स्थापना-शुभु छंद
तीर्थंकर प्रभु के गुण अनंत, ऐसे ही नाम अनंते हैं।
शारद माँ कहने में अक्षम, गणधर भी निंह कह सकते हैं।।
उनमें से कुछ कुछ नाममंत्र, लेकर हम पूजा करते हैं।
आह्नानन आदि विधी करके, निज स्वात्म संपदा भरते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव
भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद
घातिया पापमल धो लिया आपने।
नीर ले मैं जजूँ स्वात्ममल धोवने।।
आपके नाम मंत्राक्षरों को जजूँ।
मोहअरि नाश के मोक्ष सुख को भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय
जलं…. निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व संताप को नाशिया आपने।
गंध से पूजहूँ शांतिकर पाद मैं।।आपके.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदन निर्वपामीति स्वाहा।
आप सौख्याब्धि में आप अवगाहते।
शालि से जो जजें स्वात्मसुख पावते।।आपके.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कामशर जीत के आप विष्णू बने।
कल्पतरु के सुमन लेय अर्चूं तुम्हें।।आपके.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
वेदना भूख की ना कभी छोड़ती।
यदि चरू से जजें शीघ्र मुख मोड़ती।।आपके.।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह अंधेर हन पूर्ण ज्योति धरें।
दीप से पूजते ज्ञान ज्योती भरें।।आपके.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप को खेवते कर्म ईंधन जले।
आपके पाद ही सर्व तीरथ भले।।आपके.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रियों के विषय छोड़ निज सुख लिया।
आपको फल चढ़ा स्वात्मरस चख लिया।।आपके.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्यादि से अर्घ्य सुन्दर लिया।
आपको अर्चते पाप सब क्षय किया।।आपके.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
नाममंत्र को पूजहूँ, शांतीधारा देय।
सर्व सौख्य संपति मिले, आत्मसुधा बरसेय।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प बहु, सुरभित दिक् महकंत।
पुष्पांजलि अर्पण किये, आतम सुख विलसंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सोरठा
गुण अनंत भंडार, नाम असंख्यों धारते।
स्वात्म सौख्य कर्तार, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
‘श्रीमान्’ आप अन्तर अनन्त सुख ज्ञान वीर्य दर्शन श्रीपति।
बहिरंग समवसरणादि महावैभव प्रातिहार्यमयी श्रीपति।।
इन अन्तरंग बहिरंग श्री के स्वामी प्रभु श्रीमान् बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘स्वयंभू’ हुये प्रभु निज में निज ज्ञान प्रगट करके।
निंहगुरू की तनिक अपेक्षा थी निज को गुरू स्वयं बना करके।।
निज द्वारा निज को निज में ध्या, स्वयंमेव स्वयंभू आप बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वृषभ’ धर्मघन मेघ सतत् दिव्यध्वनि वर्षा करते हैं।
‘वृष’ धर्म अहिंसा लक्षण से ‘भा’ शोभित होते रहते हैं।।
अथवा भक्तों के लिये सदा इच्छित वर्षा कर वृषभ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंभव’ शं-सुख भव-हो तुमसे इससे शंभव कहलाते हो।
अथवा ‘संभव’ सं-समीचीन भव-जन्म धरा मुस्काते हो।।
हे संभव शांतमूर्ति प्रभु तुम वंदन करते हम शांत बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।४।।
ॐ ह्रीं शंभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शम्भू’ शं-परमानन्दरूप सुख देने वाले आप प्रभो।
इंद्रिय विषयों से रहित अतीन्द्रिय सौख्य सुधारस तीन विभो।।
परमानन्दामृत पीने की शक्ती दीजे हे नाथ! हमें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।५।।
ॐ ह्रीं शंभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा से हुये ‘आत्मभू’ हैं आत्मा शुध बुद्ध स्वभावी है।
