-स्थापना (शंभु छंद)-
श्री सिद्धशिला नरलोक मात्र, पैंतालिस लाख सुयोजन है।
त्रैलोक्य शिखर पर अष्टम भू पर, रुक्मी१ अर्धचंद्र सम है।।
श्री सिद्ध अनंतानंत इसी पर, तिष्ठें अष्ट गुणान्वित हैं।
आह्वानन कर इनको पूजूँ, ये देते सौख्य अपरिमित हैं।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-शंभु छंद-
श्री सिद्ध सुयशसम उज्जवल जल, लेकर झारी भर लाया हूँ।
निज समरस सुख पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों सम अतिशीतल, चंदन घिसकर ले आया हूँ।
निज की शीतलता पाने को, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सौख्य सम खंडरहित, उज्ज्वल तंदुल ले आया हूँ।
निज आत्म सौख्य पाने हेतू, प्रभु पुुंज चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।३।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाया हूँ।
निज गुण सुगंधि पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाया हूूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।४।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाया हूँ।
निज आत्म तृप्ति पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।५।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाया हूँ।
निज ज्ञानज्योति पाने हेतू, मैं आरति करने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।६।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों की सुरभि सदृश, वर धूप सुगंधित लाया हूँ।
निज आत्मसुरभि पाने हेतू, अग्नी में धूप जलाया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।७।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सुखामृत सदृश मधुर, रस भरे बहुत फल लाया हूँ।
निज मोक्ष सुफल हेतू भगवन्! फल आज चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।८।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों के सम अनर्घ, यह अर्घ सजाकर लाया हूँ।
निज तीन रत्न पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आया हूँ।।
श्री सिद्धशिला को नित पूजूँ, सब सिद्ध अनंतानंत जजूँ।
सर्वार्थसिद्धि को पा करके, इस सिद्धशिला पर शीघ्र बसूँ।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
सिद्धशिला पर आज, मन से जलधारा करूँ।
पूर्ण शांति साम्राज्य, मिले त्रिजग में शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सिद्धशिला पर आज, पुष्पांजलि मन से करूँ।
मिले सिद्धि साम्राज्य, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सिद्धशिला को पूजते, सर्व कार्य हों सिद्ध।
पुष्पांजलि कर पूजते, हों प्रसन्न सब सिद्ध।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
इस जंबूद्वीप में सात क्षेत्र में, कर्म भोगभू आदिक हैं।
निज इच्छा से उपसर्गादिक से, सिद्ध हुए मुनि आदिक हैं।।
जिस स्थल से निर्वाण गये, बस वहीं शिला पर पहुँच गये।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, मेरे सब वांछित सिद्ध भये।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्व-
सिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस द्वीप में सत्रह लाख बानवे हजार नब्बे नदियाँ हैं।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम उपसागर, सरवर आदिक नदियाँ हैं।।
इन नदियों से उपसर्ग आदि में, बहुत मुनीश्वर मुक्त हुए।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, मेरे सब इच्छित पूर्ण हुए।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिअकृत्रिमनदीकृत्रिमउपसागरनदीसरोवरतडागादि-
