-अथ स्थापना-गीता छंद-
व्यंतर सुरों के गेह में जिनधाम शाश्वत स्वर्ण के।
प्रत्येक में जिनबिम्ब इक सौ आठ शाश्वत रत्न के।।
सब असंख्याते जैनमंदिर जैनप्रतिमा को जजूँ।
आह्वानन कर पूजूँ यहाँ निज आत्मसुख संपति भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-
बिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-
बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-
बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-
नीर गंगा नदी का भरा भृंग में।
तीन धारा करूँ नाथ के चर्ण में।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।१।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णरस के सदृश गंध सौगंध्य ले।
नाथ के पाद अरविंद चर्चंू भले।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।२।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शालि अक्षत धुले थाल भरके लिये।
पुंज से पूजहूँ आत्मसुख के लिये।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।३।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार चंपा चमेली चुने।
पादपंकज जजूँ इष्ट सुख हों घने।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।४।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपूआ अंदरसा भरे थाल में।
व्यंजनों से जजूँ तृप्ति हो स्वात्म में।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।५।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्योति कर्पूर की ज्वाल आरति करूँ।
मोहतम नाश के दिव्य भारति भरूँ।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।६।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध खेऊं अगनि पात्र में।
कर्म की भस्म हो नाथ के पास में।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।७।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम्र दाड़िम अनंनास ले थाल में।
आप को पूजते मोक्षफल आप में।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।८।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि ले अर्घ अर्पण करूँ।
रत्नत्रय हेतु स्वातम समर्पण करूँ।।
व्यंतरों के यहाँ जैनमंदिर दिपें।
रत्नमय बिम्ब को पूजते भव खिपे।।९।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
हेमभृंग में स्वच्छ जल, जिनपद धार करंत।
तिहुँजग में हो शांतिसुख, परमानंद भरंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली मोगरा, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले आत्मसुखसार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
व्यंतर निलय असंख्य, जिनगृह संख्यातीत हैं।
जिनवर बिम्ब असंख्य, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।
इति मण्डलस्योपरि रत्नप्रभाखरपंकभागे मध्यलोके सर्वत्र च पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
किन्नर के दश कुल भेदों में, कपुरुष व किन्नर हृदयंगम।
सुर रूपपालि किन्नर-किन्नर, आनिंदित मनोरम किन्नरोत्तम।।
रतिप्रिय अरु ज्येष्ठ सुदश इनमें, कपुरुष व किन्नर अधिपति हैं।
कपुरुष इंद्र के असंख्यात जिनगृह को मेरा वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवेषु कपुरुषेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
किन्नर अधिपति के असंख्यात, जिननिलय अकृत्रिम माने हैं।
सामानिक आदि देव के भी, अगणित जिनमंदिर माने हैं।।
