सोरठा
समवसरण प्रभु आप, त्रिभुवन की लक्ष्मी धरे।
पूजूँ तुम चरणाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्
चाल-पूजों पूजों श्री……….
‘वृहद्वृहस्पति’ प्रभु नाम है। सुरपति के गुरू सरनाम हैं।
पूजते ही मिले मोक्ष धाम है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। विमलनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पतये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाग्मी’ तुम्हीं त्रिभुवन में। शुभवचन द्वादशों गण में।
पूजते पाप नश जाय क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२।।
ॐ ह्रीं वाग्मिने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाचस्पती’ आप जग में। वचनों के स्वामि सहज में।
नाम लेते मिले शांति मन में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।३।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाम ‘उदारधी’ है। ज्ञानदान का मूल वही है।
प्जते आप सुख की मही हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।४।।
ॐ ह्रीं उदारधिये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘मनीषी’ कहाये। केवलज्ञान सदबुद्धि पाये।
शत इंद्र सदा गुण गायें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। विमलनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।५।।
ॐ ह्रीं मनीषिणे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपको ही ‘धिषण’ साधु कहते। सर्वज्ञानैक बुद्धी धरते।
भक्त पूजत स्वपर ज्ञान लहते। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।६।।
ॐ ह्रीं धिषणाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘धीमान्’ त्रैलोक्य में हैं। ज्ञान पंचम धरें श्रेष्ठ ही हैं।
भक्त भी स्वात्म ज्ञानी बने हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।७।।
ॐ ह्रीं धीमते श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शेमुषीश’ आप ही हैं। सर्व ही ज्ञान के नाथ ही हैं।
दीजिये अब मुझे सुमती है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।८।।
ॐ ह्रीं शेमुषीशाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘गिरांपति’ जग में। सर्वभाषामयी ध्वनि भवि में।
हो सत्य महाव्रत मुझमें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।९।।
ॐ ह्रीं गिरांपतये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नैकरूप’ मुनिगण में। विष्णु ब्रह्म महेश्वर सच में।
भक्त नाशें करम रिपु क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१०।।
ॐ ह्रीं नैकरूपाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘नयोत्तुंग’ मानें। सब नयों से श्रेष्ठ बखानें।
मन अनेकांत सरधाने। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।११।।
ॐ ह्रीं नयोत्तुंगाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकात्मा’ तुम्हीं त्रिभुवन में। गुण बहुते धरें प्रभु निज में।
गुणपूर्ण भरूँ मैं निज में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१२।।
ॐ ह्रीं नैकात्मने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नैकधर्मकृत्’ तुम हो। बहुधर्म वस्तु के कह हो।
निज धर्म अनंत मुझे हों। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१३।।
ॐ ह्रीं नैकधर्मकृते श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अविज्ञेय’ ही हो। जन जानन योग्य नहीं हो।
मुझे आत्म स्वभाव प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१४।।
ॐ ह्रीं अविज्ञेयाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अप्रतर्क्यात्मा’। न तर्कादि गोचर महात्मा।
मुझे कीजे तुरत अंतरात्मा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१५।।
ॐ ह्रीं अप्रतर्क्यात्मने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘कृतज्ञ’ कहे हो। सभी कृत्य तुम्हीं जानते हो।
नाथ! मुझमें यही गुण प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१६।।
ॐ ह्रीं कृतज्ञाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतलक्षण’ आप भुवन में। वस्तु लक्षण कहते हो ध्वनि में।
मैं धारूँ सुलक्षण हृदय में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१७।।
