स्थापना-अडिल्ल छन्द
समयसार की पूजन कर लो भाव से।
उसका अध्यन करो भव्यजन चाव से।।
मोक्ष व सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार है।
आह्वानन स्थापन करलूं आज मैं।।१।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणम्।
-अथ अष्टक-
तर्ज – आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं….।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
जलधारा कर श्रुत अर्चन से, ज्ञानामृत मिल जाता है।
जन्मजरामृत के बंधन से, छूट अमर पद पाता है।।
शुद्ध नीर से पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय जन्म-
जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
चंदन लेकर श्रुतअर्चन से, भव आतप मिट जाता है।
आत्मा शाश्वत शीतलता से, अजर अमर पद पाता है।।
चंदन द्वारा पूजन करलें, समयसारजी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
श्वेताक्षत ले श्रुत पूजन से, अक्षय पद मिल जाता है।
शुभ भावों युत अर्चन से, भौतिक सुख भी मिल जाता है।।
अक्षत लेकर पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
चंप चमेली आदि पुष्प ले, श्रुत के निकट चढ़ाना है।
कामबाण विध्वंसन होगा, आतम सुख को पाना है।।
अत: पुष्प ले पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
व्यंजन सरस थाल में लेकर, श्रुत के निकट चढ़ाना है।
क्षुधारोग करके विनाश अब, आतमतृप्ति पाना है।।
व्यंजन लेकर पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
घृतदीपक का थाल सजाकर, श्रुत की आरति करना है।
मोहतिमिर नाशन हो मेरा, समयसारजी शास्त्र की।।
दीपक लेकर पूजन कर लें, यही भावना करना है।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
धूपदान में धूप जलाकर, श्रुत की पूजन करना है।
अष्टकर्म का नाशन करके, आतमसुख को वरना है।।
सुरभित धूप से पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
ष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
आम सेव अंगूर फलों से, श्रुत की पूजन करना है।
शाश्वतसुख की प्राप्ति हेतु, मोक्ष महाफल वरना है।।
फल थाली ले पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
चलो सभी मिल पूजन कर लें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
स्वर्णथाल में अर्घ्य सजाकर, श्रुत की पूजन करना है।
तभी ‘‘चन्दनामती’’ शीघ्र ही, पद अनर्घ्य को वरना है।।
अष्टद्रव्य ले पूजन करलें, समयसार जी शास्त्र की।
उसमें वर्णित मोक्ष तत्त्व अरु, शुद्ध ज्ञान अधिकार की।।
जय जिनवाणी माँ, बोलो जय जिनवाणी माँ-२।।टेक.।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
-सोरठा-
गंगनदी का नीर, सुवरण झारी में भरा।
हो जाऊँ भवतीर, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पों को कर में लिया।
पुष्पांजलि कर आज, आतमगुण सुरभित किया।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
समयसार मण्डल विधान में, वलय चतुर्थ के निकट चलो।
इसमें वर्णित तीस अधिक सौ गाथाएँ स्मरण करो।।
मोक्ष व सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार कहे हैं दो इसमें।
इन्हें अर्घ्य अर्पण से पहले पुष्पांजलि करना है हमें।।१।।
इति श्री समयसारमण्डलविधानस्य चतुर्थवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(1)
जह णाम कोवि पुरिसो, बंधणियह्मि चिरकालपडिबद्धो।
तिव्वं मंदसहावं, कालं च वियाणदे तस्स।।३१५।।
-बसंततिलका छन्द-
जैसे कोई पुरुष बंधन में बंधा है,
चिरकाल से स्वयं दुक्ख उठा रहा है।
बंधन के तीव्र या मन्द स्वभाव को भी,
वह बन्धकाल को भी खुद जानता है।।३१५।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं बंधनपूर्वकमोक्षतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(2)
जदि णवि, कुव्वदि छेदं, ण मुंचदि तेण कम्मबंधेण।
कालेण बहुएणवि, ण सो णरो पावदि विमोक्खं।।३१६।।
फिर भी न बन्ध को यदि वह छेदता है,
तो कर्मबन्ध से वैसे छूट सकता।
पुरुषार्थ बिन समय कितना ही गंवा ले,
पर मोक्षप्राप्ति में सक्षम हो न सकता।।३१६।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं बंधछेदनप्रयत्नाभावे मोक्षप्राप्त्यभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(3)
इय कम्मबंधणाणं, पदेसपयडिट्ठिदीयअणुभागं।
जाणंतोवि ण मुंचदि, मुंचदि सव्वे जदि विसुद्धो।।३१७।।
प्रकृती प्रदेश स्थिति अनुभाग आदी,
कर्मों के भेद भी जान न छूटता है।
रागादि भाव तजकर यदि शुद्ध होता,
मानव वही तब करम से छूटता है।।३१७।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं प्रकृतिस्थितिअनुभागप्रदेशचतु:भेदरूपबंधज्ञाने सति रागादिभावविरहित-
मोक्षप्राप्तिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(4)
जह बंधे चिंतंतो, बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं।
तह बंधे चिंतंतो, जीवोवि ण पावदि विमोक्खं।।३१८।।
ज्यों बंध में बंधा कोई जीव चाहे,
बंधन विचार केवल नहिं मुक्ति देता।
त्यों जीव भी करम बन्धन के विषय में,
चिन्तन ही मात्र से वह नहिं मोक्ष लेता।।३१८।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं बंधनबद्धचिंतकमात्रपुरुषवत्कर्मबंधकस्य मोक्षाभावप्रतिपादक
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(5)
जह बंधे मुत्तूण य बंधणबद्धो य पावदि विमोक्खं।
तह बंधे मुत्तूण य, जीवो संपावदि विमोक्खं।।३१९।।
जैसे बंधा पुरुष बन्धन को छुड़ाकर,
बन्धन से शीघ्र मुक्ती को प्राप्त करता।
वैसे हि कर्मबन्धन को छेद करके,
मानव भी शीघ्र शिवपद को प्राप्त करता।।३१९।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं बंधनमोचकपुरुषवत्कर्मबंधकस्य मोक्षप्राप्तिभावप्रतिपादक
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(6)
बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च।
बंधेसु जो ण रज्जदि, सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।।३२०।।
जो जीव बन्ध के स्वाभाविक धरम को,
चैतन्य आत्म के स्वाभाविचक मरम को।
वह कर्म बन्ध से शीघ्र विरक्त होता,
निज कर्म काट शिव पद को प्राप्त होता।।३२०।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं बंधस्वभाववत्चैतन्यस्वभावं ज्ञात्वा तत्प्राप्तिउपायप्रतिपादकसमय-
साराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(7)
जीवो बंधो य तहा, छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं।
पण्णाछेदणएण दु, छिण्णा णाणत्तमावण्णा।।३२१।।
आत्मा व बन्ध दोनों बिल्कुल अलग हैं,
पर दिख रहे जगत में ये एक संग हैं।
अतएव बुद्धि-छेनी से उन द्वयों को,
ऐसे पृथक करो वे फिर एक नहिं हों।।३२१।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं जीबंधस्वरूपं पृथक्-पृथक् ज्ञात्वा प्रज्ञाछेदकेन जीवतत्त्वप्राप्तिभाव-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(8)
जीवों बंधो य तहा, छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं।
बंधो छेदेदव्वो, सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो।।३२२।।
तुम जीव बन्ध इन दोनों को नियम से,
निज निज स्वरूप से ऐसे भिन्न करना।
स्वयमेव बन्ध छिद करके भिन्न होवे,
तब बन्ध त्याग कर आत्मस्वरूप भजना।।३२२।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं स्वयमेव बंधछिन्नप्रक्रियाप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(9)
कह सो घिप्पदि अप्पा, पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा।
जह पण्णाए विभत्तो, तह पण्णाएव घित्तव्वो।।३२३।।
वसे ग्रहण किया जाता आत्मा को,
उत्तर मिला कि प्रज्ञा से ग्रहण कर लो।
प्रज्ञा से बंध से जैसे भिन्न करते,
वैसे उसी से ग्रहण के योग्य कर लो।।३२३।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्मबन्धत्यागआत्मस्वभावग्रहणयोग्यताप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(10)
पण्णाए घेत्तव्वो, जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा, ते मज्झ परित्ति णादव्वा।।३२४।।
चेतनस्वरूप आत्मा मैं हूँ नियम से,
प्रज्ञा विशेष से उसको ग्रहण कर लो।
अवशेष भाव जो भी हैं वे नियम से,
मुझसे सदा पृथक् हैं यह मान लो तुम।।३२४।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावात् भिन्नावशेषभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(11)
पण्णाए घित्तव्वो, जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा, ते मज्झ परेत्ति णादव्वा।।३२५।।
यह बात बुद्धि से अंगीकार करना,
दृष्टा स्वभाव वाला मैं हूँ नियम से।
अवशेष भाव जो भी हैं इस जगत में,
मुझसे सदा पृथव् हैं यह मान लो तुम।।३२५।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं दृष्टारूपआत्मस्वभावात् भिन्नावशेषभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(12)
पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा।।३२६।।
तुम भेदज्ञान से यह स्वीकार करना,
ज्ञाता स्वभाव जिसका वह मैं नियम से।
अवशेष भाव जितने भी हैं जगत में,
मेरे नहीं वे सदा मुझसे पृथक् हैं।।३२६।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं ज्ञातारूपआत्मस्वभावात् भिन्नावशेषभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(13)
को णाम भणिज्ज बुहो, णादुं सव्वे परोदये भावे।
मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं।।३२७।।
है कौन विज्ञ जो चेतन भाव तजकर,
निज आत्म और शुद्धातम भाव लखकर।
इनके सिवाय पर के पर भाव को भी,
अपने कहे नहिं कभी उसके हुए भी।।३२७।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मविज्ञभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(14)
