अथ स्थापना-गीता छंद
श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र वासव-गणों से पूजित सदा।
इक्ष्वाकुवंश दिनेश काश्यप-गोत्र पुंगव शर्मदा।।
सप्तर्द्धिभूषित गणधरों से, पूज्य त्रिभुवन वंद्य हैं।
आह्वान कर पूजूँ यहाँ, मिट जाएगा भव फंद है।।१।।
-गीता छंद-
वासुपूज्य तीर्थेश प्रभु, बालयती जगवंद्य।
नमूं नमूं नित भक्ति से, पाऊं परमानंद।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-गीता छंद
हे नाथ! जग में जन्म व्याधी, बहुत ही दुख दे रही।
अब मेट दीजे इसलिए, त्रयधार दे पूजूँ यहीं।।
श्री वासुपूज्य जिनेंद्र द्वादश, तीर्थकर्ता सिद्ध हैं।
सौ इन्द्र वंदित पद कमल, संपूर्ण सिद्धि निमित्त हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! इस यमराज का, संताप अब नहिं सहन है।
इस हेतु तुम पादाब्ज में, चर्चूं सुगंधित गंध है।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे ज्ञान के, बहु खंड-खंड हुए यहाँ।
कर दो अखंडित ज्ञान तंदुल, पुंज से पूजूँ यहाँ।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! भवशर विश्वजेता, आप ही इसके जयी।
इस हेतु तुम पादाब्ज में, बहु पुष्प अर्पूं मैं यहीं।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! त्रिभुवन अन्न खाया, भूख अब तक ना मिटी।
प्रभु भूख व्याधी मेट दो, इस हेतु चरु अर्पूं अभी।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिरत्न दीपक से कभी, मन का अंधेरा ना भगा।
हे नाथ! तुम आरति करत ही, ज्ञान का सूरज उगा।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे कर्म वैसे, भस्म हों यह युक्ति दो।
मैं धूप खेऊँ अग्नि में, ये कर्म वैरी भस्म हों।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! चाहा बहुत फल, बहुते चरण में नत हुआ।
नहिं तृप्ति पायी इसलिए, फल सरस तुम अर्पण किया।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! निज के रत्नत्रय, अनमोल श्रेष्ठ अनर्घ हैं।
मुझको दिलावो ‘‘ज्ञानमति’’, इस हेतु अर्घ्य समर्प्य है।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
वासुपूज्य चरणाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले निजातम स्वाद, तिहुँजग में भी शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित हरसिंगार, जिनपद पुष्पांजलि करूँ।
भरें सौख्य भंडार, रोग शोक संकट टलें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीताछंद-
दिव महाशुक्र विमान से, च्युत हो प्रभू चंपापुरी।
वसुपूज्य पितु माता जयावति, गर्भ आये शुभ घरी।।
आषाढ़ कृष्णा छठ तिथी, सुरवृंद माँ पितु को जजें।
हम गर्भकल्याणक जजत, संपूर्ण दु:खों से छुटें।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठ्यां श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी चौदश तिथी, सुरगृह स्वयं बाजे बजे।
जन्में जिनेश्वर उसी क्षण, सुरपति मुकुट भी थे झुके।।
माँ के प्रसूती सद्म जा, शचि ने शिशू को ले लिया।
सुर शैल पर अभिषव हुआ, पूजत जगत भव कम किया।।२।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी चौदश तिथी, वैराग्य मन में आ गया।
सुर पालकी पे प्रभु चढ़े, लौकांतिसुर स्तुति किया।।
इन्द्राणि निर्मित चौक पर, तिष्ठे स्वयं दीक्षा लिया।
प्रभु तपकल्याणक पूजते, मिल जाय जिन दीक्षाप्रिया।।३।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वन मनोहर में तरु कदंबक, तले प्रभु थे ध्यान में।
