स्थापना-शंभु छंद
पाँच भरत पण ऐरावत में चौथा काल जभी हो।
चौबीस चौबिस तीर्थंकर प्रभु जन्म धरें सुकृती हो।।
इक सौ साठ विदेह क्षेत्र में सतत तीर्थंकर होते।
इन सबका आह्वानन कर हम, भव भव कल्मष धोते।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:
ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-चामरछंद
सिंधुनीर स्वच्छ स्वर्ण भृंग में भराइये।
श्री जिनेन्द्रदेव पादपद्य में चढाइये।।
देव देव नाममंत्र की सदा समर्चना।
जो करेंगे सो यहाँ कभी धरेंगे जन्म ना।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट गंध लेय नाथ पाद में चढ़ाइये।
मोहताप शांतिहेतु भक्ति को बढ़ाइये।।देव.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्ररश्मि के समान धौत शालि थाल में।
नाथ अग्र पुंज देय सर्व सौख्य हाल में।।देव.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात चंपकादिपुष्प लेय पूजिये।
काममल्ल चूरके निजात्म तृप्त हूजिये।।देव.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपूप मोदकादि व्यंजनादि लाइये।
नाथ पाद पूज भूख व्याधि को नशाइये।।देव.।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में कपूर ज्वाल आरती करूँ।
मोहध्वांत नाश स्वात्मज्ञान भारती वरूँ।।देव.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में सुगंध धूप खेवते सदा।
कर्मपुंज को जलाय पाऊँ स्वात्म संपदा।।देव.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
द्राक्ष आम औ बदाम श्रीफलादि लाइये।
स्वात्म सौख्य पान हेतु आपको चढ़ाइये।।देव.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध अक्षतादि अष्ट द्रव्य लाइये।
अर्घ्य को चढ़ाय के अखंड सौख्य पाइये।।देव.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
जिनवर पद अरिंवद, जल से त्रयधारा करूँ।
पाऊँ निज गुणकंद, परम शांति अद्भुत सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनवर चरण सरोज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिटे सर्व दु:ख शोक, स्वात्म सुधारस पान हो।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
सिद्धिवधू भरतार, निज में ही रमते सदा।
भुक्ति मुक्ति करतार, पुष्पांजलि से मैं जजूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
शालिनी छंद
‘दिग्वासा’ हो वस्त्र दिश् ही तुम्हारे।
ऐसी मुद्रा हो कभी नाथ मेरी।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९०१।।
ॐ ह्रीं दिग्वाससे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सुन्दर ‘वातरशना’ तुम्हीं हो।
धारी वायू करधनी है कटी में।।श्रद्धा.।।९०२।।
ॐ ह्रीं वातरशनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निर्ग्रंथेश’ हो बाह्य अंत:।
चौबीसों ही ग्रन्थ से मुक्त मानें।।श्रद्धा.।।९०३।।
ॐ ह्रीं निर्ग्रंथेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी भूमी पे ‘दिगम्बर’ तुम्हीं हो।
धारा अम्बर दिक्मयी शील पूरे।।श्रद्धा.।।९०४।।
ॐ ह्रीं दिगम्बराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्किंचन’ हो नाथ सर्वस्व त्यागा।
आत्मानंते सद्गुणों से भरी है।।श्रद्धा.।।९०५।।
ॐ ह्रीं निष्किंचनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छा त्यागी हो ‘निराशंस’ स्वामी।
आशा मेरी पूरिये सिद्धि पाऊँ।।श्रद्धा.।।९०६।।
ॐ ह्रीं निराशंसाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी ज्ञान ही नेत्र पाया।
स्वामी मेरे ‘ज्ञानचक्षू’ तुम्हीं हो।।श्रद्धा.।।९०७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानचक्षुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाशा मोहारी ‘अमोमुह’ कहाये।