तेयादी अवराहे, कुव्वदि जो सो ससंकिदो होदि।
मा बज्झेहं केणवि, चोरोत्ति जणह्मि विचरंतो।।३२८।।
जो जीव चोरी प्रभृति अपराध करता,
शंकित हुआ वह पुरुष जग में विचरता।
वह सोचता मैं कभी पकड़ा न जाऊँ,
अपराध चूँकि मन में उसके खटकता।।३२८।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं अपराधयुक्तशंकितपुरुषवत्कर्मबंधकभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(15)
जो ण कुणदि अवराहे, सो णिस्संको दु जणवदे भमदि।
णवि तस्स बज्झिदुं जे, चिंता उप्पज्जदि कयावि।।३२९।।
पर जीव जो कभी नहिं अपराध करता,
वह जीव पूर्ण जनपद में भ्रमण करता।
चिन्ता न रहती उसे निज बंध की भी,
नि:शंक रहता निरपराधी कहीं भी।।३२९।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं निरपराधीनि:शंकितपुरुषवत्अबंधकभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(16)
एवं हि सावराहो, बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा।
जइ पुण णिरवराहो, णिस्संकोहं ण बज्झामि।।३३०।।
अपराध से सहित यदि मैं भी रहूँगा,
तो कर्मबन्ध से निश्चित ही बंधूंगा।
यदि मैं पुन: निरपराधि नहीं बंधूंगा,
होकर निशंक ज्ञानी पद को लहूँगा।।३३०।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं नि:शंकज्ञानीपदप्राप्तिहेतुभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(17)
संसिद्धिराधसिद्धी, साधिदमाराधिदं च एयट्ठो।
अवगदराधो जो खलु, चेट्ठो सो होदि अवराहो।।३३१।।
संसिद्धि सिद्धि साधित आराधितादी,
हैं राध के हि सारे पर्यायवाची।
शुद्धात्मराधन रहित जो आतमा है,
अपराध से सहित वह बहिरातमा है।।३३१।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं सापराधबहिरात्मभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(18)
जो पुण णिरवराधो चेया णिस्संकिओ उ सो होइ।
आराहणए णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो।।३३२।।
जो जीव हो निरपराधी आत्मज्ञानी।
शंकाररहित हो भ्रमे सहजात्मध्यानी।।
शुद्धात्मरूप निज को पहचान करके।
आत्मानुराधन करें मुनिराज ज्ञानी।।३३२।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं निरपराध-नि:शंकितआत्मानुराधनभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(19)
पडिकमणं पडिसरणं, पडिहरणं धारणा णियत्ती य।
णिंदा गरुहा सोहिय, अट्ठविहो होदि विसकुंभो।।३३३।।
प्रतिक्रमण प्रतिसरण अरू परिहार आदी।
निवृत्ति निन्दा व गर्हा शुद्धि आदी।।
ज्ञानी समाधि युत मुनि के धारणा युत।
आठों प्रकार ये हैं विषकुंभ जैसे।।३३३।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज्ा।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थमुने: अष्टप्रकारप्रतिक्रमणविषकुंभवत्-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(20)
अपडिकमणं अप्पडिसरणं, अप्परिहारो अधारणा चेव।
अणियत्ती य अणिंदा, अगरुहा विसोहिय अमयकुंभो।।३३४।।
अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अधारणा जो।
अनिवृत्ति अरु अपरिहार अशुद्धि हैं जो।।
निन्दारहित अरु अगर्हा आठ ये हैं,
गतराग योगि को अमृतकुम्भ ये हैं।।३३४।।
दोहा- मोक्ष नवम अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
क्रम से पाऊँ मोक्ष को, सिद्ध होंय सब काज।।
ॐ ह्रीं सरागियोगिन: अष्टप्रतिक्रमणअमृतकुंभवत्प्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(21)
दवियं जं उप्पज्जदि, गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं।
जह कडयादीहिं दु, पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह।।३३५।।
-नरेन्द्र छंद-
जब जो द्रव्य स्वयं के जिन-गुण से उत्पन्न हुए हैं।
उन गुण से वे द्रव्य कदाचित्, भी निंह भिन्न हुए हैं।।
जैसे सोना कड़ा आदि, पर्याय रूप भी बनता।
वह अपने स्वर्णत्व भाव को, नहीं तथापी तजता।।३३५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कटकादिभि: अभिन्नकनकमिव गुणैरभिन्नात्मतत्त्वप्रतिपादकसमय-
साराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(22)
जीवस्साजीवस्स य, जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते।
तं जीवमजीवं वा, तेहिमणण्णं वियाणीहि।।३३६।।
ऐसे ही जो जीव अजीवों, के परिणाम कहे हैं।
उन परिणामों के संग में, वे द्रव्य अभिन्न रहे हैं।।
द्रव्यों का परिणमन द्रव्य को, तजकर नहिं रह सकता।
इसीलिए पर्यायों से नहिं, द्रव्य भिन्न रह सकता।।३३६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं द्रव्यगुणपर्यायाभिन्नस्वभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(23)
ण कुदोचि वि उप्पण्णो, जह्मा कज्जं ण तेण सो आदा।
उप्पादेदि ण किंचिवि, कारणमवि तेण ण सो होदि।।३३७।।
आत्मा तो नहिं किसी अन्य से, भी उत्पन्न हुआ है।
इसीलिए वह किसी अन्य का, कार्य कभी न हुआ है।।
किसी अन्य को भी उत्पन्न, नहीं आत्मा करता है।
इसीलिए वह पर का कारण, कभी नहीं बनता है।।३३७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कार्यकारणभावरहितआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीतिस्वाहा।
(24)
कम्मं पडुच्च कत्ता, कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि।
उप्पज्जंते णियमा, सिद्धी दु ण दिस्सदे अण्णा।।३३८।।
कर्मों का आश्रय लेकर, कर्त्ता भी बन जाता है।
कर्मों के ही कारण आत्मा, जग में दु:ख पाता है।।
कर्त्ता का आश्रय लेकर, आत्मा में कर्म उपजते।
अन्य प्रकारों से कर्ता, कर्मादि सिद्धि नहिं बनते।।३३८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया कार्यकारणभावसहितआत्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(25)
चेदा दु पयडियट्ठं, उप्पज्जदि विणस्सदि।
पयडीवि चेदयट्ठं, उप्पज्जदि विणस्सदि।।३३९।।
चेतयिता ज्ञानावरणादि, प्रकृतियों से है उपजता।
उन्हीं प्रकृतियों के निमित्त से, नाशवान है बनता।।
प्रकृती भी आत्मा निमित्त से, कर्मरूप परिणमती।
आत्मा के भी प्रबल निमित्त, सो नाशवान है बनती।।३३९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कर्मप्रकृतिनिमित्तेन उत्पत्तिविनाशभावसहितआत्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(26)
एवं बंधो दुण्हंपि, अण्णोण्णपच्चयाण हवे।
अप्पणो पयडीएय, संसारो तेण जायदे।।३४०।।
इसी तरह आत्मा व कर्म का, मिलन बन्ध को करता।
आत्मा प्रकृति उभय निमित्त, संसार भ्रमण को करता।।
निज स्वभाव से च्युत आत्मा ही, पर विभाव में रमता।
सार यही है निज स्वरूप से, आत्मा बन्ध न करता।।३४०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं आत्माप्रकृतिउभयनिमित्तेन बंधभावसहितआत्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(27)
जा एसो पयडीयट्ठं, चेदगो ण विमुंचदि।
अयाणओ हवे ताव, मिच्छादिट्ठी असंजदो।।३४१।।
जब तक प्राणी पूर्वकथित, प्रकृती का अर्थ न तजता।
कर्मोदय से प्राप्त हुई, परिणति रागादि न तजता।।
तब तक अज्ञायक स्वभाव से, आत्मा को अनुभवता।
मिथ्यादृष्टि असंयत बनकर, मोक्ष प्राप्त नहिं करता।।३४१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेण अज्ञायकभावयुक्तआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(28)
जदा विमुंचदे चेदा, कम्मप्फलमणंतयं।
तदा विमुत्तो हवदि, जाणगो पस्सगो मुणी।।३४२।।
वही जीव जब बहुत भेदयुत, कर्मफलों को तजता।
शुद्ध बुद्ध अपनी आत्मा में, सम्यक् श्रद्धा करता।।
तब ही वह मुनि सम्यग्दृष्टी, ज्ञायक रूप कहाता।
द्रव्य भाव दोनों से उपजे, कर्म समूह नशाता।।३४२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कर्मफलप्रकरणे ज्ञानी-अज्ञानीभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(29)
अण्णाणी कम्मफलं, पयडि-सहावट्ठिदो दु वेदेदि।
णाणी पुण कम्मफलं, जाणदि उदिदं ण वेदेदि।।३४३।।
अज्ञानी प्राणी कर्मों के, फल को भोगा करता।
प्रकृति भाव में स्थित होकर, कर्मबन्ध व करता।।
ज्ञानी तो उदयागत कर्म-फलों का ज्ञाता रहता।
लेकिन अहंभाव से उनका, भोक्ता कभी न बनता।।३४३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कर्मफलप्रकरणे ज्ञानी-अज्ञानीभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(30)
जो पुण णिरवराहो, चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि।
आराहणाए णिच्चं, वट्टदि अहमिदि वियाणंतो।।३४४।।
जो अपराधरहित आत्मा, परमात्मा को ही भजता।
चेतयिता ज्ञानी निशंक, होकर निज में ही रहता।।
निज के ही आराधन में, वह हर क्षण तत्पर रहता।
निज अनंत ज्ञानादि चतुष्टय, का ही अनुभव करता।।३४४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया आत्मन: नि:शंकभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(31)
ण मुयदि पयडिमभव्वो, सुट्ठुवि अज्झाइदूण सच्छाणि।
गुडदुद्धं पि पिवंता, ण पण्णया णिव्विसा होंति।।३४५।।
पन्नग मिष्ट मधुर गुड़ युत, यदि दुग्ध पान भी कर ले।
तो भी अपना कटुक विषैला, नहिं स्वभाव तजते वे।।
वैसे ही कितने शास्त्रों को, यदि अभव्य भी पढ़ ले।
तो भी कर्मोदय स्वभाव को, नहीं छोड़ सकते वे।।३४५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं मिष्टदुग्धपिबन्नपि विषधरसर्पवत्अभव्यजीवस्वभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(32)
णिव्वेदसमावण्णो, णाणी कम्मप्फलं वियाणादि।
महुरं कडुयं बहुविह-मवेदको तेण पण्णत्तो।।३४६।।
परमतत्त्वज्ञानी जग के, भोगों में ममत न करता।
पूर्णविरक्त हुआ वह कर्मों, के फल को बस लखता।।
मधुर कटुक उनके फल में, वह सुखी दु:खीr नहिं होता।