चिच्चमत्कार लक्षण परमैक ब्रह्ममय सौख्य स्वभावी है।।
टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणी आत्मा भू-धरा पाई तुमने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।६।।
ॐ ह्रीं आत्मभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘स्वयंप्रभ’ आप स्वयं, प्रकृष्ट शोभते रहते हैं।
निज प्रभा-कांति से त्रिभुवन को भी आप प्रकाशित करते हैं।।
मेरी निज आत्मप्रभा मुझको, मिल जावे गुणमणि तेज घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।७।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘प्रभु’ हो सबके स्वामी होने से इस जग में।
परिपूर्ण समर्थ नाथ तुमही, भक्तों के मनरथ भरने में।।
मैं स्वयं समर्थ बनूँ निज को, पाने में सब पुरुषार्थ बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।८।।
ॐ ह्रीं प्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भोक्ता’ प्रभु आप सदा परमानंदसुख के अनुभव कर्ता हैं।
निजके अनंक दृग ज्ञान वीर्य सुखरूप चतुष्टय भर्ता हैं।।
निज आत्मा से उत्पन्न परम आह्लाद सौख्य हो प्राप्त हमें।
मैं प्रभु नामावलि काे पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।९।।
ॐ ह्रीं भोक्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘विश्वभू’ केवलज्ञान अपेक्षा व्याप्त विश्व में हो।
अभवा भू-मंगल करें विश्व का या वृद्धि भी करते हो।।
भू गत्यर्थक-ज्ञानार्थक है त्रैलोक्य ज्ञान है नाथ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१०।।
ॐ ह्रीं विश्वभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अपुनर्भव’ नाथ पुनर्भव निंह प्रभु जन्म मरण से छूट चुके।
अथवा भव-रुद्र विष्णु ब्रह्मा इन देवरूप निंह हो सकते।।
अर्हत सर्वज्ञ आप भगवन् निंह पुनर्जन्म धरते जग में।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।११।।
ॐ ह्रीं अपुनर्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वात्मा’ आप विश्व को निज सदृश गिनते विश्वात्मा हैं।
या विश्व-सुकेवल ज्ञानमयी आत्मा-स्वरूप विश्वात्मा हैं।।
त्रिभुवनस्थित प्राणीगण को, निज सदृश गिना सु दयालु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१२।।
ॐ ह्रीं विश्वात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वलोकेश’ विश्वके-तीनलोक के जीवों के।
प्रभु ईश-नाथ बस एक आप, निंह अन्य कोई भी बन सकते।।
जो खुद की रक्षा कर न सके वो जग के ईश कभी न बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१३।।
ॐ ह्रीं विश्वलोकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘विश्वतश्चक्षु’ आप सब विश्व-लोक में व्याप्त हुआ।
चक्षू-केवल दर्शन प्रभु का इससे प्रभु ने सब देख लिया।।
श्रुतचक्षू से केवलचक्षू पाया जगदर्शी आप बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१४।।
ॐ ह्रीं विश्वतश्चक्षुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षर’ प्रभु क्षरण न होता है, निंह चलित आप हो सकते हैं।
या अक्ष-इन्द्रियों को मन को, वश में कर अक्षर बनते हैं।
तुम नाम स्तुति करते करते, मेरा भी अक्षर नाम बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१५।।
ॐ ह्रीं अक्षराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्ववित्’ ज्ञानरश्मि से विश्व माहिं सुप्रविष्ट हुये।
सब विश्व-चराचर जग जाना, अतएव विश्ववित् प्रगट हुये।।
यह आत्मा ज्ञानस्वभावी है मुझ अल्पज्ञान भी पूर्ण बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१६।।
ॐ ह्रीं विश्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वविद्येश’ आपकी विद्या विश्वा-सकला है।
वह सकल विमल कैवल्य ज्ञानमय पूर्ण स्वरूप अविकला है।।