शुभ माघ शुक्ला द्वितीया, प्रभु केवली भास्कर बनें।।
धनदेव निर्मित समवसृति में, गंधकुटि में शोभते।
द्वादशसभा में भव्य नमते, हम प्रभू को पूजते।।४।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भादों सुदी चौदश तिथी, चंपापुरी से नाथ ने।
संपूर्ण कर्म विनाश कर, शिववल्लभा के पति बने।।
सौधर्म इन्द्र सुरादिगण, हर्षित हुए वंदन करें।
हम वासुपूज्य जिनेन्द्र की, निर्वाण पूजा को करें।।५।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
वासुपूज्य त्रिभुवन नमित, इन्द्रगणों से वंद्य।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ सौख्य अमंद।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—दोहा—
वासुपूज्य भगवान के, गुणमणि नंतानंत।
अष्टोत्तर शत गुण जजूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सिद्धिरमा के पति प्रभो! आप नाम ‘श्रीमान’।
केवलज्ञान विभव जजूं वासुपूज्य भगवान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमते श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवच बिन प्रतिबुद्ध होें, अत:‘स्वयंभू’ सिद्ध।
वासुपूज्य भगवान को, पूजूँ बनूँ समृद्ध।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमादि ध्ार्म से, शोभित होकर सिद्ध।
‘वृषभ’ नाम युत आपको, जजत मिले सब सिद्धि।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंभव’ सुखदाता तुम्हीं, श्रेष्ठ जन्म ले नाथ।
जजूँ तीर्थकर आपको, नमूँ नमाकर माथ।।४।।
ॐ ह्रीं शंभवाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंभू परमानंद सुख, अनुभव करो हमेश।
स्वात्मसुखामृत हेतु मैं, जजूँ वासुपूज्येश।।५।।
ॐ ह्रीं शंभवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा चिन्मय शुद्ध बुध, उससे प्रगटे आप।
अत: ‘आत्मभू’ तीर्थकर, जजत बनूँ निष्पाप।।६।।
ॐ ह्रीं आत्मभुवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वयं शोभते गुण सहित, आप ‘स्वयंप्रभ’ नाथ।
निजगुण प्रगटन हेतु मैं, जजूँ करूँ भव सार्थ।।७।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके स्वामी आप ‘प्रभु’, मम दुख हरण समर्थ।
जजूँ सर्वसुख हेतु मैं वासुपूज्य अन्वर्थ।।८।।
ॐ ह्रीं प्रभवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भोगे परमानंदसुख, ‘भोक्ता’ नाथ महंत।
भव में दुख भोगे बहुत, जजत मिले भव अन्त।।९।।
ॐ ह्रीं भोक्त्रे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुचक्षु से, त्रिभुवन में हो व्याप्त।
अत: ‘विश्वभू’ आप हैं, नमूँ तीर्थकृन्नाथ।।१०।।
ॐ ह्रीं विश्वभुवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुन: न भव को धारते, हे ‘अपुनर्भव’ सिद्ध।
पुनर्जन्म के नाशने, जजूूँ आपको नित्त।।११।।
ॐ ह्रीं अपुनर्भवाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व आत्मा निज सदृश, लख ‘विश्वात्मा’ आप।
पूर्णज्ञान तीर्थेश को, जजत मिटे संताप।।१२।।
ॐ ह्रीं विश्वात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के जीव के, स्वामी आप जिनेश।
मेरी भी रक्षा करो, जजूँ ‘विश्व लोकेश’।।१३।।
ॐ ह्रीं विश्वलोकेशाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी तरफ में चक्षु हैं, केवलदर्शनरूप।
नमूँ ‘विश्वतश्चक्षु’ को, पाऊँ स्वात्मस्वरूप।।१४।।
ॐ ह्रीं विश्वतश्चक्षुषे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कभी क्षरण या क्षय नहीं, जग में आप प्रधान।
‘अक्षर’ तीर्थंकर तुम्हें, जजत मिले निजथान।।१५।।