इसीलिए वह ज्ञानमात्र से, भोक्ता कभी न होता।।३४६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निर्वेदगुणयुक्तमुने: आत्मस्वभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(33)
णवि कुव्वदि णवि वेददि, णाणी कम्माइ बहुपयाराइ।
जाणदि पुण कम्मफलं, बंधं पुण्णं च पावं च।।३४७।।
तीन गुप्ति से गुप्त मुनी, पर के आलम्बन विरहित।
नाना कर्मों में कर्त्ता, भोक्तापन भावादि रहित।।
निज शुद्धात्म भावनामृत से, तृप्त हुआ वह ज्ञाता।
कर्मबंध कर्मों का फल अरु, पाप पुण्य का ज्ञाता।।३४७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं त्रिगुप्तिसहितपुण्यपापकर्तृत्वभोत्तृत्वरहितशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(34)
दिट्ठी सयं पि णाणं, अकारयं तह अवेदयं चेव।
जाणदि य बंधमोक्खं, कम्मुदयं णिज्जरं चेव।।३४८।।
जैसे नेत्रेन्द्रिय निज ज्ञेय, पदार्थों को लखता है।
लेकिन उन ज्ञेयों का कर्ता, भोक्ता नहिं बनता है।।
शुद्ध ज्ञान वैसे ही बंध, व मोक्ष निर्जरा जाने।
कर्मोदय कृत समझ न निज को, कर्ता भोक्ता माने।।३४८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञेयपदार्थप्रति नेत्रेन्द्रियवत्शुद्धज्ञानभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(35)
लोगस्स कुणदि विण्हू, सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते।
समणाणं पि य अप्पा, जदि कुव्वदि छव्विहे काए।।३४९।।
जग में लोगों ने विष्णु को, सृष्टी कर्ता माना।
सुर नारक तिर्यंच मनुज सब-को उनकी रचना माना।।
इसी तरह यदि यतिगण भी, ऐसा विश्वास बनाते।
षट्कायिक जीवों का कर्ता, आत्मा को बतलाते।।३४९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं षट्कायिकजीवकर्तामान्यतारूपअज्ञानभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(36)
लोगसमणाणमेवं, सिद्धंतं पडि ण दिस्सदि विसेसो।
लोगस्स कुणदि विण्हू, समणाण अप्पओ कुणदि।।३५०।।
फिर तो श्रमण लोक मान्यता, एक सदृश दिखती है।
कोई नहीं विशेष बात, सामान्य प्रवृत्ति दिखती है।।
क्योंकी जैसे विष्णु जगत की, रचना कर सकता है।
उसी तरह आत्मा को कर्ता, श्रमण भी कह सकता है।।३५०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं लोकमान्यतानुसारेण जगत्कर्ताविष्णुरिव मिथ्यादृष्टिमुनिमान्यता-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(37)
एवं ण कोवि मुक्खो, दीसदि दुण्हं पि समणलोयाणं।
णिच्चं कुव्वंताणं, सदेवमणुआसुरे लोगे।।३५१।।
दोनों जन भी कर्त्तापन की, सहज मान्यता करते।
श्रमण व लोक अत: दोनों ही, मोक्ष प्राप्त नहिं करते।।
क्योंकि देव मनुजादि असुर-युत विश्व नित्य रचते जो।
मुक्ति अवस्था का शाश्वत सुख, प्राप्त न कर सकते वो।।३५१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं लोकश्रमणद्वयो: मिथ्यामान्यतावशात् मोक्षाभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(38)
ववहारभासिदेण दु, परदव्वं मम भणंति विदिदच्छा।
जाणंति णिच्छयेण दु, ण य इह परमाणुमित्त मम िंकचि।।३५२।।
तत्त्वों के ज्ञाता मुनिवर, व्यवहार वचन कहते हैं।
परद्रव्य पिच्छिका आदि, को मेरी यह कहते हैं।।
लेकिन निश्चय नय से तो, वे ऐसा जान रहे हैं।
परवस्तू परमाणुमात्र नहिं, अपना मान रहे हैं।।३५२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया परद्रव्यं प्रति भावनाप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(39)
जह कोवि णरो जंपदि, अम्हाणं गामविसयपुररट्ठं।
ण य हुंतिताणि तस्स दु, भणदि य मोहेण सो अप्पा।।३५३।।
जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगरादिक अपने कहते।
उसके कहने से ग्रामादिक, उसके नहिं हो सकते।।
मात्र मोह के वश से मेरा, मेरा कहता रहता।
निश्चय से तो यह भी उनसे, भिन्न सदा ही रहता।।३५३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं मोहकर्मवशेन परद्रव्यं प्रति अहंभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(40)
एमेव मिच्छदिट्ठी, णाणी णिस्संसयं हवइ एसो।
जो परदव्वं मम इदि, जाणंतो अप्पयं कुणदि।।३५४।।
इसी तरह परद्रव्यों को पर, जान रहा जो ज्ञानी।
तो भी मेरा मेरा कहकर, अपनाता वो ज्ञानी।।
तब तो उस क्षण वह अवश्य, मिथ्यादृष्टी बन जाता।
क्योंकि ज्ञान का दुरुपयोग, नहिं सम्यग्ज्ञान कहाता।।३५४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं मिथ्यादृष्टिजीवस्य परद्रव्यं प्रति ममकारभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(41)
तह्मा ण ममेति णच्चा, दुण्हं एदाण कत्तिववसाओ।
परदव्वे जाणंतो, जाणिज्जो दिट्ठिरहिदाणं।।३५५।।
पर तो मेरा हो नहिं सकता, ऐसा भी चिन्तन है।
पर लौकिक जन मुनि दोनों ने, माना कर्तापन है।।
उसको मिथ्यादृष्टीकृत, व्यवसाय मानता ज्ञानी।
पर को पर प्रतिक्षण जो कहता, वह ही भेदविज्ञानी।।३५५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यं प्रति परभावमान्यताप्रतिपादक समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(42)
मिच्छत्ता जदि पयडी, मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं।
तह्मा अचेदणा दे, पयडी णणु कारगो पत्तो।।३५६।।
यदि मिथ्यात्व प्रकृति आत्मा को, मिथ्यादृष्टि बनाती।
तो वह स्वयं अचेतन चेतन, की कर्त्ता बन जाती।।
सांख्यमती तुम सुनो तुम्हारा, मत ऐसा बतलाता।
जीव अकर्त्ता पुद्गल कर्त्ता, यह एकांत न भाता।।३५६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं एकान्तेन जीवअकर्तृत्वभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(43)
सम्मत्ता जदि पयडी, सम्मादिट्ठी करेदि अप्पाणं।
तह्मा अचेदणा दे, पयडी णणु कारगो पत्तो।।३५७।।
यदि सम्यक्त्व प्रकृति आत्मा को, सम्यग्दृष्टि बनाती।
तो वह स्वयं अचेतन चेतन, का कर्त्ता बन जाती।।
ऐसे तो पुद्गल प्रकृति, निश्चय से कर्त्ता बनती।
लेकिन जिनशासन में ऐसी, बात कहीं नहिं मिलती।।३५७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं जिनशासनानुसारेण शुद्धनिश्चयनयेन सम्यक्त्वप्रकृतिअकर्तृत्वभाव-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(44)
अहवा एसो जीवो, पुग्गल दव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं।
तह्मा पुग्गलदव्वं, मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।।३५८।।
यदि ऐसा माना जावे यह, जीव सभी कुछ करता।
पुद्गल के मिथ्यात्व भाव, को आत्मा ही करता।।
तब तो पुद्गल द्रव्य को ही, मिथ्यादृष्टी तुम जानो।
जीव कभी मिथ्यादृष्टी नहिं, हो सकता यह मानो।।३५८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यं प्रति मिथ्यात्वभावकर्ताप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(45)
अह जीवो पयडी विय, पुग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं।
तह्मा दोहिकदत्तं दुण्णिवि भुंजंति तस्स फलं।।३५९।।
यदि ऐसा मानें यह जीवरु, पुद्गल ऐसा करते।
दोनों मिलकर पुद्गल को, मिथ्यात्वरूप हैं करते।।
दोनों द्वारा संचित कर्मों, का फल द्वय को मिलता।
पर ऐसा सिद्धान्त नहीं है, अत: कथन नहिं बनता।।३५९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं जीवपुद्गलद्वयो: प्रति मिथ्यात्वभावकर्ताप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(46)
अह ण पयडी ण जीवो, पुग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं।
तह्मा पुग्गलदव्वं, मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा।।३६०।।
पुद्गल को मिथ्यात्वरूप यदि, प्रकृति जीव नहिं करते।
तो भी पुद्गलद्रव्य स्वयं, मिथ्यात्व स्वरूप ठहरते।।
अत: सिद्ध यह हुआ कि, अज्ञानी मिथ्यात्व करे हैं।
उस निमित्त से पुद्गल, परमाणू भी कर्म बने हैं।।३६०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं जीवपुद्गलौ एकान्तेन अकर्तारूपमिथ्यात्वभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(47)
कम्मेहिं दु अण्णाणी, किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहिं सुवाविज्जदि, जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।।३६१।।
कर्मों के द्वारा ही आत्मा, अज्ञानी है बनता।
कर्मों के द्वारा ही आत्मा, सम्यग्ज्ञानी बनता।।
जीवात्मा कर्मों के द्वारा, ही सोता रहता है।
तथा कर्म के ही द्वारा, जागृत आत्मा रहता है।।३६१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं कर्मभिरेव ज्ञानी-अज्ञानीभावकर्ताप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(48)
कम्मेहिं सुहाविज्जदि, दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहिं य मिच्छत्तं, णिज्जदि असंजयं चेव।।३६२।।
यह आत्मा कर्मों के द्वारा, सुखी दु:खीr बनता है।
कर्मों से मिथ्यात्व अवस्था, को भि प्राप्त करता है।।
तथा असंयम की प्राप्ती, वे कर्म उसे करवाते।
जीव इसी कर्मोदय से, शुभ भाव नहीं कर पाते।।३६२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ धिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं एकान्तेन जीवस्यकर्मभिरेव सुखदु:खभोक्ताभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(49)
कम्मेहिं भमाडिज्जदि, उड्ढमहं चावि तिरियलोयम्मि।
कम्मेहिं चेव किज्जदि, सुहासुहं जेत्तियं किंचि।।३६३।।
ऊर्ध्व अधो तिर्यंच लोक में, जीव भ्रमण जो करता।
उसको भ्रमण कराने में भी, कर्म निमित्त ही रहता।।
जो कुछ शुभ व अशुभ होता है, वह भी कर्म कराता।
प्रबल निमित्त इस जीवात्मा से, सभी कर्म करवाता।।३६३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं एकांतेन पंचपरिवर्तनरूपसंसारभ्रमणकर्ताजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(50)
जह्मा कम्मं कुव्वदि, कम्मं देदित्ति हरदि जं किंचि।
