अथ स्थापना (गीता छंद)
वर पंचकल्याणक जगत में, इंद्रगण से वंद्य हैं।
त्रैलोक्यपति तीर्थंकरों की, चरणरज से धन्य हैं।।
मैं स्वात्मसिद्धी प्राप्ति हेतू, सर्व तीर्थों को जजूँ।
आह्वाननादी विधि करूँ, सम्पूर्ण कल्याणक भजूँ।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थिततीर्थंकरपंचकल्याणक-
क्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थिततीर्थंकरपंचकल्याणक-
क्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थिततीर्थंकरपंच-
कल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अथ अष्टक (भुजंगप्रयातछंद)
पयोसिंधु को नीर झारी भराऊँ।
प्रभो! आपके पाद धारा कराऊँ।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन कपूरादि वासा।
चढ़ाते तुम्हें सर्व संताप नाशा।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
पयोराशि के फेन सम तंदुलों को।
चढ़ाऊँ तुम्हें सौख्य अक्षय मिले जो।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केवड़ा चंपकादी सुमन हैं।
तुम्हें पूजते काम व्याधी शमन है।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कलाकंद लाडू भरा थाल लाऊँ।
क्षुधा डाकिनी नाश हेतू चढ़ाऊँ।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणी दीप ज्योती भुवन को प्रकाशे।
करूँ आरती ज्ञान ज्योती प्रकाशे।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में धूप खेऊँ दशांगी।
करम धूम्र पैले चहूँ दिक् सुगंधी।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नरंगी मुसम्बी अनन्नास लाऊँ।
महामोक्ष फल हेतु आगे चढ़ाऊँ।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी वसू द्रव्य से थाल भर के।
चढ़ाऊँ तुम्हें अर्घ्य रत्नादि धर के।।
महापंचकल्याण तीर्थादि पूजूँ।
महापंच संसार से शीघ्र छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थित तीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।।
जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य दु:ख अंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रस्थ पंचकल्याणक भूमि आदि के २७ अर्घ्य
दोहा- तीर्थंकर कल्याण से, भूमी पावन मान्य।
पुष्पांजलि से पूजते, भव्य लहें धन-धान्य।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवतीर्थंकर-गर्भजन्मकल्याणक-अजित-अभिनंदन-सुमति-
अनंतनाथ-गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवलज्ञानकल्याणकपवित्र शाश्वत अयोध्या-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रश्रावस्ती-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकर-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र कौशाम्बी-
प्रभासगिरि तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकर-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणक-
पार्श्वनाथगर्भजन्मदीक्षाकल्याणकपवित्र वाराणसीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभतीर्थंकर-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र
चंद्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र-
काकंदीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र-
भद्रिकावतीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र
सिंहपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीर्थंकर-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञाननिर्वाणकल्याणक-
पवित्र चंपापुरी-मंदारगिरिसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र
कंपिलापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्ररत्नपुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञान-चतुश्चतु:
कल्याणकपवित्र हस्तिनापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथ-नमिनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र
मिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ-गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्र
राजगृहीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ-गर्भजन्मकल्याणकपवित्रशौरीपुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामी-गर्भजन्मदीक्षाकल्याणकपवित्र कुण्डलपुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेव-दीक्षाकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रप्रयागतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ-केवलज्ञानकल्याणकपवित्र अहिच्छत्रतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामि-केवलज्ञानकल्याणकपवित्रजृंभिकाग्रामतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेव-निर्वाणकल्याणकपवित्रवैलाशगिरिसिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ-दीक्षा-केवलज्ञान-निर्वाणकल्याणकपवित्र गिरनार-
सिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ-संभवनाथ-अभिनंदननाथ-सुमतिनाथ-पद्मप्रभु-
सुपार्श्व-चन्द्रप्रभ-पुष्पदंत-शीतल-श्रेयांस-विमल-अनंत-धर्म-शांतिनाथ-कुंथुनाथ-
अरहनाथ-मल्लिनाथ-मुनिसुव्रतनाथ-नमिनाथ-पार्श्वनाथविंशति-
तीर्थंकरनिर्वाणकल्याणकपवित्र श्रीसम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामि-निर्वाणकल्याणकपवित्र पावापुरीसिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थ श्रीऋषभसेनादिद्वापंचाशदधिकचतु-
र्दशशतगणधरदेवतत्तन् निर्वाणक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थ चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-
अष्टाविंशतिलक्ष-अष्टचत्वारिंशत्सहस्रसर्वसाधुगणतत्तन् निर्वाणक्षेत्र-
समाधिक्षेत्र-परम्परागतसर्वसाधुगणतत्तन् निर्वाणक्षेत्र-समाधिक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थितमांगीतुंगीपर्वतादिसिद्धक्षेत्र-
महावीरजीपद्मपुरादि-अतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रस्थ चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित
ब्राह्मीप्रमुख पंचाशल्लक्ष-षट्पंचाशत्सहस्रद्वयशतपंचाशदार्यिका-
परम्परागत सर्वार्यिका तत्तत्समाधिक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
पूर्णार्घ्य (दोहा)
कर्म मर्महर तीर्थकर, प्रीतिंकर सुखकार।
उन कल्याणक तीर्थ को, प्रणमूँ बारम्बार।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधि भरतक्षेत्रस्थितवर्तमानकालीनतीर्थंकर-पंचकल्याणकक्षेत्र
महामुनिनिर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ढाईद्वीप के पंचकल्याणकभूमि आदि के 10 अर्घ्य
दोहा- ढाईद्वीप के तीर्थ हैं, शत इन्द्रों से वंद्य।
पुष्पांजलि से पूजते, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थिततीर्थंकरपंचकल्याणक-
क्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितमहामुनिनिर्वाणक्षेत्र
सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थिततीर्थंकरपंच-
कल्याणकक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितमहामुनि-
निर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थित-
तीर्थंकरपंचकल्याणकक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितमहामुनि-
निर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थिततीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितमहामुनिनिर्वाणक्षेत्र
सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थिततीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधि चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितमहामुनि-
निर्वाणक्षेत्र सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
पूर्णार्घ्य (तोटक छंद)
जल गंध प्रभृति वसु अर्घ्य लिया।
शिव हेतू अर्घ्य समर्प्य दिया।।
सब ढाईद्वीप के तीर्थ जजूँ।
शिव प्राप्ति हेतु निज आत्म भजूँ।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकर-
पंचकल्याणकक्षेत्र सर्वमहामुनिनिर्वाणसर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं त्रयोदश्द्वीपसंबंधिनवदेवताभ्यो नम:।
-दोहा-
तीनलोक की सम्पदा, करें हस्तगत भव्य।
तुम जयमाला कंठधर, पूरें सब कर्तव्य।।१।।
चाले-हे दीनबंधु………….