ॐ ह्रीं अक्षराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जगत को जानते, अत: ‘विश्ववित्’ नाथ।
सकल ज्ञान मेरा करो, सदा नमाऊँ माथ।।१६।।
ॐ ह्रीं विश्वविदे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विमल वैâवल्य के, स्वामी नमूँ हमेश।
सब विद्यापति के पती, आप ‘विश्वविद्येश’।।१७।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्येशाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पदार्थ को जानकर, सबको दें उपदेश।
‘विश्वयोनि’ को नित जजूँ, मिटे सकल भव क्लेश।।१८।।
ॐ ह्रीं विश्वयोनये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वरूप को नाश नहिं, अविनाशी प्रभु नित्य।
अत: ‘अनश्वर’ तीर्थकर, जजत लहूँ सुख नित्य।।१९।।
ॐ ह्रीं अनश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग को देखा अत:, सकलदर्शि हो आप।
नाम ‘विश्वदृश्वा’ प्रभो, जजत मिटे भव ताप।।२०।।
ॐ ह्रीं विश्वदृश्वने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान प्रकाश से, व्याप्त किया सब विश्व।
नाम मंत्र ‘विभु’ आपका, जजत दिखे सब विश्व।।२१।।
ॐ ह्रीं विभवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चहुँगति भ्रमते जीव को, पहुँचाते शिवमाहिं।
‘धाता’ परम दयालु हो, पूजत दु:ख नशाहिं।।२२।।
ॐ ह्रीं धात्रे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के ईश तुम, कर्मदूर ‘विश्वेश’।
रत्नत्रय निधि हेतु मैं, वंदूँ भक्ति हमेश।।२३।।
ॐ ह्रीं विश्वेशाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हित उपदेशक जीव के, नेत्र समान महान्।
अत: ‘विश्वलोचन’ जजूं, वासुपूज्य सुखखान।।२४।।
ॐ ह्रीं विश्वलोचनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक समस्त को, ज्ञानज्योति से व्याप।
अत: ‘विश्वव्यापी’ प्रभो, जजत मिटे भव ताप।।२५।।
ॐ ह्रीं विश्वव्यापिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मविधी कहते ‘विधू’ कर्ममर्महर नाथ।
ज्ञानकिरण से मोहतम, हरो जजूँ यह स्वार्थ।।२६।।
ॐ ह्रीं विधवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज सृष्टी को निर्मिता, ‘वेधा’ जगविख्यात।
धर्मसृष्टि सर्जन किया, नमत मिटे भव आर्त।।२७।
ॐ ह्रीं वेधसे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शाश्वत’ कभी न नष्ट हों, वासुपूज्य अमलान।
निज पद शाश्वत दीजिये, जजूँ सदा धर ध्यान।।२८।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में चहुँदिशी, मुख दीखे प्रभु आप।
अत: ‘विश्वतोमुख’ तुम्हीं, नमत हरूँ संताप।।२९।।
ॐ ह्रीं विश्वतोमुखाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मभूमि में नित्य ही, उपदेशा षट्कर्म।
अत: ‘विश्वकर्मा’ तुम्हीं, जजत मिले निजशर्म१।।३०।।
ॐ ह्रीं विश्वकर्मणे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में सबमें ज्येष्ठ तुम, ‘जगज्येष्ठ’ भगवान।
जजूँ भक्ति से नित्य मैं, करो मुझे अमलान।।३१।
ॐ ह्रीं जगज्ज्येष्ठाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आपके ज्ञान में, सब पदार्थ झलकंत।
‘विश्वमूर्ति’ तुमको जजत, निज गुणमणि विलसंत।।३२।।
ॐ ह्रीं विश्वमूर्तये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मशत्रु को जीतते, सद्दृष्टी मुनि आदि।
उनके ईश्वर को नमूँ, प्रभो! ‘जिनेश्वर’ नादि।।३३।।
ॐ ह्रीं जिनेश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व जगत इक समय में, अवलोकें प्रभु आप।
