-सोरठा-
जो पीते धर प्रीति, तुम पद भक्ति पियूष को।
पुनर्जन्म को नाश, अजर अमर पद को लहें।।१।।
-चाल शेर-
जैवंत तीर्थवंत मुक्तिकान्त जिनेश्वर।
जैवंत मूर्तिमंत धर्मकांत जिनेश्वर।।
जैवंत लोक अंत के पर्यन्त विराजें।
जैवंत हृदय ध्वांत हरण चन्द्र विभासें।।२।।
हे नाथ ! आज आपसे मैं प्रार्थना करूं।
मुझ जन्म मरण नाशिये यह भावना करूं।।
मैंने अनंत काल क्षुद्रभव में बिताया।
अब क्या कहूँ हे नाथ! मोहबलि ने सताया।।३।।
भू नीर अग्नि वायु साधारण वनस्पति।
ये सूक्ष्म औ बादर तथा प्रत्येक तरू भी।।
इन ग्यारहों में छै सहस बारह हैं भव सही।
ये क्षुद्रभव एकेन्द्रियों के मैं धरे यहीं।।४।।
दो इंद्रि जीव के कहे अस्सी प्रमाण हैं।
ते इंद्रि जीव के कहे भव साठ मान हैं।।
चौइंद्रियों के हैं कहे चालीस प्रमाणे।
पंचेन्द्रियों के क्षुद्रभव चौबीस बखाने।।५।।
छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस भव कहे।
अंतर्मुहूर्त मात्र में ये, जन्म सब लहे।।
इन लब्धि अपर्याप्तकों की योनि जब धरा।
इक श्वांस के अट्ठारवें बस भाग में मरा।।६।।
हे नाथ! मैं सब योनियों में घूम चुका हूँ।
बस बार—बार जन्म से मैं ऊब चुका हूँ।।
त्रैलोक्य में बस एक आप जन्म शून्य हैं।
इस हेतु से मैं आप शरण ली प्रपूर्ण है।।७।।
देवाधिदेव आप सकल दोष दूर हो।
देवाधिदेव आप सकल सौख्य पूर हो।।
निज आतमा को आप ही परमातमा किया।
निज में ही आप मग्न हो निजधाम पा लिया।।८।।
क्रोधादि शत्रुओं को आपने दमन किया।
संपूर्ण कषायों को आपने शमन किया।
इंद्रिय विषय को जीत अतीन्द्रिय सुखी हुये।
प्रत्यक्ष ज्ञान से ही आप केवली हुये।।९।।
संपूर्ण उपद्रव टले हैं आप जाप से।
संपूर्ण मनोरथ फले हैं आप नाम से।।
प्रभु आपको न इष्ट का वियोग हो कभी।
होवे नहीं अनिष्ट का संयोग भी कभी।।१०।।
सबके लिये आराध्य इष्ट आप ही कहे।
सबही अनिष्ट नष्ट हों क्षण मात्र ना रहें।।
संपूर्ण रोग शोक भी तुम भक्त के टलें।
धन धान्य अतुल सौख्य भी होंवे भले भले।।११।।
इस जग में मुक्ति अंगना के नाथ आप ही।
निज की अनंत ऋद्धियों के साथ आप ही।।
चैतन्य चमत्कार परमसौख्य धाम हो।
चििंत्पड हो अखंड हो त्रिभुवन ललाम हो।।१२।।
मैं आपकी शरणागती में आज आ गया।
अपनी अमूल्य ज्ञान कला को भी पा गया।।
ये ज्ञान निधी भवदधी में डूब ना जावे।
करिये कृपा जो मुक्ति तक भी साथ में आवे।।१३।।
हे नाथ ! मोहराज को अब दूर कीजिये।
निज के अखंड गुण समस्त पूर्ण कीजिये।।
मुझ शत्रु जो यमराज उसे चूर्ण कीजिये।
मुझ स्वात्म सुधारस प्रवाह पूर दीजिये।।१४।।
-दोहा-
आत्यंतिक सुख शांतिमय, तीर्थंकर भगवान्।
‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी मुझे, दे कीजे धनवान्।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो सुमतिनाथ विधान भक्ती, से करेंगे भव्यजन।
वे मोह तम को दूर कर, सद्बुद्धि पाते भक्तजन।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर किरण से, लोक में यश पायेंगे।
आर्हन्त्य लक्ष्मी प्राप्त कर, शिवधाम को पा जायेंगे।।१।।
इत्याशीर्वाद: