स्थापना-नरेन्द्र छंद
एक सौ सत्तर कर्मभूमि में, तीर्थंकर होते हैं।
धर्मचक्र का सफल प्रवर्तन, कर जगमल धोते हैं।।
गणधर मुनिगण सुरपति नरपति, उनकी भक्ति करे हैं।
हम भी उनका आह्वानन कर पूजन भक्ति करे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो भव
भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक-मोतीदाम छंद
लिया है झारी में शुचिनीर, त्रिधारा दे पाऊँ भवतीर।
जिनेश्वर नामावलि को आज, जजूँ मैं पाऊँ शिव साम्राज।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिया है चंदन घिस घनसार।
चढ़ाऊँ चरणों में हिमसार।।जिनेश्वर.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले हैं तंदुल शशिसम श्वेत।
मिले आतम निधि पुँज धरेत।।जिनेश्वर.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
खिले हैं पुष्प सुगंधित सार।
करूँ पुष्पांजलि काम निवार।।जिनेश्वर.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सुधारस सम उत्तम पकवान, चढ़ाकर लूँ समतारस पान।
जिनेश्वर नामावलि को आज, जजूँ मैं पाऊँ शिव साम्राज।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा जगमग दीपक की होत।
जजूँ दीपक से निज उद्योत।।जिनेश्वर.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधी धूप अग्नि में ज्वाल।
जलाऊँ कर्म अरी तत्काल।।जिनेश्वर.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुसम्बी आम सरस फल लाय।
चढ़ाकर लूँ समकित सुखदाय।।जिनेश्वर.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिया है अर्घ्य चढ़ाकर थाल।
चढ़ाऊँ भक्ती से नत भाल।।जिनेश्वर.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरगुरू के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य दु:ख अंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
महापुण्य फल राशि, तीर्थंकर प्रकृति यहाँ।
मिले सर्वसुख राशि, पुष्पांजलि से पूजते।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
नरेन्द्र छंद
समीचीन गुणसहित आप, अतिशय स्थूल कहे हो।
‘स्थविष्ठ’ नाम के धारी, त्रिभुवन पूज्य भये हो।।
प्रभु तुम नाम मंत्र को पूजत, आतम निधि को पाऊँ।
परमाल्हाद परमसुख अमृत, पीकर शिवपद पाऊँ।।२०१।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृद्ध आप ज्ञानादिगुणों से, अत ‘स्थविर’ कहाये।
मुक्तीपद में तिष्ठ रहे हो, मुनिगण शीश नमायें।।प्रभु.।।२०२।।
ॐ ह्रीं स्थविराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्येष्ठ’ तीनों लोकों में, सबसे बड़े तुम्हीं हो।
इन्द्रिादिक से प्रशंसनीया, गुणमणि जड़े तुम्हीं हो।।प्रभु.।।२०३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके अग्रगामि होने से ‘प्रष्ठ’ आप कहलाये।
तुम गुणमाला जपते भविजन, दुख दारिद्र नशायें।।प्रभु.।।२०४।।
ॐ ह्रीं प्रष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्र फणींद्र नरेन्द्र चंद्र रवि, सबको अतिशय प्रिय हो।
सब मुनीन्द्र से वंद्य ‘प्रेष्ठ’ प्रभु, त्रिभुवन जनमन प्रिय हो।।प्रभु.।।२०५।।
ॐ ह्रीं प्रेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुविस्तृत धीधर, प्रभु ‘वरिष्ठधी’ मानें।
स्वपर भेद विज्ञान बुद्धि दो, जिससे भव दुख हानें।।प्रभु.।।२०६।।
ॐ ह्रीं वरिष्ठधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अत्यंत स्थिर-नित्य आप हैं, अतएव ‘स्थेष्ठ’ बखानें।
शत इन्द्रों के मध्य विराजें, कर्म कुलाचल हानें।।प्रभु.।।२०७।।
ॐ ह्रीं स्थेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्वादशगण में अतिशयगुरू, आप ‘गरिष्ठ’ कहे हो।
भक्तों को शिवमार्ग दिखाकर, कर्म कलंक दहे हो।।प्रभु.।।२०८।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत से प्रभू आप ही, रूप अनेक धरे हो।
