-स्थापना-शंभु छंद-
वृषभेश्वर के सुत बाहुबली, प्रभु कामदेव तनु सुन्दर हैं।
मुनिगण भी ध्यान करें रुचि से, नित जजते चरण पुरंदर हैं।।
निज आतमरस के आस्वादी, जिनका नित वंदन करते हैं।
उन प्रभु का हम आह्वानन कर, भक्ती से अर्चन करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-शंभु छंद-
भव भव में जल पीते-पीते, अब तब नहिं तृषा समाप्त हुई।
इस हेतू जिनपद पूजूँ मैं, जल से यह इच्छा आज हुई।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तन धन कुटुम्ब की चाह दाह, नितप्रति मन को संतप्त करे।
चंदन से जिनपद चर्चत ही, मन को अतिशय संतृप्त करे।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आतम सुख को कर्मों ने, बस खंड-खंड कर दु:ख दिया।
निज सुख अखंड मिल जावे बस, उज्ज्वल अक्षत से पुंज किया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु कामदेव होकर के भी, अरि कामदेव को भस्म किया।
इस हेतु सुगंधित पुष्प बहुत, तुम चरणकमल में चढ़ा दिया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु एक वर्ष उपवास किया, हुई कायबली ऋद्धी जिससे।
मेरा क्षुध रोग विनाश करो, पक्वान्न चढ़ाऊँ बहुविध के।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर शिखा जगमग करती, बाहर में ही उद्योत करे।
दीपक से तुम आरति करके, अंतर में ज्ञान उद्योत करे।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूप सुगंधित खे करके, संपूर्ण पाप को भस्म करें।
निज गुण समूह की प्राप्ति हेतु, जिन पद पंकज की भक्ति करें।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवांछित फल पाने हेतू, बहुतेक देव का शरण लिया।
नहिं मिला श्रेष्ठ फल अब तक भी, इस हेतु सरस फल अर्प दिया।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन तंदुल पुष्प चरू, दीपक वर धूप फलों से युत।
क्षायिक लब्धी हित ‘‘ज्ञानमती’’, यह अर्घ समर्पण करूँ सतत।।
हे योग चक्रपति बाहुबली, तुम पद की पूजा करते हैं।
तुम सम ही शक्ति मिले मुझको, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतीधारा मैं करूँ, बाहुबली पदपद्म।
आत्यंतिक सुख शांतिमय, मिले निजातम सद्म।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही चमेली केतकी, चंपक हरसिंगार।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
(प्रथम वलय के आठ अर्घ्य )
-दोहा-
बाहुबली भगवान हैं, गुण अनन्त के नाथ।
पुष्पांजलि से पूजकर, भविजन हुए कृतार्थ।।१।।
अथ मंडलस्योपरि प्रथमवलये अष्टकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सिद्धिप्रदं मुनिगणेन्द्र-शतेन्द्रवंद्यं,
कल्पद्रुमं शुभकरं धृतिकीर्तिसद्म।
पापापहं भवभृतां भववार्धिपोत-
मानम्य पादयुगलं पुरुदेवसूनो:।।१।।
-चौबोल छंद-
सिद्धिप्रद मुनिगण से वंदित, सौ इन्द्रों से नित वंदित।
उत्तम कल्पवृक्ष शुभकारी, धृति कीर्ति के सदन महित।।
भवभृतजन के पापहरण, प्रभु भव जलधि के पोत महान।
वृषभदेवसुत बाहुबली के, चरण कमल में करूँ प्रणाम।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदायकाय संसारसमुद्रोत्तरणपोतायमानाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
सप्तर्द्धिशालिगणिनां स्तुतिगोचरस्य,
युद्धत्रये विजित-विक्रमचक्रपस्य।
ध्यानैकलीनतनुनिश्चलवत्सरस्य,
तस्य प्रभोरहमपि स्तवनं विधास्ये।।२।। युग्मं।।
सप्तऋद्धियुत चार ज्ञानधर, गणधर भी स्तुति करते।
दृष्टि-जल्ल औ मल्ल युद्ध में, चक्रवर्ति को भी जीते।।
एक वर्ष तक ध्यानलीन हो, निश्चल तन से खड़े प्रभो।
ऐसे श्री बाहुबली जिन की, मैं भी स्तुति करूँ अहो।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वर्द्धिसमन्वितमहासाधुस्तुतिप्राप्ताय संवत्सरध्यानलीनाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
हे नाथ! कर्मवशतो हतशक्तिबुद्धि:,
स्तोतुं तथापि तव भक्तिवशाद् यतेऽहं।
भेकोऽपि शक्तिमसमीक्ष्य जवेन भक्त्या,
गच्छन् मृत: सुरपदं ननु किं न वाप्नोत्।।३।।
हे जिन! कर्म उदय से मैं हूँ, शक्तिहीन औ बुद्धिविहीन।
फिर भी तव भक्ती वश होकर, स्तुति करने को उद्यमलीन।।
शक्ति विचारे बिन मेंढक भी, भक्ती वश हो तुरत चला।
मारग में ही मरकर सुरपद, पाया क्या नहिं अहो भला।।३।।
ॐ ह्रीं शक्तिबुद्धिहीनै: भक्तिवशस्तुतिकरणोद्यतजनवांछितफल-
प्रदानसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
त्वन्नामपूतरसना लघु दिव्यवाणीं,
हृद्यां त्रिलोकजनवश्यकरीं विधत्ते।
स्तोत्राय ते रुचिरवर्णपदा मनोज्ञा:,
तस्या: कथं कतिपया न वशीभवंति।।४।।
प्रभु तव नाम मंत्र से पावन, रसना झट ही प्राप्त करे।
मनहर त्रिभुवन जन वशकारी, दिव्य सुवाणी पाप हरे।।
हे भगवन्! तव संस्तव हेतू, रुचिर वर्ण पद से मनहर।
उस रसना के वश नहिं होंगे, क्या कतिपय सुन्दर अक्षर।।४।।
ॐ ह्रीं त्वत्संस्तवनपवित्रसर्वजनवश्यकारिणीवाणीप्राप्ताय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
किं शक्यते गुणकथा जिन! मद्विधैस्ते,
साक्षादहो! सुरगुरु: क्षमते न वक्तुं।
उद्गच्छतो वियति पक्षिगणानचक्षु:,
मीयेत चेद् व्रजति किं नहि हास्यतां स:।।५।।
हे जिन! मुझ जैसे तव गुण का, वर्णन क्या कर सकते हैं?
जब सुरगुरु भी सचमुच तव, भक्ती में अक्षम रहते हैं।।
अहो! गगन में उड़ते पक्षी-गण की यदि अंधे जन भी।
गणना करते हँसी पात्र, क्या होंगे नहीं मूढ बुद्धी।।५।।
ॐ ह्रीं अनन्तगुणकथनासमर्थभव्यजनाभीप्सितफलप्रदाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
आस्तां जिनेन्द्र! तव संस्तवनं हि तावत्,
नामापि नूनमिह सिद्धरसायनं स्यात्।
कामार्थदाय्यभयदायि च देहभाजां,
पीयूषबिंदुरपि तृप्तिकरो न किं वा।।६।।
हे जिनवर! तव संस्तव की तो, बात दूर ही रहे मगर।
सचमुच नाम मंत्र भी तेरा, सिद्ध रसायन से बढ़कर।।
जग जन को इच्छित फलदायी, अभयदान भी देता है।
क्या अमृत का एक बिंदु भी, तृप्तीप्रद नहिं होता है।।६।।
ॐ ह्रीं त्वन्नाममात्रसर्वसिद्धिकारकामृताय श्रीबाहुबलिस्वामिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
हे कामदेव! शुभवर्ण हरित्सुगात्र!
