-अथ स्थापना-अडिल्ल छंद-
भवनवासि देवों के गृह में जानिये।
सात करोड़ बहत्तर लाख प्रमाणिये।।
ये शाश्वत जिनभवन बने हैं मणिमयी।
आह्वानन कर पूजूँ पाऊँ शिवमही।।१।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चामर छंद-
क्षीरसिंधु के समान स्वच्छ नीर लाइये।
श्रीजिनेन्द्रपाद में चढ़ाय ताप नाशिये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदनादि गंध लेय पात्र में भराइये।
श्री जिनेन्द्रपाद में समर्च सौख्य पाइये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरफेन के समान श्वेत शालि लाइये।
श्री जिनेन्द्रपाद अग्र पुंज को रचाइये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मोगरा गुलाब पुष्प केतकी मंगाइये।
श्रीजिनेन्द्रपाद में चढ़ाय सौख्य पाइये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपूप सेमई सुवर्ण पात्र में लिये।
श्रीजिनेन्द्र को चढ़ाऊँ पूर्ण तृप्ति के लिए।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीप में कपूर को जलाय लीजिये।
श्रीजिनेन्द्र के समक्ष आरती उतारिये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध से सुगंध धूप अग्नि संग खेइये।
कर्म को जलाय के अपूर्व सौख्य लेइये।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम संतरा बदाम द्राक्ष थाल में भरें।
श्रीजिनेन्द्र को चढ़ाय आत्मसौख्य को भरें।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध शालि पुष्प आदि अष्ट द्रव्य ले।
अर्घ्य को चढ़ाय के अपूर्व सौख्य हो भले।।
भवनवासि देव के जिनेन्द्र सद्म को जजूँ।
अनंत रिद्धि सिद्धिप्रद जिनेन्द्रबिम्ब को भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
हेम भृंग में स्वच्छ जल, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में हो शांतिसुख, परमानंद भरंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली मोगरा, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले आत्म सुखसार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
जिनवर निलय अनूप, सौ इन्द्रों से वंद्य हैं।
जजत मिले निजरूप, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।
इति मण्डलस्योपरि मेरुपर्वतस्याध:स्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-नरेन्द्र छंद-
भवनवासि के दश भेदों में, असुर कुमार प्रथम हैं।
इनमें प्रमुख इन्द्र दो मानें, चमर व वैरोचन हैं।।
चौंतिस लाख भवन में उतने जिनगृह चमर इन्द्र के।
जिनगृह जिनप्रतिमा को पूजूँ अर्घ समर्पण करके।।१।।
ॐ ह्रीं असुरकुमारदेवेषु चमरेन्द्रस्य चतुस्त्रिंशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
असुर जाति में वैरोचन के तीन लाख भवनों में।
तीस लाख ही जिनमंदिर हैं मणिमय प्रतिमा उनमें।।
अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ सर्व अरिष्ट नशाऊँ।
निजआतम अनुभव रस पीकर मुक्तिवल्लभा पाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं असुरकुमारदेवेषु द्वितीयवैरोचनेन्द्रस्य त्रिंशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नागकुमार भवनवासी में दोय इंद्र माने हैं।
भूतानंद और धरणानंद विभव अधिक ठाने हैं।।
प्रथम इंद्र के लाख चवालिस भवन कहे शाश्वत हैं।
प्रतिगृह में जिनमंदिर प्रतिमा जजत स्वात्म भासत है।।३।।
ॐ ह्रीं नागकुमारदेवेषु भूतानंदेन्द्रस्य चतु:चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धरणानंद इंद्र के चालिस लाख भवन सुंदर हैं।
प्रतिभवनों में जिनमंदिर हैं शाश्वत क्षेमंकर हैं।।
सबमें इक सौ आठ सु इक सौ आठ जिनेश्वर प्रतिमा।
अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ पाऊँ निधी अनुपमा।।४।।
ॐ ह्रीं नागकुमारदेवेषु धरणानंदेन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव सुपर्णकुमार भवनवासी में सुरपति दो हैं।
