तर्ज-आओ बच्चों……….
चलो सभी मिल पूजन कर लें, गिरि कैलाश महान की।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के, प्रथम मोक्षस्थान की।।
वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम् ।।
कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व जहाँ ऋषभदेव जी मोक्ष गए।
चक्रवर्ति भरतेश्वर ने वहाँ, रत्नजिनालय बना दिये।।
जय जय बोलो, वन्दन कर लो, उस अष्टापद धाम की।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के, प्रथम मोक्ष स्थान की।।
वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम् ।।१।।
उस पर्वत का कण-कण पावन, पूज्य सदा के लिए हुआ।
इसीलिए हमने उसकी, पूजन का थाल सजाय लिया।।
सबसे पहले आह्वानन कर, करूँ अर्चना नाथ की।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के, प्रथम मोक्ष स्थान की।।
वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम्, वन्दे गिरिवरम् ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमि कैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमि कैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
तर्ज-माई रे माई……….
ऋषभदेव निर्वाणभूमि कैलाश गिरी को नम लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।
प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय।।
गिरि से गिरती गंगा नदि का, पावन जल ले करके।
स्वर्ण भृंग से त्रयधारा, डालूँ जिनवर के पद में।।
जन्म मरण नश जाए मेरा………
जन्म मरण नश जाए मेरा भी, यही भावना भर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।। प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्राय
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर के मन में जब चन्दन, सी शीतलता आई।
तभी जगत का ताप शांतकर, शाश्वत शांती पाई।।
मलयागिरि चन्दन घिस करके………..
मलयागिरि चन्दन घिस करके, प्रभु का चर्चन कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्राय
संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
इस पर्वत पर बालि मुनी ने, ऐसा ध्यान लगाया।
रहे अकम्प तपस्या में, तब ही अक्षयपद पाया।।
अक्षत के पुंजों से गिरि की…………
अक्षत के पुजों से गिरि की, भक्ति अर्चना कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्राय
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के अतिशय से अष्टापद, पुष्पों से महका था।
आज न जाने कहाँ गया वह, मोक्षधाम पहला था।।
पुष्प चढ़ा करके परोक्ष में………
पुष्प चढ़ा करके परोक्ष में, ही सुगंधि मन भर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्राय
कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभदेव के पास इन्द्र जब, पूजन करने पहुँचे।
अमृतमय नैवेद्य थाल भर, प्रभु को अर्पण करते।।
अपने इस नैवेद्य में भी………
अपने इस नैवेद्य में भी, कल्पना दिव्य की कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाश पर्वतसिद्धक्षेत्राय
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहतिमिर को दूर भगा, प्रभु पद्मासन बैठे थे।
देव मनुज निज मोह भगाने, को आरति करते थे।।
घृत के लघु दीपक से……..
घृत के लघु दीपक से ही, गिरिवर की आरति कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्राय
मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आदिप्रभू की तप सुगंधि, पूरे पर्वत पर फैली।
उनकी पूजा हेतु सुगंधित, धूप वहाँ पर महकी।।
अष्टगंध की धूप को ही…………..
अष्टगंध की धूप को ही, अग्नी में दहन सब कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्राय
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
चउतरफा कैलाशगिरी पर, फल युत वृक्ष झुके थे।
मानो वृषभेश्वर के पद में, वे वन्दन करते थे।।
उन जैसा फल पाने हेतू………….