नमूँ ‘विश्वदृक्’ को सतत, समकित हो निष्पाप।।३४।।
ॐ ह्रीं विश्वदृशे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणी के ईश तुम, अत: ‘विश्वभूतेश’।
नमत ज्ञान कलिका खिले, मिलता सौख्य अशेष।।३५।।
ॐ ह्रीं विश्वभूतेशाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विश्व को तेज से, व्याप्त किया भगवान।
‘विश्वज्योति’ को नित नमूँ, नशें कर्म बलवान।।३६।।
ॐ ह्रीं विश्वज्योतिषे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम से बढ़कर नहिं कोई, जग में ईश्वर होय।
नमूँ ‘अनीश्वर’ को सतत, कर्मकालिमा धोय।।३७।।
ॐ ह्रीं अनीश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधादिक अरि जीत के, हुये आप ‘जिन’ सिद्ध।
ज्ञानादिक आनन्त्य गुण, जजत लहूं नव निद्ध।।३८।।
ॐ ह्रीं जिनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अति उत्कृष्ट स्वभाव से, जो नित ही जयशील।
‘जिष्णु’ सकल परमात्मा, नमत बनूँ जयशील।।३९।।
ॐ ह्रीं जिष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत गुण आपके, माप सके ना कोय।
नाथ अमेयात्मा अत:, नमत सिद्धपद होय।।४०।।
ॐ ह्रीं अमेयात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथ्वी के ईश्वर तुम्हीं, ‘विश्वरीश’ शुभ नाम।
निजगुण संपद हेतु मैं, पूजूँ करूँ प्रणाम।।४१।।
ॐ ह्रीं विश्वरीशाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व जगत के जीव के, रक्षक हो भगवंत।
नमूँ ‘जगत्पति’ आपको, जजत करूँ भव अंत।।४२।।
ॐ ह्रीं जगत्पतये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस अनंत संसार को, जीता धर ध्यानास्त्र।
प्रभु ‘अनंतजित्’ हो गये, जजत मिले धर्मास्त्र।।४३।।
ॐ ह्रीं अनंतजिते श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन वच के गोचर नहीं, आत्मस्वरूप अचिन्त्य।
प्रभो ‘अचिन्त्यात्मा’ तुम्हीं, पूजत सौख्य अनिंद्य।।४४।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों का उपकार कर, ‘भव्यबंधु’ हो आप।
रत्नत्रय संपत् भरो, जजूँ करो निष्पाप।।४५।।
ॐ ह्रीं भव्यबन्धवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह आवरण द्वय तथा, अन्तराय को घात।
नाथ ‘अबन्धन’ हो गये, नमत मिले सुख सात।।४६।।
ॐ ह्रीं अबन्धनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कृतयुग के आरंभ में, हुये तीर्थकर देव।
जजत ‘युगादीपुरुष’ को, मिले स्वपद स्वयमेव।।४७।।
ॐ ह्रीं युगादिपुरुषाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानादिक अतुल, गुणगण वृद्धि करंत।
‘ब्रह्मा’ हो प्रभु आप ही, जजत बने गुणवंत।।४८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच ज्ञानमय आप हैं, पंच परमगुरु आप।
‘पंचब्रह्ममय’ आपको, नमत मिटे भवताप।।४९।।
ॐ ह्रीं पंचब्रह्ममयाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष रूप आनंदमय, ‘शिव’ कहलाये नाथ।
ज्ञानानंद मिले मुझे, जजत करूँ भव घात।।५०।।
ॐ ह्रीं शिवाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सखी छंद—
भविजन का पालन करते, सब गुण को पूरण करते।
‘पर’ नाम मंत्र पूजूँ मैं, पर पुद्गल से छूटूँ मैं।।५१।।
ॐ ह्रीं पराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परतर’ हो तीर्थंकर हो, जग में उत्कृष्ट तुम्हीं हो।
तुम नाम मंत्र पूजन से, जिन में समरससुख प्रगटे।।५२।।
ॐ ह्रीं परतराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय से गम्य न तुम हो, प्रभु ‘सूक्ष्म’ नामधर तुम हो।