जलस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस जंबूद्वीप में मेरु आदि, त्रय शत ग्यारह पर्वत मानो।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम बहुते, सम्मेदशिखर आदिक जानो।।
इनसे इन मध्य गुफाओं से, मेरू की मध्य गुफा से भी।
वृक्षादिक से जो सिद्ध हुए, इन नभ सिद्धों को जजूँ अभी।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिसुमेर्वादिपर्वतसम्मेदशिखरादिपर्वतेभ्य: सिद्धपदप्राप्त-
सर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लवणोदधि से लंकादि द्वीप, कूभोगभूमि बहु स्थल हैं।
वहाँ से जो मुनिवर मुक्त हुए, उपसर्ग व इच्छा के वश हैं।।
इन सब सिद्धों को पूजूँ नित, ये भव दु:ख हरने वाले हैं।
ये स्थलसिद्ध अनंते हैं, ये सब सुख करने वाले हैं।।४।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंबंधिलंकादिद्वीपकुभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्त-
सर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वीपों के नदी सरोवर से, लवणोदधि के जल ऊपर से।
उपसर्ग आदि के कारण से, बहुते मुनिवर शिवपुर पहुँचे।।
इन सब सिद्धों को पूजूँ नित, परमानन्दांबुधि में न्हावें।
ये जल से सिद्ध अनंतें हैं, इनको वंदत निज सुख पावें।।५।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंंबंधिलंकादिद्वीपमध्यस्थितनदीसरोवरकूपतडागादिजल-
समुद्रजलस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लवणोदधि मध्य हंस आदी, लंकादि द्वीप में पर्वत हैं।
इन पर से सिद्ध हुए जो मुनि, उपसर्ग आदि के कारण हैं।।
लवणोदधि वेदी ऊपर से, या वहीं अन्य वृक्षादी से।
जो सिद्ध हुए उनको पूजूँ, जिससे निजात्म शक्ती प्रगटे।।६।।
ॐ ह्रीं लवणोदधिसंंबंधिलंकादिद्वीपस्थितत्रिकूटाचलादिपर्वतेभ्य: सिद्धपद-
प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वरद्वीप धातकी खण्ड द्वितिय में, कर्मभूमि अरु भोगभूमि।
वन उपवन की भूआदि स्थल से, सिद्ध हुए पावनभूमी।।
तीर्थंकरगण मुनिगण बहुते, सब कर्म काटकर मुक्त हुए।
उपसर्ग आदि से सब थल से, उन पूजत सौख्य अनंत लिये।।७।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपद-
प्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस द्वीप धातकी में कृत्रिम, अकृत्रिम अगणित नदियाँ हैं।
सब आर्यखंड में उपसागर, सरवर कूपादिक नदियाँ हैं।।
इन सबके जल के ऊपर से, बहुतेक साधुगण मुक्ति गये।
चारण ऋद्धीधर या उपसर्ग, आदि से हम उन जजत भये।।८।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वीपसंबंधिकृत्रिमाकृत्रिमनदीउपसागरकूपतडागादि-
जलस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस धातकि में दो मेरु अन्य, अगणित पर्वत कूटादिक हैं।
धात्री तरु शाल्मलितरु आदी बहुविध उपवनतरु आदिक हैं।।
इन नभस्थान से सिद्ध हुए, ऋद्धीबल उपसर्गादिक से।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, आतमनिधि मिल जावे जिससे।।९।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वीपसंबंधिमेर्वादिपर्वतकृत्रिमपर्वतकृत्रिमअकृत्रिम-
वृक्षादिनभस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कालोदधि मध्य कुभोगभूमि से, मागध आदि द्वीप थल से।
चारणऋषि या उपसर्ग आदि, कारण से मुनि शिवपुर पहुँचे।।
वर द्वीप जलधि के वेदी के, थल से भी जो मुनि सिद्ध हुए।
