-स्थापना-(अडिल्ल छंद)-
श्री जयवान् ऋषी की जय जय कीजिए।
अष्ट द्रव्य से उनकी पूजन कीजिए।।
पूजन से पहले स्थापन कीजिए।
निज मन में उनका आह्वानन कीजिए।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षे! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षे! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षे! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (अडिल्ल छंद)-
स्वर्णकलश में प्रासुक नीर भरा लिया।
जन्म मृत्यु क्षय हित गुरुपद धारा किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घिस कर स्वर्ण कटोरी में लिया।
भव आतप नाशन हित गुरुपद चर्चिया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णथाल में अक्षत धोकर ले लिया।
अक्षय पद हित गुरुपद पुंज चढ़ा दिया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में विविध पुष्प चुन कर लिया।
कामबाण नाशन हित, गुरुपद अर्पिया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम व्यंजन स्वर्ण थाल में भर लिया।
क्षुधा नाश हित गुरुपद में अर्पण किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में घृत का दीप जला लिया।
मोह नाश हित गुरुवर की आरति किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित गुरुपूजन हित ले लिया।
अग्नी में कर दहन कर्म नाशन किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में उत्तम-उत्तम फल लिया।
शिवपद हेतू गुरुपद में अर्पण किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णथाल में अर्घ्य ‘‘चन्दनामति’’ लिया।
पद अनर्घ्य हित गुरुपद में अर्पित किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन झारी में प्रासुक जल ले लिया।
विश्वशांति हित गुरुपद में धारा किया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हस्तअंजुली में पुष्पों को भर लिया।
पुष्पांजलि कर मन में गुरुगुण भर लिया।।
सप्तऋषी में पंचम ऋषि जयवान् हैं।
उनकी पूजन दे उत्तम वरदान है।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी मण्डल रचा, पूजा हेतु महान।
पुष्पांजलि करके वहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
शत्रुघ्न ने मथुरा के राजा, मधुसुन्दर को जब मार दिया।
तब देव विक्रिया को जयवान्, सहित सब ऋषि ने शांत किया।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीजयवानमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये नम:।
तर्ज-बजे कुण्डलपुर में बधाई……..
नाम जप ले तू गुरुनाम जप ले-२, काम सारे बन जाएंगे, नाम जप ले।।टेक.।।
सात ऋषियों का नाम सुना है।
उनके तप का भी नाम सुना है।।
इन्हीं के सब गुण गाएंगे, नाम जप ले।।१।।
इन ऋषियों में पंचम ऋषि थे।
श्रीजयवान् जी महर्षि थे।।
इन्हीं के सब गुण गाएंगे, नाम जप ले।।२।।
ये ऋद्धियों के थे स्वामी।
सब सिद्धियों के थे स्वामी।।
इन्हीं के सब गुण गाएंगे, नाम जप ले।।३।।
इनके चरणों में शीश झुकाओ।
इनकी पूजा का थाल सजाओ।।
इन्हीं के सब गुण गाएंगे, नाम जप ले।।४।।
इनकी जयमाल मिलकर गाओ।
‘‘चन्दनामति’’ अर्घ्य चढ़ाओ।।
इन्हीं के सब गुण गाएंगे, नाम जप ले।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजयवान्महर्षये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी की अर्चना, देवे सौख्य महान।
इनके पद की वंदना, करे कष्ट की हान।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।