-स्थापना-
तर्ज-सजधज कर जिसदिन…….
सोलहकारण की भावना, हम मन में भाएंगे।
आवश्यकापरिहाणि की, पूजा रचाएंगे।।टेक.।।
मुनियों की सामायिक आदि, जो षट्क्रियाएँ हैं।
पालन उन्हें करते सभी, श्रुत में कथाएँ हैं।।
आह्वानन स्थापन करके, जिनवर को ध्याएंगे।
आवश्यकापरिहाणि की, पूजा रचाएंगे।।१।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-
आत्मसुख समतारस नाथ! दे दो मुझे।
शुद्ध जल से प्रभो! तीन धारा करूँ।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।१।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म की सुरभि में, चित्त मेरा रमें।
गंध से प्रभु चरण में, करूँ अर्चना।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।२।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मसुख मेरा अक्षय, बने हे प्रभो!
शालि के पुंज से, तेरी पूजा करूँ।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।३।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प मंदार के, दिव्य लाऊँ प्रभो!
विषय विध्वंस हेतू, चढ़ाऊँ प्रभो।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।४।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खीर लाडू बनाकर, चढ़ाऊँ प्रभो!
भूख व्याधि मिटे, ऐसा भाऊँ प्रभो।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।५।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीपक जला, आरती मैं करूँ।
मोह के नाश की, भावना मैं करूँ।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।६।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुगंधित, अगनि में प्रभो!
अष्ट कर्मों का नाशन, करो अब प्रभो।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।७।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर अमरूद, फल लायके।
मोक्षफल हेतु अर्पण, करूँ आयके।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।८।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य अर्पण करूँ पद, अनर्घ्य मिले।
‘‘चन्दनामति’’ मेरी, आत्मकलिका खिले।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।९।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा करूँ, शांति की प्राप्ति हो।
घोर हिंसा मिटे, विश्व में शांति हो।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
आज पुष्पांजली, प्रभु समर्पित करूँ।
गुणसुरभि हेतु निज को भी, अर्पित करूँ।।
नाथ! मैं सोलहकारण की पूजा करूँ।
अपने आवश्यकों में सदा रत रहूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(चौदहवें वलय में ६ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
चौदहवीं शुभ भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि चतुर्दशदले पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
तर्ज-वो क्या है एक मंदिर है………
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
पहला आवश्यक, सामायिक कहलाता है।
जो त्रैकालिक में, समता भाव सिखाता है।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
यह ध्यान का भाव बढ़ाता है, दुर्ध्यान का भाव हटाता है।।१।।
ॐ ह्रीं सामायिकआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
दूजा आवश्यक, स्तव नामक कहलाता।
चौबिस तीर्थंकर, स्तुति का इससे नाता।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जिनभक्ति का पाठ पढ़ाता है, शिवपथ की ओर बढ़ाता है।।ये क्या है….।।२।।
ॐ ह्रीं स्तवआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
वंदना नाम का आवश्यक, भी है तीजा।
इसमें जिनवर को, वन्दन करने की शिक्षा।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
इसमें मस्तक नम जाता है, अभिमान दूर हो जाता है।।ये क्या है…।।३।।
ॐ ह्रीं वन्दनाआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
प्रतिक्रमण नाम का, चौथा आवश्यक माना।
मुनियों ने इससे, दोष दूर करना जाना।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
मुनि आर्यिका इसको करते हैं, पापों से विरत वे रहते हैं।।ये क्या है…..।।४।।
ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
पंचम आवश्यक, प्रत्याख्यान बताया है।
पापों के त्याग का, वर्णन इसमें आया है।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
आहार आदि जब त्याग करें, यह आवश्यक स्वीकार करें।।ये क्या है…..।।५।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
षट् आवश्यक का, मुनिजन पालन करते हैं।
हम पूजन करके, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
जो इनका पालन करते हैं, वे भवसागर से तिरते हैं।।ये क्या है…..।।टेक.।।
छट्ठा आवश्यक, कायोत्सर्ग कहा जाता।
मुनिजन को तन से, निर्मम होना सिखलाता।।
ये क्या है ? पुण्यास्रव है, आत्मा के लिए शुभ आस्रव है।
यह ध्यानाभ्यास कराता है, निज में स्थिरता लाता है।।ये क्या है…..।।६।।
ॐ ह्रीं कायोत्सर्गआवश्यकसहितआवश्यकापरिहाणिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-नरेन्द्र छंद-
अट्ठाईस मूलगुण मुनि के, उनमें छह आवश्यक हैं।
इनमें कभी हानि नहिं करके, पालन करते जो यति हैं।।
उनको मैं पूर्णार्घ्य चढ़ाकर, चौदहवीं भावना जजूँ।
मेरे आवश्यक प्रपूर्ण हों, तीर्थंकर पद पद्म भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै नम:।
तर्ज-ऐसी लागी लगन……….
प्रभु की पूजा करूँ, प्रभु की भक्ती करूँ।
मुक्ति को पाने की, प्रभु जी शक्ती वरूँ।।टेक.।।
कहते हैं सोलहकारण, की जो भावना।
भाते हैं उनकी सब, पूरी हो कामना।।
इसलिए मैं भी उनकी ही, भक्ती करूँ।।प्रभु…।।१।।
अपने आवश्यकों की, करूँ पालना।
पूजा दानादि कर मैं, करूँ साधना।।
साधना लीन गुरुओं की, भक्ती करूँ।।प्रभु…।।२।।
सुबह मंदिर में जा, प्रभु के दर्शन करूँ।
पाँच अंगों से झुक, उनका वंदन करूँ।।
अक्षतों से भरी बंद, मुट्ठी धरूँ।।प्रभु…।।३।।
जैन शास्त्रों को करके, नमन भक्ति से।
कर लूँ स्वाध्याय कुछ, आत्मशक्ति मिले।।
चार पुंजों को धर, अर्घ्य अर्पित करूँ।।प्रभु…।।४।।
साधु-साध्वी मिलें, तो नमोऽस्तु करूँ।
तीन रत्नों के धारक, को त्रय पुंंज दूँ।।
उनकी साक्षात् उपदेश, वाणी सुनूँ।।प्रभु…।।५।।
जैन मंदिर से जब, वापसी मैं चलूँ।
प्रभु के गंधोदक से, तन को पावन करूँ।।
पीठ प्रभु को न दे, सीधे सीधे चलूँ।।प्रभु…।।६।।
मूलगुण आठ को, पाल श्रावक बनें।
‘चन्दनामती’ तभी, सच्चे श्रावक बनें।।
देवगुरुशास्त्र तीनों की, भक्ति करूँ।।प्रभु…।।७।।
आज जयमाल गाकर, करूँ प्रार्थना।
एक दिन मैं भी पा, जाऊँ यह भावना।।
छह ही आवश्यकों की, मैं भक्ती करूँ।।प्रभु…।।८।।
यह तो मुनियों की ही, भावना मानी है।
शक्तिसम सबको भी, भावना भानी है।।
आठों द्रव्यों का अर्घ्य, समर्पित करूँ।।प्रभु.।।९।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।