उन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, ये मेरे सिद्धि निमित्त हुए।।१०।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिकुभोगभूमिआदिस्थलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कालोदधि के जल से कुभोगभूमी के नदी सरोवर से।
चारण ऋषि मुनि या उपसर्गादिक, से मुनिगण शिवपुर पहुँचे।।
इन जल से मुक्ति प्राप्त मुनि को, मैं नितप्रति शीश झुकाता हूँ।
इन सब सिद्धों को अर्घ चढ़ाकर, शिव की आश लगाता हूँ।।११।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिकुभोगभूमिआदिमध्यस्थितनदीसरोवरजल-
समुद्रजलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस सागर मध्य कुभोगभूमि, मागध सुर आदि निवास बनें।
उनमें जो पर्वत कूट शिखर तरु, आदि नभस्थल हों जितने।।
उन पर से जो मुनि सिद्ध हुए, उन सबको वंदन करता हूँ।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, टल जावे अर्चन करता हूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसंबंधिकुभोगभूमिमागधद्वीपादिमध्यस्थितपर्वतकूटवृक्षादि-
स्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्करवर द्वीप मध्य वलयाकृति, मनुजोत्तर पर्वत सोहे।
इस परे मनुष नहिं जा सकते, इस तक नरलोक चित्त मोहे।।
इसमें जो कर्मभूमि अरु भोगभूमि वन उपवन स्थल हैं।
उन सबसे सिद्ध हुए जिनवर, मुनिगण उन सबको वंदन है।।१३।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिकर्मभूमिभोगभूमिवनउपवनवेदिकादिस्थलेभ्य:
सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस पुष्करार्ध में गंगादिक, अगणित अकृत्रिम नदियाँ हैं।
कृत्रिम सरवर कूपादि तथा, उपसागर आदिक नदियाँ हैं।।
इन जल से चारण बल से या, उपसर्ग आदि से सिद्ध हुए।
उन सबको पूजूँ अर्घ्य चढ़ा, मेरे सब मनरथ सफल हुए।।१४।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमनदीसरोवरउपसागरकूपतडागादि-
जलेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस पुष्करार्ध में दो मेरू हिमवन आदिक बहुपर्वत हैं।
शाश्वत पर्वत कृत्रिम पर्वत, इन गुफा कंदरा आदिक हैं।।
इन ऊपर से मुनि सिद्ध हुए, पुष्कर शाल्मलि तरु आदिक से।
इन सब सिद्धों को पूजूँ मैं, रत्नत्रय निधी मिले जिससे।।१५।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपसंबंधिमेर्वादिअकृत्रिमकृत्रिमपर्वततन्मध्यगुहादिवृक्षादि-
स्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह सिद्धशिला पैंतालिस लाख, सुयोजन मनुज लोक प्रम है।
सर्वत्र अनंतानंत सिद्ध से, भरी अकृत्रिम अनुपम है।।
गणधर मुनिगण से वंद्य शिला, इसको मेरा शत शत वंदन।
यह सिद्धशिला न मिले जब तक, तब तक इसको शत शत वंदन।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थतपंचचत्वािंरशल्लक्षयोजनप्रमाणसिद्धशिलायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
इन ढाई द्वीप दो सागर तक, पैंतालिस लाख सुयोजन है।
यह मनुज लोक इसमें ही मानव, मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।।
इसमें थल जल पर्वत चोटी, आदिक सब थल से सिद्ध हुए।
अणुमात्र जगह नहिं रिक्त यहाँ, सब सिद्धों को मैं धरूँ हिये।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्विसमुद्रप्रमितमनुष्यलोकस्थितसर्वजलस्थलपर्वतवृक्ष-
गुहादिस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिभुवनतिलकजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
(चाल-शेर)
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र सिद्धशिला है।
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र मोक्ष इला है।।
जय जय अनंतानंत सिद्ध इसपे राजते।