तुम गुण गा गा कर भव्य जीव, सब विद्याओं के ईश बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१७।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्येशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वयोनि’ सम्पूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति के कारण हो।
संपूर्ण पदार्थों के उपदेशक विश्वयोनि जगतारण हो।।
तुम नाम मंत्र जपते जपते, भाक्तिक जन तुम सम नाथ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१८।।
ॐ ह्रीं विश्वयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अनश्वर’ कभी नाश, निंह हो सकता युग युग तक भी।
आत्मा के नाशक गुणघातक, कर्मों का नाश किया है भी।।
प्रभु मुझे अनश्वर पद दे दो, इस हेतु वंदना करूँ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१९।।
ॐ ह्रीं अनश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वदृश्वा’ हो जग को इक क्षण में ही देख लिया।
तुम गुणस्तुति करते करते, भव्यों ने तुमको देख लिया।।
मैं भी तुमको अवलोकन कर, निज को देखूँ यह युक्ति बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२०।।
ॐ ह्रीं विश्वदृश्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभु’ आप विशेष करें मंगल, भविके तारन में समरथ हैं।
निज समवसरण में प्रभू राजते लोकालोक विजानत हैं।।
निजकेवलज्ञानकिरण से लोकालोक व्याप्त कर विभू बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२१।।
ॐ ह्रीं विभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धाता’ चहुंगति में पड़े जीव को निकाल कर मुक्तीपद में।
धर देते अथवा सर्व प्राणियों, का पालन करते जग में।।
प्रभु परम कारुणिक आप, सर्व रक्षा कर धाता स्वयं बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२२।।
ॐ ह्रीं धात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वेश’ विश्व-त्रैलोक्य ईश-स्वामी त्रिभुवन के रक्षक हो।
उपदेश अिंहसामयी दिया, सबके बंधू प्रतिपालक हो।
प्रभु धर्म आपका विश्व धर्म, भवसागर तारण सेतु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२३।।
ॐ ह्रीं विश्वेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आपका ‘विश्वलोचन’ त्रिभुवन, प्राणी के चक्षु समान कहें।
सबको हित का उपदेश दिया, इस कारण सबके नेत्र कहें।।
अथवा सब जगका इक क्षण में, अवलोकन करते आप घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२४।।
ॐ ह्रीं विश्वलोचनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वव्यापी’ कण कण में ज्ञान आपका व्याप रहा।
त्रिभुवन के सर्वपदार्थ आप, जाने ऐसा विज्ञान लहा।।
नहिं आत्म प्रदेशों में व्यापक, तन में ही रहें प्रदेश घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२५।।
ॐ ह्रीं विश्वव्यापिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरिगीतिका-छंद
‘विधु’ आप कर्म विधान करते कर्म विधि बतलावते।
निजज्ञान केवल किरण से, मोहान्धकार भगावते।।
निज ज्ञान ज्योती प्रगट हेतू नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं विधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘वेधा’ धर्म की सृष्टी करें सुखहेतु हैं।
जिनधर्म तीर्थ चलावते, इस हेतु भवदधि सेतु हैं।।निज।।२७।।
ॐ ह्रीं वेधसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नाम ‘शाश्वत’ धारते, शश्वत विराजें मोक्ष में।
निज भक्त को शाश्वत, परमपद दे रहे हैं लोक में।।निज।।२८।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वतोमुख’ समवसृति में, चारदिश चउमुख दिखें।
या जल सदृश भवि पाप कीचड़, धोय स्वच्छ सु कर सकें।।निज।।२९।।
ॐ ह्रीं विश्वतोमुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वकर्मा’ कर्मभूमि, की व्यवस्था के समय।