अत: नाथ! ‘बंहिष्ठ’ नामसे, अतिशय रूप धरे हो।।२०९।।
ॐ ह्रीं बंहिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबमें अतिशय प्रशस्य हो प्रभु, ‘श्रेष्ठ’ नाम जग जाने।
सर्व दोष निरवारण करिये गुण से भरूँ खजानें।।प्रभु.।।२१०।।
ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय सूक्ष्म मात्र योगी के, ध्यान गम्य ही तुम हो।
अत ‘अणिष्ठ’ नाम से पूजें, सर्व सुखाकर तुम हो।।प्रभु.।।२११।।
ॐ ह्रीं अणिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाणी आप सर्व जगपूज्या, गौरवमयी बखानी।
प्रभु ‘गरिष्ठगी’ इसीलिये हो तुम वाणी कल्याणी।।प्रभु.।।२१२।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती संसार नष्ट कर, आप ‘विश्वमुट्’ मानें।
सर्वविश्व के पालन कर्ता, सुरनर मुनिगण जानें।।प्रभु.।।२१३।।
ॐ ह्रीं विश्वमुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वविश्व की करो व्यवस्था, नाथ ‘विश्वसृज्’ तुम हो।
धर्मसृष्टि के आदि विधाता, मुक्तिप्रदाता तुम हो।।प्रभु.।।२१४।।
ॐ ह्रीं विश्वसृजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनलोक के ईश तुम्हीं, ‘विश्वेट्’ मुनी कहते हैं।
सुरपति नरपति फणपति तुमको, निजस्वामी गिनते हैं।।प्रभु.।।२१५।।
ॐ ह्रीं विश्वेशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग की रक्षा करते हो, अत: ‘विश्वभुज्’ तुमही।
सर्व जीवगण सुतवत् पालन, पोषण करते तुमही।।प्रभु.।।२१६।।
ॐ ह्रीं विश्वभुजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखिल लोक के स्वामी तुमही, धर्मनीति सिखलाते।
अत: ‘विश्वनायक’ बन सबको, मोक्षमार्ग दिखलाते।।प्रभु.।।२१७।।
ॐ ह्रीं विश्वनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जगका विश्वास आप में, अत: आप ‘विश्वासी’।
तुम आशिष पा सभी प्राणिगण, बने मुक्ति के वासी।।प्रभु.।।२१८।।
ॐ ह्रीं विश्वासिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानरूप तुम आत्मा, अत: ‘विश्वरूपात्मा’।
लोकपूर्ण के समय प्रदेशों, से त्रिलोकमय आत्मा।।प्रभु.।।२१९।।
ॐ ह्रीं विश्वरूपात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विश्व-पांचविध भवको जीता, अत: ‘विश्वजित्’ तुम को।
कर्म मल्ल यममल्ल विजेता, विश्वविजेता तुम हो।।प्रभु.।।२२०।।
ॐ ह्रीं विश्वजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विजितांतक’ अंतक-यम जीता, मृत्युंजयी तुम्हीं हो।
निज भक्तों को मृत्युमल्ल से, सदा छुड़ाते तुम हो।।प्रभु.।।२२१।।
ॐ ह्रीं विजितांतकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभव’ आपका भवविशेष है, शतइन्द्रों से पूजित।
भव-संसार नष्टकर्ता तुम, सर्व गुणों से भूषित।।प्रभु.।।२२२।।
ॐ ह्रीं विभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभय’ सर्व कांती को जीता, सात भयों से छूटे।
तुम आश्रय लेकर भविप्राणी, सर्व भयों से छूटें।।प्रभु.।।२२३।।
ॐ ह्रीं विभयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वीर’ मोक्षलक्ष्मी के दाता, कर्मशत्रु के विजयी।
तुम पदपंकज भक्ति करें जो, बने कर्मरिपु विजयी।।प्रभु.।।२२४।।
ॐ ह्रीं वीराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विगत शोक प्रभु तुम ‘विशोक’ हो, भविजन शोक हरंता।
शं-सुख रूप आप की आत्मा, सौख्य अनंत धरंता।।प्रभु.।।२२५।।
ॐ ह्रीं विशोकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पद्धारि छंद-
प्रभु ‘विजर’ वृद्ध निंह कभी आप, तुमही ‘पुराणपुरुष’ विख्यात।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२२६।।
ॐ ह्रीं विजराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजरन्’ निंह जीरण होंय आप।
परमानंद क्रीड़ा करें आप।।तुम.।।२२७।।
