-स्थापना-दोहा-
सम्यक् ज्ञानाभ्यास में, नित्य रहें जो लीन।
वे मुनि अपने ध्यान से, करें कर्म को क्षीण।।१।।
ज्ञान तथा ज्ञानी पुरुष, हैं त्रिलोक में पूज्य।
वही ज्ञान मुझको मिले, बन जाऊँ जगपूज्य।।२।।
सोलहकारण भावना, में चतुर्थ का नाम।
अभीक्ष्ण ज्ञान उपयोग का, करूँ यहाँ आह्वान।।३।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
गंगा का निर्मल जल लेकर, स्वर्णिम कलशे में भर लाया।
निज जन्म मरण के नाश हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।१।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति
स्वाहा।
काश्मीरी केशर घिसकर कनक, कटोरी में भर कर लाया।
संसार ताप के नाश हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।२।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ वासमती के तंदुल धोकर, मुट्ठी में भरकर लाया।
मैं अक्षय पद की प्राप्ति हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।३।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
फूलों के उपवन से चुन चुनकर, पुष्प थाल में भर लाया।
निज कामबाण विध्वंस हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।४।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी गुझिया आदिक, व्यंजन का थाल सजा लाया।
निज क्षुधारोग के नाश हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।५।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन थाली में रजत दीप ले, मणिमय ज्योति जला लाया।
मोहांधकार के नाश हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।६।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कपूर की धूप बना, अग्नी में दहन करने आया।
आठों कर्मों के नाश हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।७।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम आदि, फल का मैं थाल सजा लाया।
अब मोक्ष महाफल प्राप्ति हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।८।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से फल तक ‘‘चन्दनामती’’, मैं आठों द्रव्य सजा लाया।
मैं पद अनर्घ्य की प्राप्ति हेतु, प्रभु की पूजन करने आया।।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, है कही भावना ग्रंथों में।
इसको भाकर तीर्थंकर पद, पाया है मुनि निर्ग्रन्थों ने।।९।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
ज्ञान भावना के लिए, कर लूँ शांतीधार।
ज्ञानप्राप्ति होवे मुझे, हो जाऊँ भवपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
ज्ञानगुणों की प्राप्तिहित, पुष्पांजली चढ़ाय।
ज्ञानभावना के लिए, पुष्प सुगंधित लाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(चतुर्थ वलय में १९ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
अभीक्ष्ण ज्ञान उपयोग की, पूजन करूँ महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करके पाऊँ ज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरि चतुर्थदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
पाँच ज्ञान में मतिज्ञान के, भेद तीन सौ छत्तिस हैं।
है परोक्ष यह ज्ञान सदा, रहता श्रुतज्ञान के ही संग है।।
मैं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, भावना को भाने आया हूँ।
सोलहकारण पूजन करके, अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं मतिज्ञानसंयुक्त अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुतिय ज्ञान श्रुतज्ञान के दो, बारह अरु भेद अनेक कहे।
अंगप्रविष्ट के बारह भेद व, अंगबाह्य के अनेक रहे।।
मैं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, भावना को भाने आया हूँ।
सोलहकारण पूजन करके, अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानसंयुक्त अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है अष्टांग निमित्तज्ञान, इससे श्रुतज्ञान निखरता है।