असि मषि प्रभृति सब क्रिया, उपदेशी सभी को उस समय।।निज।।३०।।
ॐ ह्रीं विश्वकर्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगज्जेष्ठ’ त्रिलोक में, भी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ महान हैं।
तुमसे बड़ा निंह और कोई, अत: सर्व प्रधान हैं।।निज।।३१।।
ॐ ह्रीं जगज्जेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वमूर्ति’ अनंत गुणमय देहधारी आप हैं।
या सर्व वस्तु ज्ञान दर्पण में, झलकते साफ हैं।।निज।।३२।।
ॐ ह्रीं विश्वमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘जिनेश्वर’ भव्य, सम्यग्दृष्टि मुनिगण आदि के।
ईश्वर कहाते आप इस, हेतू जिनेश्वर सार्व के।।निज।।३३।।
ॐ ह्रीं जिनेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वदृक्’ संसार की, सब वस्तु सत्तामात्र से।
अवलोकते हैं आप नित, प्रति सर्वदर्शी नाम से।।निज।।३४।।
ॐ ह्रीं विश्वदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वभूतेशा’ तुम्हीं, सब प्राणिगण के ईश हैं।
या विश्वभू-त्रैलोक्य लक्ष्मी, ईश सब भूतेश हैं।।निज।।३५।।
ॐ ह्रीं विश्वभूतेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वज्योती’ विश्व के लोचन जगत में ख्यात हैं।
प्रभु आप केवलज्ञान ज्योती, सर्व जग में व्याप्त हैं।।निज।।३६।।
ॐ ह्रीं विश्वज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘अनीश्वर’ आपसम, निंह अन्य, ईश्वर लोक में।
प्रभु ईश सबके आप निंह कोई, आपका प्रभु लोक में।।निज।।३७।।
ॐ ह्रीं अनीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन आप घाती कर्मशत्रू, जीतकर ‘जिन’ हो गये।
मन इंद्रियों को जीतकर, ‘जिन’ नाम सार्थक कर दिये।।
निज ज्ञान ज्योती प्रगट हेतू नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३८।।
ॐ ह्रीं जिनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जिष्णु’ तुम कर्मारि जीतन, का स्वभाव प्रसिद्ध है।
जयशील शासन आपका, जग में सदैव विशुद्ध है।।निज।।३९।।
ॐ ह्रीं जिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमेयात्मा’ आप में, आनन्त्य गुण अतिशय भरे।
निंह जान सकता अन्य कोई, माप नहिं सकता खरे।।निज।।४०।।
ॐ ह्रीं अमेयात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वरीश’ तुम्हीं मही के ईश जग में ख्यात हैं।
इस हेतु भविजन नित्य ही, तुम को नमाते माथ हैं।।निज।।४१।।
ॐ ह्रीं विश्वरीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगत्पति’ त्रलोक्य के, स्वामी भविक त्राता तुम्हीं।
रक्षा करो सब द्वंद्व से, सुख शांति होवे आज ही।।निज।।४२।।
ॐ ह्रीं जगत्पतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘अनंतजित्’ मिथ्यात्व आदी जीत के।
प्रभु नाम सार्थक कर दिया, संसार अनंत सुजीत के।।निज।।४३।।
ॐ ह्रीं अनंतजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अचन्त्यिात्मा’ तुम स्वरूप, अचिन्त्य जन मन वचन से।
नहिं चतवन कर सके कोई, आप आत्मा चित्त से।।निज।।४४।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘भव्यबंधु’ भव्य जन के, बंधु उपकारक तुम्हीं।
जो रत्नत्रय के योग्य हैं उनके हितंकर हो तुम्हीं।।निज।।४५।।
ॐ ह्रीं भव्यबंधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘अबंधन’ कर्म बंधन, से रहित गुणखान हो।
सब मोहद्वय आवरण विघ्न विघात कर जग मान्य हो।।निज।।४६।।
ॐ ह्रीं अबंधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन् ‘युगादीपुरुष’ चौथे काल युग की आदि में।
प्रभु तीर्थंकर पहले हुये युग आदि पुरुष भरत में।।निज।।४७।।
ॐ ह्रीं युगादिपुरुषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मा’ सुकेवल ज्ञान आदिक गुण सुवृद्धिंगत हुये।
