स्थापना-्नारेन्द्र छंद
मोक्षमार्ग के नेता त्रिभुवन वेत्ता वर तीर्थंकर।
चिच्चैतन्य सुधारस प्यासे, भविजन को क्षेमंकर।।
उनको इत आह्वानन करके, पूजूँ मन वच तन से।
आतम अनुभव अमृत हेतू वंदूँ अंजलि करके।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक-गीता छंद
अगणित कुओं का नीर पीया, प्यास फिर भी ना बुझी।
इस हेतु जल से पूजहूँ, अब मेट दो बाधा सभी।।
तीर्थंकरों के नाम जग में, सर्व सुख दातार हैं।
जो नाम मंत्रों को जपें, वे भव्य भवदधि पार हैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भविंसधु में भी चाह दावानल हमें झुलसा रहा।
इस हेतु चंदन से जजूँ, अब दु:ख निंह जाता सहा।।तीर्थं.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मसुख जो सहज मेरा, खंड खंड हुआ सभी।
उसके अखंडित हेतु अक्षत, पुंज से पूजूँ अभी।।तीर्थं.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
इस मदन ने बस जगत में जन, सर्व को वश में किया।
इसके निमूलन हेतु सुरभित, सुमन तुम अर्पण किया।।तीर्थं.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तन में क्षुधा व्याधी सदा, औषधि न कुछ उसके लिये।
इस हेतु से उत्तम सरस व्यंजन, आप ढिग अर्पण किये।।
तीर्थंकरों के नाम जग में, सर्व सुख दातार हैं।
जो नाम मंत्रों को जपें, वे भव्य भवदधि पार हैं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अज्ञान तम अति घोर छाया, आप पर दीखे नहीं।
इस हेतु दीपक से जजूँ, निजज्ञान रवि प्रगटे सही।।तीर्थं.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
इस कर्म ने मुझ संपदा को, लूट ली मुझ पास से।
इस हेतु इनको नाश करने, धूप खेऊँ चाव से।।तीर्थं.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
वांछित मिले इस हेतु जग में, देव सब पूजे सदा।
पर सफल अब तक ना हुआ, इस हेतु फल तुम अर्पिता।।तीर्थं.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि में वर रत्न धरके, अर्घ्य सुंदर ले लिया।
अनमोल निज संपत्ति हेतू अर्घ्य तुम अर्पण किया।।तीर्थं.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
गंगा नदि को नीर ले, श्री जिनवर पद कंज।
त्रयधारा देते मिले, मुझे शांति सुखकंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
तीर्थंकर की अर्चना, भरे स्वात्म विज्ञान।
रोक शोक दुख वंचना, करके करे महान।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
चौपाई (15 मात्रा)
‘महाशोकध्वज’ आप जिनेश।
वृक्ष अशोक चिह्न परमेश।।
आप नाम सब सुख की खान।
पूजत मिलता आत्म निधान।।३०१।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अशोक’ शोक से हीन।
आप भक्त हों शोक विहीन।।आप.।।३०२।।
ॐ ह्रीं अशोकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क’ नाम आत्म आधार।
सब भक्तों को सुखदातार।।आप.।।३०३।।
ॐ ह्रीं काय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्ष की सृष्टि करंत।
‘स्रष्टा’ नाम सुरेन्द्र यजंत।।आप.।।३०४।।
ॐ ह्रीं स्रष्ट्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पद्मविष्टर’ तुम नाम।
आसन स्वर्णकमल तुम स्वामि।।आप.।।३०५।।
ॐ ह्रीं पद्मविष्टराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मेश’ आप विख्यात।
लक्ष्मी के स्वामी हो नाथ।।आप.।।३०६।।
ॐ ह्रीं पद्मेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘पद्मसंभूति’ जिनेश।
चरण कमल तल कमल हमेश।।आप.।।३०७।।
ॐ ह्रीं पद्मसंभूतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मनाभि’ पंकजसम नाभि।
वंदत मिटती सर्व उपाधि।।आप.।।३०८।।
ॐ ह्रीं पद्मनाभये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनुत्तर’ तुम सम अन्य।
