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09. पश्चिम पुष्करार्धद्वीप संबंधि तीर्थंकर पूजा
September 15, 2024
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jambudweep
पूजा नं.—6
पश्चिम पुष्करार्धद्वीप संबंधि तीर्थंकर पूजा
-अथ स्थापना ( गीता छंद )-
वर अपर पुष्कर द्वीप में, जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें जिनेश्वर विहरते, भविजन धरें मन नेह हैं।।
उन चार तीर्थंकर जिनेश्वर, की करूँ इत थापना।
पूजूँ अतुल भक्ती लिये, पाऊँ अचल पद आपना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाण-
श्रीवीरसेनमहाभद्रदेवयशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाण-
श्रीवीरसेनमहाभद्रदेवयशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाण-
श्रीवीरसेनमहाभद्रदेवयशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्नधीकरणं स्थापनं ।
अथ अष्टक (चाल- नंदीश्वर पूजा )
मुनि मन सम उज्ज्वल नीर,कंचन भृंग भरूँ।
मिट जावे भव भव पीर, जिन पद धार करूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
काश्मीरी गंध सुगंध, चंदन संग किया।
जिन पादांबुज चर्चंत, आतम सौख्य लिया।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
शशि किरणों सम अतिश्वेत, तंदुल पुंज धरूँ।
निज अक्षय पद के हेतु , पूजत हर्ष भरूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
बेला चंपक की माल, चरणों अर्पत हूँ।
मिल जावे निज गुणमाल, तुम पद अर्चत हूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
पेड़ा बरफी पकवान, तुम ढिग भेंट करूँ।
हो क्षुधा वेदनी हान, आतम सौख्य भरूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीपक की ज्योति उद्योत, बाह्य तिमिर नाशे।
तुम आरति से प्रद्योत, ज्ञानमणी भासे।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
वर धूप सुगंधित खेय, कर्म जलाऊँ मैं।
तुम चरण कमल को सेय, निज सुख पाऊँ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अंगूर सेब बादाम, तुम ढिंग अर्पत हूँ।
मिल जावे निज विश्राम, तुम पद अर्चत हूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक वसु अर्घ्य, आप चढ़ाऊँ मैं।
नव निधि सुख होय अनर्घ, आप रिझाऊँ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, पूजूँ मन लाके।
मिल जावे निज साम्राज, समरस सुख पाके।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य:अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
—सोरठा—
नाथ पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा ।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पाञ्जलि अर्पण करूँ।
मिले आत्म सुखलाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
(पंचम वलय में 20 अर्घ्य)
—दोहा—
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, विहरमाण तीर्थेश।
पुष्पाञ्जलि कर पूजते, मिटे सर्व मन क्लेश।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
श्री वीरसेन तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—शंभु छंद—
पश्चिम पुष्कर पूरब विदेह, सीता नदि के उत्तर जानो।
पुरि पुण्डरीकिणी भानुमती, माता भूपाल पिता मानो।।
गर्भावतार से छह महिने, पहले रत्नों की वर्षा की।
श्री वीरसेन का गर्भकल्याणक, पूजत मिटती भव व्याधी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू पर जन्म महोत्सव कर, इंद्रों ने आनंद नृत्य किया।
पितु माता धन्य हुए जग में, जनता में हर्ष अपार हुआ।।
प्रभु जन्मकल्याणक जजते ही, मिल जाती सब सुख संपत्ती।
मैं भी जिनवर पूजा करके, पा जाऊँ निज सुख संपत्ती।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के मन जब वैराग्य हुआ, लौकान्तिक सुरगण आय् थे।
प्रभु की स्तुती प्रशंसा कर, अतिशायी पुण्य कमाये थे।।
प्रभु ने स्वयमेव नम: सिद्धं , उच्चारण कर ली जिनदीक्षा।
मैं भी प्रभु तपकल्याण जजूँ , जिससे मिल जावे तप शिक्षा।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ने उग्रोग्र तपस्या कर, वैâवल्य सूर्य को प्रगट किया।
धनपति ने समवसरण रचकर, निज के जीवन को धन्य किया।।
संख्यातीते देवों ने भी, प्रभु की दिव्यध्वनि श्रवण किये।
मैं केवलज्ञान कल्याण जजूँ , जग जावे ज्ञानज्योति हृदये।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐरावत चिन्ह कहा प्रभु का, प्रभु समवसरण में राज रहे।
आगे संपूर्ण कर्म हन कर, शिव पायेंगे यह शास्त्र कहें।।
श्री वीरसेन भगवान मेरी, रत्नत्रय निधि को पूर्ण करें।
मैं मोक्ष कल्याणक नित पूजूँ , मेरा यम संकट तूर्ण हरें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
वीरसेन तीर्थेश के, जजूँ पंचकल्याण।