निज शुद्ध आत्मजनित सुखामृत तृप्त ब्रह्मा तुम्हीं हुये।।निज।।४८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पंचब्रह्मामय’ सु पाँचों ज्ञानमय विख्यात हो।
या पंचपरमेष्ठी स्वरूप अनंत गुण से सार्थ हो।।निज।।४९।।
ॐ ह्रीं पंचब्रह्मामयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिव’ मोक्ष हो आनंदमय, हो सर्व दोष विहीन हो।
निर्वाण अक्षय शांत परम कल्याण पद में लीन हो।।निज।।५०।।
ॐ ह्रीं शिवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रोला छंद
प्रभु ‘पर’ नाम सुआप, सब जीवों को पालें।
ज्ञान आदि गुण सर्व, पूरण करने वाले।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँ युक्ती से।।५१।।
ॐ ह्रीं पराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परतर’ नाम धरंत, सबसे श्रेष्ठ तुम्हीं हो।
हित उपदेश करंत, प्रभु सर्वेश तुम्हीं हो।।नाम।।५२।।
ॐ ह्रीं परतराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सूक्ष्म’ आप मन इंद्रिय, इनके विषय नहीं हो।
केवलज्ञान अतीन्द्रय उनके विषय सही हो।।नाम।।५३।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्माय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमेष्ठी’ प्रभु परम, उत्तम पद में तिष्ठो।
अर्हंत सिद्धाचार्य आदि पाँचपद तिष्ठो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाऊँ युक्ती से।।५४।।
ॐ ह्रीं परमेष्ठिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम ‘सनातन’ आप सदा एक से रहते।
सदा सदा विद्यमान, रूप पुरातन धरते।।नाम।।५५।।
ॐ ह्रीं सनातनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंज्योति’ प्रभु आप, स्वयं आत्मा ज्योती।
चक्षू जगत्प्रकाश, स्वयं सूर्यमय ज्योती।।नाम।।५६।।
ॐ ह्रीं स्वयंज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आप ‘अज’ नाम, जग में निंह उत्पत्ती।
सदा जपूँ तुम नाम, मिले निजातम शक्ती।।नाम।।५७।।
ॐ ह्रीं अजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अजन्मा’ आप, जन्म कभी नहिं धारो।
गर्भवास नहिं आप, मेरा जन्म निवारो।।नाम।।५८।।
ॐ ह्रीं अजन्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मयोनि’ प्रभु आप, द्वादशांगमय वेदा।
इनकी उत्पत्ति आप, से होती बिन खेदा।।नाम।।५९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अयोनिज’ आप, योनि लाख चुरासी।
इनमें नहिं उत्पाद, हरो सकल दुख राशी।।नाम।।६०।।
ॐ ह्रीं अयोनिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मोहारीविजयीश’, मोहशत्रु को जीता।
या अरि मोह के आप, विजयशील शिवनीता।।नाम।।६१।।
ॐ ह्रीं मोहारिविजयिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु मल्ल को जीत, ‘जेता’ आप कहाये।
सर्व जगत के मीत, कर्म शत्रु जय पाये।।नाम।।६२।।
ॐ ह्रीं जेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मचक्र के ईश, श्रीविहार कर जग में।
भव्यों को संबोध, ‘धर्मचक्रि’ त्रिभुवन में।।नाम।।६३।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयाध्वज’ आप, दया ध्वजा फहरायी।
अथवा दया सुमार्ग, प्रगटाया सुखदायी।।नाम।।६४।।
ॐ ह्रीं दयाध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशान्तारि’ प्रभु आप, कर्म शत्रु बलवंता।
उनको किया प्रशांत, पूर्ण शांत भगवंता।।नाम।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांतारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अनन्तात्मा’ अनंत केवलज्ञानी।
या अनंत अविनाश, अंतरहित शिवगामी।।नाम।।६६।।
ॐ ह्रीं अनन्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘योगी’ चित्त निरोध, करके निज को ध्याया।
मन वचन तन कर शुद्ध, परम समाधि लगाया।।नाम।।६७।।
ॐ ह्रीं योगिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगी मुनि के ईश, गणधर से भी अर्चित।