तह्मा सव्वेजीवा, अकारया हुंति आवण्णा।।३६४।।
क्योंकि कर्म ही तो करता है, कर्म सभी कुछ देता।
जग में कर्म ही तो हरता है, कर्म ही सब कर लेता।।
इसीलिए तो जीव अकारक, वह कुछ भी नहिं करता।
कर्म अचेतन सब कुछ करते, सांख्य मती यह कहता।।३६४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं एकान्तेन कर्मैवकारकजीवअकारकरूपसांख्यमतप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(51)
पुरिसिच्छियाहिलासी इच्छी कम्मं च पुरिसमहिलसदि।
एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी।।३६५।।
पुरुष वेद जो कर्म कहा वह, स्त्री का अभिलाषी।
पुरुष मात्र की इच्छा स्त्री, वेद कर्म कहलाती।।
सांख्यमताचार्यों के मुख से, ऐसी बात सुनी है।
जिनशासन में अनेकांत से, करते कथन मुनी हैं।।३६५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं स्त्रीपुरुषवेदप्रति एकांतमतनिराकरणरूपजिनशासनमतप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(52)
तह्मा ण कोवि जीवो, अबह्मयारी दु तुह्य-मुवदेसे।
जह्मा कम्मं चेव हि, कम्मं अहिलसदि जं भणियं।।३६६।।
अत: कोई भी जीव अब्रह्म-चारी नहिं है तव मत में।
क्योंकि कर्म को कर्म चाहता, ऐसा माना तुमने।।
किन्तु शुद्ध निश्चय नय से हैं, सभी जीव ब्रह्मचारी।
वे अशुद्ध निश्चय से भी, हो जावेंगे ब्रह्मचारी।।३६६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मचारित्वगुणप्रति शुद्धाशुद्धनिश्चयनयप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(53)
जह्मा घादेदि परं, परेण घादिज्जदेदि सा पयडी।
एदेणच्छेण दु किर, भण्णदि परघादणामेत्ति।।३६७।।
कोई पर को मारे पर के, द्वारा मारा जावे।
कर्म सभी में हैं निमित्त, वह ही सब कुछ करवावे।।
इसीलिए परघात नामकी, प्रकृति उसे कहते हैं।
यथा नाम गुण भी तथैव, सिद्धान्तों में पढ़ते हैं।।३६७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परघातनामकर्मप्रकृतिस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(54)
तह्मा ण कोवि जीवो, उवघादगो अत्थि तुह्म उवदेसे।
जह्मा कम्मं चेव हि, कम्मं घादेदि जं भणियं।।३६८।।
अत: आपके मत में कोई, जीव नहीं उपघाती।
क्योंकि केवल कर्म को तुमने, माना है परघाती।।
जिनमत में द्रव्यार्थिक नय से, जीव अपरिणामी है।
पर्यायार्थिक नय से वह, आत्मा परिणामी भी है।।३६८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयापेक्षया परघातनामकर्मप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(55)
एवं संखुवदेसं, जे दु परूविंति एरिसं समणा।
तेसिं पयडी कुव्वदि, अप्पा य अकारया सव्वे।।३६९।।
जो कोई भी श्रमण इस तरह, का प्रवचन करते हैं।
जिनमत बाह्य सांख्यमत के, अनुसार वचन उनके हैं।।
क्योंकी उनके यहाँ प्रकृति ही, सब कुछ करती माना।
जीव अकर्ता है ऐसा, उनके ऋषियों ने जाना।।३६९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं सांख्यमतानुसारेण एकान्तेन परघातनामकर्मप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(56)
अहवा मण्णसि मज्झं, अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि।
एसो मिच्छसहावो, तुम्हं एवं मुणंतस्स।।३७०।।
यदि ऐसा माना जावे, आत्मा निज को ही करता।
यह एकान्त कथन भी मिथ्या, मत का पोषण करता।।
जिनमत तो निश्चय व्यवहार, कथन के बल पर चलता।
शुद्ध अशुद्ध जीव ही उसमें, कर्ता और अकर्ता।।३७०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं असंख्यातप्रदेशिआत्मन:प्रति मिथ्याकल्पनाप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(57)
अप्पा णिच्चासंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि।
णवि सो सक्कदि तत्तो, हीणो अहियो य कादुं जे।।३७१।।
द्रव्यार्थिक नय से यह आत्मा, नित्य असंख्य प्रदेशी।
परमागम में उसे कहा, चैतन्यपना पहले ही।।
सो उस आत्मा का प्रमाण, हीनाधिक नहिं कर सकते।
इसीलिये आत्मा का कर्ता, आत्मा नहिं कह सकते।।३७१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं द्रव्यार्थिकनयेन आत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(58)
जीवस्स जीवरूवं, वित्थरदो जाण लोगमित्तं हि।
तत्तो सो किं हीणो, अहियो व कदं भणसि दव्वं।।३७२।।
जीवद्रव्य जब आत्म प्रदेशों, को विस्तारित करता।
उसी अपेक्षा से वह लोका-काश प्रमित है रहता।।
उससे हीनाधिक उसको क्या, कभी किया जा सकता ?
पर्यायार्थिक नय से आत्मा, निज शरीर में रहता।।३७२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं लोकाकाशप्रमितआत्मप्रदेशसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(59)
अह जाणओ दु भावो णाणसहावेण अत्थि देदि मदं।
तह्मा णवि अप्पा, अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि।।३७३।।
ज्ञान भाव में सुस्थित आत्मा, ज्ञायक रूप कही है।
अत: जीव निज को करता है, ऐसा सत्य नहीं है।।
आत्मा तो अज्ञान दशा में, कर्मों को करता है।
परमागम का सार यही, ज्ञानी कुछ नहिं कर्ता है।।३७३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञायकस्वभावीआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(60)
केहिचिदु पज्जयेहिं, विणस्सदे णेव केहिचिदु जीवो।
जह्मा तह्मा कुव्वदि, सो वा अण्णो व णियंतो।।३७४।।
जीव नाम के तत्त्व की कितनी, ही पर्याय विनशतीं।
किन्तु अन्य कितनी ही, पर्यायें जो नहीं विनशतीं।।
इसीलिए वह ही कर्ता, या अन्य दूसरा कर्ता।
होता है इन विषयों का, एकान्त कथन नहिं बनता।।३७४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं विनश्वराविनश्वरपर्यायसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(61)
केहिचिदु पज्जयेहिं, विणस्सदे णेव केहिचिदु जीवो।
जह्मा तह्मा वेददि, सो वा अण्णो व णेयंतो।।३७५।।
इसी तरह वह जीव तत्त्व, कुछ पर्यायों से नशता।
तथा अन्य कुछ पर्यायों से, भी वह नहीं विनशता।।
अत: जीव ही भोक्ता अथवा, अन्य भोगने वाला।
होता यह एकान्त कथन, विपरीत मानने वाला।।३७५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं पर्यायार्थिकनयापेक्षया भोक्तृत्वगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(62)
जो चेव कुण सो चेव, वेदको जस्स एस सिद्धंतो।
सो जीवो णायव्वो, मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३७६।।
जो कर्मों का कर्त्ता है, वह भोक्ता नहिं कहलाता।
ऐसा जिसका मत है वह, मिथ्यादृष्टि कहलाता।।
यह ऐकांतिक कथनी अर्हन्मत में नहिं मिलती है।
क्योंकि सांख्य के मत में ऐसी, ही परिणति मिलती है।।३७६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं सांख्यमतनिराकरणरूपकर्तृत्वभोक्तृत्वगुणसमन्वितजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(63)
अण्णो करेदि अण्णो, परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो।
सो जीवो णादव्वो, मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३७७।।
ऐसे ही कर्मों का कर्ता, अन्य तथा भोक्ता भी।
अन्य कहा जिसके मत में, वह मिथ्यादृष्टि सदा ही।।
क्योंकी अर्हन्मत में ऐसा, कथन न पाया जाता।
बौद्ध क्षणिक के ऐकान्तिक, मत में यह पाया जाता।।३७७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं अर्हंतमतानुसारेण आत्मन: कर्तृत्वभोक्तृत्वगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(64)
जह सिप्पिओ दु कम्मं, कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवोवि य कम्मं, कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।।३७८।।
जैसे शिल्पी स्वर्णकार, आभूषण आदि बनाता।
लेकिन उन आभूषणादि से, तन्मय नहिं बन जाता।।
वैसे ही जीवात्मा भी, पुद्गल कर्मों को करता।
किन्तु कभी वह तन्मय होकर, कर्मरूप नहिं बनता।।३७८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शिल्पिवत्अतन्मयरूपआत्माऽपि पुद्गलकर्माकर्ताभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(65)
जह सिप्पिओ दु करणेहिं, कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो करणेहिं, कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।।३७९।।
जैसे शिल्पी उपकरणों से, कुण्डल आदि बनाता।
लेकिन उपकरणों के संग वह, उस मय नहिं बन जाता।।
मनवचकाय करण से आत्मा, भी कर्मों को करता।
तो भी उन करणों के संग, तन्मय होकर नहिं रहता।।३७९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं उपकरणसमन्वितशिल्पिवत्मनोवच:कायसमन्वितात्मन: अतन्मय-
अवस्थाप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(66)
जह सिप्पिउ करणाणि, गिण्हदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो करणाणि य, गिण्हदि ण य तम्मओ होदि।।३८०।।
उन उपकरणों को शिल्पी, स्वयमेव ग्रहण भी करता।
तन्मय होकर तत्स्वरूप, तो भी परिणति नहिं करता।।
जीवद्रव्य भी उसी तरह, कायादि ग्रहण करता है।
तो भी कायादिक स्वरूप से, उस मय नहिं बनता है।।३८०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन कायादिस्वरूपजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(67)
जह सिप्पिउ कम्मफलं, भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो कम्मफलं, भुंजदि ण य सोवि तम्मओ होदि।।३८१।।
शिल्पी जैसे कुण्डलादि, कर्मों के फल को भोक्ता।
फिर भी वह निज कर्मफलों से, तन्मय रूप न होता।।
वैसे ही आत्मा कर्मों के, सुख दुख फल को सहता।
फिर भी उन कर्मों के फल में, तन्मय रूप न बनता।।३८१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य& समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परमाथेन सुखदु:खफलेष्वपि असंगभावसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