तुम नाम मंत्र मैं पूजूँ, सब जन्म मरण से छूटूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्माय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुस्थित हो परम सुपद में, ‘परमेष्ठी’ नाम जगत में।
तुम नाम मंत्र की अर्चा, जिनगुण की संपति भर्ता।।५४।।
ॐ ह्रीं परमेष्ठिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा एक से रहते, इसलिये ‘सनातन’ कहते।
मन वच तन से मैं वंदूँ, यमराज दु:ख को खंडूँं।।५५।।
ॐ ह्रीं सनातनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘स्वयंज्योति’ हो जग में, आत्मा रवि सम चमके है।
एकाग्रमना पूजूँ मैं, सब दु:खों से छूटूं मैं।।५६।।
ॐ ह्रीं स्वयंज्योतिषे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अज’ हो उत्पन्न कभी ना, प्रभु तुम मृत्यू से हीना।
मैं पूजूँ श्रद्धा धरके, मुझ में रत्नत्रय प्रगटे।।५७।।
ॐ ह्रीं अजाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं गर्भवास है प्रभु को, अतएव ‘अजन्मा’ तुम हो।
मैं पूजूूँ भक्ति सहित हो, परमानंदामृत भर दो।।५८।।
ॐ ह्रीं अजन्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादश अंगों की रचना, तुम से ही है उत्पन्ना।
हो ‘ब्रह्मयोनि’ भगवंता, पूजत होऊँ सुखवंता।।५९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मयोनये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योनी हैं लाख चुरासी, उनमें उत्पत्ति न होती।
इसलिये ‘अयोनिज’ भगवन्! पूजूँ नहिं घूमूँ भववन।।६०।।
ॐ ह्रीं अयोनिजाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मोह अरी को जीते, ‘मोहारि विजयि’१ हो नीके।
मैं अशुभ कर्म को नाशूं, निज में सज्ज्ञान प्रकाशूँ।।६१।।
ॐ ह्रीं मोहारिविजयिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वोत्कर्ष से जयते, ‘जेता’ इससे मुनि कहते।
मैं पूजूँ तुम्हें रुची से, आत्मा में जयश्री प्रगटे।।६२।।
ॐ ह्रीं जेत्रे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब श्रीविहार प्रभु का हो, वृषचक्र अग्र चलता हो।
अतएव ‘धर्मचक्री’ हो, जजते निजवृषचक्री हो।।६३।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रिणे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु दया ध्वजा अतिशायी, तुम नाम मंत्र सुखदायी।
अतएव ‘दयाध्वज’ पूजूँ, हो दया तभी मैं छूटूँ।।६४।।
ॐ ह्रीं दयाध्वजाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब शांत हुये कर्मारी, पूजत हो सुख अविकारी।
अतएव ‘प्रशांतारी’ को, मैं नमूँ दु:खहारी को।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांतारये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु हो अनंत ज्ञानात्मा, नहिं अंत कभी हो आत्मा।
अतएव ‘अनन्तात्मा’ हो, पूजत मम शुद्धात्मा हो।।६६।।
ॐ ह्रीं अनन्तात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शुक्लध्यान को धरके, ‘योगी’ हो जग में चमके।
मुझमें समतारस छलके, मैं पूजूँ बहुरुचि धरके।।६७।।
ॐ ह्रीं योगिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर देवादि मुनीशा, उनसे अर्चित जगदीशा।
हे ‘योगिश्वरार्चित’ नाथा, मैं नमूँ नमाऊँ माथा।।६८।।
ॐ ह्रीं योगीश्वरार्चिताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मा-आत्मा को जाने, अतएव ‘ब्रह्मविद्’ मानें।
