-स्थापना (गीता छंद)-
वृषभेश प्रभु की त्यागभूमि तीर्थधाम प्रयाग है।
तीर्थंकरोें की शृंखला में वे प्रथम जिनराज हैं।।
श्री नाभिनन्दन जगतवन्दन की तपोभूमी जजूँ।
आह्वान स्थापन तथा सन्निधिकरण विधि से भजूँ।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक
पवित्र प्रयाग तीर्थक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक
पवित्र प्रयाग तीर्थक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक
पवित्र प्रयाग तीर्थक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ………….
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
गंगा यमुना सरस्वती की, धार जहाँ बहती है।
ऋषभदेव के रत्नत्रय की, कथा सदा कहती है।।
वही नीर से त्रयधारा दे, पाऊँ निज साम्राज्य।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
ऋषभदेव की तपोभूमि का, कण कण महक रहा है।
मानो अपने प्रभु की गुण, सुरभी से चहक रहा है।।
मलयागिरि चन्दन लेकर के, चर्चूं मैं प्रभु पाद।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
अक्षय पद की प्रथम शृंखला, प्रभुवर जहाँ चढ़े थे।
अक्षयवट के नीचे वे, योगी ध्यानस्थ खड़े थे।।
अक्षत के पुंजों से मैं भी, चाहूँ अक्षय राज।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
बेला चम्प चमेली एवं, पुष्प गुलाब खिले हैं।
पुष्पों के अंदर कोमलता, के गुण सदा खिले हैं।।
उन पुष्पों का थाल सजाकर, प्रस्तुत करुँ प्रभु पास।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
स्वर्गों का भोजन खाकर प्रभु, ऋषभदेव वन पहुँचे।
एक वर्ष उपवास किया, आहार हुआ गजपुर में।।
मैं भी इक नैवेद्य थाल ले, अर्पण करुँ प्रभु पास।
पूजा करुँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
अंधकार को दूर हटाकर, दीपक करे उजाला।
जब भी पूजन करना हो, घी का दीपक ले आना।।
इक छोटा सा दीपक लेकर, करूँ आरती नाथ।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
चन्दन अगर कपूर आदि की, धूप शुद्ध बनवाई।
अष्टकर्म के नष्ट हेतु, अग्नी में धूप जलाई।।
कर्मदहन की आदिभूमि है, तीरथराज प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
सेव आम अंगूर फलों की, चाह में जीवन बीता।
प्रभु ने शिवफल खाने हेतू, अपने मन को जीता।।
वह फल ही पाने हेतू मैं, अर्पूं फल का थाल।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपस्थली है प्रयाग।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।
जल चन्दन अक्षत पुष्पादिक, दीप धूप फल लाऊँ।
कण कण पूजित तीरथ की, पूजन में अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
फल अनर्घ्य मिल जावे मुझको, यही ‘‘चन्दना’’ आश।
पूजा करूँ मैं उसी, तीरथ की प्रभु आज।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
संगम की धारा जहाँ, बहती अविरल आज।
उसी धार से मैं करूँ, तीरथ पर त्रयधार।।
शांतये शांतिधारा।
तपस्थली उद्यान से, पुष्प सुगंधित लाय।
पुष्पांजलि ले हाथ में, अर्पूं प्रभु पद मांहि।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(इति मण्डलस्योपरि सप्तदशमदले पुष्पांजलि क्षिपेत्)
तर्ज-देख तेरे संसार की हालत………
तीर्थ प्रयाग है ऋषभदेव का दीक्षा तीर्थ महान,
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।टेक.।।
युग की पहली तपोभूमि है।
जिनशासन की यशोभूमि है।।
कोड़ाकोड़ी वर्ष बाद भी मिटा न उसका नाम।
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।१।।
अष्टद्रव्य का थाल सजाया।
तीर्थ अर्चना हेतु चढ़ाया।।
करे ‘‘चन्दनामती’ तीर्थ का अर्चन बारम्बार।
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्री ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक पवित्र प्रयाग तीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
तीर्थ प्रयाग में ऋषभदेव को हुआ था केवलज्ञान,
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।टेक.।।
ज्ञान कल्याणक के प्रतीक में।
धनकुबेर ने रचा निमिष में।।
समवसरण की रचना से, भव्यों ने पाया ज्ञान,
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।१।।
समवसरण को अर्घ्य चढ़ाऊँ।
तीर्थराज को शीश नमाऊँ।।
इस तीरथयात्रा से सबको मिलता आतमज्ञान,
उसको कोटी कोटि प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीऋषभदेव केवलज्ञानकल्याणक पवित्र प्रयागतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
तर्ज-हे वीर तुम्हारे……..
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की, तपोभूमि को वन्दन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।टेक.।।
युग की आदी में सर्वप्रथम, जब केशलोंच की क्रिया हुई।
उत्कृष्ट महाव्रत धारण करने, की पहली प्रक्रिया हुई।।
वह भूमि प्रयाग बनी तब से, उसको मेरा शत वन्दन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।१।।
वहीं पुरिमतालपुर उपवन में, जिनवर को केवलज्ञान हुआ।
इक सहस वर्ष तप करने के, पश्चात् उन्हें यह लाभ हुआ।।
देवों ने समवसरण रचना में, बैठ किया प्रभु अर्चन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।२।।
कोड़ाकोड़ी वर्षों के भी, पश्चात् वहाँ अक्षयवट का।
इतिहास यही बतलाता है, प्रभुजी ने किया वहीं तप था।।
उस नगरी के रत्नत्रय के, प्रतिफल में बहती संगम है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।३।।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की, मिली प्रेरणा भक्तों को,
नगरी प्रयाग में ऋषभदेव की, तपस्थली इक निर्मित हो।।
हुई धन्य तृतीय सहस्राब्दि, पाकर यह तीरथ पावन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।४।।
उस तपस्थली में निर्मित श्री, कैलाशगिरी को वन्दन है।
वहाँ शान्त विराजे ऋषभदेव की, प्रतिमा को शत वन्दन है।।
वटवृक्ष तले ध्यानस्थ प्रभू अरु, समवसरण को वन्दन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।५।।
इस पावन तीर्थ की पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
वृषभेश्वर के वैरागी जीवन, से परिचित हो पाए हैं।।
‘‘चन्दनामती’’ मेरी आत्मा भी, बने तीर्थ नन्दनवन है।
तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।६।।
-दोहा-
त्याग प्रकृष्ट हुआ जहाँ, वह है तीर्थ प्रयाग।
उस तीरथ की अर्चना, भरे धर्म अनुराग।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेव दीक्षाकल्याणक केवलज्ञानकल्याणक पवित्र
प्रयागतीर्थक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।