श्रेष्ठ नहीं प्रभु तुम ही धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान।
पूजत मिलता आत्म निधान।।३०९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मयोनि’ माता का गर्भ।
पद्माकृति से तुम उत्पत्ति।।आप.।।३१०।।
ॐ ह्रीं पद्मयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगद्योनि’ धर्ममय जगत्।
उसकी उत्पत्ति कारण जिनप।।आप.।।३११।।
ॐ ह्रीं जगद्योनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘इत्य’ आप की प्राप्ती हेतु।
भविजन तप तपते बहुभेद।।आप.।।३१२।।
ॐ ह्रीं इत्याय नम: अघ्०र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्तुत्य’ इन्द्र मुनि आदि।
सबकी स्तुति योग्य अबाधि।।आप.।।३१३।।
ॐ ह्रीं स्तुत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘स्तुतीश्वर’ कहे।
स्तुति के ईश्वर ही रहें।।आप.।।३१४।।
ॐ ह्रीं स्तुतीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्तवनार्ह’ स्तुति के योग्य।
आप समान न अन्य मनोज्ञ।।आप.।।३१५।।
ॐ ह्रीं स्तवनार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हृषीकेश’ इंद्रिय के ईश।
विजितेंद्रिय हो सर्व अधीश।।आप.।।३१६।।
ॐ ह्रीं हृषीकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितजेय’ अनूप।
जीता मोह आदि अरि भूप।।आप.।।३१७।।
ॐ ह्रीं जितजेयाय् नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करने योग्य क्रियायें सर्व।
पूर्ण किया ‘कृतक्रिय’ नामार्ह।।आप.।।३१८।।
ॐ ह्रीं कृतक्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह गण के स्वामी आप।
अत: ‘गणाधिप’ हो निष्पाप।।आप.।।३१९।।
ॐ ह्रीं गणाधिपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वजनों में तुम ही श्रेष्ठ।
अत: जगत में हो ‘गणज्येष्ठ’।।आप.।।३२०।।
ॐ ह्रीं गणज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणना योग्य आप ही ‘गण्य’।
चौरासी लख गुण युत धन्य।।आप.।।३२१।।
ॐ ह्रीं गण्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण पवित्र आप ही ‘पुण्य’।
सबको पावन करें सुपुण्य।।आप.।।३२२।।
ॐ ह्रीं पुण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब गण शिवपथ में ले जाव।
‘गणाग्रणी’ प्रभु आप कहाव।।आप.।।३२३।।
ॐ ह्रीं गणाग्रण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानाद्यनंत गुण की खान।
नाथ ‘गुणाकर’ आप महान।।आप.।।३२४।।
ॐ ह्रीं गुणाकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लाख चुरासी गुण की वार्धि।
‘गुणाम्भोधि’ हरते भव व्याधि।।आप.।।३२५।।
ॐ ह्रीं गुणाम्भोधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग-भरतरी
नाथ! ‘गुणज्ञ’ कहावते, गुणमणि ज्ञाता आप।
सर्वदोष मुझ हान के, करो शीघ्र निष्पाप।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३२६।।
ॐ ह्रीं गुणज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणनायक’ चौरासी लख, गुणमणि के हो नाथ।
रोग शोक दुखनाश कर, गुण से करो सनाथ।।नाम.।।३२७।।
ॐ ह्रीं गुणनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्त्व आदि गुण आदरा, ‘गुणादरी’ तुम नाम।
क्रोध मोह सब नाशिये, झुक झुक करूँ प्रणाम।।नाम.।।३२८।।
ॐ ह्रीं गुणादरिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रजतम आदि विभावगुण, नाश किया प्रभु आप।
अत: ‘गुणोच्छेदी’ भये, करो मुझे निष्पाप।।नाम.।।३२९।।
ॐ ह्रीं गुणोच्छेदिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैभाविक गुण हीन हो, ‘निर्गुण’ कहें मुनीश।
या निश्चित ज्ञानादि गुण, धरते निर्गुण ईश।।नाम.।।३३०।।
ॐ ह्रीं निर्गुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यगी’ पुण्यमय, पावनवाणी आप।
मुझ वाणी पावन करो हरो सकल भव ताप।।नाम.।।३३१।।