(68)
एवं ववहारस्स दु, वत्तव्वं दंसणं समासेण।
सुणु णिच्छयस्स वयणं, परिणामकदं तु जं होदि।।३८२।।
ऐसा यह व्यवहार कथन, संक्षेप रूप कह आए।
अब आगे निश्चयनय के, वचनों को भी बतलाएं।।
सुनो उन्हें निज परिणामों से, किया हुआ जो होता।
निज के ही रागादि विकल्पों, से संपादित होता।।३८२।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निजपरिणामकृतविकल्पसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं&
निवपामीति स्वाहा।
(69)
जह सिप्पिओ दु चेट्ठं, कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो सो।
तह जीवोवि य कम्मं, कुव्वदि हवदि य अणण्णो से।।३८३।।
शिल्पी निज परिणामों की, चेष्टा जैसी करता है।
उस चेष्टा से पृथक् न होकर, तन्मय ही रहता है।।
जीवद्रव्य भी निज परिणामों, से कमों& को करता।
उन परिणाम स्वरूप कम से, पृथक् नहीं हो सकता।।३८३।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन शिल्पिकारस्य तन्मयचेष्टावत्कमरूपतन्मयजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
(70)
जह चेट्ठं कुव्वंतो, दु सिप्पिओ णिच्च दुक्खिदो होदि।
तत्तो सेय अणण्णो, तह चेट्ठंतो दुही जीवो।।३८४।।
शिल्पी जैसे चेष्टा करके, सदा दु:खी रहता है।
वह अपने दुख सहकर दुख से, भिन्न नहीं रहता है।।
उसी तरह से जीव द्रव्य भी, दु:खी बना रहता है।
दु:खी अवस्था में निज चेष्टा, से तन्मय रहता है।।३८४।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं संसारपेक्षया निजचेष्टया दु:खीशिल्पिवत्दु:खफलभोक्ताजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
(71)
जह सेटिया दु ण परस्स, सेटिया सेटिया य सा होदि।
तह जाणगो दु ण परस्स, जाणगो जाणगो सो दु।।३८५।।
श्वेत वण की खड़िया जैसे, नहिं दिवाल की होती।
लेकिन खड़िया स्वयं स्वगुण से, शुक्लरूप ही होती।।
यूं ही ज्ञायक आत्मा भी, परद्रव्य ज्ञेय का नहिं है।
प्रत्युत निज के ज्ञायक गुण से, ही तो ज्ञायक वह है।।३८५।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं आत्मशक्त्यपेक्षया स्वगुणेन शुक्लभावग्राहकजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
(72)
जह सेटिया दु ण परस्स, सेटिया सेटिया य सा होदि।
तह पस्सगो दु ण परस्स, पस्सगो पस्सगो सो दु।।३८६।।
पर को श्वेत बनाने से, खड़िया नहिं श्वेत कही है।
वह तो अपनी सहज सफेदी, गुण से श्वेत कही है।।
यूं ही मात्र परद्रव्य देखने, से न जीव दशक है।
प्रत्युत वह तो सहज स्वभावी, होने से दशक है।।३८६।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निजसहजदशकगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं
निवपामीति स्वाहा।
(73)
जह सेटिया दु ण परस्स, सेटिया सेटिया दु सा होदि।
तह संजदो दु ण परस्स, संजदो संजदो सो दु।।३८७।।
पर को श्वेत बनाने से, मिट्टी नहिं श्वेत कही है।
वह तो निज के सहज श्वेत गुण, से ही श्वेत कही है।।
यूं ही त्यागन वाला संयत, मुनि भी पर का नहिं है।
वह संयत तो स्वयं संयमी, होने से संयत है।।३८७।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं संयमगुणसमन्वितआत्मन: संयतभावप्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं&
निवपामीति स्वाहा।
(74)
जह सेटिया दु ण परस्स, सेटिया सेटिया दु सा होदि।
तह दंसणं दु ण परस्स, दंसणं दंसणं तं तु।।३८८।।
पर को रंगने से सफेद, मिट्टी नहिं पर की मानी।
वह तो अपनी सहज सफेदी, से संयुक्त बखानी।।
वैसे ही श्रद्धान क्रिया, पर की नहिं मानी जाती।
सम्यग्दश&न युक्त क्रिया ही, सम्यग्दश& कहाती।।३८८।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परमात्मश्रद्धानरूपवीतरागसम्यग्दशनसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
(75)
एवं तु णिच्छयणयस्स, भासियं णाणदंसणचरित्ते।
सुणु ववहारणयस्स य, वत्तव्वं से समासेण।।३८९।।
ऐसा यह दशन सुज्ञान, चारित्र विषय में माना।
निश्चय नय का वचन यही, परमागम से है जाना।।
अब व्यवहारनयाश्रित कथनी, कहता हूँ सो सुनिये।
दोनों के संक्षिप्त कथन सुन, निज आत्मा को गुनिये।।३८९।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य& समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयापेक्षया ज्ञानदश&्नाचारित्रसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
(76)
जह परदव्वं सेडिदि हु, सेटिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं जाणदि, णादा वि सएण भावेण।।३९०।।
पर को श्वेत बनाने से, खड़िया ज्यों श्वेत कही है।
वह अपने इस सहज भाव से, मानी श्वेत सही है।।
उसी तरह परद्रव्य जानने, वाला भी ज्ञायक है।
ज्ञातापन के निज गुण से ही, सबका वह ज्ञायक है।।३९०।।
दोहा- सव विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अघ्य समपित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन परद्रव्यज्ञायकजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अघ्यं
निवपामीति स्वाहा।
(77)
जह परदव्वं सेटिदि हु सेटिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं पस्सदि, जीवोवि सएण भावेण।।३९१।।
पर को रंगने से सफेद, मिट्टी सफेद कहलाती।
क्योंकी वह तो इसी श्वेत, गुण से संयुक्त कहाती।।
इसी तरह परवस्तु देखने, से आत्मा दर्शक है।
दर्शकपन के निज गुण से ही, सबका वह दर्शक है।।३९१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयाश्रयेण परद्रव्यदर्शकगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(78)
जह परदव्वं सेटदि हु, सेटिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं विरमदि, णादावि सएण भावेण।।३९२।।
श्वेत वर्ण की खड़िया जैसे, पर को श्वेत बनाती।
इसी हेतु से वह खड़िया है, बात कही यह जाती।।
ऐसे ही परद्रव्य त्यागने, से आत्मा संयत है।
त्यागभाव के हेतुपने से, ही आत्मा संयत है।।३९२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारदृष्ट्या परद्रव्यत्यागरूपसंयतगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(79)
जह परदव्वं सेटदि हु, सेटिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं सद्दहदि, सम्मदिट्ठी सहावेण।।३९३।।
पर को रंगने से सफेद, मिट्टी सफेद है मानी।
वह तो पर को श्वेत करन, गुण से संयुक्त बखानी।।
यूं ही परद्रव्यों की श्रद्धा, से आत्मा दर्शन है।
श्रद्धापन के हेतू से, आत्मा सम्यग्दर्शन है।।३९३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारसम्यग्दर्शनगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(80)
एसो ववहारस्स दु, विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते।
भणिदो अण्णेसु वि, पज्जएसु एमेव णादव्वो।।३९४।।
ऐसा यह दर्शन सुज्ञान, चारित्र विषय में माना।
है व्यवहारनयाश्रित निर्णय, परमागम से जाना।।
इसी तरह से अन्य और, पर्यायों में भी जानो।
निश्चय अरु व्यवहार कथन से, वस्तुतत्त्व श्रद्धानो।।३९४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारापेक्षयाज्ञानदर्शनचारित्रगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(81)
दंसणणाणचरित्तं, किंचिवि णत्थि दु अचेदणे विसए।
तह्मा किं घादयदे, चेदयिदा तेसु विसएसु।।३९५।।
आत्मा के सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चरित्र माने हैं।
नहीं अचेतन के विषयों में, कुछ भी पहचाने हैं।।
इसीलिये उन विषयों में, आत्मा क्या घात करेगा।
क्योंकि घातने योग्य वहाँ, साधन ही नहीं मिलेगा।।३९५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन अचेतनविषयेषु अनात्मभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(82)
दंसणणाणचरित्तं, किंचिवि णत्थि दु अचेदणे कम्मे।
तह्मा किं घादयदे, चेदयिदा तेसु कम्मेसु।।३९६।।
दर्शन-ज्ञान चरित्र स्वरूपी, जीवात्मा कहलाती।
कर्म अचेतन में वह कुछ भी, कार्य नहीं कर पाती।।
अत: भला उन कर्मों में, आत्मा क्या घात करेगा।
क्योंकि घातने योग्य वहाँ, साधन ही कहाँ मिलेगा।।३९६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयदृष्ट्या अचेतनकर्मेषु अनात्मभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(83)
दंसणणाणचरित्तं, किंचिवि णत्थि दु अचेदणे काये।
तह्मा किं घादयदे, चेदयिदा तेसु कायेसु।।३९७।।
सम्यग्दर्शन ज्ञानचरितयुत, आत्मस्वरूप बताया।
नहीं अचेतन काय संग में, उसकी कोई माया।।
अत: भला उन कायों में, आत्मा क्या घात करेगा।
क्योंकि घातने योग्य वहाँ, साधन ही कहाँ मिलेगा ?।।३९७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयाश्रयेण अचेतनकायेषु अनात्मभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(84)
णाणस्स दंसणस्स य, भणिदो घादो तहा चरित्तस्स।
णवि तह्मि कोवि पुग्गलदव्वे घादो दु णिद्दिट्ठो।।३९८।।
आत्मा में जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान चरित कहलाते।
मिथ्यादर्शन आदि निमित्तों, से वे घाते जाते।।
क्योंकि अचेतन द्रव्य कर्म का, कुछ भी घात न होता।
इनके कारण चेतन आत्मा, निज परिणति को खोता।।३९८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं रत्नत्रयघातकमिथ्यात्वपरिणामप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(85)
जीवस्स जे गुणा, केई णत्थि ते खलु परेसु दव्वेसु।
तह्मा सम्मादिट्ठिस्स, णत्थि रागो दु विसएसु।।३९९।।
जीव द्रव्य अपने जिन स्वाभाविक गुण से संयुत है।
उन गुण से पर द्रव्य सदा, निश्चय से नहीं सहित है।।
इसीलिए सम्यग्दृष्टी, विषयों में राग न करता।
वह तो आत्मा के स्वाभाविक, गुण में ही अनुरक्ता।।३९९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं वीतरागसम्यग्दृष्टिपरद्रव्यानुरक्तभावरहितगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(86)
