तर्ज-सोनागिरि में सोना…………….
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य व्रत की……….।।टेक.।।
ब्रह्मचर्य धर्म की पूजा को आए हम।
आह्वान अरु स्थापना के भाव लाए हम।।
सन्निधिकरण करके हृदय में धार लें इसको।
जीवनशिखर पर रत्न का कलशा चढ़ा समझो।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-सोनागिरि में……………….
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
नीर गंगा का लिया जलधार करने को।
इसके निमित्त से आए हम भव पार करने को।।
हो जन्ममृत्यू नाश यह अरमान पूरिये।
आतमप्रभू की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
चंदन घिसा भरकर कटोरी पाद चर्चन को।
भव ताप नाशन हेतु जिनवर पाद अर्चन को।।
भवदाह होवे शांत यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
अक्षत लिया मुट्ठी में भरकर पुंज धरने को।
इसके निमित से पद अखण्डित प्राप्त करने को।।
मिल जावे अक्षय धाम यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
बेला चमेली आदि पुष्पों को लिया कर में।
निज कामबाण विनाश हेतू प्रभु को अर्पण है।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
नैवेद्य की थाली प्रभू पद में समर्पित है।
क्षुध रोग नाशन हेतु मन के भाव अर्पित हैं।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
दीपक जला प्रभु आरती का भाव मन आया।
हो मोहतम का नाश मन में आश भर लाया।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
कृष्णागरु की धूप अग्नी में दहन किया।
हों अष्टकर्म विनाश ऐसा भाव मन किया।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
स्वादिष्ट फल का थाल प्रभु के पद समर्पित है।
शिवफल की आशा से विनय यह भाव अर्पित है।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
जल गंध अक्षत पुष्प चरु नैवेद्य आदिक हैं।
यह ‘‘चन्दनामति’’ अर्घ्य की थाली समर्पित है।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
कंचन कलश से प्रभु चरण त्रयधारा करना है।
जलधार करके आत्मा को शांत करना है।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
ब्रह्मचर्य की महिमा जग में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर-नारी हैं।।
उत्तम ब्रह्मचर्य को मुनिजन धारते, श्रावक शीलव्रती बन इसको पालते।
ब्रह्मचर्य………..
पुष्पों से पुष्पांजलि प्रभू के पद में करना है।
गुण की सुरभि फैले यहाँ पुरुषार्थ करना है।।
मिल जावे उत्तम सौख्य यह अरमान पूरिये।
आतम निधी की प्राप्ति का वरदान दीजिए।।
इसकी महिमा तीन लोक में न्यारी है।
इसकी पूजन करते सब नर नारी हैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सहस चुरासी भेदयुत, शील धर्म बलवान।
इसकी पूजन हेतु अब, पुष्प चढ़ाऊँ आन।।
इति मण्डलस्योपरि दशमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शेरछंद-
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे नारियों के संग में विचरण नहीं करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं स्त्रीसहवासवर्जितउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
नारी के हाव भाव अंग आदि न निरखें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं स्त्रीमनोहरांगनिरीक्षणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे राग भावयुक्त वचन भी न उच्चरें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं रागवचनवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे पूर्व के भोगों का नहीं स्मरण करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं पूर्वभोगानुस्मरणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
षट्रस गरिष्ठ भोजन वे ग्रहण ना करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं वृष्येष्टरसवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
शृंगार तन का छोड़कर वैराग्य मन धरें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं स्वशरीरसंस्कारवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
नहिं नारियों की शय्या पर वे शयन करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं शय्यासनवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे कामकथाओं में रुचि कभी ना धरें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं कामकथावर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे भूख से भी कम सदा भोजन ग्रहण करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं उदरपूर्णाशनवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
नव भेद शीलव्रत को वे धारण सदा करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं नवधाशीलपालनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे कामदेव शोषण तरुशीत सम करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं शोषणकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
