-स्थापना (शंभु छंद)-
श्री संभव जिन के जन्मकल्याणक, से पावन श्रावस्ती है।
जहाँ मात सुषेणा के आँगन में, हुई रत्न की वृष्टी है।।
उस श्रावस्ती तीरथ की पूजन, करके पुण्य कमाना है।
आह्वानन स्थापन करके, आत्मा में तीर्थ बसाना है।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमि श्रावस्तीतीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री संभवनाथ जन्मभूमि श्रावस्तीतीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठःठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री संभवनाथ जन्मभूमि श्रावस्तीतीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (नंदीश्वर पूजा की चाल)-
कंचन झारी में नीर, लेकर धार करूँ।
हो जाऊँ भवदधि तीर, ऐसे भाव करूँ।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन कर्पूर मिलाय, घिस कर लाऊँ मैं।
संसार ताप मिट जाय, शांति पाऊँ मैं।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय संसारताप-
विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम उज्वल धौत, तंदुल लाया मैं।
अक्षयपद प्राप्ती हेतु, पुंज चढ़ाया है।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ले भाँति भाँति के फूल, माला गूंथ लिया।
नश जायं काम के शूल, प्रभु पद पूज लिया।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य थाल भर लाय, निकट चढ़ाऊँ मैं।
मम क्षुधारोग नश जाय, निज गुण पाऊँ मैं।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति जलाय, आरति करना है।
मम मोह नष्ट हो जाय, निज गुण वरना है।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय मोहांधकार
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर गंध सुगंधित धूप, अग्नी में ज्वालूँ।
मिल जावे सौख्य अनूप, कर्म अरी ज्वालूँ।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, फल को लाऊँ मैं।
हो आतम में विश्राम, अतः चढ़ाऊँ मैं।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
‘‘चन्दना’’ धूप फल युक्त, तीरथ अर्घ्य दिया।।
श्रावस्ती पावन तीर्थ, पूजूँ मन लाके।
बढ़ जावे आतम कीर्ति, संभव जिन ध्याके।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ जन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपद-
प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
जिस तीर्थ की पवित्रता स्वयं प्रसिद्ध है।
उसके लिए जलधार तो बस इक निमित्त है।।
आत्मा में शांति एवं जग भर में शांति हो।
त्रयधार देके तीन रत्न मुझको प्राप्त हों।।
शांतये शांतिधारा।
फूलों के जिस उद्यान में संभव प्रभू खेले।
उद्यान वह साक्षात् नहिं श्रावस्ती में भले।।
लेकिन वही संकल्प तुच्छ पुष्पों में किया।
पुष्पांजली के द्वारा भक्ति को प्रगट किया।।
दिव्य पुष्पांजलिः
(इति मंडलस्योपरि द्वितीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
-प्रत्येक अर्घ्य (शंभु छंद)-
फाल्गुन सुदि अष्टमि को जहाँ पर, माता को सोलह स्वप्न दिखे।
दृढ़रथ राजा ने बतलाया, तुम गर्भ में श्रीजिनराज बसे।।
श्रावस्ती में उससे छह महिने, पहले रत्न बरसते थे।
मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ उसको यहाँ, आने को इन्द्र तरसते थे।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथगर्भकल्याणक पवित्रश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक सुदि पूनो को जहाँ पर, संभव जिनवर का जन्म हुआ।
दृढ़रथ पितु मात सुषेणा के संग, जहाँ का कण-कण धन्य हुआ।।
पितु दान किमिच्छक बाँट रहे, थे जहाँ पुत्र-जन्मोत्सव पर।
उस जन्मकल्याणक से पवित्र, श्रावस्ती की पूजा रुचिकर।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथजन्मकल्याणक पवित्रश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जहाँ ब्याह किया औ राज्य किया , बहुतेक समय संभवप्रभु ने।
फिर मेघ विघटते देख वहीं, वैराग्य भाव धारा प्रभु ने।।
श्रावस्ती में उस मगशिर पूनो, को लौकांतिक सुर आये।
दीक्षा कल्याणक से पवित्र, श्रावस्ती के हम गुण गायें।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावस्ती में तपकर के संभव, जिन को केवलज्ञान हुआ।
उद्यान सहेतुक में शाल्मलि, तरु नीचे प्रगटित ज्ञान हुआ।।
मगशिर वदि चौथ तिथी को जहाँ पर, अधर बना था समवसरण।
उस पावन समवसरण भूमी को, अर्घ्य चढ़ाकर करूँ नमन।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रश्रावस्ती तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
चार कल्याणक से सहित, पावन तीर्थ महान।
श्रावस्ती को अर्घ्य दे, चाहूँ आतमज्ञान।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीसंभवनाथगर्भजन्मतपज्ञानचतुःकल्याणक पवित्रश्रावस्ती-
तीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-शंभु छन्द-
जय जय तीर्थंकर संभवप्रभु की, जन्मभूमि मंगलकारी।
जय जय श्रावस्ती नगरी की, देवोपुनीत महिमा भारी।।
सौधर्म इन्द्र जिस नगरी की, त्रय प्रदक्षिणा कर आया था।
अपने संग में शचि इन्द्राणी एवं परिकर बहु लाया था।।१।।
जब गर्भ में तीर्थंकर आये, तब उत्सव गर्भकल्याण किया।
पितु माता की पूजा करके, वस्त्रादिक से सम्मान किया।।
श्री ह्री धृति आदि देवियों को, माता की सेवा में लाये।
त्रैलोक्यपती के जनक और जननी के गुण गा हरषाये।।२।।
जब जन्म लिया तीर्थंकर ने, तब श्रावस्ती का क्या कहना।
वहाँ का हर कण रोमांचित था, फिर मात पिता का क्या कहना।।
स्वर्णिम शरीर की आभा को, दो नेत्र से इन्द्र न देख सका।
तब सहस नेत्र कर देख-देख, वह प्रभु दर्शन कर नहीं थका।।३।।
जन्मोत्सव मेरुसुदर्शन पर, कर श्रावस्ती प्रभु को लाये।
वहाँ पुनः प्रभू का जन्मोत्सव, लख पुरवासी भी हरषाये।।
श्रावस्ती के हर घर में संभव-नाथ प्रभू की चर्चा थी।
हर नगर गली औ शहरों में, संभवजिन की ही अर्चा थी।।४।।
तीर्थंकर क्रम में सभी जानते, अश्वचिन्ह से संभव को।
संभव जिन तीर्थंकर बनकर, करते थे कार्य असंभव को।।
भोजन न किया श्रावस्ती का, दीक्षा से पहले जिनवर ने।
दीक्षा लेकर आहार हेतु, चर्या करते थे घर-घर वे।।५।।
संभव के चार कल्याणक से, पावन श्रावस्ती नगरी है।
उनके निर्वाणकल्याणक से, पावन सम्मेदशिखर गिरि है।।
अब यहाँ मुख्यतः जन्मभूमि, अर्चन का भाव बनाया है।
उसके माध्यम से और सभी, कल्याणक का क्रम आया है।।६।।
शब्दों में शक्ति नहीं प्रभु जी, बस भाव तीर्थ पूजन का है।
‘‘चन्दनामती’’ तीरथ गाथा, कहने को शब्द भला क्या हैं।।
इन्द्रों मुनियों से वंद्य जन्म, नगरी को वन्दन करना है।
श्रावस्ती नगरी के प्रति यह, जयमाल समर्पित करना है।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसंभवनाथजन्मभूमिश्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय जयमाला
पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।