ॐ ह्रीं कृतलक्षणाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘ज्ञानगर्भ’ तुम ही हो। सब ज्ञेय सुज्ञान मही हो।
मेरा भी ज्ञान सही हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। विमलनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।१८।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयागर्भ’ त्रिभुवन में। तुम दयासिंधु भविजन में।
मैं धरूँ दया निजपर में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।१९।।
ॐ ह्रीं दयागर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘रत्नगर्भ’ मुनिनाथा। रत्न वर्षे पंचदश मासा।
मैं नमूँ नमाकर माथा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२०।।
ॐ ह्रीं रत्नगर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभास्वर’ ही हो। त्रैलोक्य प्रकाशि रवी हो।
मुझ हृदय ज्ञान ज्योती हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२१।।
ॐ ह्रीं प्रभास्वराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मगर्भ’ तुम सच में। रहे कमलाकार गरभ में।
लहूँ गर्भ प्रभो! तुम सम मैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मगर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगद्गर्भ’ तुम भासें। तुम ज्ञान में जग प्रतिभासे।
हो ज्ञान मेरा तम नाशे। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२३।।
ॐ ह्रीं जगद्गर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘हेमगर्भ’ तुम ही हो। गर्भ बसत स्वर्णमय भू हो।
मुझ रोग शोक हर तुम हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२४।।
ॐ ह्रीं हेमगर्भाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुदर्शन’ मानें। तुम दर्शन सुखकर जानें।
पूजत सब संकट हानें। विमलनाथ अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें।।२५।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रहरनकलिका छंद
प्रभु तुम ‘लक्ष्मीवान्’ भुवि गुरू हो।
अन्तर बहि संपद धर जिन हो।।
तुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद विनाश, अतुलनिधि हो।।२६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीवते श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘त्रिदशअध्यक्ष’ सुर गणपति हो।
त्रिभुवन धन भाने अतुल रवि हो।।तुम.।।२७।।
ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतुल ‘द्रढ़ीयन्’ इस जग में।
निंह तुम सम हो दृढ़ मुनि जग में।।तुम.।।२८।।
ॐ ह्रीं द्रढ़ीयसे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन ईश तुमहि ‘इन’ हो।
मुझ सब अघ नाशत सुखप्रद हो।।तुम.।।२९।।
ॐ ह्रीं इनाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समरथयुत ‘ईशित’ तुमहि कहे।
मुझ अहित निवारण तुम पद हैं।।तुम.।।३०।।
ॐ ह्रीं ईशित्रे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मनोहर’ त्रिभुवन में।
हरि हर परब्रह्म न तुम सम हैं।।
तुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद विनाश, अतुलनिधि हो।।३१।।
ॐ ह्रीं मनोहराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु सुभग ‘मनोज्ञांग’ अतिशय ही।
भवि जपत तुम्हें दुख विनशत ही।।तुम.।।३२।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञांगाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय धृति ‘धीर’ भविक गण में।
तुम जपत हि पीर टरत क्षण में।।तुम.।।३३।।
ॐ ह्रीं धीराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ‘गम्भीर शासन’ जग में।
शिवपद कर धर्म शरण जग में।।तुम.।।३४।।
ॐ ह्रीं गम्भीरशासनाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभय ‘धरमयूप’ शुभ धरम हो।
सुर सुखप्रद नाथ! मुकति गृह हो।।तुम.।।३५।।
ॐ ह्रीं धर्मयूपाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहिं ‘दयायाग’ सुखप्रद हो।
सब अशुभ हरो सुअभयप्रद हो।।तुम.।।३६।।
ॐ ह्रीं दयायागाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘धरमनेमि’ जिनवर हो।
इस जग मधि आप, धरम धुरि हो।।तुम.।।३७।।
ॐ ह्रीं धर्मनेमये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मुनिश्वर’ मुनिपति हो।
सब गुण मणि भूषित सुखनिधि हो।।तुम.।।३८।।
ॐ ह्रीं मुनीश्वराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धरमचक्रायुध’ यम अरि हो।
