-स्थापना (अडिल्ल छंद)-
सोलहकारण में द्वितीय है भावना।
कही विनयसम्पन्नता है भावना।।
उसकी पूजन हेतु करूँ स्थापना।
भाव यही है विनयभाव मन धारना।।१।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (सखी छंद)-
कंचन झारी में जल ले, त्रयधार करूँ जिनपद में।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिला चंदन है, तीर्थंकर पद चर्चन है।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल धो करके लाऊँ, अक्षत के पुंज चढ़ाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
पुष्पों की माल बनाऊँ, पूजन में उसे चढ़ाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य सरस ले आऊँ, प्रभु पद में उसे चढ़ाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नों का दीपक लेकर, आरति कर लूँ मैं जिनवर।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं सुरभित धूप जलाऊँ, कर्मों की धूम उड़ाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल सरस मधुर मैं लाऊँ, प्रभु पद में थाल चढ़ाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर पद अर्घ्य चढ़ाऊँ, ‘‘चन्दनामती’’ सुख पाऊँ।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं प्रासुक जल ले करके, शांतीधारा को करके।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पों से अंजलि भरके, पुष्पांजलि करूँ जिनपद में।
मैं दुतिय भावना भाऊँ, पूजन कर अति हरषाऊँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:
(द्वितीय वलय में ४ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
विनयभावना की यहाँ, पूजन करो महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करके पाऊँ ज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरिद्वितीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-स्रग्विणी छंद-
जैन शास्त्रों का स्वाध्याय नितप्रति करूँ।
ज्ञान अरु ज्ञानियों की विनय नित करूँ।।
भावना विनयसम्पन्नता भाऊँ मैं।
पूजा करके विनयभाव प्रगटाऊँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं ज्ञानविनयभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध सम्यक्त्व की मैं विनय कर सवूँ।
शक्ति दो नाथ! दर्शन विनय वर सवूँ।।
भावना विनयसम्पन्नता भाऊँ मैं।
पूजा करके विनयभाव प्रगटाऊँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनविनयभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकलचारित्र अरु देशचारित्र में।
कर विनय पाल लूँ कुछ तो चारित्र मैं।।
भावना विनयसम्पन्नता भाऊँ मैं।
पूजा करके विनयभाव प्रगटाऊँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं चारित्रविनयभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव गुरु शास्त्र के प्रति विनयभाव है।
अन्य के प्रति विनयभाव का चाव है।।
भावना विनयसम्पन्नता भाऊँ मैं।
पूजा करके विनयभाव प्रगटाऊँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं उपचारविनयभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-स्रग्विणी छंद-
ज्ञान दर्शन व चारित्र उपचार हैं।
विनय के भेद ये ही कहे चार हैं।।
भावना विनयसम्पन्नता भाऊँ मैं।
पूजा करके विनयभाव प्रगटाऊँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विधविनयसमन्वितविनयसम्पन्नता भावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै नम:।
तर्ज-मनिहारों का रूप बनाया……..
सोलहकारण की जयमाल गाऊँ, विनयसम्पन्नता को निभाऊँ।।टेक.।।
सोलहकारण की है यह दुतिय भावना, इसको पाने की मन में जगी भावना।
विनय से सर्व विद्या मैं पाऊँ, विनय सम्पन्नता को निभाऊँ।।१।।
देवगुरु शास्त्र का जो विनय करते हैं, आठों मद दूर कर मोक्षपद वरते हैं।
मान को मैं भी दूर भगाऊँ, विनयसम्पन्नता को निभाऊँ।।२।।
विनय के पाँच भी भेद माने कहीं, ज्ञान-दर्शन-चरण-तप व उपचार हैं।
यथाशक्ती मैं सबको निभाऊँ, विनयसम्पन्नता को निभाऊँ।।३।।
गुरु विनय से धनुर्धारी अर्जुन बने, गुरु विनय की थी उत्कृष्ट चंद्रगुप्त ने।
उनके सम मैं भी गुरुभक्ति पाऊँ, विनयसम्पन्नता को निभाऊँ।।४।।
एक रानी ने प्रभु जी का अविनय किया, अंजना बनके उसने बहुत दुख सहा।
भाव अविनय का मन में न लाऊँ, विनयसम्पन्नता गुण निभाऊँ।।५।।
चक्रवर्ती ने अविनय णमोकार का, करके पाया नरक में बहुत दुक्ख था।
उस णमोकार को मन में ध्याऊँ, विनयसम्पन्नता गुण निभाऊँ।।६।।
साधुगण भी परस्पर विनय पालते, स्वप्न में भी न अविनय हृदय धारते।
विनय कर सबको विनयी बनाऊँ, विनयसम्पन्नता गुण निभाऊँ।।७।।
विनय से हीन विद्या निरर्थक ही है, विनय से युक्त विद्या तो सार्थक ही है।
विनय से सर्वसिद्धी को पाऊँ, विनय सम्पन्नता गुण निभाऊँ।।८।।
मनवचन काय से इसकी पूजा करूँ, अर्घ्य का थाल जिनवर के सम्मुख धरूँ।
‘‘चन्दनामति’’ सुरभि गुण की पाऊँ, विनयसम्पन्नता गुण निभाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।