-दोहा-
पूरब भव में आपने, सोलहकारण भाय।
तीर्थंकर पद पाय के, तीर्थ चलाया आय।।१।।
-रोला छंद-
दर्श विशुद्धि प्रधान, नित्यप्रती प्रभु ध्या के।
अष्ट अंग से शुद्ध, दोष पच्चीस हटा के।।
मन वच काय समेत, विनय भावना भायी।
मुक्ति महल का द्वार, भविजन को सुखदायी।।२।।
व्रतशीलों में आप, नहिं अतिचार लगाया।
संतत ज्ञानाभ्यास, करके कर्म खपाया।।
भवतन भोग विरक्त, मन संवेग बढ़ाया।
शक्ती के अनुसार, चउविध दान रचाया।।३।।
बारहविध तप धार, आतम शक्ति बढ़ाई।
धर्मशुक्ल से सिद्ध, साधु समाधि कराई।।
दशविध मुनि की नित्य, वैयावृत्य किया था।
सर्व शक्ति से पूर्ण, बहु उपकार किया था।।४।।
श्री अर्हंत जिनेन्द्र, भक्ति हृदय में धर के।
सूरि परम परमेश, गुण संस्तवन उचर के।।
उपाध्याय गुरु देव, शिवपथ के उपदेष्टा।
प्रवचन भक्ति समेत, गुणगण भजा हमेशा।।५।।
षट् आवश्यक नित्य, करके दोष नशाया।
हानि रहित परिपूर्ण, निज कर्तव्य निभाया।।
मार्ग प्रभावन पाय, धर्म महत्त्व बढ़ाया।
प्रवचन में वात्सल्य, कर निज गुण प्रगटाया।।६।।
सोलहकारण भाय, पंचकल्याणक पाया।
दिव्यध्वनी से नित्य, धर्म सुतीर्थ चलाया।।
भव्य अनंतानंत, जग से पार किया है।
सौ इन्द्रोें से वंद्य, निज सुख सार लिया है।।७।।
मंदर आदि गणीश, पचपन समवसरण में।
अड़सठ सहस मुनीश, गुणमणियुत तुम प्रणमें।।
गणिनी पद्मा आदि, तीन सहस इक लक्षा।
श्रमणी महाव्रतादि, गुणमणि भूषित दक्षा।।८।।
श्रावक थे दो लाख, धर्मध्यान में तत्पर।
कही श्राविका चार, लाख भक्ति में तत्पर।।
साठ धनुष तनु तुंग, साठ लाख वर्षायू।
घृष्टी चिन्ह सुवर्ण, वर्ण देह गुण गाऊँ।।९।।
चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय ज्योति जलाऊँ।
पूर्ण ज्ञानमति रूप, परम ज्योति प्रगटाऊँ।।
तुम प्रसाद जिन विमल! पूरी हो मम आशा।
इसीलिए पदकमल, नमूँ नमूँ धर आशा।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेरछंद-
जो भव्य विमलनाथ का विधान करेंगे।
वे भावकर्म द्रव्यकर्म हान करेंगे।।
फिर स्वात्मसौख्य पाय अमल धाम बसेंगे।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ रवि प्रकाश करेंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।