इन मंदिर का वंदन पूजन, भावों से करते भविजन हैं।
जिनबिम्ब एक सौ आठ-एक सौ आठ, सभी को वंदन है।।२।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवेषु किन्नरेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कपुरुष सुरों के दशविध में, पुरुष पुरुषोत्तम सत्पुरुषा।
महापुरुष पुरुषप्रभ अतीपुरुष, मरु पुन मरुदेव सु मरुप्रभा।।
सुर यशस्वान् इनमें अधिपति, सत्पुरुष महापुरुष द्वि हैं।
सत्पुरुष इंद्र के असंख्यात, जिनगृह को मेरा वंदन है।।३।।
ॐ ह्रीं कपुरुषदेवेषु सत्पुरुषेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
महापुरुष इन्द्र के असंख्यात, जिनमंदिर मणिमय शाश्वत हैं।
इन सुर के द्वीप समुद्रों में, आवास भवनपुर भासत हैं।।
इन मंदिर का वंदन पूजन, भावों से करते भविजन हैं।
जिनबिम्ब एक सौ आठ-एक सौ आठ सभी को वंदन है।।४।।
ॐ ह्रीं किंपुरुषदेवेषु महापुरुषेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
देव महोरग के भुजंग अरु, भुजंग शालि सु महातनु हैं।
अतिकाय स्कंधशाली मनहर, अशनीजव तथा महेश्वर हैं।।
गंभीर और प्रियदर्शन ये दशविध में दोय इंद्र माने।
महाकाय और अतिकाय प्रथम के असंख्य जिनगृह पूजूँ मैं।।५।।
ॐ ह्रीं महोरगदेवेषु महाकायेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अतिकाय इंद्र के असंख्यात आवास भवनपुर होते हैं।
उन सबमें जिनमंदिर सुंदर जिनप्रतिमा संयुत होते हैं।।
इन मंदिर का वंदन पूजन, भावों से करते भविजन हैं।
जिनबिम्ब एक सौ आठ-एक सौ आठ सभी को वंदन है।।६।।
ॐ ह्रीं महोरगदेवेषु अतिकायेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
गंधर्व देव के दशवधि में, हाहा हू हू नारद तुंबर।
वासव रु कदंब महास्वर अरु हैं गीतरती गीतरस सुर।।
फिर वङ्कावान इनमें अधिपति सुर गीतरती व गीतरस हैं।
सुर इंद्र गीतरति के असंख्य, जिनगृह उनको नित वंदन है।।७।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवेषु गीतरतिइन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
देवेन्द्र गीतरस के असंख्य, जिनभवन अकृत्रिम स्वर्णिम हैं।
गणधर मुनिगण चारण ऋषिगण करते परोक्ष ही वंदन हैं।।
इन मंदिर का वंदन पूजन, प्रत्यक्ष करें भाक्तिक सुर हैं।
जिनबिम्ब एक सौ आठ-एक सौ आठ सभी को वंदन है।।८।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवेषु गीतरसेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षों के बारह भेद उन्हीं के माणिभद्र अरु पूर्णभद्र।
शैलभद्र मनोभद्र रु भद्रक सुभद्र यक्ष हैं सर्वभद्र।।
मानुष धनपाल स्वरूपयक्ष यक्षोत्तम मनोहरण सुर हैं।
मणिभद्र पूर्णभद्र इंद्र प्रथम के असंख्य जिनगृह पूजूँ मैं।।९।।
ॐ ह्रीं यक्षदेवेषु माणिभद्रइन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जिनधाम अकृत्रिम पूर्णभद्र अधिपति के असंख्यात ही हैं।
आवास भवनपुर सुरगृह में जिनमंदिर असंख्यात ही हैं।।
इन मंदिर की स्तुति करते आतमरसपायी मुनिगण हैं।
जिनबिम्ब एक सौ आठ-एक सौ आठ सभी को वंदन हैं।।१०।।
ॐ ह्रीं यक्षदेवेषु पूर्णभद्रइन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
राक्षस सुर सात भेद भीम महाभीम विनायक उदक कहें।
राक्षस राक्षस राक्षस व ब्रह्मराक्षस इनमें दो इंद्र रहें।।
देवेन्द्र भीम के असंख्यात आवास भवनपुर भवन भि हैं।
इन सबमें जिनगृह असंख्यात उन सबको मेरा वंदन है।।११।।
ॐ ह्रीं राक्षसदेवेषु भीमेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