केनोपमां तव करोमि समोऽपि कश्चेत्।
नूनं भवान् खलु भवादृश एव लोके,
तृप्यंति नो जनदृशो मुहुरीक्षमाणा:।।७।।
हे प्रभु कामदेव! अति सुन्दर, हरित वर्ण शुभ तनु शोभित।
किससे उपमा करूँ तुम्हारी, यदि तुम सम जन हों इस जग।।
निश्चित ही प्रभु तुम सम तुमही, इस जग में सुन्दर अतएव।
बार-बार जन के दृग तुमको, लखते तृप्त न होते देव।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वोपमानोपमेयविरहिताय कामदेवपदप्राप्ताय श्रीबाहुबलिस्वामिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
नाथ! त्वदंघ्रियुगसंततसेवमाना:,
ज्योतिर्गणा अगणिता रविचंद्रमुख्या:।
दीप्तिस्त्वसंख्यसुरवृंदमतीत्य तेऽस्ति,
तुल्या भवंति किमु ते तवदीप्तिकान्त्या।।८।।
नाथ! आपके चरण कमल की, नित सेवा करने वाले।
सूर्य-चंद्र हैं मुख्य जिन्होेंं में, अगणित ज्योतिष सुर सारे।।
तव तनु दीप्ति असंख्य सुरों की, दीप्ति उलंघन कर शोभे।
देवदेव! तव दीप्ति कांति के, तुल्य देवगण नहिं होते।।८।।
ॐ ह्रीं सूर्यचन्द्राधिकदीप्तिधारकाय ज्योतिष्कदेवादिभिर्वंदिताय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
-पूर्णार्घ्य-
वक्त्रं त्वदीयधवलोज्ज्वलकीर्तिकांतं,
रम्यं विकारभयशोकविषाददूरं।
स्मेरं सुसौम्यमतुलं सुभगं प्रशांतं,
हर्षोत्करैर्जनमनांसि हरत्यजस्रं।।९।।
नाथ! आपका मुख है धवलोज्ज्वल कीर्ती कांती से कांत।
अति रमणीय विकार शोक भय, मद विषाद से दूर नितांत।।
मंद हास्य युत अतुल सुभग है, सौम्य शांतमय महाप्रशांत।
हर्षोत्कर से नित प्रति सब जन, मन को हरता है भगवंत।।९।।
-दोहा-
प्रभु अनन्तगुण के धनी, ध्यानचक्रधर धीर।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ मैं भवतीर।।१०।।
ॐ ह्रीं भयशोकविषादविरहित-मंदमंदप्रहसितायमानास्यसहिताय
सिद्धपदप्राप्ताय श्री बाहुबलिस्वामिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।
-दोहा-
ध्यान चक्र के अधिपती, बाहुबली मुनिनाथ।
सुमन चढ़ाकर पूजहूँ, नमूँ नमाकर माथ।।
अथ मंडलस्योपरि द्वितीयवलये षोडशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ध्यानस्थिते त्वयि विभो! शुकवर्णकांतं,
त्वां वीक्ष्य मुक्तिललना छलतो लतानां।
मन्येऽहमेत्य समवर्णमवेत्य तुष्टा,
आश्लिष्यति स्म रहसि स्थितमत्र मोदात्।।१।।
विभो! ध्यान में लीन आपकी, शुक समान है कांति महान।
लता बहाने मुक्ति रमा ही, मानों आई निकट सुजान।।
रूप वर्ण तव हरित देख, समवर्ण समझ संतुष्ट हुई।
रहसि खड़े प्रभु देख तुम्हें, आलिंगन करती मुदित हुई।।१।।
ॐ ह्रीं हरिद्वर्णकान्तिधृत्माधवीलतावेष्टित स्थिरदेहाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
योगात्प्रसन्नहृदये त्वयि संस्मितास्य:,
वल्ल्याभिवेष्टिततनु: पृथुकल्पवृक्ष:।
लोकोत्तराभ्युदयसौख्यफलं ददासि,
त्वामद्भुतद्रुमत एव जना: श्रयंति।।२।।
प्रभो! योग से प्रसन्न मन तव, संस्मित मुख प्रकटित करता।
बेलों से तनु वेष्टित उत्तम, अद्भुत कल्पवृक्ष दिखता।।
लोकोत्तर अभ्युदय सौख्य फल, मुक्तीफल को भी देते।
अनुपम कल्पवृक्ष लख प्रभु को, अत: सभी आश्रय लेते।।२।।
ॐ ह्रीं योगलीनप्रसन्नहृदयसंस्मितमुखकमलाय लोकोत्तरसौख्यदान-
समर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
विघ्नौघजित्! मरकताभ! समंततस्त्वां,
संवेष्ट्य भीषणफणा विषदर्पजुष्टा:।
वल्मीकरन्ध्रगतनिर्गतकृष्णनागा:,
दीर्घं त्वदीयपृथुदेहगिरावदीव्यन्।।३।।
हे विघ्नौघविजित्! मरकतमणिदेह! आपके चारों ओर।
वेष्टित करते भीषण फणधर, विष से युक्त भयंकर घोर।।
वामी के छिद्रों से निकले, काले नाग बहुत दिन तक।
प्रभु के इस विशाल तनु पर्वत, ऊपर क्रीड़ा करें मुदित।।३।।
ॐ ह्रीं ध्यानैकतानचित्तभीषणसर्पगणवेष्टिताय सर्वविघ्नहराय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
आजन्मजातबहुवैरविकारभावा:,
सिंहप्रभृत्यखिलजंतुगणा अपीत्थं।
ध्यानप्रभाववशतस्तव हस्रभावं,
त्यक्त्वा मिथ: परमशांतमुपासत त्वां।।४।।
जन्मजात बहु बैर भावयुत, अति विकार को प्राप्त जभी।
सिंह-हरिण, नकुलादि सर्पगण, जात विरोधी जीव सभी।।
अहो! ध्यान के ही प्रभाव से, क्रूर भाव को तजते हैं।
परम शांत प्रभु को उपासते, प्रीति परस्पर भजते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं ध्यानप्रभावनिमित्तजन्मजातवैरवर्जितसिंहमृगादिगण-