स्वामी मेरे मोह रागादि नाशो।।श्रद्धा.।।९०८।।
ॐ ह्रीं अमोमुहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोराशी’ तेज के पुंज स्वामी।
चंदा से भी सौम्य शीतल भये हो।।श्रद्धा.।।९०९।।
ॐ ह्रीं तेजोराशये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंते ओजस्वी ‘अनंतौज’ स्वामी।
मेरी शक्ती को बढ़ा दो सभी ही।।श्रद्धा.।।९१०।।
ॐ ह्रीं अनंतौजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘ज्ञानाब्धी’ ज्ञान के सिंधु स्वामी।
स्वामी मेरे ज्ञान को पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।९११।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाब्ध्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीलों से भृत ‘शीलसागर’ तुम्हीं हो।
अठरा साहस्र शील को पूरिये भी।।श्रद्धा.।।९१२।।
ॐ ह्रीं शीलसागराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोमय’ हो नाथ! तेज: स्वरूपी।
आत्मा तेजोरूप मेरी करो भी।।श्रद्धा.।।९१३।।
ॐ ह्रीं तेजोमयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितज्योती’ आप ज्योती अनंती।
मेरी आत्मा ज्योति से पूर दीजे।।श्रद्धा.।।९१४।।
ॐ ह्रीं अमितज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्योतिर्मूर्ती’ ज्योतिमय देह धारा।
मेरे घट में ज्ञान ज्योती भरीजे।।श्रद्धा.।।९१५।।
ॐ ह्रीं ज्योतिर्मूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहारी हन के ‘तपोमह’ तुम्हीं हो।
मेरे चित्त का सर्व अज्ञान नाशो।।श्रद्धा.।।९१६।।
ॐ ह्रीं तमोपहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ‘जगच्चूड़ामणी’ आप ही हो।
तीनों लोकों के शिखारत्न स्वामी।।श्रद्धा.।।९१७।।
ॐ ह्रीं जगच्चूड़ामणये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा ‘दीप्त’ स्वामी तुम्हीं हो।
मेरी आत्मा दीप्त कीजे गुणों से।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ न्म मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९१८।।
ॐ ह्रीं दीप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंवान्’ स्वामी सौख्य शांती तुम्हीं में।
मेरी आत्मा सौख्य से पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।९१९।।
ॐ ह्रीं शंवते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी मेरे ‘विघ्नवीनायका’ हो।
मेरे विघ्नों को हरो नाथ! जल्दी।।श्रद्धा.।।९२०।।
ॐ ह्रीं विघ्नविनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनों लोकों में ‘कलिघ्ना’ तुम्हीं हो।
मेरे कलिमल नाश के सौख्य दीजे।।श्रद्धा.।।९२१।।
ॐ ह्रीं कलिघ्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे स्वामी ‘कर्मशत्रुघ्न’ ही हो।
दुष्कर्मों को नष्ट कीजे प्रभू जी।।श्रद्धा.।।९२२।।
ॐ ह्रीं कर्मशत्रुघ्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘लोकालोक प्रकाशक’ जिनेशा।
देखा तीनों लोक आलोक भी तो।।श्रद्धा.।।९२३।।
ॐ ह्रीं लोकालोकप्रकाशकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जागे आत्मा में ‘अनिद्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा मोह निद्रा तजे भी।।श्रद्धा.।।९२४।।
ॐ ह्रीं अनिद्रालवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आलस नाशा हो ‘अतन्द्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा ज्ञान से स्वस्थ होवे।।श्रद्धा.।।९२५।।
ॐ ह्रीं अतंद्रालवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लाल तरंग-छंद
जाग्रत संतत ‘जागरुक’ हो।
मोह कि नींद हरो तुम ध्याऊँ।।
नाम संमंत जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९२६।।
ॐ ह्रीं जागरुकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रमामय’ ज्ञानमयी हो।