ॐ ह्रीं पुण्यगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणयुत और प्रधान हो, अत: नाम ‘गुण’ आप।
भव्य आपको ही गुने, हरो सकल यम ताप।।नाम.।।३३२।।
ॐ ह्रीं गुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शरण्य’ हो जगत में, शरणागत प्रतिपाल।
सब दुख मथन करो सदा, नमूँ नमूँ नत भाल।।नाम.।।३३३।।
ॐ ह्रीं शरण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यवाक्’ प्रभु तुम वचन, भरें पुण्य भण्डार।
आतम निधि को देय के, करें मृत्यु संहार।।नाम.।।३३४।।
ॐ ह्रीं पुण्यवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूत’ आप पावन परम, भक्तन करो पवित्र।
अंतर आत्म उपाय से, लहूँ परमपद शीघ्र।।नाम.।।३३५।।
ॐ ह्रीं पूताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वरेण्य’ मुक्तीरमा, वरण किया स्वयमेव।
सबमें श्रेष्ठ तुम्हीं कहे, करो सकल दुख छेव।।नाम.।।३३६।।
ॐ ह्रीं वरेण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यनायक’ तुम्हीं, सकल पुण्य के ईश।
पुण्यसंपदा देउ मुझ, नमूँ नमूँ नत शीश।।नाम.।।३३७।।
ॐ ह्रीं पुण्यनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगण्य’ गणना नहीं, माप रहित गुण आप।
मेरे अनवधि गुण मुझे, देय हरो संताप।।नाम.।।३३८।।
ॐ ह्रीं अगण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यधी’ पावना, बुद्धि आपकी शुद्ध।
मुझ मन पावन कीजिये, होय आतमा शुद्ध।।नाम.।।३३९।।
ॐ ह्रीं पुण्यधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुण्य’ सर्वगण हित किया, गुण अनंत युत आप।
सर्वगुणों से पूर्ण कर, हरो दोष दुख पाप।।नाम.।।३४०।।
ॐ ह्रीं गुण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘पुण्यकृत्’ आपही, किया पुण्य हरपाप।
सब जन मन पावन किया, हो पवित्र निष्पाप।।नाम.।।३४१।।
ॐ ह्रीं पुण्यकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यशासन’ वहाँ, तुम शासन-मत शुद्ध।
आतम अनुशासन करूँ, देवो ऐसी बुद्धि।।नाम.।।३४२।।
ॐ ह्रीं पुण्यशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्माराम’ तुम्हीं प्रभो! धर्मोद्यान विशाल।
छाया फल दे स्वर्ग शिव, हरिये ताप दयालु।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३४३।।
ॐ ह्रीं धर्मारामाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘गुणग्राम’ हैं, मूलोत्तर गुण युक्त।
इंद्रियगांव उजाड़के, आप हुये जग मुक्त।।नाम.।।३४४।।
ॐ ह्रीं गुणग्रामाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यापुण्यनिरोधका’, शुद्ध आत्म में लीन।
पुण्य पाप को रोक के, भये मुक्ति आधीन।।नाम.।।३४५।।
ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पापापेत’ तुम्हीं प्रभो! पाप रहित निष्पाप।
मेरे सब संकट हरो, पुण्य भरो हत पाप।।नाम.।।३४६।।
ॐ ह्रीं पापापेताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपापात्मा’ कहे, पाप हीन अतिशुद्ध।
मेरे सब अघ क्षय करो, होऊँ सिद्ध विशुद्ध।।नाम.।।३४७।।
ॐ ह्रीं विपापात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपाप्मा’ कर्म अघ, चूर किया भगवान्।
तुम भक्ती से भव्यजन, बने सकल धनवान।।नाम.।।३४८।।
ॐ ह्रीं विपाप्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्ममल कल्मष धोकर शुद्ध।
प्रभो! ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं मुझे करो झट शुद्ध।।नाम.।।३४९।।
ॐ ह्रीं वीतकल्मषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘निर्द्वंद्व’ हैं, द्वंद्व-कलह से मुक्त।
सर्व परिग्रह हीन हैं, करो हमें भव मुक्त।।नाम.।।३५०।।
ॐ ह्रीं निर्द्वंद्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामाrति स्वाहा।
राग-वंदों दिगंबर गुरू……….