सेवितपादपद्माय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
त्वामाश्रितस्य जिन! मे कटुकर्मबंधा:,
क्रूरत्वमत्र जहतु त्वरमद्भुतं क।
स्वामिन्नसातविविधप्रकृती: सुभक्ति:,
संक्रामयत्यपि शुभे कथितं त्वयैव।।५ (कुलकं)।।
हे जिन! तेरा आश्रय लेते, मेरे भी कटु कर्म विपाक।
अशुभ क्रूर फल नहिं देवें यदि, इसमें विस्मय क्या हे नाथ।।
स्वामिन्! तेरी सद्भक्ती तो, विविध असात प्रकृतियों को।
शुभ प्रकृती में संक्रम करती, ऐसा तुमने कहा अहो!।।५।।
ॐ ह्रीं भक्तिप्रभावादसातादिप्रकृति-सातास्वरूपपरिणमनकारकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ध्यानस्थिते सति सुरासनकंपमाना:,
जाता मुहु: सुरगणाश्च नतिं व्यतन्वन्।
ध्यानैकधुर्य जिन! ते हृदि धारकाणां,
कंपीभवंति भविनां किल कर्म चौरा:।।६।।
ध्यान लीन जब खड़े आप थे, सुरगण के आसन कंपे।
पुन: पुन: वे सुरगण आते, नमस्कार करते रहते।।
हे ध्यानैकधुर्य जिन! तुमको, जो मन में धारण करते।
निश्चित ही उन भव्यजनों के, कर्म चोर कंपित होते।।६।।
ॐ ह्रीं ध्यानप्रभावात्सुरासनकंपविधायकाय सर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
देवा उपेत्य विनमंति भजंति भक्त्या,
चौरा अपेत्य भयत:! प्रपलायमाना:।।
लोके भवंति च विभोऽन्तरमेतदेव,
अस्त्येव वात्र महिमा महतामचिन्त्य:।।७ (युग्मं)।।
सुरगण आकर भक्तीपूर्वक, भजते नमस्कार करते।
तव भक्ती से कर्म चोर, भयभीत हुए झटपट भगते।।
सुर आसन औ चोर उभय के, कंपन में इतना अंतर।
अथवा श्रेष्ठजनों की महिमा, है अचिन्त्य जग में सुखकर।।७।।
ॐ ह्रीं देवासुरमनुष्यवंदितचरणकमलाय कर्मशत्रुपलायनकारकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
शाल्यंकुराभतनु बाहुबलीश! योगे,
लीनं लताभिरहिभि: परित: सुजुष्टं।
त्वां वीक्ष्य खेचररमा बहु विस्मयेन,
भक्त्या निवारणपरा मुहुरेव तत्र।।८।।
शालिधान अंकुर सम सुंदर, रूप अहो! बाहूबलि ईश।
योग लीन में लता और, सर्पों से वेष्टित प्रीति सहित।।
ऐसे प्रभु को देख चकित हो, विद्याधरियाँ विस्मय युत।
पुन: पुन: उन लता सर्प को, दूर करें थीं भक्ती युत।।८।।
ॐ ह्रीं देवासुरमनुष्यवंदितचरणकमलाय कर्मशत्रुपलायनकारकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
कार्यैश्च तै: किमिति विघ्नमतो न ते प्राक्,
पश्चान्न लाभमभवत् समतोभयोर्हि।
ता एव भक्तिरसभारभरैर्मुनीन्द्र!
स्वासां भवस्थिति लघु स्वत एव चक्रु:।।९।।
इन कार्यों से क्या प्रभु तुमको, लता सर्प से विघ्न न था।
नंतर लाभ न माना तुमने, दोनों में समभाव सु था।।
उन विद्याधरियों ने केवल, भक्ति भाव रस से पूरित।
स्वत: स्वयं के भव कम करके, भक्ती का फल लिया उचित।।९।।
ॐ ह्रीं परमसाम्यसुधारसपानतृप्ताय स्वभवस्थितिघातकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
संवत्सरैकतनुनिश्चल! शल्यदूर,
त्वद्ध्यानकृष्टहृदया महतादरेण।
त्वां बुद्धिविक्रियरसौषधिचारणाद्या:,
सर्वर्द्धयोऽपि वृणुतेस्म किमद्भुतं तत्।।१०।।
योग लीन प्रभु एक वर्ष तक, निश्चल तनु हे शल्य रहित।
श्रेष्ठ ध्यान से आकर्षित हो, मानो बहु आदर से युत।।
बुद्धि विक्रिया रस औषधि, चारण आदी ऋद्धियाँ सभी।
प्रभो! आपको वरण किया था, उसमें कुछ आश्चर्य नहीं।।१०।।
ॐ ह्रीं मायामिथ्यानिदानशल्यविरहिताय एकवर्षध्यानलीनतनुनिश्चलाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
त्वद्ध्यानहृष्टवनजाश्च षडर्तुजाता:,
वृक्षा: सुपुष्पफलभारनता: बभूवु:।
वृष्टिं त्वयीश! कुसुमैश्च फलैश्च नत्या,
पूजां नतिं विदधिवंत इव प्ररेजु:।।११।।
आप ध्यान से हर्षित वन के, षट् ऋतु के तरु बेल सभी।
पुष्प-फलोें से सहित भार से, नत हो मानों झुकें सभी।।
पुष्पों से वर्षा तव ऊपर, फल से पूजा भक्ति करें।
झुकें भार से प्रणमन करते, शोभें मानों भक्ति भरें।।११।।
ॐ ह्रीं ध्यानप्रभावात्षडर्तुपुष्पफलयुगपदुत्पत्तिनिमित्तकाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
उत्तुंगदेह! भरताधिपजित्! तव प्राक्,
शिष्यो बभूव भरतेश्वरचक्ररत्नं।
रत्नत्रयं पुनरवाप्य सुसिद्धिचक्रं,
मोहैकजित्! त्रिभुवनैकगुरुर्बभूव।।१२।।
सवा पाँच सौ धनुष उच्च तनु, हे भरताधिपजित्! योगीश!