तुम दरसन से मुझ अघ क्षय हो।।तुम.।।३९।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रायुधाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजगुणरत ‘देव’ सुरगप्रद हो।
मुझ गुणमणि देव परमगति हो।।तुम.।।४०।।
ॐ ह्रीं देवाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘करमहा’ अघरिपु हन हो।
समरस सुखदा शिवतियपति हो।।तुम.।।४१।।
ॐ ह्रीं कर्मघ्ने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘धरमघोषण’ शिव भरता।
अतिशय शिव के गुणमणि करता।।तुम.।।४२।।
ॐ ह्रीं धर्मघोषणाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘अमोघवच’ जगत में।
तुम विरथ न वाक्य कबहुँ सच में।।तुम.।।४३।।
ॐ ह्रीं अमोघवाचे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन मधि ‘अमोघाज्ञ’ तुमहि हो।
निष्फल निंह आज्ञा सुर शिर धर्यो।।तुम.।।४४।।
ॐ ह्रीं अमोघाज्ञाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जिनवर ‘निर्मल’ शुचिकर हो।
मल विरहित कर्म रहित शिव हो।।तुम.।।४५।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सु ‘अमोघशासन’ तुम हो।
निंह निष्फल शासन कबहुंक हो।।तुम.।।४६।।
ॐ ह्रीं अमोघशासनाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘सुरूप’ असुर सुर में।
निंह तुम सम रूप दिखत जग में।।तुम.।।४७।।
ॐ ह्रीं सुरूपाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ‘सुभग’ महाप्रभु अतिशय हो।
बहुविध शुभ ऐश्वर गुण युत हो।।
तुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद विनाश, अतुलनिधि हो।।४८।।
ॐ ह्रीं सुभगाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुछ पर त्याग वनन विचरें।
जिनवर तुम ‘त्यागि’ सुरन उचरें।।तुम.।।४९।।
ॐ ह्रीं त्यागिने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर समय जानकर शिव भये।
अनुपम प्रभु ‘ज्ञातृ’ शिवप्रद भये।।तुम.।।५०।।
ॐ ह्रीं ज्ञात्रे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रध्वजा
स्वामी ‘समाहित’ सुसमाधि ध्यानी।
प्राणी समाधान लहें तुम्हीं से।
पूजूँ विमलनाथ सुमंत्र वंदूँ।
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।५१।।
ॐ ह्रीं समाहिताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुस्थित’ सुख से निवासा।
मुक्तीरमा आप स्वयं वरे हैं।।पूजूँ.।।५२।।
ॐ ह्रीं सुस्थिताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरोग्य आत्मा प्रभु ‘स्वास्थ्यभाक्’ हो।
संसार व्याधी निंह पूर्णस्वस्था।।पूजूँ.।।५३।।
ॐ ह्रीं स्वास्थ्यभाजे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘स्वस्थ’ स्वामी भवरोग नाहीं।
आत्मस्थ हो सर्वविकार शून्या।।पूजूँ.।।५४।।
ॐ ह्रीं स्वस्थाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नीरजस्को’ निंह कर्मधूली।
मेरे प्रभो! कर्म समूल नाशो।।पूजूँ.।।५५।।
ॐ ह्रीं नीरजस्काय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निरुद्धव’ जग में कहाते।
संपूर्ण ही उत्सव इंद्र कीने।।पूजूँ.।।५६।।
ॐ ह्रीं निरुद्धवाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम्हीं कर्म ‘अलेप’ मानें।
मेरे सभी लेप हटाय दीजे।।पूजूँ.।।५७।।
ॐ ह्रीं अलेपाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘निष्कलंकात्मन्’ इन्द्र पूजें।
मैं भी सदा शीश नमाय वंदूँ।।पूजूँ.।।५८।।
ॐ ह्रीं निष्कलंव्त्मने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वीतरागी’ गतराग द्वेषा।
रागादि मेरे मन से हटा दो।।पूजूँ.।।५९।।
ॐ ह्रीं वीतरागाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘गतस्पृह’ तुम ही यहाँ पे।
इच्छा निवारी जग के गुरू हो।।पूजूँ.।।६०।।
ॐ ह्रीं गतस्पृहाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सु ‘वश्येन्द्रिय’ आप ही हैं।
पाँचों ही इन्द्री वश में किया था।।पूजूँ.।।६१।।
ॐ ह्रीं वश्येंद्रियाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानें ‘विमुक्तात्मन्’ आप ही हो।
कर्मारि बन्धन तुम काट डाले।।पूजूँ.।।६२।।
ॐ ह्रीं विमुक्तात्मने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नि:सपत्ना’ निंह शत्रु कोई।
सम्पूर्ण प्राणी तुम मित्र मानें।।पूजूँ.।।६३।।
ॐ ह्रीं नि:सपत्नाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीता स्व इन्द्रीय ‘जितेन्द्रिय’ हो।