वेणु वेणुधारी नामक ये अनुशासन करते है।।
वेणु इंद्र के भवन अकृत्रिम अड़तिस लाख बखाने।
उतने जिनगृह को मैं पूजूँ कर्म कुलाचल हाने।।५।।
ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारदेवेषु वेणुइन्द्रस्य अष्टत्रिंशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्र वेणुधारी के चौंतिस लाख भवन सुंदर हैं।
चौंतिस लाख जिनालय उनमें जिनप्रतिमा मनहर हैं।।
मैं नित पूजूँ अर्घ चढ़ाकर सर्व दु:खों से छूटूँ।
परमानंद सुधारस पीकर जन्म मरण से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारदेवेषु वेणुधारिइन्द्रस्य चतुिंस्त्रशल्लक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वीपकुमार भवनवासी में दोय इन्द्र माने हैं।
पूर्ण वशिष्ठ नाम उनके हैं विभव अधिक ठाने हैं।।
पूर्ण इन्द्र के चालिस लाख भवन उतने जिनमंदिर।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर नितप्रति वंदे उन्हें पुरंदर।।७।।
ॐ ह्रीं द्वीपकुमारदेवेषु पूर्णेन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छत्तिस लाख वशिष्ठ इंद्र के भवन बने अतिसुंदर।
एक एक जिनमंदिर उनमें, अर्चा करें पुरंदर।।
इनकी पूजा भक्ती करते, भव भव पातक नशते।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ मैं भी, ज्ञानदिवाकर प्रगटे।।८।।
ॐ ह्रीं द्वीपकुमारदेवेषु वशिष्टेन्द्रस्य षट्त्रिंशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उदधिकुमार भवनसुर में जलप्रभ जलकांत प्रमुख हैं।
चालिस लाख भवन जलप्रभ के, उतने ही जिनगृह हैं।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर रुचि से, ज्ञानज्योति प्रकटाऊँ।
रोग शोक दु:ख द्वंद नशाकर आत्मसुधारस पाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं उदधिकुमारेषु जलप्रभइन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहे भवन जलकांत इंद्र के छत्तिस लाख अकृत्रिम।
उन सबमें जिनमंदिर जिनवर प्रतिमा कहीं अकृत्रिम।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर नितप्रति कर्मकलंक नशाऊँ।
सप्तपरमस्थान प्राप्तकर परमधाम निज पाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं उदधिकुमारेषु जलकान्तइन्द्रस्य षट्त्रशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरविद्युत्कुमार के दो हैं इन्द्र अतुल वैभवयुत।
घोष और महघोष नाम हैं जिनवर भक्तीसंयुत।।
चालिस लाख भवन माने हैं घोष इंद्र से सुंदर।
इतने ही जिनमंदिर इनमें पूजूँ सदा रूचीधर।।११।।
ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेषु घोषइन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छत्तिस लाख भवन शाश्वत हैं महाघोष सुरपति के।
उतने ही जिनमंदिर शाश्वत बने स्वर्णमणियों के।।
उनमें जिनप्रतिमाएँ सुंदर मोक्ष सौख्य देती हैं।
इनके पूजन करते ही ये भवदुख हर लेती हैं।।१२।।
ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेषु महाघोषइन्द्रस्य षट्त्रशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर स्तनित कुमारों में दो इन्द्र प्रमुख हैं माने।
हरिषेण हरिकांत नाम हैं जिनवर भक्त बखाने।।
हरिषेण के चालीस लाख भवन जिनगृह भी इतने।
इनको पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर फलें मनोरथ अपने।।१३।।
ॐ ह्रीं स्तनितकुमारदेवेषु हरिषेणइन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरिकांत के छत्तिस लाख भवन हैं शाश्वत सुंदर।
छत्तिस लाख जिनालय मणिमय प्रतिमाओं से मनहर।।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ रुचि से भव भव भ्रमण मिटाऊँ।
आत्मज्योति को प्रकटित करके फेर न भव में आऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं स्तनितकुमारदेवेषु हरिकांतेन्द्रस्य षट्त्रशल्लक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिक्कुमार देवों में अधिपति दो हैं सुकृतशीला।
