-स्थापना-
तर्ज-रोम-रोम से…………..
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम-जनम.।।टेक.।।
उत्तम क्षमा मुनीजन ही, उत्कृष्टरूप से धरते।
हर विपरीत क्षणों में वे, नहिं क्रोध किसी पर करते।।
इसीलिए मुनियों की पूजा, करता है जग सारा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।
हाँ दर्श तुम्हारा।।१।।
मैं भी क्षमाधर्म की पूजा करके मन में ध्याऊँ।
सब जीवों से मैत्री करके क्षमा धर्म अपनाऊँ।।
आह्वानन स्थापन कर हो, पावन हृदय हमारा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।
हाँ दर्श तुम्हारा।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
क्षीरोदधि के शीतल जल से, स्वर्ण कलश भर लाया।
आत्मशांति के लिए प्रभू पद धारा करना चाहा।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
सुरभि कर्पूर सुमिश्रित चंदन, को घिस कर मैं लाया।
मन शीतल करने मैं प्रभु पद, चर्चन करने आया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
मोती जैसे श्वेत धवल, अक्षत धोकर मैं लाया।
पद अखंड पाने हेतू, मैं पुंज चढ़ाने आया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
कल्पवृक्ष के पुष्पों की, माला मैंने तैयार किया।
कामबाण के नाश हेतु, प्रभु सम्मुख उसे चढ़ाय दिया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
रस पूरित मिष्टान्न थाल, भर कर प्रभुवर मैं लाया।
हो मेरा क्षुधरोग विनाशन, यह अभिलाषा लाया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
मणिदीपक थाली में रख, जिनवर की आरति कर लूँ।
नष्ट मोहनी कर्म मेरा हो, भव आरत मैं हर लूँ।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
अष्टगंध की धूप धूपघट, में मैं दहन करूँ प्रभु!
कर्म दहन हो जावें मेरे, भाव हृदय में हैं प्रभु!।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
श्रीफल अरु बादाम सुपारी, थाली में भर लाया।
मोक्षमहाफल पाने हेतु, जिनवर निकट चढ़ाया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा। हाँ दर्श तुम्हारा……..
उत्तम क्षमा का मिल जावे, बस मुझको एक सहारा।। जनम.जनम.।।
जल चंदन आदिक आठों, द्रव्यों का थाल सजाया।
फल अनर्घ्य ‘‘चंदनामती’’ पाने को अर्घ्य चढ़ाया।।
दशलक्षण का प्रथम धर्म है, उत्तम क्षमा निराला।
जनम जनम में पाऊँ, जिनवर दर्श तुम्हारा।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- कंचन झारी में भरा, गंग नदी का नीर।
शांतीधारा से मेरी, मिट जावे भव पीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पों के उद्यान से, चुन चुन पुष्प मंगाय।
पुष्पांजलि को अर्पते, हृदय पुष्प खिल जाय।।१।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा-प्राणिमात्र के प्रति रहे, सदा प्रेम का भाव।
मण्डल पर पुष्पाञ्जलि, करूँ क्षमा मन धार।।
इति मण्डलस्योपरि प्रथमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तर्ज-चन्दाप्रभु के दर्शन करने सोनागिरि………..