ॐ ह्रीं अजरते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु रागरहित हो तुम ‘विराग’।
सब रागद्वेष को दिया त्याग।।तुम.।।२२८।।
ॐ ह्रीं विरागाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत पापरहित हैं ‘विरत’ आप।
भवसुखविरहित हो हरो पाप।।तुम.।।२२९।।
ॐ ह्रीं विरताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘असंग’ परिग्रह विहीन।
मेरे दुख संकट करो क्षीण।।तुम.।।२३०।।
ॐ ह्रीं असंगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विषयों से ही पृथग्भूत।
अतएव ‘विविक्त’ तुम्हीं अनूप।।तुम.।।२३१।।
ॐ ह्रीं विविक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विरहित मत्सर रागद्वेष।
अतएव ‘वीत्मत्सर’ जिनेश।।तुम.।।२३२।।
ॐ ह्रीं वीतमत्सराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विनेयजनताबंधु’ आप।
सब शिष्यों को करते सनाथ।।तुम.।।२३३।।
ॐ ह्रीं विनेयजनताबंधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विलीनाशेषकल्मष’ जिनेश।
कुछ पाप पंक निंह रहे शेष।।तुम.।।२३४।।
ॐ ह्रीं विलीनाशेषकल्मषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मुक्तिरमा के साथ योग।
अतएव तुम्हें कहते ‘वियोग’।।तुम.।।२३५।।
ॐ ह्रीं वियोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब योग-ध्यान जानो जिनेश।
अतएव ‘योगवित्’ हो महेश।।तुम.।।२३६।।
ॐ ह्रीं योगविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन को जाना महान्।
‘विद्वान्’ तुम्हीं हो ज्ञानवान्।।तुम.।।२३७।।
ॐ ह्रीं विदुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु धर्मसृष्टि को करो आप।
अतएव ‘विधाता’ हरो पाप।।तुम.।।२३८।।
ॐ ह्रीं विधात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम उत्तम चारित्रवान्।
अतएव ‘सुविधि’ विज्ञानवान्।।तुम.।।२३९।।
ॐ ह्रीं सुविधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम बुद्धी केवलज्ञान रूप।
अतएव ‘सुधी’ तुम हो अनूप।।तुम.।।२४०।।
ॐ ह्रीं सुधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम पूर्ण क्षमानिधि के निधान।
हो ‘क्षान्तिभाक्’ जग में महान।।तुम.।।२४१।।
ॐ ह्रीं क्षांतिभाजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पृथिवीमूर्ति’ तुम्हीं जिनेश।
सर्वंसह मेरे हरो क्लेश।।तुम.।।२४२।।
ॐ ह्रीं पृथिवीमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शांतिभाक्’ तुम शांतरूप।
मुझको भी शांती दो अनूप।।तुम.।।२४३।।
ॐ ह्रीं शांतिभाजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सलिलात्मक’ प्रभु जल के समान,शीतलता करते हो महान।।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४४।।
ॐ ह्रीं सलिलात्मकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वायुमूर्ति’ जगप्राणरूप।
त्रिभुवन में व्यापी ज्ञानरूप।।तुम.।।२४५।।
ॐ ह्रीं वायुमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘असंगात्मा’ महान।
परिग्रहविहीन भविसुख निधान।।तुम.।।२४६।।
ॐ ह्रीं असंगात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वह्निमूर्ति’ अग्नी समान।
कर्मेंधन भस्म किया महान।।तुम.।।२४७।।
ॐ ह्रीं वन्हिमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘अधर्मधक्’ पाप क्षीण।
सब भस्म अधर्म किया प्रवीण।।तुम.।।२४८।।
ॐ ह्रीं अधर्मदहे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्मों का कर दिया होम।
अतएव ‘सुयज्वा’ शांत सौम्य।।तुम.।।२४९।।
ॐ ह्रीं सुयज्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘यजमानात्मा’ निज का स्वभाव।
आराधन करते तज विभाव।।तुम.।।२५०।।
ॐ ह्रीं यजमानात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुत्वा’ निजानंद भरके।