जीतूं स्व इन्द्री प्रभु शक्ति देवो।।
पूजूँ विमलनाथ सुमंत्र वंदूँ।
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।६४।।
ॐ ह्रीं जितेंद्रियाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण शांतीश ‘प्रशांत’ माने।
वंदूँ तुम्हें शान्ति मिले मुझे भी।।पूजूँ.।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आनन्तधामर्षि’ ऋषि गणों में।
तेजस्विता आप अनन्त धारो।।पूजूँ.।।६६।।
ॐ ह्रीं अनन्तधामर्षये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी यहाँ ‘मंगल’ आप ही हैं।
नाशो अमंगल भवि प्राणियों के।।पूजूँ.।।६७।।
ॐ ह्रीं मंगलाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पापारि नाशा ‘मलहा’ कहाये।
सम्पूर्ण धोये मल कर्म जैसे।।पूजूँ.।।६८।।
ॐ ह्रीं मलघ्ने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अनघ’ पाप निमूल नाशा।
कीजे सभी पाप विनाश मेरा।।पूजूँ.।।६९।।
ॐ ह्रीं अनघाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हुये ‘अनीदृक्’ निंह आप जैसा।
इन्द्रादि वन्दे रुचि से तुम्हें ही।।पूजूँ.।।७०।।
ॐ ह्रीं अनीदृशे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘उपमाभुत’ इन्द्र भी तो।
दें आपकी तो उपमा तुम्हीं से।।पूजूँ.।।७१।।
ॐ ह्रीं उपमाभूताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो भव्य भाग्योदय हेतु स्वामी।
‘दिष्टी’ कहाते जग में इसी से।।पूजूँ.।।७२।।
ॐ ह्रीं दिष्टये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दैव’ प्राणी शुभ भाग्य होते।
वंदूँ तुम्हें दैव समस्त नाशूँ।।पूजूँ.।।७३।।
ॐ ह्रीं दैवाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैवल्यज्ञानी नभ में विहारी।
होते ‘अगोचर’ निंह सर्व जानें।।पूजूँ.।।७४।।
ॐ ह्रीं अगोचराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूपादि से शून्य ‘अमूर्त’ स्वामी।
आत्मा अमूर्तीक मिले मुझे भी।।पूजूँ.।।७५।।
ॐ ह्रीं अमूर्ताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखमा-छंद
‘मूर्तीमन्’ की पूजा करिये।
नाहीं मन में शंका धरिये।।
विमलनाथ को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।७६।।
ॐ ह्रीं मूर्तिमते श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एक’ तुम्हें ही साधू कहते।
दूजा निंह कोई भी तुमसे।।विमल.।।७७।।
ॐ ह्रीं एकाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानागुण की पूर्ती तुम में।
स्वामी तुम ही ‘नैक’ जगत में।।विमल.।।७८।।
ॐ ह्रीं नैकाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नानैकतत्त्वदृक्’ तुम ही।
आत्मा तज ना देखे कुछ ही।।विमल.।।७९।।
ॐ ह्रीं नानैकतत्त्वदृशे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अध्यातमगम्या’ हो प्रभु जी।
आत्म ग्रंथ से जाने मुनि जी।।
विमलनाथ को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।८०।।
ॐ ह्रीं अध्यात्मगम्याय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माने ‘अगम्यात्मा’ तुम हो।
मिथ्यादृश ना जाने तुम को।।विमल.।।८१।।
ॐ ह्रीं अगम्यात्मने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘योगविद्’ की जो शरणे।
मुक्तीतिय को निश्चित परणे।।विमल.।।८२।।
ॐ ह्रीं योगविदे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘योगिवंदित’ हो जग में।
योगी जन ध्याते भी मन में।।विमल.।।८३।।
ॐ ह्रीं योगिवंदिताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वत्रग’ व्यापा त्रै जग को।
सो ही ज्ञान अपेक्षा समझो।।विमल.।।८४।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रगाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सदाभावी’ हो जग में।
तिष्ठो नित ना नाश स्वप्न में।।विमल.।।८५।।
ॐ ह्रीं सदाभाविने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘त्रिकालविषयार्थ’ सुदृक् ही।
त्रैकालिक जाना सब कुछ ही।।विमल.।।८६।।
ॐ ह्रीं त्रिकालविषयार्थदृशे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंकर’ भी भव्यन सुख दो।
नाशो मुझ दोषादी दुख को।।विमल.।।८७।।
ॐ ह्रीं शंकराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंवद’ शं सौख्यं कर ही।
तीनों जग में वंदे मुनि भी।।विमल.।।८८।।