अमितगति अरु अमितवाहना भवनों के प्रतिपाला।।
अमितगति के चालिस लाख भवन सबमें जिनमंदिर।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर नितप्रति ये हैं भव्य हितंकर।।१५।।
ॐ ह्रीं दिक्कुमारदेवेषु अमितगतिइन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र अमितवाहन के छत्तिस लाख भवन शाश्वत हैं।
सबमें जिनमंदिर सुअकृत्रिम स्वर्णमयी राजत हैं।।
जिनमंदिर की जिनप्रतिमा को वंदन करूँ सतत मैं।
कर्मकालिमा दूर हटाकर पाऊँ शांति हृदय में।।१६।।
ॐ ह्रीं दिक्कुमारदेवेषु अमितवाहनेन्द्रस्य षट्त्रशल्लक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निकुमार सुरों में अग्निशिखी व अग्निवाहन हैं।
अग्निशिखी के चालीस लाख भवन जन मनभावन हैं।।
सबमें जिनमंदिर अतिशायी जिनबिम्बों को धारें।
उनकी पूजा भक्ती करके हम निजगुण विस्तारें।।१७।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेवेषु अग्निशिखिइन्द्रस्य चत्वािंरशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्र अग्निवाहन के छत्तिस लाख भवन शाश्वत हैं।
इन सबमें जिनमंदिर जिनवरप्रतिमा रवि लाजत हैं।।
इन सबको मैं नितप्रति पूजूँ मोहतिमिर को नाशूँ।
निजआतम अनुभव रस पीकर सम्यक् ज्योति प्रकाशूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेवेषु अग्निवाहनेन्द्रस्य षट्त्रशल्लक्षजिनालयजिन-बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायुकुमारसुरों में अधिपति दो हैं जिनवर भाक्तिक।
वो बेलंब प्रभंजन नामा सुखद पवन विस्तारक।।
भवन पचास लाख के अधिपति सुर बेलंब कहाये।
उतने ही जिनमंदिर सबको झुक झुक शीश नवायें।।१९।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारदेवेषु बेलंबइन्द्रस्य पंचाशल्लक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्र प्रभंजन के हैं छ्यालिस लाख भवन मनहारी।
उतने ही जिनमंदिर उनसे जिनप्रतिमा सुखकारी।।
इन सबको मैं भक्ति भाव से पूजूूँ अर्घ्य चढ़ाऊँ।
हे प्रभु! ऐसी शक्ती दीजे आतमज्योति जगाऊँ।।२०।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारदेवेषुप्रभंजनेन्द्रस्य षट्चत्वािंरशल्लक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
भवनवासि देवों के सब मिल शाश्वत जिनगृह माने।
सात करोड़ सुलाख बहत्तर मणिमय सुंदर जाने।।
इनकी भक्ति वंदना करते कर्म कुलाचल नाशूँ।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरितमय अभिन्व ज्योति प्रकाशूँ।।१।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रतिजिनमंदिर इक सौ अठ हैं जिनप्रतिमाएँ रत्नमयी।
आठ अरब तैंतीस करोड़ छियत्तर लाख प्रमाण कहीं।।
हाथ जोड़कर शीश झुकाकर करूँ वंदना भक्ती से।
क्षायिक सम्यक्रत्न प्राप्तकर, कर्म हनूँ निज शक्ती से।।२।।
ॐ ह्रीं भवनवासिभवनजिनालयस्थितअष्टार्बुदत्रयस्त्रिंशत्कोटिषट्सप्ततिलक्ष-
जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-चौबोल छंद-
असुरकुमार देव में कुल का, चिन्ह ‘सुपीपल वृक्ष’ रहे।
चैत्यवृक्ष इस मूलभाग में चारों दिश जिनबिम्ब कहें।।
पाँच पाँच जिनप्रतिमा चउदिश पद्मासन से राजे हैं।
मानस्तंभ सबों के आगे पूजत ही अघ नाशे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं असुरकुमारदेवअश्वत्थचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नागकुमार देव में कुलतरु ‘सप्तपर्ण’ अतिशोभे हैं।
मूलभाग में पाँच पाँच जिनप्रतिमा जनमन लोभे हैं।।
मानस्तंभ सबों के आगे अग्रभाग में जिनप्रतिमा।
चहुँदिश सात सात जिनप्रतिमा पूजूँ उन्हें अतुल महिमा।।२।।
ॐ ह्रीं नागकुमारदेवसप्तपर्णचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुपर्णकुमार देव का कुलतरु ‘शाल्मलि’ चैत्यवृक्ष माना।
उसमें बीस जिनेश्वर प्रतिमा पूजत सौख्य मिले नाना।।
पद्मासन से राज रहीं हैं प्रातिहार्य से संयुत हैं।
इनकी पूजा अर्चा करते, महापुण्य भी संचित है।।३।।
ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारदेवशाल्मलिचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
द्वीपकुमार सुरों में ‘जामुन वृक्ष’ चैत्यतरु मान्य हुआ।
चारों दिश में पाँच-पाँच जिनप्रतिमा से जग वंद्य हुआ।।
मानस्तंभ चार दिश में हैं बीस सभी को पूजूँ मैं।
अट्ठाइस अट्ठाइस प्रतिमा जजत दु:खों से छूटूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं द्वीपकुमारदेवजम्बूचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उदधिकुमार सुरों का ‘वेतस वृक्ष’ चैत्यतरु कहलाता।
मूलभाग में जिनप्रतिमा को धारे सुरगण मन भाता।।
मुनिजन भी इन चैत्यवृक्ष की जिनप्रतिमा को नित वंदें।
मानस्तंभ सहित बिम्बों को पूजत ही हम भव खंडे।।५।।
ॐ ह्रीं उदधिकुमारदेववेतसचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुरविद्युत्कुमार के कुल में ‘वृक्ष कदंब’ चैत्यतरु है।
चारों दिश में पाँच पाँच जिनप्रतिमा संयुत सुखकर है।।
प्रति प्रतिमा के आगे मानस्तंभ बने अतिशय सुंदर।
उनकी पूजा भक्ती करते भवि पा लेते शिवसुंदर।।६।।
ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारदेवकदम्बचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
देव स्तनित कुमार कुलों में ‘वृक्ष प्रियंगु’ चैत्यतरु है।
बीस बिम्ब से पूज्य असुर सुर सुरपति वंद्य कल्पतरु है।।
मानस्तंभ जिनेश्वर प्रतिमा गणधर भी उनको वंदें।
हम भी पूजें अर्घ्य चढ़ाकर मन में अतिशय आनंदें।।७।।
ॐ ह्रीं स्तनितकुमारदेवप्रियंगुवृक्षस्थितिंवशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दिक्कुमार का चैत्यवृक्ष तरुवर ‘शिरीष’ अतिशोभ रहा।
प्रतिदिश पाँच-पाँच जिनप्रतिमा से जन-जन मन लोभ रहा।।
पद्मासन राजित जिनप्रतिमा प्रातिहार्य से मंडित हैं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती करते ही दुख खंडित हैं।।८।।
ॐ ह्रीं दिक्कुमारदेवशिरीषचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निकुमार देव का वृक्ष ‘पलाश’ चैत्यतरु सुंदर है।
उनकी जिनप्रतिमा की कीर्ती नित गाते सुर किन्नर हैं।।
मानस्तंभ बीस की प्रतिमा कहीं पाँच सौ साठ वहाँ।
इन सबकी पूजा करते ही मिले सुपद सब सौख्य जहाँ।।९।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेवपलाशचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वायुकुमार देव का चैत्यवृक्ष शुभनाम ‘राजद्रुम’१ है।
मूलभाग में पाँच-पाँच जिनप्रतिमा धारे अनुपम है।।
इन प्रतिमाओं की पूजा से रोग शोक दुख टलते हैं।
भूत प्रेत बाधा नहिं होती सर्व मनोरथ फलते हैं।।१०।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारदेवराजद्रुमचैत्यवृक्षस्थितविंशतिजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
भवनवासि के दश भेदों में, दशविध चैत्यवृक्ष मानें।
सब में चालिस-चालिस प्रतिमा सब मिल दो सौ सरधाने।।
पद्मासनयुत वीतराग छवि प्रातिहार्य से शोभित हैं।
रत्नमयी जिनप्रतिमा वंदूँ वांछित फलदायी शुभ हैं।।१।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवसंबंधिदशचैत्यवृक्षस्थितद्विशतजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
एक-एक जिनप्रतिमा आगे एक-एक मानस्तंभ हैं।
प्रतिदिश में प्रतिमा सात-सात सब इक में अट्ठाइस हैं।।
इन दो सौ मानस्तंभों में छप्पन सौ जिनप्रतिमाएँ हैं।
इन सबको पूजूँ अर्घ्य चढ़ा, ये समकित रत्न दिलायें हैं।।२।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवसंबंधिचैत्यवृक्षजिनप्रतिमासन्मुखद्विशतमानस्तंभस्थित-
पंचसहस्रषट्शतजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिभुवनतिलकजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
-दोहा-
शाश्वत श्रीजिनवर भवन, श्रीजिनबिम्ब महान्।
गाऊँ गुणमणिमालिका, मिले धर्म शुचि ध्यान।।१।।
(चाल-हे दीनबंधु……….)