नमूँ नमूँ गुण गायके, पाऊँ स्वात्म निधान।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवीरसेनतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री महाभद्र तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—शंभु छंद—
विद्युन्माली पूरब विदेह, सीतानदि के दक्षिण दिश में।
विजया नगरीपति देवराज हैं, जनक उमा माता सच में।।
प्रभु ‘‘महाभद्र’’ गर्भावतार, धनपति ने रत्नवृष्टि की थी।
मैं पूजूँ गर्भकल्याणक नित, पा जाऊँ जिनगुण संपत्ती।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जन्म हुआ सुरपति गृह में, स्वयमेव वाद्य सब बाज उठे।
इंद्रों के मुकुट झुके तत्क्षण, सुरतरु से विविध सुमन बरसे।।
सौधर्म इंद्र ने मेरू पर, प्रभु जन्म कल्याणक न्हवन किया।
प्रभु जन्म कल्याणक जजते ही, संपूर्ण दुखों का शमन किया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ने कचलोंच किया विधिवत् , जैनेश्वरि दीक्षा ग्रहण किया।
उग्रोग्र तपस्या कर करके, भव्यों का मार्ग प्रशस्त किया।।
प्रभु का जो तप कल्याण जजें, निर्विघ्न मोक्षपथ पाते हैं।
हम भी प्रभु तपकल्याणक की, पूजा करके हरषाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु महाभद्र तीर्थंकर को, जब केवलज्ञान प्रकाश मिला।
त्रिभुवन में भी आनंद हुआ, सब जनता का मन कमल खिला।।
प्रभु कमलासन पर अधर रहें, भव्यों को नित संबोध रहें।
मैं पूजूँ ज्ञानकल्याणक नित, प्रकटित हो ज्ञानज्योति हृदये।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि चिन्ह से प्रभु को पहचानो, संप्रति ये समवसरण में हैं।
सिद्धी कन्या को पायेंगे, निश्चित यह आगम वर्णित है।।
इनके निर्वाण कल्याणक की, हम पूजा नितप्रति करते हैं।
भावी सिद्धों का अर्चन कर, संपूर्ण अमंगल हरते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
महाभद्र तीर्थेश प्रभु , जग में करें सुभद्र ।
जो पूजें नित भक्ति से, वे बन जाते भद्र ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहाभद्रतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
श्री देवयशो तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।
पश्चिम पुष्कर अपर विदेहे, सीतोदा के दक्षिण में।
श्रीभूती पितु गंगा देवी, मात सुसीमा नगरी में।।
गर्भ बसे प्रभु स्वप्न दिखाकर, पूजा गर्भकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवयशोतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।
मति श्रुत अवधि ज्ञानयुत, स्वस्तिक चिन्ह सहित प्रभु जन्मे थे।
मेरू पर जन्माभिषेक में, देव देवियाँ हर्षे थे।।
जन्म कल्याणक पूजा करते, मिले राह उत्थान की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवयशोतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
नाम देवयश रखा इंद्र ने, सब जन मन संतुष्ट हुये।
प्रभु को जब वैराग्य हुआ, इंद्रों ने आ संस्तवन किये।।
दीक्षा क्षण जजते मिल जावे, बुद्धि आत्मकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवयशोतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।
घाति चतुष्टय घात किया प्रभु ,केवलज्ञान सूर्य प्रगटा।
समवसरण बन गया अधर में, धनद भक्ति में झूम उठा।।
गंधकुटी में किया सभी ने, पूजा केवलज्ञान की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीदेवयशोतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।
सव अघाती नाश मुक्ति-कन्या परणेंगे तीथंकर।
नाथ देवयश सौ इंद्रों नुत, मुनीवंद्य जगपूज्य प्रवर।।
जो निवाणकल्याणक पूजें, मिले राह निवाण की।
इंद्र सभी मिल भक्ती करते, तीथंकर भगवान की।।
वंदे जिनवरं -४ ।।५।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीदेवयशोतीथंकरमोक्षकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
—पूणाघ्य-दोहा—
प्रभू देवयश इंद्रनुत, पंचकल्याणक ईश।
पूजूँ अघ्य चढ़ाय नित, नमूँ नमाकर शीश।।६।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीदेवयशोतीथंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
श्री अजितवीय तीथंकर पंचकल्याणक अघ्य
वंदन शत शत बार है,
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।
जिनका गभकल्याणक जजते, मिले सौख्य भण्डार है।।
अजितवीय…..।।
विद्युन्माली मेरु पश्चिम, विदेह नदि के उत्तर में।
पुरी अयोध्या पितु सुबोध नृप,प्रसू कनकमाला उर में।।
गभ बसे जगवंद्य नमूँ नित, मिले निजातम सार है।
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।।१।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरगभकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।
जिनका जन्मकल्याणक जजते, मिले सौख्य भण्डार है।।
अजितवीय…..।।
श्री ह्री आदिक देवी नुत, माता से प्रभु का जन्म हुआ।
मेरू पर ले जा वैभवयुत, इंद्रों ने प्रभु न्हवन किया।।
कमल चिन्हयुत जिनवर जजते,हो जाते भव पार हैं।