‘योगीश्वरार्चित’ गीत, तीन भुवन में चर्चित।।नाम।।६८।।
ॐ ह्रीं योगीश्वरार्चिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘ब्रह्मवित्’ आप, ब्रह्म-आत्म को जाना।
उसका अनुभव-स्वाद, कर लीना शिव थाना।।नाम।।६९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘ब्रह्मतत्त्वज्ञ’ आत्मतत्त्व के ज्ञानी।
ज्ञान दया का मर्म, जान हुये निज ज्ञानी।।नाम।।७०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मतत्त्वज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मोद्याविद्’ आप, ब्रह्म विद्या के वेत्ता।
आत्म विद्या के नाथ, त्रिभुवन के गुरू नेता।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँ युक्ती से।।७१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मोद्याविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘यतीश्वर’ आप, यतियों के ईश्वर हो।
रत्नत्रय में यत्न, करें यती उन गुरू हो।।नाम।।७२।।
ॐ ह्रीं यतीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुद्ध’ आप रागादि, भाव कर्ममल रहिता।
स्फटिकमणी सम नाथ, करो मुझे मल रहिता।।नाम।।७३।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बुद्ध’ आप संपूर्ण, वस्तु जानते ज्ञानी।
केवलज्ञान सुबुद्धि, पायी अंतर्यामी।।नाम।।७४।।
ॐ ह्रीं बुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रबुद्धात्मा’ आप, सदा आपकी आत्मा।
शुद्ध ज्ञान से जगमगती सर्व गुणात्मा।।नाम।।७५।।
ॐ ह्रीं प्रबुद्धात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई-
नाम ‘सिद्धार्थ’ धरें जगसिद्धा
सर्व प्रयोजन हुये सुप्रद्धिा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ।
परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७६।।
ॐ ह्रीं सिद्धार्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सिद्धशासन’ तुम जग में।
शासन सर्व हितंकर सच में।।मैं.।।७७।।
ॐ ह्रीं सिद्धशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सिद्ध’ निजगुणमणि नंते।
प्राप्त किया शिवगामी संते।।मैं.।।७८।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सिद्धांतविद्’ सर्वप्रकाशी।
द्वादशांग जानो निज भासी।।मैं.।।७९।।
ॐ ह्रीं सिद्धांतविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्येय’ आप, मुनिगण आराध्या।
योगिध्यान के ध्येय सुसाध्या।।मैं.।।८०।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धसाध्य’ प्रभु के सब कार्या।
सिद्ध हो चुके हैं निरबाध्या।।मैं.।।८१।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाध्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगद्धित’ जग हितकर्ता।
सबके लिए ‘पथ्य’ सुखभर्ता।।मैं.।।८२।।
ॐ ह्रीं जगद्धिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहिष्णु’ गुण क्षमा धरे हो।
सहनशील हो सौख्य भरे हो।।मैं.।।८३।।
ॐ ह्रीं सहिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अच्युत’ निज स्वभाव से च्युत ना।
ज्ञानादिकगुण युत परमात्मा।।मैं.।।८४।।
ॐ ह्रीं अच्युताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अनंत’ अन्तक से रहिता।
गुण अनंत सुख आदिक सहिता।।मैं.।।८५।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभविष्णू’ बहु प्रभावशाली।
शक्ती अनंती समरथशाली।।मैं.।।८६।।
ॐ ह्रीं प्रभविष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘भवोदभव’ भव सब श्रेष्ठा।
पंच विद्या संसार बिनष्टा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ।
परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८७।।
ॐ ह्रीं भवोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभूष्णु’ सब शक्तीशाली।