जैवंत मुक्तिकन्त देव देव हमारे।
जैवंत भक्त जंतु भवोदधि से उबारें।।
हे नाथ! आप जन्म के छह मास ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मातु के महले।।१।।
माता की सेवा करती थीं श्री आदि देवियाँ।
अद्भुत अपूर्व भाव धरें सर्व देवियाँ।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इन्द्र सपरिवार आय भक्तिभाव से।।२।।
प्रभु गर्भकल्याणक महा उत्सव विधी करें।
माता-पिता की भक्ति से पूजन विधी करें।।
हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इन्द्रासनों के कंप से आश्चर्य हो उठे।।३।।
इन्द्रों के मुकुट आप से ही आप झुके हैं।
सुरकल्पवृक्ष हर्ष से ही फूल उठे हैं।।
वे सुरतरु स्वयमेव सुमनवृष्टि करे हैं।
तब इन्द्र आप जन्म जान हर्ष भरे हैं।।४।।
तत्काल इन्द्र सिंहपीठ से उतर पड़ें।
प्रभु को प्रणाम करके बार-बार पग पड़ें।।
भेरी करा सब देव का आह्वान करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।५।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।।
जब आप हों विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षाविधि उत्सव महामुद से मनावते।।६।।
जब घातिया को घात ज्ञानसम्पदा भरें।
तब इन्द्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।
तुम दिव्य वच पीयूष को पीते असंख्यजन।
क्रम से करें वे मुक्तिवल्लभा का आलिंगन।।७।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्तिधाम में बसें।
सिद्ध्यंगना के साथ परमानंद सुख चखें।।
सब इन्द्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।
प्रभु पंचकल्याणकपती को शीश नावते।।८।।
इन ढाईद्वीप में समस्त कर्मभूमि में।
आचार्य उपाध्याय साधुओं को नित नमें।।
वे साधु कर्मनाश मोक्ष प्राप्त कर रहे।
उन सबको नमूँ भक्ति से वे सिद्ध हो रहे।।९।।
सब गणधरों के चरण-कमल नित्य मैं नमूँ।
उनके सभी निर्वाणक्षेत्र को भि नित नमूँ।।
सब तीन न्यून नव करोड़ साधु को नमूँ।
उनके समाधिक्षेत्र-मुक्तिक्षेत्र को नमूँ।।१०।।
जो ब्राह्मी आदि गणिनी और आर्यिकाएँ भी।
इन सबकी वंदना से गुणरत्न भरें भी।।
इनके समाधिक्षेत्र भी पवित्र मान्य हैं।
उनकी करूँ मैं वंदना वे सौख्य खान हैं।।११।।
इन सर्व तीर्थक्षेत्र की मैं वंदना करूँ।
निज आत्मा को तीर्थ बनाकर सुखी करूँ।।
अतिशायि क्षेत्र की सदैव अर्चना करूँ।
सम्पूर्ण अतिशयों से स्वात्म संपदा भरूँ।।१२।।
जिन पादपद्म से पवित्र तीर्थ बन रहे।
उन तीर्थनाथ को हृदय में धार सुख लहें।।
तीर्थंकरों को तीर्थ को निर्वाण तीर्थ को।
मैं बार-बार नित्य नमूँ सिद्धि हेतु जो।।१३।।
हे नाथ! आप कीर्ति कोटि ग्रंथ गा रहे।
इस हेतु से ही भव्य आप शरण आ रहे।।
मैं आप शरण पाय के सचमुच कृतार्थ हूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।१४।।
-दोहा-
पाँच कल्याणक पुण्यमय, हुए आपके नाथ।
बस एकहि कल्याण मुझ, कर दीजे हे नाथ।।१५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वीयद्वीपसंबंधि सर्वपंचकल्याणकक्षेत्र महामुनिनिर्वाण
सर्वअतिशयक्षेत्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्री तेरहद्वीप विधान भव्य, जो भावभक्ति से करते हैं।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सम्पूर्ण दु:ख को हरते हैं।।
फिर तेरहवाँ गुणस्थान पाय, अर्हंत अवस्था लभते हैं।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।