संताप कामबाण कभी उनके ना रहे।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं संतापकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे कामबाण का ही उच्चाटन सदा करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं उच्चाटनकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे कामदेव को वशीकरण सदा करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं वशीकरणकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे कामदेव मोहन कर पाप से बचें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं मोहनकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे पंचबाण कामदेव से सदा डरें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१६।।
ॐ ह्रीं पंचप्रकारकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे सुन्दरी को लख नहीं पुलकित हुआ करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१७।।
ॐ ह्रीं पुलकितभावयुक्तकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे सुन्दरी का रूप अवलोकन भी ना करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१८।।
ॐ ह्रीं अवलोकनकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे हास्य वचन से प्रिया सन्तुष्ट ना करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।१९।।
ॐ ह्रीं हास्यकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे अन्य चेष्टाओं से तिरिया न वश करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।२०।।
ॐ ह्रीं इंगितचेष्टावर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे प्राणघातयुक्त कामबाण को तजें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।२१।।
ॐ ह्रीं मारणकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन सदा करें।
वे दश प्रकार कामबाण नाश भी करें।।
इस ब्रह्मचर्य धर्म को मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आत्मा में रमण की सदैव भावना भाऊँ।।२२।।
ॐ ह्रीं दशविधकामबाणवर्जनउत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
जो पूर्ण शुद्धि सहित ब्रह्मचर्य को धरें।
वे आत्मा की पूर्ण शुद्धि को वरण करें।।
मैं पूर्ण अर्घ्य लेके ब्रह्मचर्य को जजूँ।
आत्मा में रमण करने हेतु नाथ को भजूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं शुद्धब्रह्मचर्यधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय नम:।
तर्ज-दीदी तेरा………
ब्रह्मचर्य व्रत को निभाना, हे नाथ! कठिन है इसे पाना।
झुकता उसके आगे जमाना, हे नाथ! कठिन है इसे पाना।।टेक.।।
जो विषयों का त्यागी है आत्मा का रागी, वही ब्रह्मचर्य सहित है विरागी।
महासाधुगण की निधी यह धरोहर, वही इसके बल पर बनें वीतरागी।
उनको जग ने पावन है माना, हे नाथ! कठिन है उसे पाना।।१।।
सती सीता ने इसका कुछ अंश पाला, हुई शीलव्रत की परीक्षा विशाला।
बनी जल की सरिता वो अग्नी की ज्वाला, सुदर्शन का भी व्रत ने उपसर्ग टाला।
उनकी जय से गूंजा जमाना, हे नाथ! कठिन है इसे पाना।।२।।
मुझे भी प्रभो! इसका पालन करा दो, मेरी आतमा को भी पावन बना दो।
विषयों से मुझको विरागी बना दो, मुझे ‘चन्दना’ आत्मस्वादी बना दो।
जिससे हो ना भव भव में आना, हे नाथ! कठिन है इसे पाना।।३।।
जयमाला में अर्घ्य का थाल लाके, चढ़ाऊँ प्रभू पाद पूर्णार्घ्य आके।
भावों को भी अपने शुद्ध बनाके, करूँ ब्रह्मचर्य का पालन सदा मैं।
पूजन का फल मुझको है पाना, हे नाथ! कठिन है उसे पाना।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।
तर्ज-सज धज कर जिस दिन………..
दशधर्मों की जयमाला हम, भक्ती से गाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, प्रभु को चढ़ाएंगे।।टेक.।।
उत्तम क्षमा से पर्व का, प्रारंभ होता है।
दश-दश दिनों तक धर्म ही आनंद देता है।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, प्रभु को चढ़ाएंगे।।१।।
उत्तम क्षमा से क्रोध कम हो धैर्य बढ़ता है।
मार्दव गुणों से जीव कोमल भाव करता है।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, प्रभु को चढ़ाएंगे।।२।।
आर्जव धरम ऋजुता सरलता को सिखाता है।
सच बोलकर संसार को सत्पथ दिखाता है।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, प्रभु को चढ़ाएंगे।।३।।
शुचिता को उत्तम शौच में पालन किया जाता।
संयम धरम से नर जनम सार्थक किया जाता।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा प्रभु को चढ़ाएंगे।।४।।
तप धर्म अन्तर-बाह्य तप करना सिखाता है।
चारों तरह का दान त्याग धरम में आता है।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा प्रभु को चढ़ाएंगे।।५।।
उत्तम आकिञ्चन धर्म परिग्रह को घटाता है।
शुभ ब्रह्मचर्य से मनुज आतम सुख पाता है।।
इन धर्मों की पूजन कर मन पावन बनाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा प्रभु को चढ़ाएंगे।।६।।
दश धर्म की सीढ़ी पे चढ़कर मोक्ष मिलता है।
संसार में भी ‘‘चंदनामति’’ सौख्य मिलता है।।
जयमाला के पूर्णार्घ्य में श्रीफल चढ़ाएंगे।
आठों द्रव्यों का थाल सजा प्रभु को चढ़ाएंगे।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग-आकिञ्चन्य-
ब्रह्मचर्यदशलक्षणधर्मेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।