अजितवीयप्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।।२।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरजन्मकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।
जिनका तपकल्याणक जजते, मिले सौख्य भण्डार है।।
अजितवीय…..।।
अजितवीय प्रभु नाम रखा, इंद्रों ने पूजा भक्ति किया।
जब वैराग्य हुआ प्रभुवर को, लौकान्तिक सुर स्तवन किया।।
स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी, जजत मिले भव पार है।
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।।३।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरदीक्षाकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।
जिनका ज्ञानकल्याणक जजते, मिले सौख्य भण्डार है।।
अजितवीय…..।।
घोर तपश्चया कर प्रभु ने,घातिकम को दग्ध किया।
धनपति ने आकर भक्ती से, समवसरण झट बना दिया।।
अजितवीय श्री केवलि प्रभु का, समवसरण हितकार है।
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।।४।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
वंदन शत शत बार है,
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।
जिनका मोक्षकल्याणक जजते, मिले सौख्य भण्डार है।।
अजितवीय…..।।
सव अघाती कम नाश कर, मोक्षधाम में जायेंगे।
सिद्धिप्रिया शिवराज्य प्राप्त कर, शाश्वत काल बितायेंगे।।
मुनी गणाधिप पूजा करके, पायेंगे सुखसार है।
अजितवीय प्रभु चरण कमल में,वंदन शत शत बार है।।५।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरमोक्षकल्याणकाय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
—पूणाघ्य-दोहा—
ज्ञान नेत्र से लोकते, लोकालोक समस्त।
अजितवीय तीथेश मम, शिवपथ करो प्रशस्त।।६।।
ॐ ह्रीं अहं श्रीअजितवीयतीथंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूणाघ्य-दोहा—
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, शाश्वत चार जिनेश।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, करो सव& दुख शेष।।७।।
ॐ ह्रीं अहं पश्चिमपुष्कराधद्वीपसंबंधिपूवापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनमहाभद्रदेवयशोजितवीयनामचतुस्तीथंकरेभ्य:पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
—पूणाघ्य-शंभु छंद—
जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में, चउ जिनवर विहरण करते हैं।
पूरब धातकि पश्चिम धातकि में, चउ चउ जिनवर राजत हैं।।
पूवापर पुष्कराध में भी, चउ चउ तीथंकर शोभ रहें।
इन बीस तीथंकर को यजते, हम परम अतीन्द्रिय सौख्य लहें।।८।।
ॐ ह्रीं अहं जम्बूद्वीपविदेहक्षेत्र- पूवधातकीखण्डद्वीप- पश्चिमधातकीखण्ड-
द्वीपसंबंधिविदेहक्षेत्र- पूवपुष्कराधद्वीप-पश्चिमपुष्कराधद्वीपसंबंधिविदेह-
क्षेत्रस्थितविद्यमान-श्रीसीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजातक-स्वयंप्रभ-
ऋषभानन-अनंतवीय-सूरिप्रभ-विशालकीति-वङ्काधर-चंद्रानन-चंद्रबाहु-
भुजंगम -ईश्वरनाथ-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीयनाम-
विंशतितीथंकरेभ्य: पूणाघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
जाप्य मंत्र-
ॐ ह्रीं अहं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीथंकरेभ्यो नम:।
जयमाला
—स्रग्विणी—
नाथ! त्रैलोक्य के पूण चंदा तुम्हें।
मैं नमूँ नमूँ हे जिनंदा तुम्हें।।
पूरिये नाथ! मेरी यही कामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१।।
सोलहों भावना भाय जिनपाद में।
तीथ&कर हो गये आप ही आप में।।
मात के गभ में आप जब आ गये।
इंद्र उत्सव किये मात घर आ गये।।२।।
जन्मते आपके इंद्र आसन कंपे।
शंख ध्वनि वाद्य घंटा स्वयं बज उठे।।
इंद्र के मौलि शेखर स्वयं झुक गये।
कल्पतरु भी स्वयं पुष्प बरसा रहे।।३।।
जै जया जै जया जै जया ध्वनि उठी।
इंद्र आदेश पा इंद्र सेना सजी।।
इंद्र ऐरावतारूढ़ हो चल पड़े।
इंद्र इंद्राणियाँ देवगण चल पड़े।।४।।
मेरु गिरि पर न्हवन आपका हो रहा।
जन्म कल्याण उत्सव अनोखा कहा।।
इंद्र हज्जार भुज कर न्हवन कर रहा।
नेत्र हज्जार कर रूप निरखे अहा।।५।।
तीथ&कर देव माहात्म्य त्रैलोक्य म्।
ना हुआ अन्य का भी कभी लोक में।।
तीर्थकर पुण्य माहात्म्य मुनि गावते।
देव गणधर कहें पार ना पावते।।६।।
धन्य मैं धन्य मैं आज गुण गा रहा।
धन्य है यह घड़ी नाथ पूजूँ अहा।।
प्रार्थना नाथ! मेरी ये सुन लीजिये।
‘‘ज्ञानमति’’पूर्ण हो युक्ति ये दीजिये।।७।।
—घत्ता—
जय जय जिनराजा, शिवतिय राजा,भविहित काजा,तुमहिं नमूँ।
जय जय निज संपति, दीजे मुझ प्रति,अविचल गति हित, नित प्रणमूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीवीर-
सेनमहाभद्रदेवयशोऽजितवीर्यनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोगकर फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ ज्ञानमति ’’ हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
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