रागो दोसो मोहो, जीवस्सेव दु अणण्णपरिणामा।
एदेण कारणेण दु, सद्दादिसु णत्थि रागादी।।४००।।
रागद्वेष अरु मोह जीव के, ही परिणाम कहे हैं।
जो कि शुद्ध निश्चय नय से, चैतन्य अभिन्न रहे हैं।।
इस कारण शब्दादि विषय में, अज्ञानी है रागी।
निर्विकल्प सम्यग्दृष्टी, शब्दादिक में नहिं रागी।।४००।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयनयापेक्षया चैतन्याभिन्नपरिणामसमन्वितजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(87)
अण्णदविएण अण्णदवियस्स णे कीरदे गुणविघादो।
तह्मा दु सव्वदव्वा, उप्पज्जंते सहावेण।।४०१।।
अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के, गुण का घात न होता।
बाह्य निमित्तों के मिलने पर, भी तद्रूप न होता।।
अत: द्रव्य सब निज स्वभाव से, प्रगट हुए ही मानो।
शब्दादिक को सदा अचेतन, चेतन आत्मा जानो।।४०१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परमार्थेन निजनिजस्वभावोत्पन्न द्रव्यगुणोत्पादकरूपजीवादितत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(88)
णिंदिदसंथुदवयणाणि, पोग्गला परिणमंति बहुगाणि।
ताणि सुणिदूण रूसदि, तूसदि य अहं पुणो भणिदो।।४०२।।
बहुत तरह के निन्दा स्तुति, रूप वचन माने हैं।
पुद्गल ही उन वचन रूप, परिणमित हुए जाने हैं।।
उन वचनों को सुनकर, अज्ञानी ऐसा है कहता।
मुझको ही यह कहा गया है, रोष तोष यह करता।।४०२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेण निंदास्तुतिरूपपुद्गलवचनेषु अज्ञानीजीवमान्यताप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(89)
पुग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं, तस्स जदि गुणो अण्णो।
तह्मा ण तुमं भणिदो, किंचिवि किं रूससे अबुहो।।४०३।।
शब्द रूप में परिणत पुद्गल, द्रव्य अचेतन ही है।
वह न कभी चेतन होता, उसका गुण पुद्गल ही है।।
अत: तुझे तो उन शब्दों ने, कुछ भी नहीं कहा है।
तब तू अज्ञानी बनकर, उनमें क्यों रुष्ट हुआ है।।४०३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं अचेतनशब्दरूपपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(90)
असुहो सुहो व सद्दो, ण तं भणदि सुणसु मंति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदं, सोदविसयमागदं सद्दं।।४०४।।
शुभ या अशुभ शब्द पुद्गल, क्या तुझको यह कहते हैं।
हे प्राणी तू मुझको सुन ले, ऐसा नहिं कहते हैं।।
श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषयागत, शब्द ग्रहण करता है।
निश्चयनय से आत्मा उनको, ग्रहण नहीं करता है।।४०४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभशब्दरूपपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(91)
असुहं सुहं च रूवं, ण तं भणदि पेच्छमंति सो चेव।
णय एदि विणिग्गहिदुं, चक्खुविसयमागदं रूवं।।४०५।।
इसी तरह शुभ अशुभ रूप, क्या तुझसे यह कहता है ?
रे आत्मन् ! तू मुझे देख ले, ऐसा नहिं कहता है।।
नेत्रेन्द्रिय अपने विषयागत, रूप ग्रहण करता है।
निश्चय से तो जीव रूप को, ग्रहण नहीं करता है।।४०५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभपुद्गलवर्णपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(92)
असुहो सुहो व गंधो, ण तं भणदि जिग्घ मंति सो चेव।
णय एदि विणिग्गहिदुं, घाणविसयमागदं गंधं।।४०६।।
शुभ या अशुभ गंध भी तुझसे, ऐसा कब कहते हैं ?
हे प्राणी तू मुझे सूँघ ले, कभी नहीं कहते हैं।।
घ्राणेन्द्रिय निज विषय समझ, वह गन्ध ग्रहण करता है।
लेकिन आत्मा किसी गन्ध को, नहीं ग्रहण करता है।।४०६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभगंधमयपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(93)
असुहो सुहो व रसो, ण तं भणदि रसय मंति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदुं, रसणविसयमागदं तु रसं।।४०७।।
ऐसे ही शुभ अशुभ रसों ने, कभी कहा क्या तुझको ?
मेरे मीठे कटुक स्वाद में, चख ले प्राणी मुझको ?
जिह्वा इन्द्रिय मात्र उसे निज, विषय समझ चखता है।
आत्मा निश्चय से षट् रसमय, भोजन नहिं चखता है।।४०७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभरसमयपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(94)
असुहो सुहो य फासो, ण तं भणदि फास मंति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदुं, कायविसयमागदं फासं।।४०८।।
चउ इन्द्रिय व्यापार सदृश, स्पर्श भी नहिं कहता है।
मैं हूँ शुभ या अशुभ मुझे, छू लो यह नहिं कहता है।।
मात्र प्रथम इन्द्रिय स्पर्शन, उसे ग्रहण करता है।
आत्मा उस स्पर्श योग्य को, नहीं ग्रहण करता है।।४०८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभस्पर्शमयपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(95)
असुहो सुहो य गुणो, ण तं भणदि बुज्झ मंति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदुं, बुद्धिविसमागदं तु गुणं।।४०९।।
इसी तरह से बाह्य द्रव्य के, गुण शुभ अशुभ कहे जो।
मुझे जान ले हे प्राणी तू, ऐसा नहीं कहें वो।।
मात्र बुद्धि निज विषयागत, गुण ग्रहण सदा करती है।
आत्मा लेकिन बाह्य गुणों को, नहीं ग्रहण करती है।।४०९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं बाह्यद्रव्यस्यशुभाशुभगुणरूपपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(96)
असुहं सुहं य दव्वं, ण तं भणदि बुज्झ मंति सो चेव।
ण य एदि विणिग्गहिदुं, बुद्धिविसयमागदं दव्वं।।४१०।।
अशुभ तथा शुभ द्रव्य जगत् के, तुझे नहीं यह कहते।
मेरे द्रव्यपने को तू, जाने ऐसा नहिं कहते।।
उन द्रव्यों को बुद्धि स्वयं का, विषय ग्रहण करती है।
आत्मा उन द्रव्यों को लेकिन, ग्रहण नहीं करती है।।४१०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का स्ाार।।
ॐ ह्रीं शुभाशुभद्रव्यग्रहणरूपपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(97)
एवं तु जाणिदव्वस्स, उवसमेणेव गच्छदे मूढो।
णिग्गहमणा परस्स य, सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।४११।।
मूढ़ जीव यह जान समझ भी, उपशम भाव न करता।
प्रत्युत पर के ग्र्रहणरूप, परिणाम सदा ही करता।।
क्योंकि उसे कल्याणकारिणी, बुद्धि न प्राप्त हुई है।
अत: मुक्ति से दूर परात्मा, में ही दृष्टि रही है।।४११।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यग्रहणबुद्धिसमन्वितमूढ़ात्मन: परिणामप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(98)
कम्मं जं पुव्वकयं, सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं, तु जो सो पडिक्कमणं।।४१२।।
कर्म शुभाशुभ विविध तरह के, विस्तारों से युत हैं।
पूर्व काल में किए गए, सब आत्मा से संयुत हैं।।
जो जीवात्मा उन कर्मों से, खुद निवृत्त हो जाता।
वह निश्चय प्रतिक्रमण रूप, निज आत्मा में खो जाता।।४१२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(99)
कम्मं जं सुहमसुहं जह्मि य भावह्मि बज्झदि भविस्सं।
तत्ते णियत्तदे जो, सो पच्चक्खाणं हवे चेदा।।४१३।।
जिन भावों से भाविकाल में, कर्म शुभाशुभ बंधते।
ज्ञानी आत्मा उन भावों से, दूर सदा ही रहते।।
ऐसे वे ज्ञानी ही निश्चय-प्रत्याख्यान कहाते।
निश्चयचारित्री मुनि ही, यह उच्च अवस्था पाते।।४१३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयप्रत्याख्यानस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(100)
जं सुहमसुहमदिण्णं, संपडि य अणेयवित्थरविसेसं।
तं दोसं जो वेददि, सो खलु आलोयणं चेदा।।४१४।।
वर्तमान में उदयागत जो, कर्म विविध हैं माने।
नाना विस्तारों से विस्तृत, शुभ या अशुभ बखाने।।
जो ज्ञानी उन कर्मों को भी, दोष मान तजता है।
वह आत्मा निश्चय से आलोचन स्वरूप रहता है।।४१४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयआलोचनास्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(101)
णिच्चं पच्चक्खाणं, कुव्वदि णिच्चं पि जो दु पडिक्कमदि।
णिच्चं आलोचेदि य, सो दु चरित्तं हवदि चेदा।।४१५।।
इस प्रकार का प्रतिक्रमण जो, ज्ञानी आत्मा करता।
प्रत्याख्यान व आलोचनमय, भाव निरन्तर करता।।
वही जीव निश्चय से चारित-वान कहा जाता है।
क्योंकि वहाँ तो शुक्लध्यान में, भेद न रह जाता है।।४१५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानआलोचनारूपवीतरागचारित्रप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(102)
वेदंतो कम्मफलं, अप्पाणं जो दु कुणदि कम्मफलं।
सो तं पुणोवि बंधदि, वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।४१६।।
उदयागत कर्मों के फल जो, भोग भोगकर प्राणी।
कर्म तथा उसके विपाक को, अपनाता अज्ञानी।।
तब वह दु:ख के बीज अष्ट, कर्मों से बंधने लगता।
पुन: पुन: कर कर्मबन्ध वह, जीव जगत में भ्रमता।।४१६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं अज्ञानिजीवकर्मविपाकप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(103)
वेदंतो कम्मफलं, मये कदं जो दु मुणदि कम्मफलं।
सो तं पुणो वि बंधदि, वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।४१७।।
जो अज्ञानी कर्मफलों का, वेदन कर यह माने।
मैं ही हूँ इन कर्मफलों का, कर्ता ऐसा जाने।।
फिर तो वह आठों प्रकार के, कर्म बांधने लगता।
दु:ख बीज बोकर अज्ञानी, दुखमय फल ही चखता।।४१७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं अज्ञानिजीवकर्मफलवेदनस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(104)
वेदंतो कम्मफलं, सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा।
सो तं पुणो वि बंधदि, वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।४१८।।