जय जय त्रिकाल सिद्ध अनंत गुण से भासते।।१।।
सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजादंड से।
बारह सुयोजनोपरि भू आठवीं लसे।।
यह पूर्व अपर दिश में सुएक राजु है।
उत्तर दखिन में कुछ कम यह सात राजु है।।२।।
योजन सुआठ मोटी वायूवलय घिरी।
घनउदधी घनवायु तनूवायु से घिरी।।
इस मध्य ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम क्षेत्र है।
चांदी सुवर्ण रत्नपूर्ण सिद्धक्षेत्र है।।३।।
उत्तान धवल छत्र सदृश सिद्धशिला ये।
योजन सुपैंतालीस लाख सिद्धशिला ये।।
ये आठ योजन मध्य में फिर अंत तक घटती।
नरलोक के प्रमाण है इस क्षेत्र की परिधी१।।४।।
वह अर्ध चंद्रसम त्रिलोक अग्रभाग में।
अनंत अनंत सिद्ध वहाँ राजते निज में।।
तीर्थेश होके सिद्ध अनंते वहाँ तिष्ठें।
तीर्थेश बिना सिद्ध अनंतानंत वहाँ पे।।५।।
जल थल व गगन से अनंत सिद्ध हुए हैं।
सामान्यकेवलि अंतकृत केवलि भि सिद्ध हैं।।
उत्कृष्ट पाँच सौ पचीस धनु शरीर से।
जघन्य साढ़े तीन हाथ देह मात्र से।।६।।
मध्यम अनेक विधि की अवगाहना धरें।
ये सिद्ध हुए हम उन्हों को चित्त में धरें।।
जो ऊर्ध्व लोक अधोलोक तिर्यक् लोक से।
सब कर्म नाश सिद्ध हुए मर्त्यलोक से।।७।।
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के छहों काल से।
उपसर्ग निमित सिद्ध हुए नमूँ भाल से।।
उपसर्ग बिना सिद्ध चौथे काल से हुए।
इन पाँच भरत पाँच ऐरावत से शिव गये।।८।।
दो ज्ञान त्रय व चार से वैवल्य पायके।
जो सिद्ध हुए हैं अनंत सौख्य पायके।।
जो साधु संहरण से सिद्ध हो गये यहाँ।
बिन संहरण अनंत सिद्ध हो रहे यहाँ।।९।।
कुछ साधु समुद्घात करके सिद्ध हुए हैं।
कुछ केवली बिन समुद्घात सिद्ध हुए हैं।।
खड्गासनों से सिद्ध भी अनंत हुए हैं।
पद्मासनों से भी अनंत सिद्ध हुए हैं।।१०।।
सब द्रव्य से पुंवेदी ही सिद्ध हुए हैं।
हाँ भाव से त्रय वेद से भी सिद्ध हुए हैं।।
प्रत्येक बुद्ध स्वयंबुद्ध सिद्ध हुए हैं।
बोधित प्रबुद्ध भी अनंंत सिद्ध हुए हैं।।११।।
सब आठ कर्म नाश करके सिद्ध हुए हैं।
वे इक सौ अड़तालीस प्रकृति नष्ट किए हैं।।
सब सिद्ध अंतिम देह से कुछ न्यून कहे हैं।
इस विध से अन्त्यदेह के आकार रहे हैं।।१२।।
ये सर्व सिद्ध गुण अनंतानंत धारते।
ये सर्व सिद्ध सुख अनंतानंत धारते।।
ये सर्व सिद्ध जन्म मरण शून्य हो गये।
ये सर्व सिद्ध ज्ञान गुण से पूर्ण हो गये।।१३।।
इन ढाई द्वीप से अनंत सिद्ध हुए हैं।
दो ही समुद्र से अनंत सिद्ध हुए हैं।।
नरलोक में सब एक सौ सत्तर हैं कर्मभू।
इनमें जनम के प्राप्त करें मनुज मुक्तिभू।।१४।।
नरलोक में अणुमात्र भी ना रिक्त थान है।
जहाँ से न हुए सिद्ध सब निर्वाण स्थान हैं।।
मेरू की चूलिका से भी सिद्ध हुए हैं।
वे मेरु की गुफा से ही सिद्ध हुए हैं।।१५।।
अनंतानंत सिद्धों की वंदना करूँ।
मैं नित अनंतानंत बार वंदना करूँ।।
श्री सिद्धशिला को नमूँ मैं भक्ति भाव से।
यह सिद्धशिला प्राप्त करूँ भक्ति नाव से।।१६।।
-दोहा-
नमूँ सिद्ध परमात्मा, सिद्धशिला मुनिवंद्य।
‘‘ज्ञानमती’‘ गुण पूर्ण कर, पाऊँ परमानन्द।।१७।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनशिखरस्थितसिद्धशिलोपरिविराजमानअनन्तानन्तसिद्धेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्यजन त्रिभुवनतिलक जिनधाम की अर्चा करें।
त्रिभुवन चतुर्गति भ्रमण से, निज की स्वयं रक्षा करें।।
अतिशीघ्र ही त्रिभुवनतिलक निज सिद्धपद को पायेंगे।
निज ज्ञानमति सुख पूर्ण कर, फिर वे यहाँ नहिं आएंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।