भरतचक्रि का चक्ररत्न तव, शिष्य बना था सबको जीत।।
पुन: आपने सिद्धिचक्रमय, रत्नत्रय को प्राप्त किया।
हे मोहैकविजित! बाहूबलि!, त्रिभुवन के गुरु हुए अहा।।१२।।
ॐ ह्रीं पंचशतपंचविंशतिधनु:प्रमाणोत्तुंगदेहाय भरताधिपजिते श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
छत्रत्रयासनसुचामरपुष्पवृष्टि-
भाश्चक्रदिव्यवच-आनकतर्वशोवै:।।
सत्प्रातिहार्यविभवैर्जिन! भाससे त्वं,
देवासुरैर्नरगणैश्च वृतोऽप्यजस्रं।।१३।।
छत्रत्रय सिंहासन चामर, पुष्पवृष्टि भामंडल है।
दिव्यध्वनि औ दुंदुभि बाजे, तरु अशोक भी शोभ रहे।।
हे जिन! प्रातिहार्य ये आठों, तव प्रभुता बतलाते हैं।
देव-असुर-मनुजादिक गण से, वेष्टित अक्षय सुखमय हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्ट्यादिमहाप्रातिहार्यप्राप्ताय सुरासुरनरेन्द्रादि-
पूजितपादपद्माय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
अस्मिन्ननादिभवकाननदावमध्ये,
दंदह्यमानभयभीतजनस्य दु:खं।
भक्तिर्विभो! तव निमूलयितुं क्षमा चेत्,
को वा तया नहि विनश्यति तापहेतु:।।१४।।
इस अनादि भव कानन में, दावानल अग्नी भड़क रही।
उसमें सब संसारी प्राणी, झुलस रहे भयभीत अती।।
विभो! भक्ति तव उन सब दुख को, निर्मूलन में सक्षम हो।
पुन: जगत् का कौन दु:ख जो, उस भक्ती से दूर न हो।।१४।।
ॐ ह्रीं संसाराटवीमध्यभ्रमणशीलप्राणिगणोद्धरणसमर्थाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
जन्मान्तरार्जितनिधत्तनिकाचिताद्या:,
बंधाश्च घोरतर-तापकरा वृथैव।
कुर्वंति ते कटुकदु:खमसत्यनिंदां,
निघ्नंति शस्त्रमिव नाथ! विपाककाले।।१५।।
भव-भव में अर्जित अशुभादिक, कर्म निधत्त निकाचित जो।
घोर भयंकर दु:ख तापप्रद, नाथ! उदय में आते जो।।
वे असत्य निंदा कटु फल, देते बिन दिये नहिं नशते।।
उदय काल में शस्त्र घात सम, हृदय विदीरण भी करते।।१५।।
ॐ ह्रीं अनन्तजन्मसंचिताशुभायशस्कीर्ति-आदिसर्वकर्मविनाशनसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
त्वद्बिम्बनिर्मल-मुखाम्बुजवीक्षणेन,
पुण्यांकुरोत्पुलककंचुकितांगभाज:।
नाशं प्रयांति लघु तेऽपि हि संशय: क:,
सिद्धांतसूत्रकथितं कथमन्यथा स्यात्।।१६ (युग्मं)।।
प्रभु तव प्रतिमा के निर्मलमुख, सरसिज के अवलोकन से।
पुण्यांकुर से पुलकित जिनका, रोमांचित तनु होता है।।
वे जन झटिती अशुभ कर्म को, नष्ट करें है संशय क्या।
भक्ति निकाचित कर्म काटती, हैं सिद्धांत वचन फिर क्या।।१६।।
ॐ ह्रीं भगवन्मुखकमलावलोकनमात्रेण सर्वासाताकर्मघातनसक्षमाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
पूर्णार्घ्य- उद्विज्य घोरभयद-व्यसनाम्बुधेर्मां
दु:खाश्रुपूरनिवहै: कृतवक्त्रसान्द्रं।
वीक्ष्यागतं परमकारुणिकस्य तेऽन्त:,
स्वामिन्! कथं द्रवति नो कथय त्वमेव।।१७।।
घोर भयंकर दुख वारिधि से, मैं उद्विग्नमना होकर।
आया हूँ प्रभु पास आपके, दु:खाश्रू से मुंह धोकर।।
देख मुझे हे परम कारुणिक! हृदय आपका द्रवित न हो।
क्या ऐसा हो सकता है? हे नाथ! आप ही मुझे कहो।।१७।।
दोहा- श्री बाहूबलिसिद्धप्रभु! जजूँ आप पदपद्म।
हरो अमंगल विघ्नघन, हो मुझ अपुनर्जन्म।।१७।।
ॐ ह्रीं भवदु:खसंतप्तजनानां परमकारुणिकत्वभावपरिणताय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।
-दोहा-
घात घातिया कर्म को, किया ज्ञान को पूर्ण।
पुष्प चढ़ाऊँ आप पद, करो हमें सुख पूर्ण।।
अथ मंडलस्योपरि तृतीयवलये चतुर्विंशत्कोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
कुत्र प्रयामि तव पादयुगं विहाय,
लोकेऽत्र दु:खिजनवत्सल! मे त्वमेव।
आप्तात् जनान् खलुनिरीक्ष्य समस्तदु:ख-
मुद्वेल-माव्रजति नूनमिह प्रसिद्धं।।१।।
नाथ! आपके चरणांबुज को, छोड़ कहाँ अब जाऊँ मैं?
हे दु:खितजनवत्सल! मेरे, तुमही नाथ हो इस जग में।।
आप्त जनों को देख दुखी के, सभी दु:ख इक क्षण में ही।
प्रकटित हो उद्वेलित होते, जग में यह सूक्ती सच ही।।१।।
ॐ ह्रीं भक्तजनवत्सलगुणसमन्विताय सर्वभवदु:खनिवारणसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
जानच्चराचर जगज्जिन! गोपितैर्हि,
विज्ञापितै: किमधुना त्वमवैषि सर्वं।
क्षिप्रं विधत्स्व करुणां मयि हे कृपाब्धे!
रक्ष प्रसीद नय शांतिमनंतिमां मां।।२।।
हे जिन! जगत चराचर जानो, कहीं छिपाना क्या तुमसे।
क्या विज्ञप्ती गुप्त रखूँ अब, प्रभु तुम सभी ज्ञान रखते।।
कृपासिंधु हे कृपा करो झट, मेरी भी रक्षा कीजे।
हो प्रसन्न अब मुझ पर भगवन्! अनंत शांती को दीजे।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वचराचरज्ञायकवैवल्यज्ञानप्राप्ताय भव्यजनशरणप्रदायकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
सर्वस्य पार्श्व इह नाथ! चिरं भ्रमित्वा,
श्रांतोऽस्मि केऽपि नहि दु:खनिवारणेऽर्हा:।
श्रुत्वा सकृज्जिनरवे! प्रथितं यशस्ते,
पादाम्बुजं दृढमना अहमाश्रितोऽस्मि।।३।।
नाथ! सभी के पास गया मैं, इस जग में चिर भ्रमण किया।
दु:ख निवारण में समरथ नहिं, कोई अब मैं श्रांत हुआ।।
बार-बार तव कीर्ती सुनकर, हे जिनरवि! दृढ़मन होकर।
मैंने तव चरणांबुज का अब, आश्रय लिया नाथ! सुखकर।।३।।
ॐ ह्रीं संसारभ्रमणभीतशरणागतभव्यजनरक्षकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
यद् यद् मया भवभवे जिन! दु:खमाप्तं,
त्रैलोक्यवित्! त्वमपि वेत्सि तदेव सर्वं।
सर्वेश! संप्रति भवान् भवतां यदेव,
कर्तव्यमस्ति कुरुतां मम तत्प्रमाणं।।४।।
हे जिनवर! भव-भव में मैंने, जो जो दु:ख पाये जैसे।
त्रिभुवनवित्! उन सब दु:खों को, तुम्हीं जानते हो वैसे।।
सबके ईश! आप हैं इस क्षण, जो कर्तव्य आपका हो।
वही कीजिये नाथ! मुझे भी, होगा वही प्रमाण अहो।।४।।
ॐ ह्रीं भगवच्चरणकमलसमर्पणभावसहितभव्यजनवत्सलाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
न्याय्यं व्यतिक्रमितुमीश! जनोऽप्रबुद्ध:,
शक्नोति किंतु भगवन्! त्वमिहाखिलज्ञ:।
‘‘त्रैलोक्यनाथ’’! इति विश्रुत एव तस्मात्,
न्यायं कुरुष्व मम कर्मकदर्थितस्य।।५।।
अज्ञानी जन न्याय व्यतिक्रम, कर सकते हैं हे भगवन्!
