-स्थापना-
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू, जृंभिका ग्राम में तिष्ठे थे।
ऋजुकूल नदि के तट पर, ध्यान अवस्था में वे बैठे थे।।
तब कर्म घातिया नाश उन्होंने दिव्यज्ञान को प्रगट किया।
उस केवलज्ञान तीर्थ अर्चन का भाव हृदय में उदित हुआ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र जृम्भिका तीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र जृम्भिका तीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र जृम्भिका तीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-
भावों का निर्मल जल लेकर, तीर्थंकर पद प्रक्षाल करूँ।
निज जन्म मरण के नाश हेतु, प्रभु चरणों में बस ध्यान करूँ।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर में कर्पूर, मिला जिनवर पद में चर्चूं।
संसार ताप के नाश हेतु, भावों से प्रभु पूजन कर लूँ।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अखंड ले बासमती, प्रभु सन्निध पुंज चढ़ाऊँ मैं।
अक्षय पद की प्राप्ती हेतू, भावों को शुद्ध बनाऊँ मैं।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा गुलाब बेला आदिक, पुष्पों की माल करूँ अर्पण।
हो कामबाण विध्वंस मेरा, इसलिए तीर्थ को करूँ नमन।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य सजाकर थाली में, जिनवर के निकट चढ़ाना है।
निज क्षुधारोग के नाश हेतु, भावों को शुद्ध बनाना है।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत का दीपक थाली में ले, जिनवर की आरति करना है।
मोहान्धकार के नाश हेतु निज, आत्मशुद्धि अब करना है।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप सुगंधित ले, प्रभु सम्मुख अग्नि में दहन करूँ।
कर्मों के विध्वंसन हेतू, निज आत्मतत्व में रमण करूँ।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नारंगी आम बिजौरा आदिक, फल प्रभु पद में अर्पित है।
शिवफल की प्राप्ती हेतु नाथ, मम श्रद्धाभाव समर्पित है।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल थाल लिया।
निजपद अनर्घ्य की प्राप्ति हेतु, ‘चन्दनामती’ नत भाल किया।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर का केवल-ज्ञान कल्याणक तीर्थ नमूँ।
कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हेतु, मन वच तन से प्रभु को प्रणमूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानभूमिजृम्भिकातीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- तीर्थ जृंभिका के निकट, कर लूँ शांतीधार।
आत्मशांति की प्राप्ति हो, होऊँ भव से पार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्प सुगंधित ले विविध, जिनवर चरण चढ़ाय।
पुष्पांजलि के निमित से, हृदय पुष्प खिल जाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(इति मण्डलस्योपरि एकोनविंशतितमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
अर्घ्य (शंभु छंद)
जृंभिका ग्राम में ऋजुकूला नदि तट पर वीरप्रभू तिष्ठे।
तब शुक्लध्यान के अतिशय से कैवल्यसूर्य प्रगटा उनके।।
उस ज्ञानकल्याणक तीर्थधाम का अर्चन जगहितकारी है।
आत्मा में सम्यग्ज्ञान प्रगट हो, यही भाव सुखकारी है।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर महावीरकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र जृंभिकातीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर महावीर, जय उनके तीरथ की जय हो।
जय कुण्डलपुर के नाथ वीर, जय उनकी कीरत की जय हो।।
जय गर्भ जन्म तप भूमि तीर्थ कुण्डलपुर हो जयशील सदा।
जय हो वैवल्यभूमि जहाँ वीर का पहला समवसरण था रचा।।१।।
बारह वर्षों तक तप करके जब प्रभु को केवलज्ञान हुआ।
घाती कर्मों का कर विनाश आत्मा का उनको भान हुआ।।
धनपति ने तत्क्षण नभ में रचना समवसरण की कर डाली।
बीचोंबिच गंधकुटी में जिनवर शोभ रहें महिमाशाली।।२।।
उस नगर जृंभिका में जब पहला समवसरण था बना हुआ।
पर वीर प्रभू की दिव्यध्वनि नहिं खिरी अत: आश्चर्य हुआ।।
सुरनर मुनिगण थे विद्यमान लेकिन सन्नाटा छाया था।
क्यों नहीं खिरी दिव्यध्वनि प्रभु की कोई समझ न पाया था।।३।।
भव्यात्मा जन प्रभु के दर्शन करके सम्यग्दर्शन पाते।
रचना लख करके समवसरण की तृप्त स्वयं भी हो जाते।।
प्रभु वीर जहाँ करते विहार उन चरण कमल तल कमल खिलें।
हर जगह इन्द्र किंकर बनकर तीर्थंकर प्रभु के संग चले।।४।।
प्रभु श्री विहार होते-होते छ्यासठ दिन ऐसे निकल गये।
तब चिंतित होकर इन्द्रराज कुछ अन्वेषण को निकल पड़े।।
ब्राह्मण नामक इस नगरी में, विद्वत्समूह एकत्रित था।
वहाँ गौतम गोत्री इन्द्रभूति, के ज्ञान से इन्द्र भी विस्मित था।।५।।
उसने गौतम से प्रश्न किया, वे उत्तर बता नहीं पाये।
निज पाँच शतक शिष्यों के संग, गौतम फिर प्रभु सम्मुख आये।।
उस समय राजगिरि के विपुलाचल पर निर्मित था समवसरण।
वहाँ मानस्तंभ देखते ही हुआ इन्द्रभूति का मान भंग।।६।।
जा समवसरण के अंदर गौतम वीर प्रभू के शिष्य बने।
तत्क्षण दिव्यध्वनि प्रगट हुई, पहले गणधर गौतम ही बने।।
जग भर में जय जयकार हुई, महावीर व गौतम गणधर की।
जन जन में खुशी अपार हुई, सबको मानो नव निधी मिली।।७।।
जिस धरती पर महावीर प्रभू को केवलज्ञान प्रकाश मिला।
उस तीर्थ जृम्भिका में अब जीर्णोद्धार विकास का पुष्प खिला।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की हुई प्रेरणा कुछ ऐसी।
तीर्थंकर प्रभु के कल्याणक तीर्थों की ओर करो दृष्टी।।८।।
ये तीर्थ जैन संस्कृति के उद्गम स्थल हैं सचमुच जानो।
इनके विकास में मानव का सर्वतोमुखी विकास मानो।।
इस ही विकास क्रम में तीरथ जृंभिका को शत-शत वंदन है।
‘‘चन्दनामती’’ जयमाला के माध्यम से अर्घ्य समर्पण है।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमहावीरकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र जृम्भिका तीर्थक्षेत्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।