-स्थापना-अडिल्ल छंद-
सोलहकारण में बारहवीं भावना।
उसको भाकर करलूँ आतम साधना।।
अंगपूर्वमय श्रुतप्राप्ती की कामना।
पूजन करने हेतु करूँ मैं थापना।।१।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-जिन्दगी इक सफर है सुहाना……
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में नीर चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।१।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में चंदन चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।२।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में अक्षत चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।३।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में पुष्प चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।४।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में नैवेद्य लाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।५।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में दीप जलाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।६।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजा में धूप जलाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।७।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजन में फल को चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।८।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
उसकी पूजन में अर्घ्य चढ़ाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।९।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
पूजा करके शांतिधार कराऊँ।
विश्वशांति की भावना भाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।११।।
शांतये शांतिधारा।
हे प्रभो! मैं भावना ये भाऊँ।
तेरे चरणों में ही रम जाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय…२।।टेक.।।
सोलहकारण भावनाएँ हैं।
उनमें बहुश्रुत भावना जो है।।
पूजा करके पुष्पांजली चढ़ाऊँ।
गुण पुष्पों की सुरभी पाऊँ।।
जय हो जय हो जय हो जय, जय हो जय हो जय हो जय।।१२।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(बारहवें वलय में २५ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
दोहा- बहुश्रुत भक्ती भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि द्वादशदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अंगरूप श्रुतभेद में, पहला आचारांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
ॐ ह्रीं आचारांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, दूजा सूत्रकृतांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।२।।
ॐ ह्रीं सूत्रकृतांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, तीजा स्थानांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।३।।
ॐ ह्रीं स्थानांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, चौथा समवायांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।४।।
ॐ ह्रीं समवायांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।५।।
ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिअंगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, छट्ठा ज्ञातृकथांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।६।।
ॐ ह्रीं ज्ञातृकथांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, उपासकाध्ययनांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।७।।
ॐ ह्रीं उपासकाध्ययनांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, है अंतकृद्दशांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।८।।
ॐ ह्रीं अंत:कृद्दशांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, अनुतरोपाददशांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपादिकदशांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, प्रश्नव्याकरणांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१०।।
ॐ ह्रीं प्रश्नव्याकरणांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगरूप श्रुतभेद में, है विपाकसूत्रांग।
बहुश्रुतभक्ती हेतु मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।११।।
ॐ ह्रीं विपाकसूत्रांगसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
चौदह पूरब ज्ञान, में पहला उत्पाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में द्वितीय अग्रायणी।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं आग्रायणीयपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में वीर्यानुप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं वीर्यानुप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में अस्तिनास्तिप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में पंचम ज्ञानप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में छट्ठा सत्यप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में जो आत्मप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में इक कर्मप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में प्रत्याख्यानप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में विद्यानुप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं विद्यानुप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में कल्याणप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में प्राणानुप्रवाद है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं प्राणानुप्रवादपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में इक क्रियाविशाल है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२४।।
ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूरब ज्ञान, में लोकबिन्दुसार है।
अर्घ्य चढ़ा श्रुतज्ञान, को बहुश्रुत भक्ति करूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं लोकबिन्दुसारपूर्वसहितबहुश्रुतभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-कुसुमलता छंद-
ग्यारह अंग व चौदह पूर्वों, सहित कहा श्रुतज्ञान महा।
इनको प्राप्त किया जिनने, उनको ही श्रुतकेवली कहा।।
श्रुत एवं श्रुतकेवलियों की, भक्ति बहुश्रुतभक्ती है।
मैं पूर्णार्घ्य चढ़ाकर पूजूँ, मिले ज्ञान की शक्ती है।।१।।
ॐ ह्रीं अंगपूर्वश्रुतज्ञानसहित बहुश्रुतभक्तिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै नम:।
तर्ज-द्वारे आये………………
पूजा रचाएँ, प्रभू की जयमाला गाएँ, श्रुतज्ञान दे दे भगवान।।पूजा…।।टेक.।।
हम अज्ञानी भटक रहे हैं, दुनिया के चक्कर में।
पा जाएँ सन्मार्ग यदी तो, छूटें हम भवदुख से।।पूजा….।।१।।
तुम दीपक तो हम बाती हैं, टिमटिम हमें जला देना।
तुम सूरज तो हम तारे हैं, निज में हमें मिला लेना।।पूजा…।।२।।
श्रुत की भक्ति कर करके, बहुतों ने फल पाया।
इस श्रुत की शक्ति के आगे, मोह नहीं टिक पाया।।पूजा…।।३।।
श्रुत अध्ययन से समता मिलती, अरु वात्सल्य की सरिता।
ज्ञानामृत को देने वाला, बहुश्रुतज्ञानी रहता।।पूजा…।।४।।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, में विभक्त श्रुतरचना।
जिसे ज्ञान यह मिल जावे, श्रुतकेवलि उसे समझना।।पूज्..।।५।।
सोलहकारण में बहुश्रुत की, भक्ति भावना भाएं।
जयमाला का अर्घ्य चढ़ाकर, पूजन का फल पाएँ।।पूजा….।।६।।
ज्ञान का फल चारित्र ही है, हम इसको धारण कर लें।
मिले ‘‘चन्दनामती’’ यही, वरदान हमें जीवन में।।पूजा…।।७।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।