राक्षसकुल अधिपति महाभीम, के असंख्यात जिनमंदिर हैं।
निज आत्मध्यान में रत मुनिवर, इनके वंदन में तत्पर हैं।।
जिनमंदिर जिनप्रतिमाओं की हम नितप्रति अर्चा करते हैं।
जिन भक्ती भववारिधि नौका इस पर चढ़ भवदधि तरते हैं।।१२।।
ॐ ह्रीं राक्षसदेवेषु महाभीमेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भूतों के कुल में सात भेद, उनमें स्वरूप प्रतिरूप मुख्य।
भूतोत्तम अरु प्रतिभूत महाभूत रु प्रतिच्छन्न आकाशभूत।।
अधिपति स्वरूप के असंख्यात जिनमंदिर शाश्वत स्वर्णमयी।
उन सबमें जिनप्रतिमा अनुपम सुर वंद्य अकृत्रिम रत्नमयी।।१३।।
ॐ ह्रीं भूतदेवेषु स्वरूपेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रतिरूप इंद्र के असंख्यात, जिनमंदिर शाश्वत अनुपम हैं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, वे पावें सुख निधि अनुपम हैं।।
मुनिगण जिनप्रतिमा को ध्याते, निजकर्म कालिमा धोते हैं।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, जिनबिम्ब पुण्यप्रद होते हैं।।१४।।
ॐ ह्रीं भूतदेवेषु प्रतिरूपेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंतर पिशाच कुल चौदह विध, कूष्मांड यक्ष राक्षस संमोह।
तारक अशुची अरु काल महाकाल शुचि सहतालक सु देह।।
महादेह तूष्णीक रु प्रवचन इनमें दो इंद्र कहाये हैं।
अधिपती काल के असंख्य जिनगृह पूजत पाप नशाये हैं।।१५।।
ॐ ह्रीं पिशाचदेवेषु कालइन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुर महाकाल के असंख्यात, जिनमंदिर अतुल विभव धारें।
सुरगण पिशाच सम्यग्दृष्टी, पूजें बहु भक्ति हृदय धारें।।
मिथ्यादृष्टी ‘कुलदेव’ मान करके भी पूजा करते हैं।
हम पूजें जिनप्रतिमाओं को पूजत भवि पातक हरते हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं पिशाचदेवेषु महाकालेन्द्रस्य असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
इस रत्नप्रभा १भू के पहले, खरभाग में भवन भूतसुर के।
ये चौदह सहस कहें पुनि, पंकभाग में भवन राक्षसों के।।
वे सोलह हजार हैं पुनरपि, किन्नर आदिक के गृह भूपर।
इन सबमें जिनगृह जिनप्रतिमा, मैं पूजूँ अंजलि मस्तक धर।।१।।
ॐ ह्रीं अधोलोके भूतराक्षसदेवभवनस्थितिंत्रशत्सहस्रजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
इन आठ प्रकार व्यंतरों के अगणीत ‘भवनपुर२’ माने हैं।
ये असंख्यात द्वीपों व समुद्रोें में स्थित मुनि जाने हैं।।
इन सबमें असंख्यात जिनगृह सबमें इक शत अठ जिनप्रतिमा।
मैं पूजूँ ध्याऊँ भक्ति करूँ जिनदेव देव की बहु महिमा।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यंतरदेवभवनपुरस्थितअसंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तालाब व पर्वत वृक्षादिक इन पर व्यंतर ‘आवास’ बने।
ये मध्यलोक में असंख्यात द्वीपों व समुद्रों तक गिनने।।
इनमें जिनमंदिर असंख्यात मैं अर्घ चढ़ाकर नित पूजूँ।
निज पर का भेद ज्ञान पाकर सब जन्म मरण दुख से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यंतरदेवआवासस्थितअसंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंतर देवों के निलयों में जिनगृह में जिनप्रतिमा सुंदर।
सब रत्नमयी हैं असंख्यात उन भक्ती भविजन क्षेमंकर।।
मैं बहिरातमता को तजकर अंतर आतम का ध्यान करूँ।
इन पूजा संस्तुति कर करके परमात्म अवस्था प्राप्त करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यंतरनिलयस्थितअसंख्यातजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(चाल-हे दीन…………..)