जो आत्मा निज कर्मफलों का, वेदन भी करता है।
एवं उससे निज आत्मा को, सुखी दु:खीr कहता है।।
वह चेतयिता फिर भी दुख का, बीज डालता रहता।
आठ तरह के कर्म बांधकर, अज्ञानी ही रहता।।४१८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं अज्ञानिजीवसुखदु:खवेदनभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(105)
सत्थं णाणं ण हवदि जह्मा सत्थं ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं सत्थं जिणा विंति।।४१९।।
जिनवाणी का रूप शास्त्र अरु, ज्ञान एक सम नहिं है।
शास्त्र मात्र कुछ नहीं जानता, चूँकी वह तो जड़ है।।
अत: ज्ञान तो भिन्न वस्तु, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा शास्त्र भी अन्य पदारथ, जिनवर ने बतलाया।।४१९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया शास्त्रज्ञानयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(106)
सद्दो णाणं ण हवदि जह्मा सद्दो ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं सद्दं जिणा विंति।।४२०।।
पुद्गल की शब्दावलियां भी, ज्ञान नहीं हो सकतीं।
क्योंकि शब्द कुछ नहीं जानते, जड़ता उनमें रहती।।
अत: ज्ञान तो भिन्न वस्तु, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न शब्द है, जिनवर ने बतलाया।।४२०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं जिनवरकथितज्ञानशब्दस्वरूपप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(107)
रूवं णाणं ण हवदि, जह्मा रूवं ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं रूवं जिणा विंति।।४२१।।
पुद्गल मूर्तिक रूप ज्ञानमय, कभी नहीं हो सकता।
रूप न कुछ जाने स्वरूप को, क्योंकी उसमें जड़ता।।
अत: ज्ञान है भिन्न वस्तु, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न रूप गुण, जिनवर ने बतलाया।।४२१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानरूपयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(108)
वण्णो णाणं ण हवदि जह्मा वण्णो ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं वण्णं जिणा विंति।।४२२।।
पुद्गल का गुण वर्ण ज्ञानमय, नहीं कहा जा सकता।
क्योंकि वर्ण कुछ नहीं जानता, उसमें केवल जड़ता।।
अत: ज्ञान को भिन्न वस्तु, आत्मा का गुण बतलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न वर्ण को, जिनवर ने समझाया।।४२२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानवर्णयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(109)
गंधो णाणं ण हवदि जह्मा गंधो ण याणदे किंचि।
तह्मा णाणं अण्णं, अण्णं गंधं जिणा विंति।।४२३।।
इसी तरह से गंध कभी नहिं, ज्ञानरूप हो सकता।
गंध न जाने निज सुगंध भी, उसमें नहिं चेतनता।।
अत: ज्ञान तो सदा भिन्न, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न गन्ध को, जिनवर ने बतलाया।।४२३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगंधयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(110)
ण रसो दु हवदि णाणं, जह्मा दु रसो अचेदणो णिच्चं।
तह्मा अण्णं णाणं, रसं च अण्णं जिणा विंति।।४२४।।
रसना का गुण रस न कभी भी, ज्ञानमयी हो सकता।
रस न जानता निज रस को भी, उसका गुण है जड़ता।।
अत: ज्ञान तो भिन्न वस्तु, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से सदा भिन्न रस, जिनवर ने बतलाया।।४२४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानरसयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(111)
फासो णाणं ण हवदि, जह्मा फासो ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं फासं जिणा विंति।।४२५।।
पुद्गल का संस्पर्श गुण नहीं, ज्ञानरूप बन सकता।
रूप न जाने निज स्वरूप को, उसमें नहिं चेतनता।।
अत: सभी से भिन्न ज्ञान बस, स्वातमगुण कहलाया।
तथा ज्ञान से स्पर्शन को, भिन्न सदा बतलाया।।४२५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानस्पर्शयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(112)
कम्मं णाणं ण हवदि जह्मा कम्मं ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं कम्मं जिणा विंति।।४२६।।
पुद्गल निर्मित कर्म कभी नहिं, ज्ञानरूप बन सकते।
क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानते, सदा अचेतन रहते।।
अत: सभी से भिन्न ज्ञान, आत्मा का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न कर्म है, जिनवर ने बतलाया।।४२६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानकर्मणो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(113)
धम्मच्छिओ ण णाणं, जह्मा धम्मो ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं धम्मं जिणा विंति।।४२७।।
सदा अचेतन धर्मद्रव्य नहिं, ज्ञानरूप बन सकता।
क्योंकि धर्म कुछ नहीं जानता, उसमें नहिं चेतनता।।
अत: धर्म से भिन्न ज्ञान, चेतन का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न धर्म को, जिनवर ने बतलाया।।४२७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मद्रव्ययो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(114)
ण हवदि णाणमधम्मच्छिओ जं ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णं णाणं, अण्णमधम्मं जिणा विंति।।४२८।।
यूं ही द्रव्य अधर्म कभी नहिं, ज्ञान रूप बन सकता।
वह अधर्म कुछ नहीं जानता, क्योंकि उसे है जड़ता।।
अत: सभी से भिन्न ज्ञान, चेतन का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न अधर्म है, जिनवर ने बतलाया।।४२८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानअधर्मद्रव्ययो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(115)
कालोवि णत्थि णाणं, जह्मा कालो ण याणदे किंचि।
तह्मा ण होदि णाणं, जह्मा कालो अचेदणो णिच्च्ां।।४२९।।
कालद्रव्य भी कभी नहीं, इस ज्ञानमयी बन सकता।
क्योंकि काल कुछ नहीं जानता, उसमें नहिं चेतनता।।
अत: इन्हों से भिन्न ज्ञान, आत्मा गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न काल को, जिनवर ने बतलाया।।४२९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानकालद्रव्ययो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(116)
आयासं पि ण णाणं, ण हवदि जह्मा ण याणदे किंचि।
तह्मा अण्णायासं, अण्णं णाणं जिणा विंति।।४३०।।
इसी तरह आकाश द्रव्य भी, ज्ञान नहीं बन सकता।
वह तो कुछ भी नहीं जानता, क्योंकी उसमें जड़ता।।
अत: सभी से भिन्न ज्ञान, चेतन का गुण कहलाया।
तथा ज्ञान से भिन्न द्रव्य, आकाश सदा बतलाया।।४३०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानआकाशद्रव्ययो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(117)
अज्झवसाणं णाणं, ण हवदि जह्मा अचेदणं णिच्चं।
तह्मा अण्णं णाणं, अज्झवसाणं तहा अण्णं।।४३१।।
उसी तरह से अध्यवसान भी, ज्ञान नहीं बन सकते।
वे तो कुछ भी नहीं जानते, क्योंकि अचेतन रहते।।
अत: सभी से भिन्न ज्ञान, चेतन का गुण कहलाया।
अध्यवसान ज्ञान से है, सर्वदा भिन्न बतलाया।।४३१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानअध्यवसानयो: भेदप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(118)
जह्मा जाणदि णिच्चं, तह्मा जीवो दु जाणदो णाणी।
णाणं च जाणयादो, अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ।।४३२।।
जीव द्रव्य तो सदा जानता, इसीलिए ज्ञायक है।
वह तो ज्ञानी ही रहता, नहिं शेष द्रव्य ज्ञायक हैं।।
ज्ञान भाव तो निज ज्ञायक से, भिन्न नहीं है रहता।
ऐसा जानो हे भव्यात्मन्!, तुझमें ही प्रभु रहता।।४३२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं नित्यज्ञायकस्वभावआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(119)
णाणं सम्मादिट्ठी, दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं।
धम्माधम्मं च तहा, पव्वज्जं अज्झवंति बुहा।।४३३।।
अत: ज्ञान ही सम्यग्दृष्टी, और ज्ञान संयम है।
अंगपूर्वगत सूत्र ज्ञान ही, वह ही द्रव्य धरम है।।
ज्ञान ही निश्चय से अधर्म, दीक्षा भी ज्ञानमयी है।
महा तपस्वी ज्ञानी मुनि ने, मानी विधी यही है।।४३३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्व-ज्ञान-संयम-सूत्रादिरूपज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(120)
अत्ता जस्सअमुत्तो, ण हु सो आहारगो हवदि एवं।
आहारो खलु मुत्तो, जह्मा सो पुग्गलमओ दु।।४३४।।
इस प्रकार जिसने निज आत्मा, को अमूर्त स्वीकारा।
वह निश्चय से ग्रहण नहीं, करता है कभी अहारा।।
पुद्गलमय होने से वह, आहार मूर्त कहलाता।
तब अमूर्त आत्मा वैसे, आहार ग्रहण कर पाता।।४३४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया निराहारिआत्मन: अमूर्तस्वभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(121)
णवि सक्कदि घित्तुं जे, ण मुंचिदुं चेव जं परं दव्वं।
सो कोवि य तस्स गुणो, पाउग्गिय विस्ससो वापि।।४३५।।
मूर्तिक वह आहार सदा, परद्रव्य कहा है जाता।
चेतन आत्मा अत: उसे नहीं, ग्रहण त्यजन कर पाता।।
यह कोई आत्मा का गुण, प्रायोगिक हो सकता है।
अथवा हो वैस्रसिकरूप, आत्मा में ही रहता है।।४३५।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया प्रायोगिकवैस्रसिकगुणसमन्वितआहारग्रहणरूप-
जीवद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(122)
तह्मा दु विसुद्धो चेदा, सो णेव गिण्हदे किंचि।
णेव विमुंचदि किंचिवि, जीवाजीवाण दव्वाणं।।४३६।।
सार यही है जो विशुद्ध, चेतयिता आत्मा रहता।
वह तो जीवाजीव कोई, परद्रव्य ग्रहण नहीं करता।।
इसीलिए उन पर द्रव्यों को, तज भी वैâसे सकता ?