ज्ञान गुणाधिक हो मुझ आत्मा।।नाम.।।९२७।।
ॐ ह्रीं प्रमामयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! ‘लक्ष्मीपति’ जग में हो।
नंत चतुष्टय श्रीपति जिन हो।।नाम.।।९२८।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगज्ज्योती’ कहलाये।
ज्योति भरो तम को हर लीजे।।नाम.।।९२९।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म दयापति ‘धर्मराज’ हो।
नाथ हृदे मुझ धर्म विराजे।।नाम.।।९३०।।
ॐ ह्रीं धर्मराजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रजाहित’ सर्व प्रजा की।
पालन रीति नृपाल सिखायी।।नाम.।।९३१।।
ॐ ह्रीं प्रजाहिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मुमुक्षु’ कहें मुनि ज्ञानी।
इच्छुक कर्म अरी सब छूटें।।नाम.।।९३२।।
ॐ ह्रीं मुमुक्षवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बंधमोक्षज्ञा’ हो तुम स्वामी।
जानत बंध रू मोक्ष विधी को।।नाम.।।९३३।।
ॐ ह्रीं बंधमोक्षज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जिताक्ष’ जिता पण इंद्री।
जीत सकें विषयों को हम भी।।
नाम संमंत जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९३४।।
ॐ ह्रीं जिताक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जितमन्मथ’ काम विजेता।
काम अरी मुझ मार भगावो।।नाम.।।९३५।।
ॐ ह्रीं जितमन्मथाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशांतरसशैलुष’ हो।
किया प्रदर्शन शांतिरसों का।।नाम.।।९३६।।
ॐ ह्रीं प्रशांतरसशैलूषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भव्यनपेटकनायक’ मानें।
भव्य समूह कहें तुम स्वामी।।नाम.।।९३७।।
ॐ ह्रीं भव्यपेटकनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म प्रधान कहा युग आदी।
‘मूलसुकर्ता’ आप बखाने।।नाम.।।९३८।।
ॐ ह्रीं मूलकर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदारथ पूर्ण प्रकाशा।
नाथ! ‘अखिलज्योती’ सुर गाते।।नाम.।।९३९।।
ॐ ह्रीं अखिलज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मलघ्न’ सभी मल हाने।
सर्व अघों मल नाश करो मे।।नाम.।।९४०।।
ॐ ह्रीं मलघ्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूलसुकारण’ मुक्ति सुपथ के।
नाथ! मुझे शिवमार्ग दिखा दो।।नाम.।।९४१।।
ॐ ह्रीं मूलकारणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आप्त’ यथारथ देव तुम्हीं हो।
नाथ! तपोनिधि दो सुखदाता।।नाम.।।९४२।।
ॐ ह्रीं आप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वागीश्वर’ दिव्यधुनी के।
लोलतरंग वचोऽमृत गंगा।।नाम.।।९४३।।
ॐ ह्रीं वागीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘श्रेयान्’ प्रभो! श्रिय दाता।
अंतर बाहिर श्री मुझको दो।।नाम.।।९४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रायसउक्ति’ हितंकर वाणी।
नाथ! मुझे निज रत्नत्रयी दो।।नाम.।।९४५।।
ॐ ह्रीं श्रायसोक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सार्थकवाच ‘निरुक्तवाक्’ हो।
आप धुनी मन शांति करेगी।।नाम.।।९४६।।
ॐ ह्रीं निरुक्तवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रवक्ता’ श्रेष्ठ वचों से।
धर्मसुधा बरसा जन तोषा।।नाम.।।९४७।।
ॐ ह्रीं प्रवक्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘वचसामिश’ मानें।
धर्म वचन के ईश्वर ही हो।।नाम.।।९४८।।
ॐ ह्रीं वचसामीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मारजीता’ प्रभु कामजयी हो।
सर्व मनोरथ पूर्ण करो जी।।नाम.।।९४९।।
ॐ ह्रीं मारजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वभाववित्’ तीन जगत् को।
जान लिया मुझ ज्ञान सुधा को।।नाम.।।९५०।।
ॐ ह्रीं विश्वभावविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभंगी छंद