निजात्मोदधी में सदा स्नान करते।।२५१।।
ॐ ह्रीं सुत्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘सुत्रामपूजित’ कहाये।
सभी इन्द्र पूजें तुम्हें शीश नायें।।प्रभु.।।२५२।।
ॐ ह्रीं सुत्रामपूजिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘ऋत्विक्’ किया यज्ञ भारी।
जला ज्ञान अग्नी करम सर्व जारी।।प्रभु.।।२५३।।
ॐ ह्रीं ऋत्विजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘यज्ञपति’ यज्ञ के ईश माने।
करम का किया होम जग सर्व जाने।।प्रभु.।।२५४।।
ॐ ह्रीं यज्ञपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘याज्य’ हो सर्व पूजा करे हैं।
सभी इंद्र मिल आप अर्चा करें हैं।।प्रभु.।।२५५।।
ॐ ह्रीं याज्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘यज्ञांग’ माने जगत् में।
नहीं आप बिन पूज्य हो कोई जग में।।प्रभु.।।२५६।।
ॐ ह्रीं यज्ञांगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो मृत्युजित् आप ‘अमृत’ कहाये।
तृषा रोगहर सौख्य अमृत पिलायें।।प्रभु.।।२५७।।
ॐ ह्रीं अमृताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगनिज्ञान में होम दीया अशुभ को।
‘हवी’ आप को सौख्य दीया सभी को।।प्रभु.।।२५८।।
ॐ ह्रीं हविषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘व्योममूर्ती’ करमलेप हीना।
सभी लोक को ज्ञान से व्याप्त कीना।।प्रभु.।।२५९।।
ॐ ह्रीं व्योममूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमूर्तातमा’ वर्ण रस गंध हीना।
सदा भक्त को सौख्य देते प्रवीणा।।प्रभु.।।२६०।।
ॐ ह्रीं अमूर्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘निर्लेप’ सब लेप हीना।
करम लेप नाश निजानंद लीना।।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ।
जगत के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६१।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा आप निर्मल सभी मल विहीना।
करम पंक धोकर महासौख्य लीना।।प्रभु.।।२६२।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा एकसे आप रहते ‘अचल’ हो।
अचलथान निर्वाण पाया अचल हो।।प्रभु.।।२६३।।
ॐ ह्रीं अचलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सोममूर्ती’ शशीवत् धवल हो।
सदा शांत सुन्दर प्रकाशी अमल हो।।प्रभु.।।२६४।।
ॐ ह्रीं सोममूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुसौम्यातमा’ सौम्य छवि आपकी है।
सभी के नयन चित्त को मोहती है।।प्रभु.।।२६५।।
ॐ ह्रीं सुसौम्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सूर्यमूर्ती’ महाध्वांत नाशा।
महातेज से सर्व जगको प्रकाशा।।प्रभु.।।२६६।।
ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभ’ तुम्हीं केवलज्ञान धारी।
महातेज से भव्य अंधेर टारी।।प्रभु.।।२६७।।
ॐ ह्रीं महाप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी मंत्र को जानते ‘मंत्रविद्’ हो।
महामोक्ष का मंत्र भी दे रहे हो।।प्रभु.।।२६८।।
ॐ ह्रीं मंत्रविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामंत्र करते प्रभो! ‘मंत्रकृत’ हो।
तथा चार अनुयोग शास्त्रादि कृत हो।।प्रभु.।।२६९।।
ॐ ह्रीं मंत्रकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी मंत्र से युक्त ‘मंत्री’ तुम्हीं हो।
महाध्यान मंत्रादि देते तुम्हीं हो।।प्रभु.।।२७०।।
ॐ ह्रीं मंत्रिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! मंत्र सप्ताक्षरी मूर्तिमय हो।
अत ‘मंत्रमूर्ति’ मुनी के विषय हो।।प्रभु.।।२७१।।
ॐ ह्रीं मंत्रमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते पदारथ सभी जानते हो।
महामोक्षगत हो ‘अनंतग’ तुम्हीं हो।।प्रभु.।।२७२।।
