-स्थापना-शंभु छंद-
वृषभेश्वर के सुत बाहुबली, प्रभु कामदेव तनु सुन्दर हैं।
मुनिगण भी ध्यान करें रुचि से, नित जजते चरण पुरंदर हैं।।
निज आतमरस के आस्वादी, जिनका नित वंदन करते हैं।
उन प्रभु का हम आह्वानन कर, भक्ती से अर्चन करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-शंभु छंद-
भव-भव में जल पीते-पीते, अब तब नहिं तृषा समाप्त हुई।
इस हेतू जिनपद पूजूँ मैं, जल से यह इच्छा आज हुई।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तन धन कुटुम्ब की चाह दाह, नितप्रति मन को संतप्त करे।
चंदन से जिनपद चर्चत ही, मन को अतिशय संतृप्त करे।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आतम सुख को कर्मों ने, बस खंड-खंड कर दु:ख दिया।
निज सुख अखंड मिल जावे बस, उज्ज्वल अक्षत से पुंज किया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु कामदेव होकर के भी, अरि कामदेव को भस्म किया।
इस हेतु सुगंधित पुष्प बहुत, तुम चरणकमल में चढ़ा दिया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु एक वर्ष उपवास किया, हुई कायबली ऋद्धी जिससे।
मेरा क्षुध रोग विनाश करो, पक्वान्न चढ़ाऊँ बहुविध के।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर शिखा जगमग करती, बाहर में ही उद्योत करे।
दीपक से तुम आरति करके, अंतर में ज्ञान उद्योत करे।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूप सुगंधित खे करके, संपूर्ण पाप को भस्म करें।
निज गुण समूह की प्राप्ति हेतु, जिन पद पंकज की भक्ति करें।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवांछित फल पाने हेतू, बहुतेक देव का शरण लिया।
नहिं मिला श्रेष्ठ फल अब तक भी, इस हेतु सरस फल अर्प दिया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन तंदुल पुष्प चरू, दीपक वर धूप फलों से युत।
क्षायिक लब्धी हित ‘‘ज्ञानमती’’, यह अर्घ समर्पण करूँ सतत।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतीधारा मैं करूँ, बाहुबली पदपद्म।
आत्यंतिक सुख शांतिमय, मिले निजातम सद्म।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही चमेली केतकी, चंपक हरसिंगार।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
-शंभु छंद-
जय जय श्रीबाहुबली भगवन्, जय जय त्रिभुवन के शिखामणी।
जय जय महिमाशाली अनुपम, जय जय त्रिभुवन के विभामणी।।
जय जय अनंत गुणमणिभूषण, जय भव्य कमल बोधन भास्कर।
जय जय अनंत दृग ज्ञानरूप, जय जय अनंत सुख रत्नाकर।।१।।
तुम नेत्र युद्ध जल मल्ल युद्ध में, चक्रवर्ति को जीत लिया।
चक्री ने छोड़ा चक्ररत्न, उसने भी तुम पद शरण लिया।।
फिर हो विरक्त भरताधिप की, अनुमति ले जिनदीक्षा लेकर।
प्रभु एक वर्ष का योग लिया, ध्यानस्थ खड़े निश्चल होकर।।२।।
नि:शल्य ध्यान का ही प्रभाव, सर्वावधिज्ञान प्रकाश मिला।
मनपर्यय विपुलमती ऋद्धी से, अतिशय ज्ञान प्रभात खिला।।
तप बल से अणिमा महिमादिक, विक्रिया ऋद्धियाँ प्रकट हुईं।
आमौषधि सर्वौषधि आदिक, औषधि ऋद्धी भी प्रकट हुईं।।३।।
क्षीरस्रावी घृत मधुर अमृत, स्रावी रस ऋद्धी प्रगटी थीं।
अक्षीण महानस आलय क्या, संपूर्ण ऋद्धियाँ प्रकटी थीं।।
वे उग्र-उग्र तप करते थे, फिर भी दीप्ती से दीप्यमान।
वे तप्त घोर औ महाघोर तप, तपते फिर भी शक्तिमान।।४।।
इन ऋद्धी से नहिं लाभ उन्हें, फिर भी इंद्रादिक नमते थे।
खग आकर प्रभु की ऋद्धी से, निज रोग निवारण करते थे।।
सर्पों ने वामी बना लिया, प्रभु के तन पर चढ़ते रहते।
बिच्छू आदिक बहु जंतु वहाँ, प्रभु के तन पर क्रीड़ा करते।।५।।
बासंती बेल चढ़ी तन पर, पुष्पों की वर्षा करती थीं।
मरकत मणिसम सुंदर तन पर, बेलें अति मनहर दिखती थीं।।
सब जात विरोधी जीव वहाँ, आपस में प्रेम किया करते।
हाथी नलिनीदल में जल ला, प्रभु पद में चढ़ा दिया करते।।६।।
प्रभु एक वर्ष उपवास पूर्ण कर, शुक्लध्यान के सम्मुख थे।
उस ही क्षण भरताधिप ने आ, पूजा की अतिशय भक्ती से।।
होता विकल्प यह कभी-कभी, मुझसे चक्री को क्लेश हुआ।
इस हेतु अपेक्षा उनकी थी, आते ही केवलज्ञान हुआ।।७।।
तत्क्षण सुरगण ने गंधकुटी, रच करके अतिशय पूजा की।
भरतेश्वर भक्ती में विभोर, बहुविध रत्नों से पूजा की।।
प्रभु ने दिव्यध्वनि से जग को, उपदेशा पुण्य विहार किया।
फिर शेष कर्म का नाश किया, औ मुक्ती का साम्राज्य लिया।।८।।
-दोहा-
धन्य धन्य बाहूबली, योगचक्रेश्वर मान्य।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु मैं, नमूँ नमूँ जग मान्य।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
श्रवणबेलगुल तीर्थ पर, सत्तावन फुट तुंग।
श्रीबाहूबलि मूर्ति को, जजत लहूँ सुखपुंज।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।