हे नाथ! ‘सुतनु’ हो, उत्तमतनु हो, अतिशय दीप्ती, धारत हो।
हन आधी व्याधी, मेट उपाधी, पूर्ण निरामय कारक हो।।
प्रभु नाममंत्र तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति भालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।९५१।।
ॐ ह्रीं सुतनवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु देहरहित हो, ज्ञानदेह हो, ‘तनुनिर्मुक्त’ कहाते हो।
तनु बंधन काटूँ, अघ अरि पाटूँ, भवितनुमल, को नाशे हो।।
प्रभु.।।९५२।।
ॐ ह्रीं तनुनिर्मुक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगत’ तुम्हीं हो, अधर गमन हो, आत्मरूप में लीन रहे।
मुझ सुगति करोगे, सौख्य भरोगे, दो शक्ती शिवमार्ग लहें।।
प्रभु.।।९५३।।
ॐ ह्रीं सुगताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘हतदुर्नय’ हो, स्वयं सुनय हो, मिथ्यानय को दूर किया।
जो निंह निरपेक्षी, नित सापेक्षी, सम्यक्नय का कथन किया।।
प्रभु.।।९५४।।
ॐ ह्रीं हतदुर्नयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘श्रीश’ हो, मुक्ति ईश हो, अंतर बाहिर लक्ष्मी से।
श्री आदि देवियाँ, मात सेविया, तुम महिमा सुर भक्ती से।।
प्रभु.।।९५५।।
ॐ ह्रीं श्रीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री-लक्ष्मी सेवित, चरणकमलयुग, प्रभु ‘श्रीश्रितपादाब्ज’ तुम्हीं।
धन लक्ष्मी इच्छुक, भविजन अर्चत, सभी सौख्य श्री देत तुम्हीं।।
प्रभु.।।९५६।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रितपादाब्जाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘वीतभी’, प्राप्त अभयधी, भविजन को निर्भीक करो।
हत जन्म मरण भय, शिवपद निर्भय, देकर मुझभय शीघ्र हरो।।
प्रभु.।।९५७।।
ॐ ह्रीं वीतभिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन ‘अभयंकर’ जग क्षेमंकर, भव्य हितंकर आप कहे।
मेरे दुख टारो, भव निरवारो, मुझ आत्मा निज सौख्य लहे।।
प्रभु.।।९५८।।
ॐ ह्रीं अभयंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘उत्सन्नदोष’ हो, रत्नकोश हो, सब दोषों को दूर किया।
मुझ दोष दूर हों, सौख्य पूर हो, इस आशा से शरण लिया।।
प्रभु.।।९५९।।
ॐ ह्रीं उत्सन्नदोषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विघ्न विरहिते, मंगल सहिते, कर्म हते, निर्विध्न भये।
मुझ शिवमारग में, दिन प्रतिदिन में, विघ्न घने, तुम जजत गये।।
प्रभु.।।९६०।।
ॐ ह्रीं निर्विघ्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतिशय सुस्थिर, ज्ञान चराचर, मुनिगण ‘निश्चल’ तुमिंह कहें।
मुझ चित्त विमल हो, ध्यान अचल हो, पद भी निश्चल, शीघ्र लहें।।
प्रभु.।।९६१।।
ॐ ह्रीं निश्चलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमपद प्रीती, सद्रुण नीती, हरत अनीती, प्रेम भरे।
तुम ‘लोकसुवत्सल’, हरत करममल, भरत महाबल, नेह धरें।।
प्रभु.।।९६२।।
ॐ ह्रीं लोकवत्सलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘लोकोत्तर’ सर्व अनुत्तर, नमत सुरासुर, भविक भजें।
जो तुमपद ध्यावें, निज सुख पावें, कर्म नशावें, सुगुण सजें।।
प्रभु.।।९६३।।
ॐ ह्रीं लोकोत्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकपती’ हो, त्रिजग अधिप हो, भवि रक्षक हो, त्रिभुवन में।
अतिशय सुखदाता, हरत असाता, मोक्ष विधाता, मुनिगण में।।प्रभु ।।९६४।।
ॐ ह्रीं लोकपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भविक नयन हो, ‘लोकचक्षु’ हो, जगत लखत हो, प्रतिक्षण में।
मुझ ज्ञाननेत्र दो, भ्रम तमहर दो, निज रुचि भर दो, रग रग में।।
प्रभु.।।९६५।।
ॐ ह्रीं लोकचक्षुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘अपारधी’, अनवधिबुद्धी, हरत कुबुद्धी, ज्ञानमयी।