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
पाप उदय से पृथिवीकायिक, जीव शरीर मिला जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।१।।
ॐ ह्रीं पृथ्वीकायिकस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
जलकायिक स्थावर में, एकेन्द्रिय काय मिली जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दु:ख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।२।।
ॐ ह्रीं जलकायिकस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
अग्निकाय स्थावर में, एकेन्द्रिय काय मिली जिनको।
उनकी रक्षा कर मैं चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।३।।
ॐ ह्रीं अग्निकायिकस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
वायुकाय स्थावर में, एकेन्द्रियकाय मिली जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दु:ख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।४।।
ॐ ह्रीं वायुकायिकस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
काय वनस्पति स्थावर, एकेन्द्रिय जन्म मिला जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दु:ख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।५।।
ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
पाँचों स्थावर में बादर, सूक्ष्म शरीर मिला जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।६।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मबादरभेदसमन्वितपंचस्थावरजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमा-
धर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
दो इंद्रिय में लट-कृमि-शंखादिक में जन्म मिला जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।७।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
त्रय इन्द्रिय में चींटी खटमल, बिच्छू आदि धरा तन जो।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।८।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
मक्खी मच्छर भ्रमर ततैया, चउ इंद्रिय वाले तनु जो।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।९।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
पंचेन्द्रिय मनरहित असंज्ञी, जीव में जन्म मिला जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।१०।।
ॐ ह्रीं असंज्ञीपंचेन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
शुभ कर्मोदय से संज्ञी, पंचेन्द्रिय काय मिली जिनको।
उनकी रक्षा कर यह चाहूँ, कभी न दूँ मैं दुख उनको।।
इस परिरक्षण भाव से उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।११।।
ॐ ह्रीं संज्ञीपंचेन्द्रियजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
पंचेन्द्रिय में भी पापोदय, से नारक पर्याय मिली।
वहाँ तीव्र दु:खों के कारण, क्षण भर शांती नहीं मिली।।
वह गति प्राप्त न करूँ कभी, ऐसा शुभ भाव बनाना है।
उन पर दया भावयुत उत्तम, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।।१२।।
ॐ ह्रीं नारकीजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
नर तन पाकर भी जो प्राणी, लिप्त कषायों में रहते।
मुनिजन उनको बोधिलाभ, देते हैं नित करूणा करके।।
सदुपयोग कर मनुष ज्नम का, सार्थक उसे बनाना है।
दुखीजनों पर दया भाव रख क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।।१३।।
ॐ ह्रीं मनुष्यजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
चार भेद युत देव योनि में, जन्म अनेकों बार हुआ।
शारीरिक सुख मिला किन्तु, संताप मानसिक बहुत सहा।।
इसीलिए उन देवों पर भी, दया भाव अपनाना है।
सम्यग्दर्शन सहित मिले पद, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।।१४।।
ॐ ह्रीं देवगतिजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
पशुगति के दु:खों को सहकर, किंचित् बोध न पाया है।
ऋषि-मुनियों ने समय-समय पर, उनको भी समझाया है।।
उन तिर्यंचों पर मुझको भी, दया भाव अपनाना है।
शुद्ध भावयुत अष्ट द्रव्य ले, क्षमा को अर्घ्य चढ़ाना है।।१५।।
ॐ ह्रीं तिर्यंचगतिजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
उत्तमक्षमा हृदय में धरकर, क्रोध को दूर भगाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।
त्रस अरु स्थावर सब प्राणी, चारों गति में भ्रमण करें।
उनको देख दया उर लाते, मुनिजन सुगति में गमन करें।।
इन सबकी रक्षा हित मुझको, भी पूर्णार्घ्य चढ़ाना है।
प्राणिमात्र पर दया भाव धर, समता को अपनाना है।।१।।
ॐ ह्रीं त्रसस्थावरसमस्तजीवपरिरक्षणरूपउत्तमक्षमाधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय नम:।
तर्ज-आवाज देकर……………
क्षमा धर्म को पूर्ण अर्घ्य चढ़ाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।टेक.।।
न क्रोधी प्रकृति आत्मा की कही है।
वहाँ तो सदा शान्ति सरिता बही है।।
नहीं क्रोध कर अपनी गरिमा घटाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।१।।
हो यदि कोई दुश्मन तुम्हारा जगत में।
उसे जीत सकते हो तुम प्रेम बल से।।
सहनशीलता धैर्य शक्ती बढ़ाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।२।।
प्रभू पार्श्व ने ही क्षमा धर्म पाला।
इसे धार ऋषियों ने उपसर्ग टाला।।
उन्हीं सबके चरणों में मस्तक झुकाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।३।।
करूँ प्रार्थना प्रभु मुझे भी क्षमा दो।
प्रभो! मेरे मन को भी चन्दन बना दो।।
यही भावना ‘‘चन्दनामति’’ बनाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।४।।
क्षमा धर्म की पूजा सच्ची वही है।
जहाँ प्राणियों पर दया ही कही है।।
जयमाल में भक्ति के गीत गाओ।
गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।