किन्नर सुरों का चैत्यवृक्ष तरु ‘अशोक’ है।
इस मूल चउर्दिश में चार-चार बिम्ब हैं।।
पर्यंक आसनों से प्रातिहार्य समेता।
मैं चैत्यवृक्ष बिम्ब नमूँ भाव समेता।।१।।
ॐ ह्रीं किन्नरदेवअशोकचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर कपुरुष के ‘चंपाद्रुम’ चैत्यतरु कहा।
प्रत्येक दिश में चउ चउ जिनबिम्ब युत अहा।।
जिनबिम्ब प्रातिहार्य सहित रत्नमयी हैं।
मैं चैत्यवृक्ष नित्य नमूँ सौख्यमही हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कपुरुषदेवचंपकचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है चैत्यवृक्ष ‘नागवृक्ष’१ महोरगों में।
चारों दिशा में चार चार जैनबिम्ब हैं।।
ये दर्शमात्र से समस्त पाप हरे हैं।
जो वंदना करें वे पुण्यराशि भरे हैं।।३।।
ॐ ह्रीं महोरगदेवनागद्रुमचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधर्व देव यहाँ चैत्यतरु ‘तुंबरु’।
उनके समस्त बिम्ब की मैं अर्चना करूँ।।
ये देव सात स्वर में नाथ कीर्ति गावते।
जो पूजतें इन्हें वे सर्व सौख्य पावते।।४।।
ॐ ह्रीं गंधर्वदेवतुंबरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षेन्द्र के ‘न्यग्रोध’ चैत्यवृक्ष सोहता।
जिनराजबिम्ब से सुरों का चित्त मोहता।।
जो वंदना करें समस्त रिद्धि धरेंगे।
जो अर्चना करें वे कार्य सिद्ध करेंगे।।५।।
ॐ ह्रीं यक्षदेवन्यग्रोधचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राक्षस सुरों में ‘कंटक’ तरु चैत्यवृक्ष है।
उसमें जिनेन्द्रप्रतिमा रत्नाभ स्वच्छ हैं।।
पूजूँ उन्हें रुची से वे रोगशोकहर।
वंदूँ उन्हें सदा ही वे ज्ञानसौख्यकर।।६।।
ॐ ह्रीं राक्षसदेवकंटकतरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तुलसीतरु’ है चैत्यवृक्ष भूतसुरों में।
हैं चार-चार बिम्ब इसके मूल भाग में।।
मैं भक्ति से अनंत बार वंदना करूँ।
निजात्मलब्धि हेतु मात्र प्रार्थना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं भूतदेवतुलसीवृक्षचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंतर पिशाच के ‘कदंब’ चैत्यवृक्ष हैं।
गणधर मुनीश वंदे उन चित्त स्वच्छ हैं।।
शीश को नमाऊँ मैं चरणारविंद में।
व्यंतर उपद्रवादी सब दूर हों क्षण में।।८।।
ॐ ह्रीं पिशाचदेवकदंबतरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद–
व्यंतर के आठ चैत्यतरु में इकसौ अट्ठाइस जिनप्रतिमा।
ये रत्नमयी शाश्वत अनुपम अठ प्रातिहार्य संयुत प्रतिमा।।
इनकी भक्ती पूजा करते, भव भव के पाप अनंत टले।
दुख रोग शोक दारिद्र नशें, संपूर्ण मनोरथ फलें भले।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यंतरदेवनिलयसंबंधिअष्टचैत्यवृक्षस्थितअष्टािंवशत्युत्तर-
शतजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक जिनेन्द्रबिम्ब सन्मुख, मानस्तंभ एक एक सुंदर।
ये तीन पीठ ऊपर स्थित, परकोटे तीन सहित मनहर।।
घंटा किंकिणि मोतीमाला ध्वज चंवर छत्र से संयुत हैं।
प्रतिदिश में जिनप्रतिमाएँ हैं, मैं उन्हें जजूँ वे सुखप्रद हैं।।२।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवचैत्यवृक्षस्थितजिनबिम्बसन्मुखएकशतअष्टाविंशतिमान-