उन जैसा फल पाने हेतू, फल से पूजन कर लो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्राय
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत व पुष्प चरु, दीप धूप फल लेकर।
पद अनर्घ्य मिलता है चन्दनामती अर्घ्य अर्पित कर।।
इसीलिए अब अर्घ्य थाल………
इसीलिए अब अर्घ्य थाल, गिरिवर को अर्पण कर दो।
पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।।प्रभू की….।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
गिरि कैलाश के ही विमल, झरने का ले नीर।
शांतीधारा मैं करूँ, मिटे मेरी भवपीर।।
शान्तये शांतिधारा।
उपवन से चुन चुन सुमन, अंजलि भरकर नाथ।
अर्पूं मैं उस गिरि निकट, मुक्त हुए जहाँ आप।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(इति मण्डलस्योपरि विंशतितमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
अर्घ्य (शंभु छंद)
पहले तीर्थंकर ऋषभदेव,कैलाशगिरी पर जा करके।
चौदह दिन योग निरोध किया, निज आतमध्यान लगा करके।।
फिर माघ कृष्ण चौदश के दिन, मुक्ती कन्या का वरण किया।
ले अर्घ्य थाल, उस सिद्धक्षेत्र कैलाशगिरी का यजन किया।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरऋषभदेव निर्वाणकल्याणक पवित्र कैलाशपर्वत सिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
जिनप्रतिमा निर्माण, कथा युगादी से बनी।
चक्रवर्ति सम्राट, रत्नमूर्तियाँ दी घनी।।
-शंभु छंद-
निर्वाणनाथ से शांतिनाथ तक, चौबिस तीर्थंकर माने।
ये भूतकाल में भरतक्षेत्र के, आर्यखंड में थे जन्मे।।
उन भगवन्तों की प्रतिमाएँ, रत्नों की बड़ी मनोहर हैं।
चरणों में अर्घ्य समर्पित कर, हो गया धन्य मन मंदिर है।।२।।
ॐ ह्रीं कैलाशपर्वतस्योपरिविराजितभूतकालीनचतुर्विंशतितीर्थंकराणां
जिनप्रतिमाचरणेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ऋषभदेव से महावीर तक, चौबीसों तीर्थंकर हैं।
रत्नों की प्रतिमा में हमने, माना साक्षात् जिनेश्वर हैं।।
उन सब जिनवर के चरणों में, मेरा यह अर्घ्य समर्पित है।
श्री वर्तमान चौबीसी के, दर्शन से मन आनन्दित है।।३।।
ॐ ह्रीं कैलाशपर्वतस्योपरिविराजितवर्तमानकालीनचतुर्विंशति-
तीर्थंकराणां जिनप्रतिमाचरणेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महापद्म से अनंतवीर्य तक, चौबिस भावी जिनवर हैं।
प्रभु आदिनाथ की दिव्यध्वनि से, जाना वे क्षेमंकर हैं।।
नाना प्रकार की मणियों से, उनकी प्रतिमाएँ बनीं वहाँ।
उन पद में अर्घ्य समर्पण कर, मेरे मन में छाईं खुशियाँ।।४।।
ॐ ह्रींकैलाशपर्वतस्योपरिविराजितभविष्यत्कालीनचतुर्विंशति-
तीर्थंकराणां जिनप्रतिमाचरणेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
तर्ज-भवसागर अपार है……..
ऊँचा सा पहाड़ है, अष्टापद गिरिराज है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से, पावन गिरि कैलाश है।।टेक.।।
नाभिराय मरुदेवी के नन्दन, तीर्थंकर प्रभु प्रथम हुए।।तीर्थंकर……
राजपाट सब त्याग वनों में, जाकर मुनिवर प्रथम हुए।।जाकर……..
मन में हुआ विचार है, नश्वर सब संसार है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से, पावन गिरि कैलाश है।।१।।
चौदह दिन की आयु रही जब, अष्टापद पर पहुँच गये।अष्टापद……..
योग निरोधा कर्म नष्टकर, सिद्धालय को प्राप्त हुए।।सिद्धालय….
सुख का वह साम्राज्य है, तीन लोक सरताज है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से, पावन गिरि कैलाश है।।२।।
आओ खोज करें उस गिरि की, कहाँ आज वह लुप्त हुआ।। कहाँ…….
चक्रवर्ती भरतेश्वर ने जहाँ, रत्नमूर्ति निर्माण किया।।रत्नमूर्ति…
कहते ग्रन्थ पुराण हैं, इतिहासों में नाम है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से, पावन गिरि कैलाश है।।३।।
मानी रावण ने मुनि पर वहाँ, एक बार उपसर्ग किया।।एक बार…….
मुनि ने तब जिनमंदिर रक्षा, हेतू इक पग दबा दिया।।हेतू एक…….
कथा यही विख्यात है, रोया रावण राज है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से, पावन गिरि कैलाश है।।४।।
उस गिरिवर से और न जाने, कितने मुनिवर मोक्ष गए।कितने मुनिवर…….
इसीलिए ‘‘चन्दना’’ भक्तगण, अष्टापद की भक्ति करें।।अष्टापद की……..
अर्घ्य समर्पण नाथ है, कर लेना स्वीकार है,
ऋषभदेव के मोक्षगमन से पावन गिरि कैलाश है।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवनिर्वाणभूमिकैलाशपर्वतसिद्धक्षेत्राय जयमाला
पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।