(तर्ज-तुमसे लागी लगन……)
आपके श्रीचरण, हम करें नित नमन, शरण दीजे।
नाथ! मुझपे कृपा दृष्टि कीजे।।टेक.।।
वीर सन्मति महावीर भगवन् !
आवो आवो यहाँ नाथ! श्रीमन्!
आप पूजा करें, शुद्ध समकित धरें, शक्ति दीजे।
नाथ! मुझपे कृपा दृष्टि कीजे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
(तर्ज-चंदन सा बदन…….)
-शंभु छंद-
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
गंगानदि का शुचि जल लेकर, तुम चरण चढ़ाने आये हैं।
भव भव का कलिमल धोने को,श्रद्धा से अति हरषाये हैं।।
हे वीरप्रभो! महावीर प्रभो! त्रयधारा दें तव चरणों मेंं।।
त्रिशलानंदन……….।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
हरिचंदन कुंकुम गंध लिये, जिनचरण चढ़ाने आये हैं।
मोहारिताप संतप्त हृदय, प्रभु शीतल करने आये हैं।।
हे वीरप्रभो! चंदन लेकर, चर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन………।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
क्षीराम्बुधि फेन सदृश उज्ज्वल, अक्षत धोकर ले आये हैं।
क्षय विरहित अक्षय सुख हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।
हे वीरप्रभो! हम पुंज चढ़ा, अर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
बेला चंपक अरविंद कुमुद, सुरभित पुष्पों को लाये हैं।
मदनारिजयी तव चरणों में, हम अर्पण करने आये हैं।।
हे वीरप्रभो! पुष्पों को ले, पूजा करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
पूरणपोली खाजा गूझा, मोदक आदिक बहु लाये हैं।
निज आतम अनुभव अमृत हित, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।
हे वीरप्रभो! चरु अर्पण कर, हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों मेंं।।
मणिमय दीपक में ज्योति जले, सब अंधकार क्षण में नाशे।
दीपक से पूजा करते ही, सज्ज्ञानज्योति निज में भासे।।
हे वीरप्रभो! तुम आरति कर, हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
दशगंध विमिश्रित धूप सुरभि, धूपायन में खेते क्षण ही।
कटु कर्म दहन हो जाते हैं, मिलता समरस सुख तत्क्षण ही।।
हे वीर प्रभो! हम धूप जला, अर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
एला केला अंगूरों के, गुच्छे अतिसरस मधुर लाये।
परमानंदामृत चखने हित, फल से पूजन कर हर्षाये।।
हे वीर प्रभो! महावीर प्रभो! हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल लाये हैं।
निजगुण अनंत की प्राप्ति हेतु, प्रभु अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धी देकर, नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन……….।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-उपेंद्रवङ्काा छंद-
त्रैलोक्य शांती कर शांतिधारा, श्री सन्मती के पदकंज धारा।
निजस्वांत शांतीहित शांतिधारा, करते मिले है भवदधि किनारा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरकल्पतरु के वर पुष्प लाऊँ, पुष्पांजलि कर निज सौख्य पाऊँ।
संपूर्ण व्याधी भय को भगाऊँ, शोकादि हर के सब सिद्धि पाऊँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
(मण्डल पर पाँच अर्घ्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
-गीता छंद-
सिद्धार्थ नृप कुण्डलपुरी में, राज्य संचालन करें।
त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें।।
आषाढ़ शुक्ला छठ तिथी, प्रभु गर्भ मंगल सुर करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, हर विघ्न सब मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां श्रीमहावीरजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सितचैत्र तेरस के प्रभू, अवतीर्ण भूतल पर हुए।
घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये।।
सुरशैल पर प्रभु जन्म उत्सव, हेतु सुरगण चल पड़े।
हम पूजते वसु अघ्र्य ले, नजकर्म धूली झड़ पड़े।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां श्रीमहावीरजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर वदी दशमी तिथी, भवभोग से निःस्पृह हुए।
लौकांतिकादी आनकर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए।।
सुरपति प्रभू की निष्क्रमण, विधि में महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, संसार सागर से तरेंं।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां श्रीमहावीरजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ने प्रथम आहार राजा, कूल के घर में लिया।
वैशाख सुदि दशमी तिथी, केवलरमा परिणय किया।।
श्रावण वदी एकम तिथी, गौतम मुनी गणधर बनें।
तव दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी, हम पूजते हर्षित तुम्हें।।४।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां श्रीमहावीरजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो।
पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।।
निर्वाण लक्ष्मी वरणकर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु अर्घ्य ले, तुम पास में आके बसें।।५।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां श्रीमहावीरजिननिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
महावीर सन्मति प्रभो! शिवसुख फल दातार।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करूँ, नमूँ अनंतों बार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर पंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नम:।
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार।
तुम गुणमणिमाला कहूँ, सुखसंपति साकार।।१।।
(चाल-श्रीपति जिनवर करुणा……)
जय जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो!
जय जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो।
जय जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।।२।।
जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी।
सब ऋतु के फूल खिलें सुन्दर, सब फूल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें।
सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।।३।।
चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं।
सब ऋतु के फल फल रहे मधुर, सब जन मन हर्ष अपार सही।।
कंचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होती।
सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।।४।।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह, गणधर सातों ऋद्धीयुत थे।
चौदह हजार मुनि अवधिज्ञानी, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनरनुत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।।५।।
प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयू बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके।
तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति श्रावक धर्म बता करके।।६।।
मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे।
निज आत्म सुधारस पान करा, सम्यक्त्व निधी पूर्णा कीजे।।
रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ निर्वाणश्री, साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।।७।।
-घत्ता-
जय जय श्रीसन्मति, मुक्ति रमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पूजूँ ध्याऊँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीताछंद-
महावीर प्रभु को जो भविक जन, पूजते शुचि भाव से।
निर्वाण लक्ष्मीपति जिनेश्वर, को नमें अति चाव से।।
वे भव्य नर सुर के अतुल, संपत्ति सुख पाते घने।
फिर अन्त में शुचि ‘‘ज्ञानमति’’, निर्वाण लक्ष्मीपति बने।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।