्भचारै:।
पादाम्बुजै: पातित-मोहदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै।।४।।
गुणाम्बुधे-र्विप्रुष-मप्यजस्रं, नाखण्डल: स्तोतुमलं तवर्षे:।
प्रागेव मादृक्किमुतातिभक्ति-र्मां बाल-मालापयतीद-मित्थम्।।५।।
पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती)
हे पद्मप्रभो! आप देह लालकमल सम।
अन्तर व बाह्य श्री से स्पर्शित आप तन।।
जैसे रवी कमल समूह को खिला रहे।
वैसे ही आप भव्यकमल को खिला रहे।।१।।
प्रभु आपने शिव से प्रथम अर्हंत दशा में।
लक्ष्मी व सरस्वती उभय के पती हुए।।
या समवसरणयुत सरस्वती को धरा।
फिर विगतकर्म उत्तम सर्वज्ञश्री वरा।।२।।
प्रातः रवी किरण सदृश छवि आपकी प्रभो!
तव देहकांति का प्रसार व्याप रहा भो।।
नरसुरगणों से सहित सभा को प्रकाशता।
जिस विध से पद्ममणी गिरि के तट को भासता।।३।।
हे नाथ! आप सहस्रदल कमल पे पग धरें।
तव पदकमल आकाश को ही पल्लवित करें।।
तुम कामदेव मद विनाश करके भूमि पे।
सब जन के विभव हेतु श्रीविहार किये थे।।४।।
तव गुणसमुद्र की हे ऋषे! एक बिन्दु की।
नहिं आज तक भी स्तुति कर सका इन्द्र भी।।
फिर मुझ सदृश कैसे भला कर सकता स्तुती?
अति भक्ति ही मुझ अज्ञ को बुलवा रही कुछ भी।।५।।
श्री पद्मप्रभ स्तुति
तव विश्ववंद्य चरणारिंवद, संकल्पमात्र शुभ फलदायक।
गणधर मुनिगण नुत देव! सदा, मनवचतन से प्रणमूं सुखप्रद।।
तव पादयुगल की भक्ति से, मानव संसार जलधि तिरते।
पद्मा से आिंलगित मूर्ति, पद्मप्रभ! मुझको सम कीजे।।१।।
कौशाम्बी के नृप ‘धरण’ पिता, औ प्रसू सुसीमा ख्यात जगत्।
इक्ष्वाकुवंश के ओ भास्कर!, पद्मा के आलय तव पदयुग।।
इक सहस हाथ ऊँचा तनु था, औ तीस लक्ष पूर्वायु थी।
प्रभु लाल कमल सम देह कांति, औ लाल कमल था चिह्न सही।।२।।
प्रभु माघवदी षष्ठी तिथि में, गर्भागम मंगल प्राप्त किया।
कार्तिक कृष्णा१ तेरस के दिन, त्रैलोक्य विभाकर उदित हुआ।।
उस ही तिथि में तप लक्ष्मी से, आिंलगित पृथ्वी पर विहरे।
सित चैत पूर्णिमा के दिन ही, निज ज्ञान पूर्ण करके निखरे।।३।।
फाल्गुन वदि चौथ दिवस मुक्ति, लक्ष्मी के साथ निवास किया।
कृतकृत्य निरंजन सिद्ध हुए, निज आत्मजनित पीयूष पिया।।
मेरे मन के सब ही दुख को, निश्चित तुमने जाना भगवन्।
अब शीघ्र हरो दुख ‘ज्ञानमती’, श्री मम मुझको देना भगवन्।।४।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।