प्रभु आप ‘निर्मद’ आठ विध मद रहित पूज्य महान।
तुम भक्त अतिशय स्वाभिमानी आत्म गौरववान।।
तुम नाम की अर्चा करूँ मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।३५१।।
ॐ ह्रीं निर्मदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शांत’ क्रोधादी कषायें नष्ट कर दी आप।
तुम पद कमल की भक्ति भी करती भविक मन शांत।।तुम.।।३५२।।
ॐ ह्रीं शांताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्मोह’ प्रभु सब मोह अरु अज्ञान से भी दूर।
तुम भक्त का चारित्र दर्शन मोह करते दूर।।तुम.।।३५३।।
ॐ ह्रीं निर्मोहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘निरुपद्रव’ उपद्रव, उपसरग से हीन।
तुम भक्त भी जड़मूल से करते उपद्रव क्षीण।।तुम.।।३५४।।
ॐ ह्रीं निरुपद्रवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु दिव्यचक्षु नेत्रस्पंदन रहित विख्यात।
इससे कहें मुनि ‘निर्निमेष’ सुपाय ज्ञानविकास।।तुम.।।३५५।।
ॐ ह्रीं निर्निमेषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराहार’ न आपको है कभी कवलाहार।
तुम भक्त भी आहार विरहित होंय निर्नीहार।।तुम.।।३५६।।
ॐ ह्रीं निराहाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्क्रिय’ प्रभो! सामायिकादि क्रियाओं से शून्य।
संसार की सबही क्रियाओं से रहित सुखपूर्ण।।तुम.।।३५७।।
ॐ ह्रीं निष्क्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘निरुपप्लव’ विघन बाधारहित भगवान।
तुम पाद अर्चन से सभी निर्विघ्न होते काम।।तुम.।।३५८।।
ॐ ह्रीं निरुपप्लवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कलंक’ कलंक-अपवादादि अघ से हीन।
संपूर्ण कर्मकलंक नाशा विश्वज्ञान प्रवीण।।तुम.।।३५९।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरस्तैना’ सर्व एनस-पाप से हो दूर।
तुम भक्त भी मोहारि अघ नाशन करें बन शूर।।तुम.।।३६०।।
ॐ ह्रीं निरस्तैनसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्धूतआगस्’ आप हैं अपराध अघ से हीन।
हे नाथ मुझ अपराध नाशो करो ज्ञान अधीन।।तुम.।।३६१।।
ॐ ह्रीं निर्धूतागसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरास्रव’ संपूर्ण आस्रव रोक संवररूप।
मुझ पाप आस्रव नाशिये हो शुद्ध आतमरूप।।तुम.।।३६२।।
ॐ ह्रीं निरास्रवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘विशाल’ अनुपम शांति देते नित्य।
सबसे महान-विशाल मानें नमूँ मैं धर प्रीत्य।।तुम.।।३६३।।
ॐ ह्रीं विशालाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘विपुलज्योति’ समस्त लोकालोकव्यापक ज्ञान।
तुम ज्ञानज्योति से हनें भवि मोह ध्वांत महान्।।तुम.।।३६४।।
ॐ ह्रीं विपुलज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अतुल’ तुलनारहित जग में मुक्तिलक्षमीनाथ।
निंह तोल सकते गुण तुम्हारे सर्व गण के नाथ।।तुम.।।३६५।।
ॐ ह्रीं अतुलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘अचिन्त्यवैभव’ विभव त्रिभुवन मान्य।
मन से न सुरपति योगिगण भी सोच सकते साम्य।।तुम.।।३६६।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यवैभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘सुसंवृत’ आप सम्यक पूर्ण संवर युक्त।
तुम पदकमल की भक्ति से हों भव्य आस्रव मुक्त।।तुम.।।३६७।।
ॐ ह्रीं सुंसंवृत्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगुप्तात्मा’ आप आत्मा कर्मअरि से गुप्त।
तुम भक्त भी मन वचन कायिक गुप्ति से हों युक्त।।तुम.।।३६८।।
ॐ ह्रीं सुगुप्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुबुध’ अच्छी तरह त्रिभुवन जानते हैं आप।
मुझको निजातम तत्त्व का सुखबोध देवो आज।।तुम.।।३६९।।
ॐ ह्रीं सुबुधे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुनयतत्त्ववित्’ सापेक्ष नय का मर्म।
