चाल-हे दीनबन्धु……….
जै जै प्रभो! तुम सिद्धि अंगना के कांत हो।
जै जै प्रभो! आर्हन्त्य रमा के भी कांत हो।।
हे नाथ! आपकी सभा अनुपम विशाल है।
उसके लिए इस जग में न कोई मिसाल है।।१।।
पृथ्वी से पाँच सहस धनुष उपरि गगन में।
प्रभु आपका समवसरण है मात्र अधर में।।
सोपान पंक्ति बीस सहस श्रेष्ठ मणिमयी।
बस एक मुर्हूत में सभी चढ़ते हैं सही।।२।।
बहुरत्नमयी धूलिसाल कोट प्रथम है।
उसमें हें चार द्वार नाम विजय आदि हैं।।
चारों दिशा में चार मानस्तम्भ बताये।
जो कोस अड़तालीस तक भी दर्श कराये।।३।।
है चैत्यभवन भूमि रम्य द्रह वनादि से।
जिन बिंबनिलय से पवित्र तुम प्रसाद से।।
आगे है रम्य खातिका जो स्वच्छ जल भरी।
फूले कमल से हंस आदि रव से चित्त हरी।।४।।
है तीसरी लतावनी वकुलादि कुसुम से।
बल्ली के मंडपों से रम्य व्याप्त सुरभि से।।
उद्यानभूमि चौथि चार दिश में चार वन।
अशोक सप्तछद तथा चंपक व आम्रवन।।५।।
इनमें है चैत्यवृक्ष जैन बिंब को धरें।
मुनिगण भी जिनकी वंदना बहुभक्ति से करें।।
आगे है ध्वजा भूमि जो अगणित ध्वजा धरें।
हंसादि चिन्ह दश तरह से युत ध्वजा धरें।।६।।
दशविध सुकल्पतरु से कल्पवृक्ष भू कही।
सिद्धार्थ वृक्ष सिद्ध बिंब युक्त धर रही।।
इनकी जो वंदना करें त्रिकाल भक्ति से।
वे सर्वसिद्धि प्राप्त करें स्वात्म शक्ति से।।७।।
आगे की भूमि में कहीं महलों की पंक्तियाँ।
जिन भक्ति नृत्य आदि करें देव देवियाँ।।
भू आठवीं जो बारहों कोठों को है धरे।
मणि स्फटिक की भित्ति से विभक्त गण धरे।।८।।
कोठे प्रथम में श्रीगणेश साधुगण रहें।
क्रम से है कल्पवासिनी देवी वहाँ रहे।।
है तीसरे में आर्यिका औ श्राविका घनी।
फिर ज्योतिषी औ व्यंतरी व भवनवासिनी।।९।।
फिर व्यंतरों ज्योतिष्क भवनवासि के कोठे।
आगे हैं कल्पवासि मनुष औ पशू कोठे।।
द्वादश गणों के जीव ये चारों तरफ घिरे।
जिनदेव की वाणी सुनें सम्यक्त्व गुण धरें।।१०।।
आगे की प्रथम पीठ पे यक्षेन्द्र खड़े हैं।
चउ दिश में यक्ष धर्मचक्र शिर पे धरे हैं।।
हैं पीठ दूसरे पे चिन्ह युक्त ध्वजायें।
तृतीय पीठ को भी रत्नरचित बतायें।।११।।
इसके उपरि है गंधकुटी नाथ की बनी।
जिस पर हैं चमर आदि व बजती हैं ककणी।।
मणिस्फटिक से बना रत्नजटित सिंहासन।
जो गंध कुटी मध्य में है कमल इवासन।।१२।।
इस पे जिनेन्द्र चार अंगुल अधर राजते।
त्रैलोक्यनाथ अतुल विभवयुत विराजते।।
चौंतीस अतिशयों व आठ प्रातिहार्य से।
आनन्त्य चतुष्टय सहित अनुपम विभासते।।१३।।
ये ग्यारहों हि भूमियाँ अद्भुत निकेत हैं।
इन मध्य मध्य कोट त्रय व पाँच वेदि हैं।।
सब रत्न की रचना वहाँ नव निधि भरी पड़ीं
गोपुर व द्वार नाट्य शालायें बड़ी बड़ी।।१४।।
प्रेक्षा सदन अभिषेक सदन आदि वहाँ पे।
मंडप सभागृहादि भी श्रुत केवलि ताके।।
वापी सरोवरों में वहाँ फूल खिले हैं।
वापी में कर स्नान सात भव भी दिखे हैं।।१५।।
कोठों का लघू क्षेत्र तो भी जिन प्रभाव से।
प्राणी असंख्य बैठते निर्वैर भाव से।।
आतंक रोग भूख प्यास आदि ना वहाँ।
मिथ्यात्वि असंज्ञी अभव्य शूद्र ना वहाँ।।१६।।
अंधे भी वहाँ देखते गूंगे भी बोलते।
लंगड़े चढ़े सब सीढ़ियाँ बहिरे भी हैं सुनते।।
विष भी वहाँ निर्विष बने सब शोक टले हैं।
सब जात विरोधी वहाँ आपस में मिले हैं।।१७।।
स्तूप बनें तीन लोक आदि के वहाँ।
जो सर्व सृष्टि रूप धरें शोभते वहाँ।।
बहु धूपघड़ों में सभी सुधूप खे रहे।
निज कर्म धूप को उड़ा आनन्द ले रहे।।१८।।
इत्यादि विभव है अपूर्व कौन कह सके।
गणधर गुरु सुरगुरु भी निंह पार कर सके।।
जो एक बार समोसरण में चले गये।
वे भव्य मोक्ष पथिकों की कोटी में आ गये।।१९।।
जो भक्त एक बार भी तुम अर्चना करें।
निश्चित वे कर्म प्रकृतियों की खंडना करें।।
फिर वे कभी यमराज के चंगुल में ना पड़ें।
हो पूर्ण ज्ञानमती मोक्ष महल में चढ़ें।।२०।।
-दोहा-
सर्व सात सौ बीस जिन, पंचकल्याणक ईश।
हो कल्याणक कल्पतरु, नमूँ नमूँ नत शीश।।२१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां अष्टोत्तरसहस्रनाममंत्रेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।