मुझ कुमति हटा दो, सुमति बढ़ा दो, मोह मिटा दो, दु:खमयी।।
प्रभु.।।९६६।।
ॐ ह्रीं अपारधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘धीरधी’ सुस्थिर बुद्धी, अतुलित बुद्धी, महामना।
मुझ ज्ञान विमल हो, सौख्य अमल हो, जन्म सफल हो, धर्मघना।।
प्रभु.।।९६७।।
ॐ ह्रीं धीरधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भवदधि पारग, भवि शिवमारग, आप ‘बुद्ध सन्मार्ग’ कहे।
पथ स्वयं चले हो, कहत भले हो, तुमसे ही, जन मार्ग लहें।।
प्रभु.।।९६८।।
ॐ ह्रीं बुद्धसन्मार्गाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘शुद्ध’ हो, स्वात्मसिद्ध हो, भविजन शुद्ध, बने तुमसे।
मुझ कलिमल नाशो, आत्म प्रकाशो, मन में भासो, नमूँ रुचि से।।
प्रभु.।।९६९।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सत्यपवित्रा, वचन धरित्रा, ‘सत्यासूनृतवाक्’ तुम्हीं।
तुम वचन औषधी, सर्व औषधी, मेटत जामन मरण मही।।
प्रभु.।।९७०।।
ॐ ह्रीं सत्यसूनृतवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चरमसीम पे, बुद्धी पहुँचे, ‘प्रज्ञापारमिता’ तुम हो।
मुझ ज्ञान अल्पश्रुत, बने पूर्ण श्रुत, ज्ञान ध्यान शिव कारक हो।।
प्रभु.।।९७१।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञापारमिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राज्ञ’ कहाये, मोह नशाये, सुरगण गायें, गुण नित ही।
मुझ विद्यादाता, दो सुखसाता, हरो असाता, हो सुख ही।।
प्रभु.।।९७२।।
ॐ ह्रीं प्राज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विषय विरत हो, स्वात्म निरत हो, महाव्रतिक हो, ‘यति’ तुमही।
इंद्रिय विषयन को, कषाय गण को, दूर करो जो, दुखद मही।।
प्रभु.।।९७३।।
ॐ ह्रीं यतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नियमित इंद्रिय’ जित पण इंद्रिय, जीत लिया हिय, जिन तुमही।
मुझ इंद्रिय मन की, जीतन शक्ती, दीजे युक्ती, नमित मही।।
प्रभु.।।९७४।।
ॐ ह्रीं नियमितेंद्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘भदंत’ तुम, पूज्य कहें मुनि, सुरनर यतिगण, तुम वंदे।
हम तज बहिरात्मा, अंतर आत्मा, हों परमात्मा गुण मंडे।।
प्रभु.।।९७५।।
ॐ ह्रीं भदंताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथ्वी-छंद
प्रभो! तुमिंह ‘भद्रकृत्’ सकल लोक कल्याणकृत्।
नमूँ अतुल भक्ति से त्वरित सौख्य दीजे मुझे।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।९७६।।
ॐ ह्रीं भद्रकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमिंह ‘भद्र’ हो सकल जीव श्रेयस् करो।
अमंगल हरो सदा अखिल विश्व मंगल करो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।९७७।।
ॐ ह्रीं भद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘कल्पवृक्ष’ मन चाहि वांछा भरो।
अत: सकल भव्यजीव नित भक्ति से पूजते।।जजूँ.।।९७८।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वरप्रद’ जिनेशा एक वरदान दे दीजिये।
मिले तुरत सिद्धिधाम बस और ना चाहिये।।जजूँ.।।९७९।।
ॐ ह्रीं वरप्रदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! यम नाशके ‘समुन्मूलिकर्मारि’ हो।
उखाड़ जड़मूल से करम शत्रु नाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।९८०।।
ॐ ह्रीं समुन्मूलितकर्मारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ लोक में।
समस्त अठ कर्म ईंधन जलावते अग्नि हो।।जजूँ.।।९८१।।
ॐ ह्रीं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त शिव कार्य में निपुण आप ‘कर्मण्य’ हो।
प्रभो! निमित आप पाय सब कार्य मेरे बनें।।जजूँ.।।९८२।।
ॐ ह्रीं कर्मण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त कर्मारि के हनन में सुसामर्थ्य है।