जानों तुम्हीं बतला दिया जिन अनेकांत सुधर्म।।तुम.।।३७०।।
ॐ ह्रीं सुनयतत्त्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘एकविद्य’ सुएक केवलज्ञान विद्या युक्त।
मतिश्रुत अवधि मनपर्ययी चउज्ञान विद्या मुक्त।।तुम.।।३७१।।
ॐ ह्रीं एकविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘महाविद्य’ महान् केवलज्ञान विद्याधार।
अठरा महाभाषा लघु तुम सात सौ ध्वनि कार।।तुम.।।३७२।।
ॐ ह्रीं महाविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मुनि’ आप त्रिभुवन चराचर को जानते प्रत्यक्ष।
मैं आपका वंदन करूँ हो स्वात्मज्ञान प्रत्यक्ष।।तुम.।।३७३।।
ॐ ह्रीं मुनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘परिवृढ’ सब गुणों का वर्धन किया जिनराज।
तुम वन्दना से सर्व मेरे गुण प्रगट हो आज।।तुम.।।३७४।।
ॐ ह्रीं परिवृढाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पती’ प्राणीवर्ग को संसार दुख से काढ़।
रक्षा करो त्रिभुवनपती सुर नमें रुचिधर गाढ़।।तुम.।।३७५।।
ॐ ह्रीं पत्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वसंततिलका छंद
वैवल्यज्ञानमय बुद्धि धरंत ‘धीश’।
मेरे सुज्ञानमय ज्योति करो मुनीश।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३७६।।
ॐ ह्रीं धीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विद्यानिधी’ स्वपर शास्त्र सुज्ञानरूपा।
भंडार आप उसके निधि है अनूपा।।हे नाथ.।।३७७।।
ॐ ह्रीं विद्यानिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य की सकल वस्तु प्रतक्ष जानो।
‘साक्षी’ कहें सुरपती प्रभु ज्ञान भानू।।हे नाथ.।।३७८।।
ॐ ह्रीं साक्षिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्षैक मार्ग प्रकटी करते ‘विनेता’।
पादाब्ज में नित नमूँ मुझ विघ्न नाशो।।हे नाथ.।।३७९।।
ॐ ह्रीं विनेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु विनाश ‘विहितांतक’ नाम धारा।
मेरे समस्त दुख रोष मिटाय दीजे।।हे नाथ.।।३८०।।
ॐ ह्रीं विहितान्तकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो दुर्गती दुख से बचाते।
साधू ‘पिता’ कह रहे सुख के जनक हो।।हे नाथ.।।३८१।।
ॐ ह्रीं पित्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य के गुरू कहें सबके सुत्राता।
इससे ‘पितामह’ तुम्हें कहते गणीशा।।हे नाथ.।।३८२।।
ॐ ह्रीं पितामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो नित भवोदधि दु:ख से ही।
‘पाता’ कहें सुरपती मुझको उबारो।।हे नाथ.।।३८३।।
ॐ ह्रीं पात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा पवित्र कर ली निज की तुम्हीं ने।
इससे ‘पवित्र’ मुझको भि पवित्र कर दो।।हे नाथ.।।३८४।।
ॐ ह्रीं पवित्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य जन को सुपवित्र करते।
‘पावन’ कहें मुनि तुम्हें मुझ पाप नाशो।।हे नाथ.।।३८५।।
ॐ ह्रीं पावनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य तप कर प्रभु आप जैसा।
होना चहें ‘गति’ अत: सबको शरण भी।।हे नाथ.।।३८६।।
ॐ ह्रीं गतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।‘
त्राता’ समस्त जन रक्षक भी तुम्हीं हो।
पादाब्ज आश्रय लिया अतएव मैंने।।हे नाथ.।।३८७।।
ॐ ह्रीं त्रात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो वैद्य आप भव रोग विनाश कर्ता।
इससे ‘भिषग्वर’ तुम्हीं मुझ व्याधि नाशो।।हे नाथ.।।३८८।।
ॐ ह्रीं भिषग्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वर्य’ आप जग में अतिश्रेष्ठ माने।
मुक्तीरमा तुम वरण अभिलाष धारे।।हे नाथ.।।३८९।।
ॐ ह्रीं वर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छानुकूल सब वस्तु प्रदान करते।
इससे ‘वरद’ सुरग मोक्ष तुम्हीं प्रदाता।।हे नाथ.।।३९०।।
ॐ ह्रीं वरदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से ‘परम’ आप त्रिलोक लक्ष्मी।