किंतु आप सर्वज्ञ देव हैं, त्रिभुवन पति भी हैं भगवन्।।
इस जग में है यही प्रसिद्धी, त्रिभुवन रक्षक नाथ तुम्हीं।
कर्मोदय से पीड़ित मेरा, न्याय करो झट सही-सही।।५।।
ॐ ह्रीं स्वकर्मनिर्मितदैवशत्रुप्रदत्तानन्तदु:खनिवारणसक्षमाय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
विक्षेपणध्वनिपटुप्रभुभक्तियंत्रात्,
निर्गत्य दूरविभुकर्णपथे विशंति।
शब्दास्तवेश! यदि वा किमु तैर्विरागात्,
देवास्तु शासनरता: खलु कर्णयंति।।६।।
ध्वनि विक्षेपण कुशल भक्तिमय, यंत्र नाथ! उससे प्रगटें।
शब्द वर्गणा दूर प्रभू के, चरणों तक निश्चित पहुँचें।।
अथवा उन शब्दों से क्या प्रभु, तुमको वीतरागता है।
तव भक्ती वश जिनशासन में, रत सुरगण सुन लेते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं भक्तिभावप्रेरितनानाशब्दवर्ण रचितस्तुतिकारकभाक्तिकजनसर्व-
वांछितफलदायकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
त्वत्पादपद्ममथवा समुपाश्रितानां,
लोकातिशायिपृथुपुण्यसमर्जितानां।
शीर्यंत एव तरसा विपद: स्वयं हि,
बद्धं च मोक्तुमपि कारणमेव भावा:।।७।।
अथवा जिन! तव चरण कमल का, नित आश्रय लेने वाले।
लोकोत्तर अतिशयशाली, बहु पुण्यबंध करने वाले।।
भव्यजनों के सभी कष्ट, स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं।
चूँकि बंध औ मुक्ती हेतू, भाव मुख्य ही कारण हैं।।७।।
ॐ ह्रीं त्वच्चरणकमलोपासकातिशायिपुण्यप्राप्ताय श्रीबाहुबलिस्वामिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
हे योगचक्रभृदिहेष्टवियोगनेष्ट-
संयोगजातमपि दु:खमसून् निहंति।।
जंतोर्यदीश! भुवनेष्टमनिष्टशून्यं,
पादाम्बुजं तव भजेत् किमु तस्य नेष्ट:।।८।।
योगचक्रधर! इस जग में हैं, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग।
इनसे हुआ दु:ख जीवों के, प्राणों का भी करे वियोग।।
तव पादाम्बुज सब अनिष्ट से, शून्य जगत् में इष्ट कहे।
यदि उनका जग आश्रय लेवे, उनको क्या अनिष्ट होवे?।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वार्तध्यानविरहितसर्वेष्टफलप्रापणदक्षाय श्रीबाहुबलिस्वामिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
पादांतिकेऽपि तव पातुरितस्ततो मे,
हा! हंत! धावति मन: करवाणि किं नु।
वास्तां रतिस्त्वयि निमेषमशेषपापं,
अग्निस्फुलिंग इव सा दहतीह किं न।।९।।
हे रक्षक! तव चरण निकट में, भी मेरा मन इधर-उधर।
घूम रहा है हाय! हाय! मैं, कहो करूँ क्या अति दुष्कर।।
अथवा रहने दो प्रभु तुझ में, प्रीती निमिष मात्र की जो।
अग्नि कणी सम अखिल पाप को, क्यों नहिं भस्म करेगी वो।।९।।
ॐ ह्रीं मन:स्थिरीकरणसमर्थप्रभुभक्तिकारकभव्यजनसंतुष्टिकराय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
सम्यक्त्वदां प्रतिकृतिं तव ये पृथिव्यां,
निर्मापयंति जिनपुंगव! भक्तिभाज:।
धन्यास्त एव भुवनत्रयक्षोभकारि,
बध्नंति तीर्थकरपुण्यमहो! किमन्यै:।।१०।।
हे जिनपुंगव! भक्ति भाव वश, इस पृथ्वी पर जो भविजन।
तव मूर्ती सम्यक्त्व प्रदायी, निर्मापित करते गुणमणि।।
वे ही मनुज धन्य इस जग में, भुवनत्रय में क्षोभकरी।
तीर्थंकर प्रकृती को बांधें, अहो! अन्य क्या पुण्यकरी?।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिमूर्तिदर्शनप्रभावात्सम्यक्त्वरत्नप्राप्तकरणसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
व्याप्तत्रिलोकसितकीर्तिसुमाधवीभि-
र्जुष्टं तनुं तृषितचक्षुभिरीक्षमाणा:।
त्वां ये त्रिलोकतिलक! प्रतिमव्यतीतं,
ध्यायंति तान् न सितकीर्तिलताश्नुते किं।।११।।
त्रिभुवनव्यापी श्वेत कीर्ति, माधवी लता से वेष्टित तन।
जो भवि तृषित नेत्र से निरखें, मन वच तन से कर प्रणमन।।
हे त्रिभुवन के तिलक! अनूपम, तुमको जो नित प्रति ध्याते।
उनको भी सित कीर्ति लता, नित वेष्टित करती नहिं वैसे।।११।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यव्याप्तकीर्तिलतावेष्टितत्वद्बाहुबलिभक्तिकारक-
भव्यजनाभीप्सितफलप्रदायकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं
र्वपामीति स्वाहा।।११।।
ये त्वां श्रयंति दृढभक्तिभरेण तेषु,
त्रैलोक्यजंतुगणमाश्रयदानशक्ति:।
जायेत चित्रमिह किं स्वयमेव भक्ति-
स्तस्यैव सर्वमनुकूलयतीह लोके।।१२।।
जो जन दृढ़भक्ती से निर्भर, तेरा आश्रय लेते हैं।
वे त्रिभुवन जन को आश्रय, देने में समरथ होते हैं।।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! स्वयमेव तुम्हारी भक्ती ही।
इस जग में उस भाक्तिक के, अनुकूल सभी को करती ही।।१२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनाश्रयदानशक्तिधारकप्रभुभक्तिकरणपटुभाक्तिक-
जनानुकूलफलप्रदानसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१२।।
ये त्वां नमंति हृदये दधते स्तुवंति,
त्वच्छासनैकवचनं च वहंति मूर्ध्ना।
तेषां सुरा अपि नतिं स्तवनं सुवाचं,
कुर्वंति नित्यमिह का मनुजस्य वार्ता।।१३।।
जो तुमको नति करते मन में, धरते नित स्तुति करते।
तव शासन के ही वचनों को, मस्तक से धारण करते।।
सुर भी उनकी नति-स्तुति, करते आज्ञा मस्तक धरते।
फिर मनुजों की बात अहो! क्या, वे नित ही अनुचर बनते।।१३।।
ॐ ह्रीं भगवद्भक्तिस्तुतिनतिकारकभक्तगणानां सर्वजनपूज्यपद-
प्रापणसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
पश्यंति कौतुकधियेव परेरिता वा,
ये त्वत्स्वरूपगुणभक्तिफलानभिज्ञा:।
मोदान्नमंति च शुभं फलमाप्नुवंति,
तच्छर्करास्वदनवन्नमनं न वंध्यं।।१४।।
जो कौतुक बुद्धी या पर से, प्रेरित प्रभु का दर्श करें।
चाहे तव स्वरूप-गुण-भक्ती-फल से भी अनभिज्ञ रहें।।
यदि वे भी मुद से नति करते, फल शुभ निश्चित पाते हैं।
मिश्री चखने सम फल मिलता, प्रभु प्रणमन नहिं निष्फल है।।१४।।
ॐ ह्रीं भक्तिफलानभिज्ञजनानामपि सर्वाभीप्सितफलप्रदानसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
भक्तिर्धुनी तव विभो! कलुषं धुनीते,
नानाविकल्पहतदुष्टमन: पुनाति।
संसारघर्मभवतापमपाकरोति,
रागाद्विदूरयति मोक्षपदं ददाति।।१५।।
विभो! आपकी भक्ती ही, जन-जन के कल्मष धोती है।
बहु विकल्प से पीड़ित दूषित, मन को पावन करती है।।
इस संसार ताप से जन्में, सब संताप दूर करती।
अशुभ राग से दूर हटाती, मोक्ष महापद को देती।।१५।।
ॐ ह्रीं भाक्तिकजनसर्वविकल्पदूरीकरणसमर्थाय मोक्षपदप्रापणसक्षमाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
किं जल्पितैर्बहुविधैर्भुवि नास्ति किंचित्,
यन्नाम जातु नहि वश्यमुपैति भक्त्या।
दोषैर्युजोऽपि जिनदेव! तव प्रसादात्,
लोकेऽत्र देहभृत इष्टफला भवंति।।१६।।
बहुत कथन से क्या हो कदाचित्, ऐसी कोई वस्तु नहीं।
इस जग में प्रभु तव भक्ती से, जो नहिं जन को मिले सही।।
हे जिनवर! दोषों से युत भी, तव प्रसाद से तनुधारी।
इस जग में इच्छित फल को, निश्चित पा लेते सुखकारी।।१६।।
ॐ ह्रीं प्रभुभक्तिप्रभावात् सर्वजनवश्यकरणाय सर्वदोषविनाशकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
देहस्य रोगमपहाय जिनस्तवेन,
मिथ्यादृशश्च कुमदं विलयंचकार।
प्रोद्भूतचन्द्र-जिनबिंब-विलोकमान:,
धौताक्षिवाष्पवदन: स समंतभद्र:।।१७।।
देहरोग जब दूर हुआ फिर, तीर्थंकर स्तवन किया।
मिथ्यादृष्टी के खोटे मद को भी क्षण में नष्ट किया।।
प्रकटित हुई चन्द्रप्रभु प्रतिमा, के दर्शन कर श्री स्वामी।
हर्षाश्रू से मुख धोया था, समंतभद्र गुरू नामी।।१७।।
ॐ ह्रीं जिनसंस्तवनप्रभावेण मिथ्यात्वादिकर्मविनाशनसमर्थाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