जैवंत भवनवासि के शाश्वत जिनालया।
जैवंत सातकोटि बहत्तर जिनालया।।
चौंसठ सुलाख भवन असुरकुमरदेव के।
चौरासि लाख भवन कहे नागकुमर के।।२।।
सुपर्णसुर के लाख बाहत्तर भवन कहे।
सुर द्वीपकुमर के छियत्र लाख गृह रहें।।
उदधी स्तनित विद्युते दिक् अग्निकुमर के।
बस लाख छियत्तर भवन हैं इन् प्रत्येक के।।३।।
वायूकुमार के भवन हैं लाख छ्यानवे।
सब सात कोटि बहत्तर सुलक्ष जानवे।।
दश भेद भवनवासि के प्रत्येक भवन में।
जय जय जिनेन्द्र गेह राजते सुमध्य में।।४।।
इस रत्नप्रभा भूमि के सुतीन भाग हैं।
खरभाग पंकभाग में भावन के भवन हैं।।
सुर नागकुमारादि नव प्रकार प्रथम में।
रहते असुरकुमार देव पंकभाग में।।५।।
इनके भवन भवनपुरा आवास त्रय कहे।
किनही सुरों के त्रय प्रकार के स्थल रहें।।
ये असुरकुमर मात्र भवन में हि रहे हैं।
इन सबके भवन समसुचतुष्कोण कहे हैं।।६।।
ऊँचाई तीनशतक योजनों सुभवन की।
संख्यात व असंख्य योजनों की विस्तृती।।
योजन सुएक शतक तुंग महाकूट हैं।
ये रत्नमयी कूट वेदियों के बीच हैं।।७।।
इन कूट उपरि श्रीजिनेन्द्रभवन रत्न के।
सब तीन कोट चार गोपुरों से युक्त ये।।
प्रत्येक वीथियों में मानतंभ शोभते।
नौ नौ स्तूप बिंबसहित चित्त मोहते।।८।।
परकोट अंतराल में त्रय भूमियाँ कहीं।
वनभूमि ध्वजाभूमि चैत्यभूमि सुखमही।।
मंदिर में वंदनाभवन अभिषेकमंडपा।
नर्तन भवन संगीतभवन प्रेक्षमंडपा।।९।।
स्वाध्यायभवन चित्र मंडपादि बने हैं।
जिनमंदिरों में देवछंद रम्य घने हैं।।
प्रत्येक जिनालय में इक सौ आठ बिम्ब हैं।
पद्मासनों से राजते जिनेश बिम्ब हैं।।१०।।
प्रतिमा के उभय श्रीदेवि श्रुतदेवि मूर्ति हैं।
सर्वाण्ह यक्ष सनत्कुमर यक्ष मूर्ति हैं।।
भृंगार कलश चामरादि अष्ट मंगली।
प्रत्येक इक सौ आठ-आठ शोभते भली।।११।।
प्रत्येक बिम्ब दोनों तरफ ढोरते चंवर।
हैं नागयक्ष मूर्तियाँ जो सर्व चित्तहर।।
सद्दृष्टि देव भक्ति भरें पूजते सदा।
मिथ्यादृशी कुलदेव मान वंदते मुदा।।१२।।
वीणा मृदंग दुंदुभी बहुवाद्य बजाके।
स्तोत्र पढ़ें नृत्य करें भक्ति बढ़ाके।।
जल गंध अष्ट द्रव्य लिये अर्चना करें।
जीवन सफल करें जिनेन्द्र वंदना करें।।१३।।
जय जय जिनेन्द्र बिम्ब की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण कर्म शत्रु की मैं खंडना करूँ।।
जिनभक्ति के प्रसाद से संसार से तिरूँ।
निज ज्ञानमती पूर्ण हो भव वन में ना फिरूँ।।१४।।
-घत्ता-
जय जय जिनप्रतिमा, अद्भुत महिमा, भवनवासि के जिनगेहा।
जय मुक्तिरमा घर, वंदत सुर नर, मैं पूजॅूँ नित धर नेहा।।१५।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवभवनस्थितसप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालय-
जिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्यजन त्रिभुवनतिलक जिनधाम की अर्चा करें।
त्रिभुवन चतुर्गति भ्रमण से, निज की स्वयं रक्षा करें।।
अतिशीघ्र ही त्रिभुवनतिलक निज सिद्धपद को पायेंगे।
निज ज्ञानमति सुख पूर्ण कर, फिर वे यहाँ नहिं आएंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।