निज आत्मज्ञान के हेतू, तुम भक्ती भवदधि सेतू।।६९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मविदे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्म मर्म को जानें, करूणा का मर्म पिछानें।
‘ब्रह्मातत्त्वज्ञ’ बखाने, मैं नमूँ मोहतम हानें।।७०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मतत्त्वज्ञाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो केवलज्ञान स्वविद्या, जाने अनंतगुण विद्या।
‘ब्रह्मोद्यावित्’ वे स्वामी, मैं नमूँ बनूँ शिवगामी।।७१।
ॐ ह्रीं ब्रह्मोद्याविदे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवहेतू यत्न करें जो, यतिवर उनके ईश्वर जो।
मैं नमूँ ‘यतीश्वर’ आत्मा, पूजत प्रगटे अंतरात्मा।।७२।।
ॐ ह्रीं यतीश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म कलंक विदूरा, अतएव ‘शुद्ध’ गुणपूरा।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाके, हर्षूं निज के गुण पाके।।७३।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो केवलज्ञान स्वरूपी, बुद्धी से ‘बुद्ध’ बने जी।
मुझमें ज्ञानामृत भरिये, मैं पूजूँ भव दु:ख हरिये।।७४।।
ॐ ह्रीं बुद्धाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो शुद्ध ज्ञान से चमके, अतएव ‘प्रबुद्धात्मा’ हैं।
निज पर का ज्ञान प्रगट हो, अतएव नमूँ प्रमुदित हो।।७५।।
ॐ ह्रीं प्रबुद्धात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कारज सिद्ध तुम्हारे, पूर्ती कर मुक्ति पधारे।
‘सिद्धार्थ’ ख्यात हैं जग में, पूजत ही सुख हो निज में।।७६।।
ॐ ह्रीं सिद्धार्थाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शासन सिद्ध कहा है, वह दया धर्म की जड़ है।
मैं नमूँ ‘सिद्धशासन’ को, करुं आत्मा पर शासन जो।।७७।।
ॐ ह्रीं सिद्धशासनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कृतकृत्य हुये भगवंता, लोकाग्र विराजें जो जा।
उन ‘सिद्ध’१ प्रभू को पूजूँ, संपूर्ण कर्म से छूटूँ।।७८।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो द्वादशांग सिद्धांता, वह कहा अनादि अनन्ता।
‘सिद्धांतसुवित्’२ कहलाये, हम भक्ती से गुण गायें।।७९।।
ॐ ह्रीं सिद्धान्तविदे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनियों ने नित आराध्या, अगणित गुणमणि को साध्या।
तुम ‘ध्येय’ ध्यान के योग्या, पूजत होते आरोग्या।।८०।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय श्री वासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सिद्ध—देवगण माने, उनके आराध्य बखाने।
हो ‘सिद्धसाध्य’ तीर्थंकर, पूजत प्रगटे परमेश्वर।।८१।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाध्याय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो सब जग के हितकारी, सुखकारी सब अघहारी।
अतएव ‘जगद्धित’ स्वामी, पूजत होऊँ शिवगामी।।८२।।
ॐ ह्रीं जगद्धिताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण क्षमा आप में शोभे, शिवतिय का भी मन लोभें।
अतएव ‘सहिष्णु’ तुम्हीं हो, मेरे में यह गुण भर दो।।८३।।
ॐ ह्रीं सहिष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं निज स्वरूप से च्युत हो, अतएव आप अच्युत हो।
परमात्मनिष्ठ पद पाऊँ, इसलिये आपको ध्याऊँ।।८४।।
ॐ ह्रीं अच्युताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं होता अन्त कभी भी, अतएव ‘अनंत’ तुम्हीं ही।
हे वासुपूज्य तीर्थंकर, दर्पणवत् झलके सब जग।।८५।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभविष्णु’ समर्थ तुम्हीं हो, शक्ती अनंतयुत ही हो।