स्याद्वादभास्कर! दुरंतकुतत्त्वभाजां,
एकांतवादक्षणिकं कुमतांधकारं।
त्वत्सूक्तिरश्मिभि-ररं च विनाशयन् य:,
बंधै: कलंकसहितोऽप्यकलंकदेव:।।१८।।
स्याद्वाद के भास्कर! दुस्तर, खोटे मिथ्यादृष्टी के।
एकांती जो क्षणिकवादि हैं, कुमत अंधेरा है सबके।।
तव सूक्ती किरणों से भगवन्! दूर भगाया श्रीगुरु ने।
कर्मबंध से देहसहित भी, वे ‘‘अकलंकदेव’’ गुरु थे।।१८।।
ॐ ह्रीं कर्मकलंकदूषितचित्तांधकारविनाशकभास्कराय श्रीबाहुबलि-
स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
लोके चमत्कृतिकरं तव नाम मंत्रं,
जल्पज्जना अनुपमां श्रियमाप्नुवंति।
चित्रं तदेव यदि नाम समीहितार्था:,
नो यांतु वश्यमिह जन्मनि जन्मभाजां।।१९।।
जग में चमत्कारि हे भगवन्! तेरा नाम मंत्र अनुपम।
भविजन उसको जपते-जपते, पा लेते लक्ष्मी अनुपम।।
है आश्चर्य यही इस जग में, भव्यों के मन वांछित फल।
यदि तत्क्षण नहिं फल जावें तो, भक्ती का फल हुआ विफल।।१९।।
ॐ ह्रीं परमचमत्कारिकत्वन्नाममंत्रप्रभावात् सर्ववांछितफलेच्छुकवाञ्छा-
पूर्णीकरणसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
सुज्ञानवीर्यसुखदर्शननान्त्यरूप!
कैवल्यलोचन! विराग! हितानुशास्त:!।
हे सिद्धिकांत! जिन! बाहुबलीश! देव!
श्रीगोमटेश! तवपादयुगं प्रवंदे।।२०।।
हे प्रभु अनंत दर्शन-ज्ञानी, अनंत सुखमय-वीर्य स्वभाव।
वीतराग कैवल्य ज्ञानमय, लोचनयुत हित अनुशासक।।
हे श्री सिद्धिकांत हे भगवन्! बाहुबली स्वामिन्! जिनवर।
हे श्री गोमटेश तव चरणांबुज को वंदूँ नित रुचिधर।।२०।।
ॐ ह्रीं वीतरागसर्वज्ञहितोपदेशिगुणसमन्विताय अनन्तचतुष्टयप्राप्ताय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
कामेशजित्! प्रतिकृतिं तव लोकयामि,
बद्धांजलिं चरिकरीमि च संस्तवीमि।
भूमौ मुहुर्मुहुरतीव निघृष्य भालं,
भक्त्या नमामि महयामि भजामि चाये।।२१।।
हे कामेश विजित्! तव प्रतिकृति, का अवलोकन नित्य करूँ।
हाथ जोड़ अंजली करूँ, भगवन्! नित प्रति संस्तवन करूँ।।
भू पर बार-बार अति भक्ती-युत ललाट को घिस करके।
नमस्कार कर पूजा-सेवा, अर्चा करूँ प्रभो! मुद से।।२१।।
ॐ ह्रीं जिनमुखावलोकनाञ्जलिकरणादिभक्तिप्रेरितभव्यजनाशापूर्णी-
करणसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
आराधयामि तव पुण्यगुणान् स्मरामि,
त्वामेव नाथ! सततं हृदि धारयामि।
एवं त्वदीयचरणाब्जमुपासमानात्,
मुंचंति मां न कथमद्य स्वकर्मबंधा:।।२२।।
आराधन मैं करूँ पुण्यगुण-गण का नित स्मरण करूँ।
नाथ! तुम्हीं को सतत हृदय में, धारण करूँ सुध्यान करूँ।।
इस विध तव चरणारविंद का, करूँ उपासन भक्ती से।
आज पुन: कटुकर्म बंध क्यों, कर मुझको नहिं छोड़ेंगे।।२२।।
ॐ ह्रीं भव्यजनहृदयकमलस्थितसर्वभावनासफलीकरणदक्षाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
लोकैकनाथ! जिन! त्वां शरणं गतोऽस्मि,
मोपेक्षणं मम कुरुष्व दयां विधत्स्व।
मां पाहि भक्तजनवत्सल! संपुनीहि,
दु:खांकुरं दलय सिद्धपदं नयस्व।।२३।।
हे त्रिलोक के एक नाथ! जिन! शरण तुम्हारी आया हूँ।
दया करो मत वरो उपेक्षा, मम अति श्रद्धा लाया हूँ।।
रक्षा करो भक्तजन वत्सल! मुझको नाथ! पवित्र करो।
दुखांकुर को दलन करो, प्रभु सिद्धीपद का दान करो।।२३।।
ॐ ह्रीं शरणागतशरण्याय सर्वदु:खदलनसमर्थाय सिद्धपदप्रापकाय
श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
मूर्ति: प्रभो! निरुपमा सुयशोलताभि-
र्युक्ता सुबाहुबलिनो जिनपस्य तेऽत्र।।
तिष्ठेच्चिरं जयतु जैनमतश्च नित्यं,
चामुंडराजसितकीर्तिलतापि तन्यात्।।२४।।
प्रभो! आपकी मूर्ती अनुपम, सुयशलताओं से वेष्टित।
हे बाहूबलि! हे जिनपति! तव, मूर्ती तुंग सतावन फुट।।
तिष्ठे भू पर चिर कालावधि, जैनधर्म जयशील रहे।
चामुंडराय कि उज्ज्वल कीर्ती-बेली भी विस्तार लहे।।२४।।
ॐ ह्रीं कीर्तिलतावेष्टितबाहुबलिमूर्तिचिरस्थायिभवनप्रार्थनापूरिताय
शाश्वतजैनधर्मसंरक्षणसमर्थाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२४।।
-पूर्णार्घ्य-
इत्थं समाहितमना: स्तवनं त्रिसंध्यं,
कुर्यात् प्रभो! तव सुधीर्विधुतान्यकृत्य:।
आर्हन्त्यसौख्यसुफलेन सहाचिरात् स:,
ज्ञानेन शोभितमति: समुपैति सिद्धिं।।२५।।
इस विध सावधान चित होकर, अन्यकृत्य से विरहित मन।
प्रभो! आपकी स्तुति को जो, करते त्रयकालिक बुधजन।।
जिन आर्हंत्य सौख्य सत्फल सह, ज्ञान सुशोभित मति जिनकी।
‘‘ज्ञानमती’’ वे निश्चित पाते, ध्रुव आत्यंतिक सिद्ध गती।।२५।।
-दोहा-
श्रीबाहूबलि देव तुम, कामदेव पद ईश।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, नमूँ नमूँ नत शीश।।१।।
ॐ ह्रीं तत्पूजाफलार्हन्त्यलक्ष्मीसमन्वितकैवल्यज्ञानपदप्रापणसमर्थाय
परमसिद्धपरमेष्ठिने श्रीबाहुबलिस्वामिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।
श्री वत्सादिमहालक्ष्मी-लक्षितोत्तुंगविग्रहम्।
नाम्नामष्टशतेनाहं, स्तोष्ये श्रीगोम्मटेशिनम्।।
-सोरठा-
श्री बाहूबलि ईश, सकल अमंगल को हरें।
जजूँ नमाकर शीश, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
अथ मंडलस्योपरि चतुर्थवलये अष्टोत्तरशतकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं श्रीमते श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं बाहुबलिने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं नाभिनप्त्रे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं नाभेयनंदनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं सौनंदेयाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं सुरम्येशाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं पौदनापत्तनेशाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वातिशयसाम्राज्याय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं राजचूडामणये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं विभवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं समवृत्तशिरसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं चारुललाटाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं दीर्घलोचनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं अंसावलंबिश्रवणाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं भास्वद्भ्रूयुग सद्धनुषे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं ईषत्पीनहनवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं चारुगण्डाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं चंपकनासिकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं राकानिशाकराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं कुटिलायत कुंतलाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं कंबुग्रीवाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं गूढजत्रवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं सिंहस्कंध विभासुराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं आजानुवाहवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
ॐ ह्रीं उत्तुंगपीनवक्षसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
ॐ ह्रीं महाकराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
ॐ ह्रीं कंठीरवकटये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
ॐ ह्रीं निम्ननाभये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