अतेव कर्मठ तुम्हीं सकल कार्य में दक्ष हो।।जजूँ.।।९८३।।
ॐ ह्रीं कर्मठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समर्थ प्रभु आप ही सतत ‘प्रांशु’ सर्वोच्च भी।
समस्त अघ नाश के सकल सौख्य संपद् भरो।।जजूँ.।।९८४।।
ॐ ह्रीं प्रांशवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! बस आप ‘हेयआदेयवीचक्षण:’।
हिताहित विचारशील तुम सा नहीं अन्य है।।जजूँ.।।९८५।।
ॐ ह्रीं हेयादेयविचक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त जग जानते प्रभुु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं।
अनंत गुण पूरिये हृदय में सदा राजिये।।जजूँ.।।९८६।।
ॐ ह्रीं अनंतशक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न छिन्न भिन्न हों कभी प्रभु सदैव ‘अच्छेद्य’ हो।
मुझ स्वपर ज्ञान हो स्वयम् ही स्वयंभू बनूँ।।जजूँ.।।९८७।।
ॐ ह्रीं अच्छेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! ‘त्रिपुरारि’ हो त्रिविध कर्म को नाश के।
जरा जनम मृत्यु तीन पुर नाश कीने तुम्हीं।।जजूँ.।।९८८।।
ॐ ह्रीं त्रिपुरारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिलोचन’ त्रिकालवर्ति सब वस्तु को देखते।
जिनेंद्र! श्रुतज्ञान से विमल स्वात्म चिंतन करूँ।।जजूँ.।।९८९।।
ॐ ह्रीं त्रिलोचनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिनेत्र’ तुम जन्म से मति श्रुतावधी ज्ञानि थे।
पुन: त्रिजग देख के सकल ज्ञानधारी भये।।जजूँ.।।९९०।।
ॐ ह्रीं त्रिनेत्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक पितु आप ‘त्र्यंबक’ कहें मुनीनाथ भी।
मुझे भी प्रभु पालिये निजगुणादि से पूरिये।।जजूँ.।।९९१।।
ॐ ह्रीं त्र्यंबकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! ‘त्र्यक्ष’ हो सतत रत्नत्रैरूप हो।
मुझे भि त्रय रत्न दो सकल लोक स्वामी बनूँ।।जजूँ.।।९९२।।
ॐ ह्रीं त्र्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वघाति चउ नाश ‘केवलसुज्ञानवीक्षण’ बनें।
विघात घन घाति मैं सकल ज्ञान पाऊँ प्रभो।।जजूँ.।।९९३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानवीक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘समंतभद्र’ सब ओर मंगलमयी।
अमंगल हरो सभी भुवन में सुमंगल करो।।जजूँ.।।९९४।।
ॐ ह्रीं समंतभद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! सकल शत्रु शांतकर आप ‘शांतारि’ हो।
मुझे करम शत्रु शांतकर शक्ति दे दीजिये।।जजूँ ।।९९५।।
ॐ ह्रीं शांतारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुधर्म संस्थाप के तुमहि, ‘धर्म आचार्य’ हो।
प्रभो सकल विश्व में सदय धर्मनेता तुम्हीं।।जजूँ.।।९९६।।
ॐ ह्रीं धर्माचार्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दयानिधि’ तुम्हीं सभी जन दया के भंडार हो।
दयालु मुझपे दया अब करो दुखी जान के।।जजूँ.।।९९७।।
ॐ ह्रीं दयानिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पदार्थ सब सूक्ष्म भी लखत ‘सूक्ष्मदर्शी’ प्रभो।
मुझे अतुल शक्ति दो सकल लोक आलोक२ लूँ।।जजूँ.।।९९८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मदर्शिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वकाम अरि जीत के प्रभु तुम्हीं ‘जितानंग’ हो।
अभीसिप्त सुपूरिये विषय काम को नाश के।।जजूँ.।।९९९।।
ॐ ह्रीं जितानंगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृपालु’ करके कृपा सकल पाप को नाशिये।
अनन्त सुख दीजिये भुवन शीश पे थापिये।।जजूँ.।।१०००।।
ॐ ह्रीं कृपालवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! भुवि ‘धर्मदेशक’ तुम्हीं सुधर्माब्धि हो।
मुझे स्वपर भेदज्ञानमय धर्म दीजे अबे।।जजूँ.।।१००१।।