धारें अत: जन सभी तुम पास आते।।हे नाथ.।।३९१।।
ॐ ह्रीं परमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा व अन्य जन को भि पवित्र करते।
इससे ‘पुमान्’ तुम ही जग के हितैषी।।हे नाथ.।।३९२।।
ॐ ह्रीं पुंसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘कवि’ द्वादश अंग वर्णे।
सद्धर्म के कथन में अतिशायि पटुता।।हे नाथ.।।३९३।।
ॐ ह्रीं कवये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ना आदि नांत अतएव ‘पुराण पुरुष’।
आत्मा पुराण पुरुषा प्रभु आपकी है।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३९४।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से अतिशयी प्रभु वृद्ध ही हो।
इस हेतु नाम तुम ‘वर्षीयान्’ पाया।।हे नाथ.।।३९५।।
ॐ ह्रीं वर्षीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुश्रेष्ठ हो ‘ऋषभ’ नाम धरा तुम्हीं ने।
इन्द्रादि वंद्य सुरपूजित सौख्य देवो।।हे नाथ.।।३९६।।
ॐ ह्रीं ऋषभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे देव! आप ‘पुरु’ हैं युग के विधाता।
संपूर्ण द्वादश गणों मधि मुख्य ही हो।।हे नाथ.।।३९७।।
ॐ ह्रीं पुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्पत्ति है प्रतिष्ठा गुण की तुम्हीं से।
इससे तुम्हीं ‘प्रतिष्ठाप्रसवादि’ नामा।।हे नाथ.।।३९८।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाप्रसवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण कार्य हित कारण ‘हेतु’ आप।
संपूर्ण ज्ञानमय नाथ! सुज्ञानदाता।।हे नाथ.।।३९९।।
ॐ ह्रीं हेतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो एकमात्र गुरू सर्व त्रिलोक में भी।
अतएव आप ‘भुवनैकपितामहा’ हो।।हे नाथ.।।४००।।
ॐ ह्रीं भुवनैकपितामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
प्रभु महाशोकध्वज आदि नाम सौ धारा सुरपति पूजित हो।
सौइंद्रों से वंदित गणधर मुनिगण से वंदित संस्तुत हो।।
प्रभु सात परम स्थान हेतु मैं नित प्रति तुम गुण को गाऊँ।
जब तक निंह मुक्ति मिले मुझको तुमपद में ही मैं रम जाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारक चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
रोला छंद
जय जय श्री जिनदेव, तुम महिमा अतिभारी।
जय जय तुम पद सेव, करें निकट संसारी।।
जय जय मुनिगण नित्य, तुम गुण महिमा गाते।
हृदय कमल के मािंह, तुमको सहज बिठाते।।१।।
भविजन मन गृह मािंह, जब तुम वास करोगे।
उनके सब संताप, प्रभु तब क्यों न हरोगे।।
तुम तन के संस्पर्श, पवन लगे तन में जब।
अहो कौन सी व्याधि, दूर नहीं होवे तब।।२।।
सीता को जब राम, अग्नि प्रवेश कराया।
लिया आपका नाम, अग्नी नीर बनाया।।
शील माहात्म्य विकास, बहुविध कमल खिले हैं।
नाम मंत्र परसाद, जन जन हृदय मिले हैं।।३।।
वारिषेण के घात, हेतू शस्त्र चलायो।
आप नाम तत्काल, रत्नहार बनायो।।
मनोरमा जप नाम, वज्र किवाड़े खोले।
विद्युच्चर तुम नाम, जप भव बंधन तोड़े।।४।।
मनोवती ने आप, नाम जपा था जब ही।
दर्श मिला तत्काल, देवनिमित्त से तब ही।।
पूज्यपाद तुम नाम, ले निज दृष्टी पाई।
मानतुंग गुणगान, कर निज कीर्ति बढ़ाई।।५।।
बहुत भक्त तुम नाम, लेकर निज दुख चूरे।
कहूँ कहाँ तक नाम, होय कभी ना पूरे।।
मुझको भी हे नाथ! नाम मंत्र का शरणा।
नहीं शक्ति कुछ नाथ! लेश मात्र गुण वरणा।।६।।
मुझ में अगणित दोष, उन पर दृष्टि न डारो।
करो हमें संतोष, अपनो विरद निहारो।।
जब तक मुक्ति न होय, चरणों में रख लीजे।
नशे महारिपु मोह, ऐसी शक्ती दीजे।।७।।
-दोहा-
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
‘ज्ञानमती’ अविचल निधी, दे मुझ करो महान।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महाशोकध्वजादिशतनाममंत्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-