स्तंभसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिभुवनतिलकजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
-दोहा-
व्यंतर देवों के यहाँ, असंख्यात जिनधाम।
रत्नमयी प्रतिमा वहाँ, कोटी कोटि प्रणाम।।१।।
-गीता छंद-
जैवंत अकृत्रिम जिनालय स्वर्ण चांदी रत्न के।
जैवंत हों जिनबिम्ब मणिमय सौम्यछवि सुर वंदते।।
जैवंत हों सब चैत्यतरु जिनबिम्ब अनुपम रत्न के।
जैवंत मानस्तंभ हों सौ इन्द्र जिनको वंदते।।२।।
व्यंतर सुरों के आठ विध किन्नर दुतिय कपुरुष हैं।
सुर महोरग गंधर्व यक्ष राक्षस व भूत पिशाच हैं।।
प्रत्येक में दो दो अधिप ये आठ द्वीपों में रहें।
समभूमि में इन इन्द्र के वहं पाँच पाँच नगर कहे।।३।।
द्वीपांजनक में दक्षिणी दिश कपुरुष अधिपति रहें।
इस द्वीप के उत्तर दिशा में इन्द्र किन्नर नगर हैं।।
पुनि वङ्काधातुक द्वीप के दक्षिण अधिप सत्पुरुष हैं।
उत्तर दिशा में महापुरुष अधीश निजपुर बसत हैं।।४।।
सुवर्णद्वीप सुदक्षिणी दिश महाकाय अधीश हैं।
उत्तरदिशी अतिशायि इंद्र बसें जजें जिनईश हैं।।
पुनि मन:शिलक सुद्वीप में सुर गीतरति दक्षिणदिशी।
सुर गीतयश हैं इंद्र रहते वहीं पे उत्तरदिशी।।५।।
वर वङ्काद्वीप सुदक्षिणी दिश माणिभद्र अधिप रहें।
उत्तर दिशा में पूर्णभद्र सुरेन्द्र निजपुर में रहें।।
भीमेन्द्र रजत सुद्वीप दक्षिण में रहें जिनभक्त हैं।
उत्तर दिशा में महाभीम अधीश नित निवसंत हैं।।६।।
हिंगुलक द्वीप सुदक्षिणीदिश इंद्र नाम सुरूप हैं।
उत्तर दिशी प्रतिरूप स्वामी के नगर अभिरूप हैं।।
हरितालद्वीप सुदक्षिणी दिश काल इंद्र निवास है।
उत्तर दिशा में महाकाल सुरेन्द्र का अधिवास है१।।७।।
व्यंतरनिवास त्रिविध भवनपुर भवन पुनि आवास हैं।
उत्कृष्ट गृह के मध्य कूट सुशोभते स्वर्णाभ हैं।।
ये तीन सौ योजन सुविस्तृत शतक योजन तुंग हैं।
लघुगृहोें में इक कोश चौड़े इकबटे२ त्रय तुंग हैं।।८।।
इन कूट ऊपर रत्न चाँदी स्वर्णमय जिनधाम हैं।
प्रतिधाम इक सौ आठ प्रतिमा शाश्वती रत्नाभ हैं।।
झारी कलश दर्पण ध्वजा चामर व्यजन३ त्रयछत्र हैं।
ठोना ये इक सौ आठ-आठ प्रतेक मंगलद्रव्य हैं।।९।।
जिनभवन में घंटा मृदंगी दुंदुभी वीणा बजें।
सिंहासनों पे जैनप्रतिमा पद्मआसन से दिपें।।
सम्यक्त्वधारी देव अतिशय भक्ति से वंदन करें।
‘कुलदेवता हैं’ समझ मिथ्यादृष्टि भी प्रणमन करें।।१०।।
धन धन्य हैं वे भव्य जो सुरगृह जिनालय वंदते।
धन धन्य उन जीवन सफल वे पाप पर्वत खंडते।।
जिनराज् पाद प्रसाद से तब तक हृदय में भक्ति हो।
जब तक न निजपद मिले मुझको रत्नत्रय नहि व्यक्त हो।।११।।
-घत्ता-
जय जय जिनआलय, सर्व सुखालय, व्यंतरसुर के रत्नमयी।
जय ‘‘ज्ञानमती’’ मुझ, पूर्ण करो शुभ, हो जाऊँ प्रभु मृत्युजयी।।१२।।
ॐ ह्रीं व्यंतरदेवभवन-भवनपुर-आवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-
बिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्यजन त्रिभुवनतिलक जिनधाम की अर्चा करें।
त्रिभुवन चतुर्गति भ्रमण से, निज की स्वयं रक्षा करें।।
अतिशीघ्र ही त्रिभुवनतिलक निज सिद्धपद को पायेंगे।
निज ज्ञानमति सुख पूर्ण कर, फिर वे यहाँ नहिं आएंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।