ग्रहण त्यजन का भाव शुद्ध, आत्मा कर ही नहीं सकता।।४३६।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं विशुद्धचेतयितागुणसमन्वितपरद्रव्यग्रहणाभावरूपजीवद्रव्यप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(123)
पाखंडीयलिंगाणि य, गिहलिंगाणि य बहुप्पयाराणि।
घित्तुं वदंति मूढा, लिंगमिणं मोक्खमग्गोत्ति।।४३७।।
पाखंडी जो साधुलिंग, अथवा गृहिलिंग बताए।
बाह्य भेष प्रगटाने वाले, बहु प्रकार दर्शाए।।
उन लिंगों को धारण कर, अज्ञानी ऐसा कहते।
इसी लिंग से मोक्षप्राप्त हो, ऐसा मूढ़ समझते।।४३७।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया मुनिगृहिलिंगरूपमोक्षमार्गप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(124)
ण य होदि मोक्खमग्गो, लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा।
लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंते।।४३८।।
लेकिन श्री गुरु का सम्बोधन, उनको यह बतलाता।
केवल बाह्य लिंग से मुक्ती-मार्ग नहीं मिल पाता।।
देखो श्री अरिहंत देव भी, देह ममत को तजते।
बाह्य लिंग में ममत छोड़, रत्नत्रय को ही भजते।।४३८।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया मुनिगृहिवेषममत्वरहितभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(125)
णवि एस मोक्खमग्गो, पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि।
दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गं जिणा विंति।।४३९।।
पाखंडी मुनिलिंग तथा, गृहिलिंग न शिव का मारग।
सम्यग्दर्शन ज्ञान तथा, चारित्र सदा शिवमारग।।
ऐसा श्री जिनवर ने निज, अनुभव का सार बताया।
द्रव्यवेष धारी मुनियों ने, मोक्ष कभी नहिं पाया।।४३९।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं जिनवचनानुसारेण रत्नत्रयरूपमोक्षमार्गप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(126)
तह्मा जहित्तु लिंगे, सागारणगारिएहिं वा गहिदे।
दंसणणाणचरित्ते, अप्पाणं जुंज मोक्खपहे।।४४०।।
चाहे हों सागार तथा, अनगार लिंग से युत हों।
उन दोनों ही बाह्य लिंग को, धारें ममत सहित हों।।
उन लिंगों को तज रत्नत्रय, में निज को रत कर दो।
कुंदकुंद गुरु समझाते हैं, मुक्ति पथिक तुम बन लो।।४४०।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इस्ो, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं सागार-अनगारगृहीतमोक्षमार्गप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(127)
मोक्खपहे अप्पाणं, ठवेहि चेदयहि झायदि तं चेव।
तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अण्णदव्वेसु।।४४१।।
तू निज आत्मा को मुक्ती, पथ में स्थापन कर ले।
हे भव्यात्मन् ! उसी निजात्मा, का ही ध्यान तू कर ले।।
आत्मानन्द विहारी बनकर, उसका ही अनुभव कर।
तथा अन्य पर द्रव्यों में तू, कभी नहीं विचरण कर।।४४१।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निजात्मध्यानप्रेरकजिनवचनप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(128)
पाखंडीयलिंगेसु व, गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु।
कुव्वंति जे ममित्तं, तेहि ण णादं समयसारं।।४४२।।
पाखंडी लिंगों में या, गृहलिंगों में जो रमते।
उनमें कर करके ममत्व, मिथ्यादृष्टी ही बनते।।
उनके द्वारा समयसार को, नहिं जाना जा सकता।
समयसार का सार तत्त्व-ज्ञानी मुनि ही पा सकता।।४४२।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया मुनिआदिवेषममत्वरहितसमयसारज्ञानप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(129)
ववहारिओ पुण णओ, दोण्णिवि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे।
णिच्छयणओ दु णेच्छदि, मुक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४४३।।
मुनि श्रावक दोनों लिंगों में, मोक्षमार्ग रहता है।
इन दोनों को व्यवहारिक नय, मोक्षपंथ कहता है।।
लेकिन निश्चयनय इन सबको, मोक्षमार्ग नहिं कहता।
वह तो दोनों लिंग विकल्पों, को तज निज में रहता।।४४३।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया मुनिआदिवेषसहितमोक्षमार्गप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(130)
जो समयपाहुडमिणं, पठिदूण य अत्थतच्चदो णादुं।
अत्थे ठाहिदि चेदा, सो पावदि उत्तमं सोक्खं।।४४४।।
जो प्राणी इस समयसार को, पढ़कर ज्ञान लहेगा।
अर्थ तत्त्व से जान इसे, भावों से ग्रहण करेगा।।
वह ही पठन ग्रहण का फल, उत्तम सुख प्राप्त करेगा।
वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, यति इस रूप बनेगा।।४४४।।
दोहा- सर्व विशुद्धज्ञानमय, है दशवाँ अधिकार।
अर्घ्य समर्पित कर इसे, मिले ज्ञान का सार।।
ॐ ह्रीं परमोत्तमसौख्यस्वभावसहितसमयप्राभृतस्वाध्यायफलप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
मोक्ष व सर्वविशुद्ध ज्ञान, अधिकार नवम अरु दशवें हैं।
इन दोनों अधिकारों को, पूर्णार्घ्य यहाँ पर अर्पूं मैं।।
कुन्दकुन्द आचार्यप्रवर ने, भेद ज्ञान बतलाया है।
उसको पढ़ पूर्णार्घ्य चढ़ाने, भक्त पुजारी आया है।।
ॐ ह्रीं समयसारग्रन्थस्य मोक्ष-सर्वविशुद्धज्ञाननामद्वयधिकारयो: वर्णित
सर्वगाथासूत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकश्रीसमयसारग्रंथाय नम:।
तर्ज – सजधज कर………।
श्री समयसार की पूजन कर, जयमाला गायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।टेक.।।
जिनशास्त्र का स्वाध्याय, शिवपथ को दिखाएगा।
उस पर करे जो आचरण, मुनिवर बन जाएगा।।
जब तक मुनिवर नहिं बन सकें, मुनि के गुण गायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।१।।
बंधक पुरुष जब बंधनों से, छूटना चाहे।
समझो तभी वह मुक्तिपथ में, बढ़ रहा आगे।।
पढ़ करके प्रकरण मोक्ष का, शुद्धातम ध्याएंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।२।।
अपराध जो करता नहीं, नि:शंक होता है।
त्रय रत्न की आराधना में, लीन होता है।।
प्रतिक्रमण आदि को करके भी, सब दोष नशायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।३।।
निज आत्मा का जो कर्मों के, संग बंधन है।
अज्ञान की महिमा इसे, कहते जिन आगम हैं।।
ज्ञानार्जन करके शास्त्रों का, ज्ञानी बन जायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।४।।
अधिकार सर्वविशुद्ध ज्ञान का, अन्त में कहा।
जिस ज्ञान को पा जिनवरों ने, शुद्ध पद लहा।।
‘चन्दनामती’ उस पद को हम भी, क्रम से पायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।५।।
पूर्णार्घ्य अर्पण कर उभय, अधिकारों को नमन।
सम्पूर्ण गाथा सूत्रों को, शत शत करें वन्दन।।
श्री कुन्दकुन्द सूरीवर के, गुण को हम गायेंगे।
सच्चे मन से हम अर्घ्य चढ़ा, ज्ञानामृत पायेंगे।।६।।
ॐ ह्रीं मोक्षाधिकारसर्वविशुद्धज्ञानाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारमहाग्रंथाय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।