ॐ ह्रीं अनंतगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वतंत्र:’ स्व-आत्मा वहीं तंत्र-तनु है।
सभी कर्म बंधनरहित स्वात्मवश हो।।प्रभु.।।२७३।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाद्वादशांगीमयी शास्त्रकृत् हो।
अत: ‘तंत्रकृत’ जैनसिद्धांतकृत् हो।।प्रभु.।।२७४।।
ॐ ह्रीं तंत्रकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘स्वन्त’ अन्त:करण शोभना है।
तुम्हारा हि सामीप्य सुखप्रद घना है।।प्रभु.।।२७५।।
ॐ ह्रीं स्वन्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-अडिल्ल-छंद-
‘कृतान्तान्त’ प्रभु मृत्युराज को नाशिया।
अष्टकर्म को चूर मोक्षपद पा लिया।।
नाम मंत्र मैं जपूँ सर्व दुख दूर हों।
निज में परमानंदामृत सुख पूर हो।।२७६।।
ॐ ह्रीं कृतान्तान्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतान्तकृत्’ आगम कर्ता आप हो।
दिव्यध्वनि से भावग्रन्थकृत् आप हो।।२७७।।
ॐ ह्रीं कृतान्तकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृती’ पुण्यफलरूप कुशल विख्यात हो।
केवलज्ञान सौख्यमय हो विद्वान हो।।नाम.।।२७८।।
ॐ ह्रीं कृतिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतार्थ’ निजके पुरुषार्थ सफल किये।
भक्ती से भविजन कृतार्थ भी हो गये।।नाम.।।२७९।।
ॐ ह्रीं कृतार्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सत्कृत्य’ इन्द्र सत्कार किया करें।
आप भली विध सर्वप्रजा पोषण करें।।नाम.।।२८०।।
ॐ ह्रीं सत्कृत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतकृत्य’ आत्मकार्य सब कर चुके।
तुम पदभक्त स्वयं कृतकृत्य बनें सबे।।नाम.।।२८१।।
ॐ ह्रीं कृतकृत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘कृतक्रतू’ इन्द्रशत मिल पूजा करें।
तुम पूजा निंह निष्फल निश्चित ही फले।।नाम.।।२८२।।
ॐ ह्रीं कृतक्रतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नित्य’ हैं काल अनंतों भी रहें।
आप भक्त भी नित्य मोक्षपदवी लहें।।नाम.।।२८३।।
ॐ ह्रीं नित्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु जीत ‘मृत्युंजय’ प्रभु तुम हो गये।
तुमपद भक्त स्वयं मृत्युंजय पद लहें।।नाम.।।२८४।।
ॐ ह्रीं मृत्युंंजयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘अमृत्यु’ मरण रहित हैं लोक में।
तुम पद आश्रय पाय भव्य मृत्यू हने।।नाम.।।२८५।।
ॐ ह्रीं अमृत्यवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमृतात्मा’ अमृतवत् सुखदायि हो।
भव्य भजें निज आतम अमृतपायि हों।।नाम.।।२८६।।
ॐ ह्रीं अमृतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अमृतोद्भव’ कहलाते आप हैं।
अमृत-शिवपद में उत्पन्न सनाथ हैं।।नाम.।।२८७।।
ॐ ह्रीं अमृतोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मनिष्ठ’ प्रभु शुद्ध आत्म में लीन हैं।
केवलज्ञान व मोक्ष निष्ठ भवहीन हैं।।नाम.।।२८८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मनिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परंब्रह्म’ उत्कृष्ट ब्रह्ममय आप हैं।
पंचम ज्ञानस्वरूप विश्व के तात१ हैं।।नाम.।।२८९।।
ॐ ह्रीं परंब्रह्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मात्मा’ तुम ज्ञानस्वरूपी आत्मा।
केवलज्ञानगुणादि वृद्धिमय आत्मा।।नाम.।।२९०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘ब्रह्मसंभव’ आत्मा से उद्भवें।
भक्त आपसे ज्ञानरूप हों उद्भवें।।नाम.।।२९१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मसंभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मपति’ पंचमाज्ञानपती तुम्हीं।
गणधर इंद्रादिक के स्वामी हो तुम्हीं।।नाम.।।२९२।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मापतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘ब्रह्मेट्’ ब्रह्म के ईश हो।