ॐ ह्रीं पृथुनितंबकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
ॐ ह्रीं वज्रसारसमानोरवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
ॐ ह्रीं दृढजंघाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
ॐ ह्रीं समक्रमाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
ॐ ह्रीं महातेजसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
ॐ ह्रीं महोदग्रविग्रहाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
ॐ ह्रीं प्रियदर्शनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
ॐ ह्रीं समाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
ॐ ह्रीं समानावयवाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
ॐ ह्रीं धर्मज्ञाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
ॐ ह्रीं कामदेवाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
ॐ ह्रीं महावीर्याय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
ॐ ह्रीं सार्वभौमप्रतापजिते श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
ॐ ह्रीं भूपाध्यक्षाय श्री बाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
ॐ ह्रीं महाभागाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
ॐ ह्रीं युद्धत्रय विशारदाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
ॐ ह्रीं आजवंजवसारज्ञाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
ॐ ह्रीं वीतरागाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
ॐ ह्रीं महातपसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
ॐ ह्रीं शक्रमूर्धोदयलसत्कायोत्सर्गाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
ॐ ह्रीं महाधृतये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
ॐ ह्रीं तप:क्षुभितनाकेशाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
ॐ ह्रीं लब्धर्द्धये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
ॐ ह्रीं अघभंजनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
ॐ ह्रीं सुरेशप्राप्तपूजर्द्धये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।।
ॐ ह्रीं कल्याण गुणमंडिताय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५५।।
ॐ ह्रीं माधवीवल्लरिभ्राजद्दिव्यमंगलविग्रहाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। ५६।।
ॐ ह्रीं केवलार्कोदयाचिंत्यमहिम्ने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५७।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५८।।
ॐ ह्रीं निरंबराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५९।।
ॐ ह्रीं निराहाराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
ॐ ह्रीं निराभरण सुन्दराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
ॐ ह्रीं अनिर्देश्यांगसुषमाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
ॐ ह्रीं भ्राजिष्णवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
ॐ ह्रीं भुवनोत्तमाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
ॐ ह्रीं नियतात्मने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रसन्नात्मने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६६।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६७।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६८।।
ॐ ह्रीं भव्यलोकपरित्रात्रे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६९।।
ॐ ह्रीं मोहाडंबरखंडनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७०।।
ॐ ह्रीं महायोगिने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७१।।
ॐ ह्रीं महारूपाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७२।।
ॐ ह्रीं पापपांशुविधूननाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७३।।
ॐ ह्रीं चिदानन्दमयाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७४।।
ॐ ह्रीं सार्वाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७५।।
ॐ ह्रीं शरणागतरक्षकाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७६।।
ॐ ह्रीं परंज्योतिषे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७७।।
ॐ ह्रीं परंधाम्ने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७८।।
ॐ ह्रीं परमेष्ठिने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७९।।
ॐ ह्रीं परात्पराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८०।।
ॐ ह्रीं परमात्मने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८१।।
ॐ ह्रीं परब्रह्मणे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८२।।
ॐ ह्रीं धर्मपीयूषवर्षणाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८३।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८४।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८५।।
ॐ ह्रीं शांताय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८६।।
ॐ ह्रीं सूरिस्वप्नफलप्रदाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८७।।
ॐ ह्रीं निरंजनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८८।।
ॐ ह्रीं निर्विकाराय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८९।।
ॐ ह्रीं प्रेक्षकप्रीतिवर्धनाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९०।।
ॐ ह्रीं ज्योतिर्मूर्तये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९१।।
ॐ ह्रीं गभीरात्मने श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९२।।
ॐ ह्रीं कल्याणाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९३।।
ॐ ह्रीं अणीयसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९४।।
ॐ ह्रीं अच्युताय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९५।।
ॐ ह्रीं शुभगुणोज्ज्वलाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९६।।
ॐ ह्रीं नेत्रे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९७।।
ॐ ह्रीं महीयसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९८।।
ॐ ह्रीं बोधसर्वगाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९९।।
ॐ ह्रीं मोक्षलक्ष्मीपतये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१००।।
ॐ ह्रीं देवदेवाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०१।।
ॐ ह्रीं सर्वमुनीडिताय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०२।।
ॐ ह्रीं नीरजसे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०३।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०४।।
ॐ ह्रीं सौम्याय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०५।।
ॐ ह्रीं स्वभावमहिमोदयाय श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०६।।
ॐ ह्रीं जैनमहिमासाक्षिणे श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०७।।
ॐ ह्रीं वध्यशैलशिखामणये श्रीबाहुबलिस्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।१०८।।
-पूर्णार्घ्य-
इमां नामावलिं पुण्यां, जिष्णो: श्रीगोम्मटेशिन:।
श्रद्धया पठते यस्तु, स: स्यात्कैवल्यबोधभाक्।।१।।
आयुरारोग्यसौभाग्य-मोजस्तेजोमहद्यश:।
अनेनार्चति य: शुद्ध:, श्रियं प्राप्नोत्यमनश्वरीम्।।२।।
तर्ज-(जय गोमटेश…..)