सम्यक् श्रुतज्ञानी श्रुताभ्यास से, इसे प्राप्त कर सकता है।।
मैं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, भावना को भाने आया हूँ।
सोलहकारण पूजन करके, अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टनिमित्तश्रुतज्ञानसंयुक्तअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नभ में सूरज चंदा एवं ग्रह, मेघपटल आदिक लखकर।
तन में तिल व्यंजन आदि देख, शुभ अशुभ बताते हैं मुनिवर।।
उन अंतरिक्ष श्रुतज्ञानी के, चरणों में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग से, ही जाता पहचाना है।।४।।
ॐ ह्रीं अंतरिक्षनिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
धरती में स्वर्ण रतन हड्डी आदिक से भूमि परीक्षण कर।
इत्यादि अनेकों चिन्हों से शुभ अशुभ बताते हैं मुनिवर।।
उन भौम निमित्तक श्रुतज्ञानी के पद में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग से ही जाना पहचाना है।।५।।
ॐ ह्रीं भौमनिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तिर्यंच मनुज आदिक तन में, शुभ-अशुभ चिन्ह का ज्ञान जिन्हें।
उनका रस रुधिर आदि लखकर, हित-अहित का हो विज्ञान जिन्हें।।
उन अंग निमित्तक श्रुतज्ञानी के, पद में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग से, ही जाता पहचाना है।।६।।
ॐ ह्रीं अंगनिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तिर्यंच मनुज आदिक जो भी, शुभ अशुभ शब्द बोला करते।
उनके स्वर को सुनकर निमित्त-ज्ञानी सुख-दु:ख फल को कहते।।
उन स्वरनिमित्त श्रुतज्ञानी के, चरणों में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, से ही जाता पहचाना है।।७।।
ॐ ह्रीं स्वरनिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तन पर मस्सा तिल आदि देखकर, जो भविष्य बतलाते हैं।
शुभ अशुभ जान करके उनका, संकट भी दूर भगाते हैं।।
उन व्यंजन के निमित्तज्ञानी के, पद में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, से ही जाता पहचाना है।।८।।
ॐ ह्रीं व्यंजननिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तन में जो स्वस्तिक कलश वङ्का, मछली ध्वज आदि लक्षण हैं।
इनका अवलोकन करके जो, बतलाते सुख दुख साधन हैं।।
उन लक्षण ज्ञानी मुनिवर के, चरणों में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, से ही जाता पहचाना है।।९।।
ॐ ह्रीं लक्षणनिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आभूषण वस्त्रादिक तन के, जब छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
उनको लखकर निमित्तज्ञानी, शुभ अशुभ काल बतलाते हैं।।
उन छिन्ननिमित्तज्ञानि मुनिवर के, पद में अर्घ्य चढ़ाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, से ही जाता पहचाना है।।१०।।
ॐ ह्रीं छिन्ननिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुप्तावस्था में स्वप्न शुभाशुभ, देख विकल्प उपजते हैं।
जो उनका अर्थ समझ जाते, वे ही उनका फल कहते हैं।।
उन स्वप्न निमित्तज्ञानी मुनिवर के, पद में अर्घ्य चढाना है।
यह भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, से ही जाता पहचाना है।।११।।
ॐ ह्रीं स्वप्ननिमित्तकश्रुतज्ञानसमन्वितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टांग निमित्त में अंतरिक्ष अरु, भौम अंग स्वर व्यंजन हैं।
लक्षण व छिन्न अरु स्वप्न निमित्तक, आठ भेद का वर्णन है।।
इनके निमित्त से मति एवं, श्रुतज्ञान में वृद्धि होती है।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ा करके, निज आतम शुद्धि होती है।।१२।।
ॐ ह्रीं अष्टांगनिमित्तकश्रुतज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
श्रुतज्ञान के पश्चात् अवधि-ज्ञान को अब जानिए।
जिनशास्त्र के अनुसार इसके, भेद त्रय पहचानिए।।
इस अवधिज्ञान की प्राप्ति हेतू, अर्घ्य मैं अर्पण करूँ।