ज्ञान चरित अरु मुक्ती के परमेश हो।।नाम.।।२९३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेश नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मपदेश्वर’ मुक्ती ईश्वरा।
गणधर मुनिगण सुरगण तुम वंदनपरा।।नाम.।।२९४।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मापदेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रसन्न’ प्रभु प्रहसितमुख शान्तीछवी।
भविजन स्वर्ग मोक्ष, सुखदायक हो तुम्हीं।।
नाम मंत्र मैं जपूँ सर्व दुख दूर हों।
निज में परमानंदामृत सुख पूर हो।।२९५।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रसन्नात्मा’ अति निर्मल आत्मा।
भवि कषाय मल धोय बने शुद्धात्मा।।नाम.।।२९६।।
ॐ ह्रीं प्रसन्नात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानधर्मदमप्रभू’ आप विख्यात हैं।
केवलज्ञान क्षमादिधर्म तप नाथ हैं।।नाम.।।२९७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मदमप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशमात्मा’ क्रोधादि कषाय न आप में।
परम शांतप्रभु भक्त शांतिमय परिणमें।।नाम.।।२९८।।
ॐ ह्रीं प्रशमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रशान्तात्मा’ प्रभु अतिशय शांत हो।
आप भक्त परिपूर्ण शांति को प्राप्त हों।।नाम.।।२९९।।
ॐ ह्रीं प्रशान्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पुराणपुरुषोत्तम’ सबमें श्रेष्ठ हो।
सर्व शलाका पुरुषों में भी ज्येष्ठ हो।।नाम.।।३००।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषोत्तमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
प्रभु स्थविष्ठ से पुराण पुरुषोत्तम तक नाम जपें जो भी।
वे शतक नाम धारें जग में फिर जीवनमुक्त बनें वे भी।।
मैं नामगोत्र विघ्नादि रहित निज शुद्ध आत्मपद पा जाऊँ।
इसलिये आप पदपद्म शक्ति करता हूँ फिर फिर शिर नाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठादिशतनामभ्य: नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारक-चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
लोकोत्तर फलप्रद तुम्हीं, कल्पवृक्ष जिनदेव।
नमूँ नमूँ तुमको सदा, करूँ भक्तिभर सेव।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर धर्म तीथेश्वर जगत् विख्यात हो।
जय जय अखिल संपत्ति के भर्ता भविकजन नाथ हो।।
लोकांत में जा राजते त्रैलोक्य के चूड़ामणि।
जय जय सकल जग में तुम्हीं हो ख्यात प्रभु चतामणी।।२।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी से प्रभो! भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव अरु भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अनंतानंत काल बिता दिये।।३।।
बहुजन्म संचित पुण्य से दुर्लभ मनुष योनि मिली।
हा! बालपन में जड़ सदृश सज्ज्ञान कलिका ना खिली।।
बहुपुण्य के संयोग से प्रभु आपका दर्शन मिला।
बहिरात्मा औ अंतरात्मा का स्वयं ही परिचय मिला।।४।।
तुम सकल परमात्मा बने जब घातिया आहत हुये।
उत्तम अतीन्द्रिय सौख्य पा प्रत्यक्ष ज्ञानी तब हुये।।
फिर शेष कर्म विनाश करके निकल परमात्मा बने।
कल-देह वर्जित निकल अकल स्वरूप शुद्धात्मा बने।।५।।
हे नाथ! बहिरात्मा दशा को छोड़ अंतर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें हो जाऊँ मैं परमातमा।।
संसार का संसरण तज त्रिभुवन शिखर पर आ बसूँ।
निज के अनंतानंत गुणमणि पाय निज में ही बसूँ।।६।।
तुम प्रसाद से भक्तगण, हो जाते भगवान।
‘ज्ञानमती’ निज संपदा, पाकर के धनवान।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां स्थविष्ठादिशतनाममंत्रेभ्य: जयमाला नम: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-