जय बाहुबली जय बाहुबली, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा जीवन का प्रतिक्षण हो।
हो रसना पर तुम नाम मंत्र, अनुभव में ज्ञानामृत कण हो।।हम.।।
प्रभु एक वर्ष तक ध्यान लीन, कैवल्यज्ञान को प्राप्त किया।
शुभ गंधकुटी में स्थित हो, अगणित भव्यों को बोध दिया।।
फिर सिद्धालय में जा पहुँचे, भक्तों को भी शिवदायक हो।।हम.।।
जो भक्त आप पूजा करते, वे सर्व दुखों का क्षय करते।
फिर स्वयं सर्व सुख पा करके, अगणित गुण रत्नाकर बनते।।
कैवल्य ज्ञानमति मिले शीघ्र, बस यही कामना पूरण हो।।हम.।।
ॐ ह्रीं अंतरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगप्रातिहार्यादिविभूतिसमन्वित-
श्रीमदादि अष्टोत्तरशतनाममंत्रविभूषिताय सिद्धपरमेष्ठिने श्रीबाहुबलिस्वामिने
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य- १. ॐ ह्रीं सर्वाभीप्सितफलप्रदायिने श्रीबाहुबलिस्वामिने नम:।
२. ॐ ह्रीं अनन्तबलप्राप्तये श्रीबाहुबलिस्वामिने नम:।
३. ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने नम:। (तीनों में से किसी एक मंत्र की जाप्य करें।)
-शंभु छंद-
जय जय श्रीबाहुबली भगवन्, जय जय त्रिभुवन के शिखामणी।
जय जय महिमाशाली अनुपम, जय जय त्रिभुवन के विभामणी।।
जय जय अनंत गुणमणिभूषण, जय भव्य कमल बोधन भास्कर।
जय जय अनंत दृग ज्ञानरूप, जय जय अनंत सुख रत्नाकर।।१।।
तुम नेत्र युद्ध जल मल्ल युद्ध, में चक्रवर्ति को जीत लिया।
चक्री ने छोड़ा चक्ररत्न, उसने भी तुम पद शरण लिया।।
फिर हो विरक्त भरताधिप की, अनुमति ले जिनदीक्षा लेकर।
प्रभु एक वर्ष का योग लिया, ध्यानस्थ खड़े निश्चल होकर।।२।।
नि:शल्य ध्यान का ही प्रभाव, सर्वावधिज्ञान प्रकाश मिला।
मनपर्यय विपुलमती ऋद्धी से, अतिशय ज्ञान प्रभात खिला।।
तप बल से अणिमा महिमादिक, विक्रिया ऋद्धियाँ प्रकट हुईं।
आमौषधि सर्वौषधि आदिक, औषधि ऋद्धी भी प्रकट हुईं।।३।।
क्षीरस्रावी घृत मधुर अमृत, स्रावी रस ऋद्धी प्रगटी थीं।
अक्षीण महानस आलय क्या, संपूर्ण ऋद्धियाँ प्रकटी थीं।।
वे उग्र-उग्र तप करते थे, फिर भी दीप्ती से दीप्यमान।
वे तप्त घोर औ महाघोर तप, तपते फिर भी शक्तिमान।।४।।
इन ऋद्धी से नहिं लाभ उन्हें, फिर भी इंद्रादिक नमते थे।
खग आकर प्रभु की ऋद्धी से, निज रोग निवारण करते थे।।
सर्पों ने वामी बना लिया, प्रभु के तन पर चढ़ते रहते।
बिच्छू आदिक बहु जंतु वहाँ, प्रभु के तन पर क्रीड़ा करते।।५।।
बासंती बेल चढ़ी तन पर, पुष्पों की वर्षा करती थीं।
मरकत मणिसम सुंदर तन पर, बेलें अति मनहर दिखती थीं।।
सब जात विरोधी जीव वहाँ, आपस में प्रेम किया करते।
हाथी नलिनीदल में जल ला, प्रभु पद में चढ़ा दिया करते।।६।।
प्रभु एक वर्ष उपवास पूर्ण कर, शुक्लध्यान के सम्मुख थे।
उस ही क्षण भरताधिप ने आ, पूजा की अतिशय भक्ती से।।
होता विकल्प यह कभी-कभी, मुझसे चक्री को क्लेश हुआ।
इस हेतु अपेक्षा उनकी थी, आते ही केवलज्ञान हुआ।।७।।
तत्क्षण सुरगण ने गंधकुटी, रच करके अतिशय पूजा की।
भरतेश्वर भक्ती में विभोर, बहुविध रत्नों से पूजा की।।
प्रभु ने दिव्यध्वनि से जग को, उपदेशा पुण्य विहार किया।
फिर शेष कर्म का नाश किया, औ मुक्ती का साम्राज्य लिया।।८।।
-दोहा-
धन्य धन्य बाहूबली, योगचक्रेश्वर मान्य।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु मैं, नमूँ नमूँ जग मान्य।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
श्रीबाहुबली विधान ये, जो भव्य श्रद्धा से करें।
वे रोग शोक दरिद्र दुखहर, सर्वसुख संपति भरें।।
मनबल वचनबल प्राप्त कर, तनु में अतुलशक्ती धरें।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्यकर, फिर सिद्धिकन्या वश करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।