ज्ञानोपयोग अभीक्ष्ण होवे, प्रभु चरण चर्चन करूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं अवधिज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उस अवधिज्ञान के तीन भेदों, में प्रथम देशावधी।
चारों गती में प्राप्त इसको, कर सकें प्राणी सभी।।
इस अवधिज्ञान की प्राप्ति हेतू, अर्घ्य मैं अर्पण करूँ।
ज्ञानोपयोग अभीक्ष्ण होवे, प्रभु चरण चर्चन करूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं देशावधिज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उस अवधिज्ञान के तीन भेदों, में दुतिय परमावधी।
बस मोक्षगामी मुनिवरों में, ही अवधि यह है कही।।
इस अवधिज्ञान की प्राप्ति हेतू, अर्घ्य मैं अर्पण करूँ।
ज्ञानोपयोग अभीक्ष्ण होवे, प्रभु चरण चर्चन करूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं परमावधिज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उस अवधिज्ञान के तीन भेदों, में तृतिय सर्वावधी।
इसको भी केवल प्राप्त कर, सकते मुनीश्वर ही कभी।।
इस अवधिज्ञान की प्राप्ति हेतू, अर्घ्य मैं अर्पण करूँ।
ज्ञानोपयोग अभीक्ष्ण होवे, प्रभु चरण चर्चन करूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्वावधिज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
मन:सुपर्ययज्ञान के, हैं दो भेद महान।
ऋजुमति उनमें प्रथम को, पूजूँ हो कल्याण।।१७।।
ॐ ह्रीं ऋजुमतीमन:पर्ययज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मन:सुपर्ययज्ञान के, हैं दो भेद महान।
विपुलमती उनमें दुतिय, पूजूँ हो कल्याण।।१८।।
ॐ ह्रीं विपुलमतीमन:पर्ययज्ञानोत्पादकअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
जो मूर्त औ अमूर्त, सब पदार्थ को जाने।
त्रैलोक्य अरु त्रिकालवर्ति, तत्त्व पिछाने।।
उस क्षायिकी वैâवल्यज्ञान, को जजूँ यहाँ।
पाऊँ अभीक्ष्ण ज्ञान का, उपयोग सर्वदा।।१९।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानोत्पादक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शेर छंद)-
पाँचों प्रकार ज्ञान को, जो प्राप्त करावे।
हम वह अभीक्ष्ण ज्ञानयुक्त, भावना भावें।।
इस भावना को हम यहाँ, पूर्णार्घ्य चढ़ावें।
फिर ‘चन्दनामति’ क्रम से, मोक्षधाम को पावें।।१।।
ॐ ह्रीं पंचज्ञानभेदसहितअभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै नम:।
तर्ज-चन्दाप्रभु के दर्शन करने……..
सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकर पद पाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगि बन जाना है।।टेक.।।
श्री जिनवर के मुख से निकली वाणी ही जिनवाणी है।
चारों अनुयोगों में गूंथी वही परम कल्याणी है।।
गुरुमुख से उनको पढ़कर ही ज्ञानाभ्यास बढ़ाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगि बन जाना है।।१।।
ग्रंथों के स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा हुआ करती।
मुक्ति अंगना भी क्रमश: स्वाध्याय से प्राप्त हुआ करती।।
कर स्वाध्याय जिनागम का आत्मा को शुद्ध बनाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्णज्ञानोपयोगि बन जाना है।।२।।
जिनसूत्रों का अध्यन कभी अकाल में नहीं किया जाता।
सूत्रग्रंथ अध्ययन सदा त्रैकालिक में ही किया जाता।।
आगम वर्णित काल में ही स्वाध्याय से सत्फल पाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगि बन जाना है।।३।।
विनयसहित यदि पढ़ा गया श्रुत विस्मृत भी हो जाता है।
तो भी जन्मान्तर में ज्यों का त्यों प्रगटित हो जाता है।।
इस श्रद्धा के साथ सदा निज ज्ञानाभ्यास बढ़ाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगि बन जाना है।।४।।
अपने ज्ञान की वृद्धि हेतु ज्ञानी की सदा विनय करना।
गणिनी ज्ञानमती माताजी के सम ज्ञान हृदय धरना।।
ले पूर्णार्घ्य ‘चन्दनामति’ शुभ भाव से उसे चढ़ाना है।
जयमाला गाकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगि बन जाना है।।५।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।