मैं भी समर्थ हो जाऊँ, निज गुण पंकज विकसाऊँ।।८६।।
ॐ ह्रीं प्रभविष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट जन्मधर स्वामी, भवपंच विनाशी नामी।
इसलिये ‘भवोद्भव’ ध्याऊँ, नहिं अन्य शरण अब जाऊँ।।८७।।
ॐ ह्रीं भवोद्भवाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभूष्णु’ कहाये, गणधर मुनिगण गुण गायें।
शक्तीशाली तुम पूजा, इस सम नहिं सुकृत दूजा।।८८।।
ॐ ह्रीं प्रभूष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो गई जरा भी जीर्णा, अतएव ‘अजर’ गुणपूर्णा।
है अजर अमर निज आत्मा, पूजत पाऊँ शुद्धात्मा।।८९।।
ॐ ह्रीं अजराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं पूजा शक्य तुम्हारी, इससे ‘अयज्य’१ गुणधारी।
मैं ग्रहण करूँ निज आत्मा, ध्याऊँ वंदूूँ शुद्धात्मा।।९०।।
ॐ ह्रीं अयज्याय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रवि शशि करोड़ की आभा, उनसे भी अधिक गुणाभा।
‘भ्राजिष्णु’ आप भगवंता, पूजत हो सौख्य अनंता।।९१।।
ॐ ह्रीं भ्राजिष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल बुद्धी के स्वामी, ‘धीश्वर’ हो अंतर्यामी।
मैं केवलज्ञान उपाऊँ, अतएव प्रभो! गुण गाऊँ।।९२।।
ॐ ह्रीं धीश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं नाश कभी भी होता, ‘अव्यय’ गुण भव दुख धोता।
व्ययरहित हमारी आत्मा, चिंतामणि शुद्ध चिदात्मा।।९३।।
ॐ ह्रीं अव्ययाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मेंधन दहन किया है, स्व ‘विभावसु’ नाम लिया है।
या शशि अमृत बरसाते, पूजत ही कर्म जलाते।।९४।।
ॐ ह्रीं विभावसवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में नहिं जन्म धरें जो, श्री ‘असंभूष्णु’ प्रभु हैं वो।
पूजत ही साम्य बसेरा, नहिं पुनर्जन्म हो मेरा ।।९५।।
ॐ ह्रीं असंभूष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वयमेव सिद्ध बन प्रगटे, मुनि ‘स्वयंभूष्णु’ हैं कहते।
मैं स्वयं स्वयंपद पाऊँ, भव भव के दु:ख नशाऊँ।।९६।।
ॐ ह्रीं स्वयंभूष्णवे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर होकर जन्मे, अतएव ‘पुरातन’ सच में।
मैं वंदूूं निज सुख हेतू, पाऊँ भवदधि का सेतू।।९७।।
ॐ ह्रीं पुरातनाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट केवली ज्ञानी, परमात्मा अंतर्यामी।
वंदूूं धर मन अभिलाषा, पूरी हो शिवपद आशा।।९८।।
ॐ ह्रीं परमात्मने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट नेत्र त्रिभुवन में, हो ‘परंज्योति’ मुनिगण में।
मैं आत्मज्योति के हेतू, पूजूँ तुम हो भवसेतूू।।९९।।
ॐ ह्रीं परंज्योतिषे श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमेश्वर तीनों जग के, ‘त्रिजगत्परमेश्वर’ कहते।
मैं नमूूं नमूं तुम पद में, रत्नत्रय प्रगटे निज में।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्परमेश्वराय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
‘महामुनी’ प्रभु आप, बालब्रह्मचारी प्रथम।
वासुपूज्य भगवान! पूजत ही सुखसंपदा।।१०१।।
ॐ ह्रीं महामुनये श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत, प्रभू ‘महामौनी’ तुम्हीं।
वासुपूज्य प्रभु पूज्य, रोग शोक संकट टले।।१०२।।
ॐ ह्रीं महामौनिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’१ हुये।
वासुपूज्य तुम वंद्य, करते ही सब सुख मिले।।१०३।।
ॐ ह्रीं महाध्यानिने श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेन्द्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