ॐ ह्रीं शंवदाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! चित्त अश्व को जीता।
‘दांत’ कहाये धर्म समेता।।विमल.।।८९।।
ॐ ह्रीं दांताय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! दमी इंद्रियाँ दमते।
पूरी मन की इच्छा करते।।विमल.।।९०।।
ॐ ह्रा दमिने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्तिपरायण’ मानें तुमही।
ध्याते तुम को मृत्यु नशे ही।।विमल.।।९१।।
ॐ ह्रीं क्षान्तिपरायणाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अधिप’ बखाने जग में।
इंद्रादिक पूजें आनन्द में।।विमल.।।९२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘परमानंद’ तृप्त हो।
आत्मा मुझ आनंद मगन हो।।विमल.।।९३।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो नाथ! ‘परात्मज्ञ’ अतुल ही।
जाना पर को आत्मा निज भी।।विमल.।।९४।।
ॐ ह्रीं परात्मज्ञाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो आप ‘परात्पर’ भी जग में।
श्रेष्ठो मधि श्रेष्ठाधिप सब में।।विमल.।।९५।।
ॐ ह्रीं परात्पराय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगद्वल्लभ’ तुम हो।
तीनों जग के मनभावन हो।।विमल.।।९६।।
ॐ ह्रीं त्रिजगद्वल्लभाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम ‘अभ्यर्च्य’ सुरन से।
सौ इंद्रन से साधू गण से।।
विमलनाथ को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।९७।।
ॐ ह्रीं अभ्यर्च्याय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगन्मंगलोदय’ हो।
तीनों जग में मंगल कर हो।।विमल.।।९८।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्मंगलोदयाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्री’ तुम हो।
सौ इंद्रन से पूज्य चरण हो।।।विमल.।।९९।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्पतिपूज्यांघ्रये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रीलोकाग्रशिखामणि’ जिन हो।
लोक शिखर से चूड़ामणि हो।।विमल.।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकाग्रशिखामण्ये श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाराच-छंद
‘अनत्ययो’ न नाश हो अनंत काल आपका।
मुझे सुखी सदा करो न अंत हो सुज्ञान का।।
मुनीन्द्र नाम विमलनाथ ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।१०१।।
ॐ ह्रीं अनत्ययाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनाशवान्’ भोजनादि से विहीन आप हैं।
महान तप किया प्रभो समस्त वीश्वास्य हैं।।मुनीन्द्र.।।१०२।।
ॐ ह्रीं अनाश्वते श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अधीक’ उत्कृष्ट आत्मा तुम्हीं कहे।
सुपाय वास्तवीक सौख्य को ‘अधिक’ तुम्हीं रहे।।मुनीन्द्र.।।१०३।।
ॐ ह्रीं अधिकाय श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक के गुरू ‘अधीगुरू’ तुम्हीं महान हो।
नमाय माथ को सदा सुआप को प्रणाम हो।।मुनीन्द्र.।।१०४।।
ॐ ह्रीं अधिगुरुवे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगी’ सुवाणि आपकी अतीव शोभना कही।
अनंत दु:ख से निकाल मोक्ष में धरे वही।।मुनीन्द्र.।।१०५।।
ॐ ह्रीं सुगिरे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुमेधसा’ महान् बुद्धि से सुकेवली भये।
प्रभो! अपूर्व ज्ञान दो अनंत गुण मिले भये।।मुनीन्द्र.।।१०६।।
ॐ ह्रीं सुमेधसे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराक्रमी समस्त कर्म नाश हेतु शूर हो।
अतेव ‘विक्रमी’ कहावते अपूर्व सूर्य हो।।मुनीन्द्र.।।१०७।।
ॐ ह्रीं विक्रमिणे श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक ‘स्वामि’ हो समस्त भव्य जीव पालते।
अनंत धाम में धरो भवाब्धि से निकालते।।मुनीन्द्र.।१०८।।
ॐ ह्रीं स्वामिने श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
वृहद्वृहस्पति आदि एक सौ आठ मंत्र को नित मैं पूजूँ।
सर्व अमंगल दोष नशाकर, आधि व्याधि संकट से छूटूँ।।
भूत प्रेत डाकिनि शाकिनि भी, तुम भक्तों से दूर भगे हैं।
नित नव मंगल संपति संतति यश भाग्योदय श्रेष्ठ जगे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पत्यादि—अष्टोत्तरशतनाममंत्रसमन्विताय श्रीविमलनाथ—
तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय नम:। ;
(हरे पुष्प, लौंग, या पीले चावल से १०८ बार जाप्य मंत्र करें)