ॐ ह्रीं धर्मदेशकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुभंयु’ शुभ युक्त हो प्रभु सुखामृताम्भोधि हो।
मुझे शुभमयी करो तुरत शुद्ध आत्मा बने।।जजूँ.।।१००२।।
ॐ ह्रीं शुभंयवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! ‘सुखसाद्भूत’ अनुपं सुखाधीन हो।
अनंत सुख दो मुझे गुणसमूह से पूर्ण जो।।जजूँ.।।१००३।।
ॐ ह्रीं सुखसाद्भूताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! तुम ‘पुण्यराशि’ शुभ पुण्य भंडार हो।
पवित्र निज को किया मुझ पवित्र आत्मा करो।।जजूँ.।।१००४।।
ॐ ह्रीं पुण्यराशये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनामय’ प्रभो! तुम्हें सकल व्याधि पीड़ा नहीं।
समस्त तनु रोग नाश भव व्याधि मेरी हरो।।जजूँ.।।१००५।।
ॐ ह्रीं अनामयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! तुम ‘धर्मपाल’ जिन धर्म को रक्षते।
अनंत जिनधर्म हे हृदय में विराजो सदा।।जजूँ.।।१००६।।
ॐ ह्रीं धर्मपालाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘जगत्पाल’ हो भुवन प्राणि को रक्षते।
मुझे सतत रक्षिये जगपते! मनोरक्ष हो।।जजूँ.।।१००७।।
ॐ ह्रीं जगत्पालाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र! जगमध्य ‘धर्मसाम्राज्यनायक’ तुम्हीं।
सुमोक्षप्रद सार्वभौम जिनधर्म के ईश हो।।जजूँ.।।१००८।।
ॐ ह्रीं धर्मसाम्राज्यनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
दिग्वासादिक नाम एक सौ आठ, आपके सुरपति गाते।
नाममंत्र को मन में ध्याकर, योगीजन निज संपति पाते।।
मैं भी प्रतिक्षण नाममंत्र को, हृदय कमल में धारण कर लूँ।
प्रभु ऐसी दो शक्ती मुझको, तुम भक्ती से भवदधि तर लूँ।।१।।
ॐ ह्रीं दिग्वासादिअष्टोत्तरशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीत् स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
घाति चतुष्टय घातकर, प्रभु तुम हुए कृतार्थ।
नव केवल लब्धी रमा, रमणी किया सनाथ।।१।।
चाल-हे दीनबन्धु श्रीपति……….
प्रभु दर्श मोहनीय को निर्मूल किया है।
सम्यक्त्व क्षायिकाख्य को परिपूर्ण किया है।।
चारित्रमोह का विनाश आपने किया।
क्षायिक चारित्र नाम यथाख्यात को लिया।।२।।
संपूर्ण ज्ञानावरण का जब आप क्षय किया।
वैâवल्य ज्ञान से त्रिलोक जान सब लिया।।
प्रभु दर्शनावरण के क्षय से दर्श अनन्ता।
सब लोक औ अलोक को लखते हो तुरन्ता।।३।।
दानांतरायनाश के अनंत प्राणि को।
देते अभय उपदेश तुम कैवल्य दान जो।।
लाभांतराय का समस्त नाश जब किया।
क्षायिक अनंत लाभ का तब लाभ प्रभु लिया।।४।।
जिससे परम शुभ सूक्ष्म दिव्य नंत वर्गणा।
पुद्गलमयी प्रत्येक समय पावते घना।।
जिससे न कवलाहार हो फिर भी तनू रहे।
कुछ हीन पूर्व कोटि वर्ष तक टिका रहे।।५।।
भोगांतराय नाश के अतिशय सुभोग हैं।
सुरपुष्पवृष्टि गंध उदक वृष्टि शोभ हैं।।
पद के तले वर पद्म रचें देवगण सदा।
सौगंध्यशीत पवन आदि सौख्य शर्मदा।।६।।
उपभोग अंतराय का क्षय हो गया जभी।
प्रभु सातिशय उपभोग को भी पा लिया तभी।।
सहासनादि छत्र चमर तरू अशोक हैं।
सुरदुंदुभी भाचक्र दिव्य ध्वनि मनोज्ञ हैं।।७।।
वीर्यान्तराय नाश से आनन्त्य वीर्य हैं।
होते न कभी श्रांत आप महावीर हैं।।
प्रभु चार घाति नाश के नव लब्धि पा लिया।
आनन्त्य ज्ञान आदि चतुष्टय प्रमुख किया।।८।।
प्रभु आप सर्वशक्तिमान कीर्ति को सुना।
इस हेतु से ही आज यहाँ मैं दिया धरना।।
अब तारिये न तारिये यह आपकी मरजी।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यदि मानिये अरजी।।९।।
-दोहा-
गुण समुद्र के गुण रतन, को गिन पावे पार।
मात्र अल्पमती मैं पुन:, क्या कह सकूं अबार।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिग्वाससादिअष्टोत्तरशतनाममंत्रेभ्य जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-