अथ स्थापना—शंभु छंद
रत्नों के खंभों पर सुस्थित, मुक्तामालाओं से सुंदर।
श्री मंडपभूमि आठवीं है, द्वादशगण रचना से मनहर।।
इनमें जो मुनी आर्यिका हैं, हम उनका वंदन करते हैं।
इन समवसरण युत जिनवर का, आह्वानन कर हम यजते हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—चाल-नंदीश्वर पूजा
यमुना नदि का शुचि नीरं, झारी पूर्ण भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, तुमपद धार करूँ।।
श्री समवसरण जिननाथ, बारह गण धारे।
हो स्वपर भेद विज्ञान, पूजूँ रुचि धारे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति
स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सार, गंध सुगंध करे।
चर्चूं जिनपद सुखकार, मन की तपन हरे।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:चंदनं निर्वपामीति
स्वाहा।
मोतीसम अक्षत लाय, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज अक्षत पद को पाय, यहाँ न आऊँ मैं।।
श्री मंडप भूमि महान्, बारह गण धारे।
हो स्वपर भेद विज्ञान, पूजूँ रुचि धारे।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति
स्वाहा।
बेला मचकुंद गुलाब, चुन चुन के लाऊँ।
अर्पूं जिनवर चरणाब्ज, निजसुख यश पाऊँ।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति
स्वाहा।
मैं लड्डू मोतीचूर, थाली भर लाऊँ।
हो क्षुधा वेदना दूर, अर्पत सुख पाऊँ।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति, जग अंधेर हरे।
मुझ मोह तिमिर हर ज्योति, ज्ञान उद्योत करे।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति
स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेऊँ अगनी में।
उड़ती दशदिश में धूम्र, फैले यश जग में।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति
स्वाहा।
केला अंगूर अनार, श्रीफल भर थाली।
अर्पूं जिन आगे सार, मनरथ नहिं खाली।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति
स्वाहा।
जल आदिक अर्घ बनाय, उसमें रत्न मिला।
जिन आगे नित्य चढ़ाय, पाऊँ सिद्ध शिला।।श्री.।।९।।
ॐ श्रीसमवसरणविभूतिधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—दोहा—
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपदधार करंत।
तिहुंजग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।१०।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंधि कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
(१०८ बार सुगन्धित पुष्प या लवंग से जाप्य करना)
—त्रिभंगी छंद—
जय जय तीर्थंकर समवसरणवर घातिकर्म का नाश किया।
नव केवल लब्धी, निज उपलब्धी, पाकर केवलज्ञान लिया।।
तुम समवसरण में, निज दर्पण में, भविजन निजभवदेख रहे।
रत्नत्रय पाकर, मोह हटाकर, मुनि बनकर शिवपंथ गहे।।१।।
—स्रग्विणी छंद—
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
मोह पर से छुटे ध्यान हो आपना।।
श्री समोसर्ण में आठवीं भूमि में।
सोलहों भित्ति से कोष्ठ बारह बने।।पूरिये.।।२।।
सामने कोष्ठ में गणधरा मुनिवरा।
नाथ ध्वनि सुन रहें जो महासुख करा।।पूरिये.।।३।।
दूसरे कोष्ठ में कल्प की देवियाँ।
तीसरे आर्यिका श्राविकायें वहां।।पूरिये.।।४।।
ज्योतिषी व्यंतरी फिर भवनवासियां।
भौन सुर व्यंतरा ज्योतिषी सुर वहां।।पूरिये.।।५।।
ये सभी क्रम से फिर देव हैं स्वर्ग के।
ग्यारमें चक्रवर्ती मनुज बैठते।।पूरिये.।।६।।
बारवें सिंह हरिणादि हैं प्रेम से।
इस तरह बारहों गण सभा नेम से।।पूरिये.।।७।।
देव देवी असंख्यों वहां बैठते।
नर पशु सर्व बाधा बिना तिष्ठते।।पूरिये.।।८।।
नाथ की दिव्यध्वनि तीन संध्या खिरे।
एक योजन तके सब सुने रुचि धरे।।पूरिये.।।९।।
वहां समोसर्ण में रोग शोकादि ना।
भूख प्यासादि बाधा जनममृत्यु ना।।पूरिये.।।१०।।
वैर उत्पात आतंक भीती नहीं।
सर्वथा हर्ष ही हर्ष सुख की मही।।पूरिये.।।११।।
धन्य मैं धन्य मैं अर्चना कर रहा।
धन्य ये जन्म मेरा सफल हो रहा।।पूरिये.।।१२।।
आत्म पीयूष निर्झर पिऊँ प्रेम से।
स्वात्मसिद्धि मिले ज्ञानमति पूर्ण से।।पूरिये.।।१३।।
ॐ ह्रीं समवसरणविभूतिधारकश्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
तीर्थंकर प्रभु के समवसरण के, महर्षिगण को वंदन है।
उनकी भक्ती मंगलकारी, वे जिनवर के लघुनंदन हैं।।
जो श्री महर्षि विधान को, गुरुवर भक्ती से करते हैं।
‘‘सज्ज्ञानमती’’रत्नत्रय निधि, ले शीघ्र भवोदधि तिरते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।