वासुपूज्य भगवान, पूजत आतम निधि मिले।।१०४।।
ॐ ह्रीं महादमाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
वासुपूज्य भगवान, पूजूं मैं अतिभाव से।।१०५।।
ॐ ह्रीं महाक्षमाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
वासुपूज्य गुणशील, नाममंत्र मैं पूजहूँं।।१०६।।
ॐ ह्रीं महाशीलाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया१।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ाय के।।१०७।।
ॐ ह्रीं महायज्ञाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
वासुपूज्य भगवान, पूजत ही सब सुख मिले।।१०८।।
ॐ ह्रीं महामखाय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य –
अष्टोत्तर शत गुण धनी, वासुपूज्य भगवान।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, जजूं करूं गुणवान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमदादि—अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय नम:।
(सुगंधित पुष्पों से, लौंग या पीले चावल से १०८ बार
27 बार या 9 बार जाप्य करें)
-दोहा-
घाति चतुष्टय घात कर, प्रभु तुम हुये कृतार्थ।
नव केवल लब्धी रमा, रमणी किया सनाथ।।१।।
-शेरछंद-
प्रभु दर्शमोहनीय को निर्मूल किया है।
सम्यक्त्व क्षायिकाख्य को परिपूर्ण किया है।।
चारित्र मोहनीय का विनाश जब किया।
क्षायिक चरित्र नाम यथाख्यात को लिया।।२।।
संपूर्ण ज्ञानावर्ण का जब आप क्षय किया।
वैवल्य ज्ञान से त्रिलोक जान सब लिया।।
प्रभु दर्शनावरण के क्षय से दर्श अनंता।
सब लोक औ अलोक देखते हो तुरंता।।३।।
दानांतराय नाश के अनंत प्राणि को।
देते अभय उपदेश तुम शिवपथ का दान जो।।
लाभान्तराय का समस्त नाश जब किया।
क्षायिक अनंतलाभ का तब लाभ प्रभु लिया।।४।।
जिससे परमशुभ सूक्ष्म दिव्य नंत वर्गणा।
पुद्गलमयी प्रत्येक समय पावते घना।।
जिससे न कवलाहार हो फिर भी तनू रहे।
शिवप्राप्त होने तक शरीर भी टिका रहे।।५।।
भोगांतराय नाश के अतिशय सुभोग हैं।
सुरपुष्पवृष्टि गंध उदकवृष्टि शोभ हैं।।
पग के तले वरपद्म रचें देवगण सदा।
सौगंध्य शीतपवन आदि सौख्य शर्मदा।।६।।
उपभोग अन्तराय का क्षय हो गया जभी।
प्रभु सातिशय उपभोग को भी पा लिया तभी।।
सिंहासनादि छत्र चंवर तरु अशोक हैं।
सुर दुुंदुभी भाचक्र दिव्यध्वनि मनोज्ञ हैं।।७।।
वीर्यान्तराय नाश से आनन्त्य वीर्य है।
होते न कभी श्रांत आप धीर वीर हैं।।
प्रभु चार घाति नाश के नव लब्धि पा लिया।
आनन्त्य ज्ञान आदि चतुष्टय प्रमुख किया।।८।।
श्रीधर्म आदि छ्यासठ गणधर गुरू रहें।
मुनिराज बाहत्तर हजार ध्यानरत कहें।।
इक लाख छह हजार ‘सेना’ आदि आर्यिका।
दो लाख कहें श्रावक चउ लाख श्राविका।।९।।
सत्तर धनुष उत्तुंग देह महिष चिह्न है।
आयू बहत्तर लाख वर्ष लाल वर्ण है।।
फिर भी तो निराकार वर्ण आदि शून्य हो।
आनन्त्य काल तक तो सिद्धक्षेत्र में रहो।।१०।।
प्रभु आप सर्व शक्तिमान कीर्ति को सुना।
इस हेतु से ही आज यहाँ मैं दिया धरना।।
अब तारिये न तारिये यह आपकी मरजी।
बस ‘‘ज्ञानमती’’ पूरिये यदि मानिये अरजी।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
श्री वासुपूज्य विधान जो जन, भक्ति श्रद्धा से करें।
सब रोग शोक निमूल कर, दारिद्र संकट परिहरें।।
अद्भुत अलौकिक नर सुरों के, अभ्युदय को पाय के।
‘सज्ज्ञानमति’ रविकिरण से, भविजन कमल विकससायेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।