इंद्रादिक के प्रभु गुणमाली।।मैं.।।८८।।
ॐ ह्रीं प्रभूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजर’ वृद्ध निंह होते कबहूँ।
सर्व दु:ख नाशो मुझ अबहूँ।।मैं.।।८९।।
ॐ ह्रीं अजराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अजर्य’ नाम के धारी।
तुम गुण जीर्ण न हों अविकारी।।मैं.।।९०।।
ॐ ह्रीं अजर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भ्राजिष्णू’ ज्ञानादि गुणों से।
अतिशय दीप्तमान् निज गुण से।।मैं.।।९१।।
ॐ ह्रीं भ्राजिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीश्वर’ केवलज्ञानमयी जो।
बुद्धी उसके ईश्वर प्रभु हो।।मैं.।।९२।।
ॐ ह्रीं धीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अव्यय’ व्यय निंह नाथ तुम्हारा।
शिवपद प्राप्त किया सुखकारा।।मैं.।।९३।।
ॐ ह्रीं अव्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मेंधन को अग्निसमाना।
‘विभावसु’ तमहर रवि माना।।मैं.।।९४।।
ॐ ह्रीं विभावसवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुनि उत्पन्न जगत में निंह हों।
‘असंभूष्णु’ मुझ जन्मविलय हो।।मैं.।।९५।।
ॐ ह्रीं असम्भूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंभूष्णु’ स्वयमेव हुये हो।
सिद्ध अवस्था प्राप्त किये हो।।मैं.।।९६।।
ॐ ह्रीं स्वयंभूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘पुरातन’ बहुत प्राचीना।
द्रव्यदृष्टि से आदि विहीना।।मैं.।।९७।।
ॐ ह्रीं पुरातनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमात्मा’ अतिशय उत्कृष्टा।
परम ज्ञानसुख गुणमणि निष्ठा।।मैं.।।९८।।
ॐ ह्रीं परमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमोत्कृष्ट ज्योतिमय ज्ञानी।
‘परंज्योति’ गुणमणि रजधानी।।मैं.।।९९।।
ॐ ह्रीं परंज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन जगत् के परमेश्वर हो।
‘त्रिजगत्परमेश्वर’ तुम हो।।मैं.।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्परमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
‘श्रीमान’ नाम से लेकर के, ‘त्रिजगत्परमेश्वर’ तक नामा।
सौ नाम आपके सार्थक हैं, इंद्रों से स्तुत गुणधामा।।
इन नाममंत्र को जप जप के, बस ‘सिद्ध’ नाम इक पा जाऊँ।
प्रभु तुम सम शुद्ध अवस्था हो, निंह बार बार जग में आऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमदादिशतनामावलिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
जन्म मरण व्याधी महा, उसके नाशन हेतु।
आप भिषग्वर विश्व में, नमूँ नमूँ शिव हेतु।।१।।
-पंच चामर छंद-
जयो जिनेश! आपही अनंत ज्ञान पुंज हो।
जयो जिनेश! आपही अनंत दर्शकुंज हो।।
जयो जिनेश! आपही अनंत वीर्यवान् हो।
जयो जिनेश! आपही अनंत सौख्यधाम हो।।२।।
स्वयंवरा अनंत ऋद्धियाँ स्वयं तुम्हें वरें।
हितंकरा अनंत सिद्धियाँ स्वयं चरण पड़ें।।
शुभंकरा ध्वनी अनंत भव्य को सुखी करें।
प्रियंकरा सभी असंख्य भव्य को सुखी करें।।३।।
गणेश आपको नमें गुणानुवाद गायके।
मुनीश आपको जपें अनूप रूप ध्यायके।।
सुरेश आपको जजें त्रिलोक पूज्य मानके।
नरेश आपको भजें त्रिकालविज्ञ जानके।।४।।
हितोपदेश आपका समूल मोह को हरे।
प्रभो! विहार आपका समस्त शोक को हरे।।
जिनेन्द्र! भक्ति आपकी अपूर्वशक्ति को भरे।
जिसके शक्ति के प्रताप मृत्यु मल्ल भी डरे।।५।।
प्रभो! अपूर्व शक्ति से करूँ त्रिकाल वंदना।
प्रभो! अपूर्व शक्ति हेतु मैं करूँ उपासना।।
प्रभो! मुझे स्वभक्त जानके संभाल लीजिये।
प्रभो! स्वयं के तीन रत्न दे खुशाल कीजिये।।६।।
-दोहा-
निजानंद पीयूष रस, निर्झरणी निर्मग्न।
‘ज्ञानमती’ सुख शासता, दे मुझ करो प्रसन्न।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीमदादिशतनाममंत्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-