(तर्ज-माता तू दया करके……..)
गुरुवर तेरी पूजा ही, मुझे पूज्य बनाएगी।
तेरी सौम्य सहज मुद्रा, मेरे मन में समाएगी।।
हे कुन्दकुन्द स्वामी, तव आत्मा कुन्दन है।
हे पद्मनन्दि स्वामी, तुमको मम वन्दन है।।
यह पादवन्दना ही, मनकलियाँ खिलाएगी।
गुरुवर तेरी पूजा ही, मुझे पूज्य बनाएगी।।१।।
आह्वानन करके प्रभो, तुझे मन में बिठाऊँ मैं।
पावन मन करके गुरो, अब पूजा रचाऊँ मैं।।
नैया तेरी भक्ती से, भवदधि तिर जाएगी।
गुरुवर तेरी पूजा ही, मुझे पूज्य बनाएगी।।२।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यप्रवर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यप्रवर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यप्रवर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
-अष्टक (शंभु छंद)-
जग के स्वादिष्ट रसों को भी, पीने से तृषा न शान्त हुई।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी से, वह तृष्णा कुछ उपशांत हुई।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।१।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन का लेपन बहुत किया, पर मन का ताप न शान्त हुआ।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी से, अब वह भी कुछ उपशान्त हुआ।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।२।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षत विक्षत आतम का उपवन, नहिं अक्षय पद को प्राप्त हुआ।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी का, अब उस पर बहुत प्रभाव हुआ।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।३।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय विषयों की सौरभ ने, सारे जग को भरमाया है।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी से, अब कुछ विराग मन भाया है।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।४।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
मीठे नमकीन व्यंजनों को, खाकर भी क्षुधा सताती है।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी से, वह भूख स्वयं नश जाती है।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।५।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन की विद्युत तो चंचल है, मन में न उजाला कर सकती।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी ही, मन में उजियारा भर सकती।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।६।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूपों की गंध ग्रहण करने, को घ्राणेन्द्रिय की आदत है।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी का, हे भव्य! करो तुम स्वागत है।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।७।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम फल खाकर के भी मेरे, मन की तृप्ती नहीं हुई।
प्रभु कुन्दकुन्द की वाणी सुन, मेरे मन में संतृप्ति हुई।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।८।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों द्रव्यों की सामग्री से, अर्घ्य बनाया जाता है।
प्रभु कुन्दकुन्द की पूजा करके, फल अनर्घ्य मिल जाता है।।
हे योगीश्वर तव चरणों में, बस यही प्रार्थना है मेरी।
तुम सम ही ज्ञान मिले मुझको, बस यही कामना है मेरी।।९।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-तीन रत्न धारी गुरू, के पद में त्रय बार।
शान्तीधारा मैं करूँ, होवे शान्ति अपार।।
शान्तये शांतिधारा।
कुन्द पुष्प की माल ले, पूजन करूँ महान।
बारह विध तप धार के, पा जाऊँ कुछ ज्ञान।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभुछंद-
श्री देव शास्त्र गुरु तीन रत्न, जिनवरशासन में माने हैं।
ये सम्यव्âदर्शनज्ञान और, चारित्र को देने वाले हैं।।
अरिहन्त सिद्ध हैं देव कहे, जिनने कर्मों का नाश किया।
अरिहन्त कथित जिनवाणी को ही, परम्परा से शास्त्र कहा।।१।।
गुरुदेव तीसरे रत्न कहे, इन महिमा का क्या कथन करूँ।
श्री कुन्दकुन्द गुरु के चरणों में, श्रद्धा से मैं नमन करूँ।।
अन्तिम श्रुतकेवलि भद्रबाहु की, परम्परा में कुन्दकुन्द।
कलिकाल के ये सर्वज्ञ हुए, इन अपरनाम है पद्मनन्दि।।२।।
श्री वक्रग्रीव अरु गृद्धपिच्छ, एवं श्रीएलाचार्य कहे।
इन पाँचों नामों से संयुत, श्रीकुन्दकुन्द आचार्य हुए।।
निज संघ सहित गिरनार गिरी, वन्दनकर धर्म प्रसार किया।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर पंथ सत्य, यह धरती पर साकार किया।।३।।
आध्यात्मिक तप की वृद्धि से, चारणऋद्धी को प्राप्त किया।
फिर क्षेत्र विदेह में सीमंधर की, दिव्यध्वनि का पान किया।।
साहित्य जगत में कुन्दकुन्द, स्वामी का नाम प्रसिद्ध हुआ।
चौरासी पाहुड़, षट्खण्डागम, टीका का भी सृजन किया।।४।।
दशभक्ति, अष्टपाहुड़, पंचास्तिकाय व द्वादश अनुप्रेक्षा।
है समयसार अध्यात्म ग्रंथ, प्रवचनसारादिक को भी रचा।।
शुभ नियमसार अरु रयणस्ाार, मुनियों का मूलाचार रचा।
इक कुरलकाव्य है काव्य महा, जिसमें कवियों का मान रखा।।५।।
इनमें कुछ ही उपलब्ध आज, हो रहे जिनागम हम सबको।
जिनको पढ़कर के तत्त्व ज्ञान भी, प्राप्त हो रहा हम सबको।।
आचार्य प्रवर तो चले गए, उनकी यशगाथा जीवित है।
दो सहस्र वर्ष के बाद आज भी, उनके गुण की कीमत है।।६।।
गुरुदेव! तुम्हारे गुणमणि की, जयमाल गूँथकर लाए हैं।
हे कुन्दकुन्द स्वामी! पूजन का, थाल सजा हम लाए हैं।।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की, शिष्या इक ‘चन्दनामती’।
तुम गुणकीर्तन करते-करते, वह चाहे बस इक सिद्धगती।।७।।
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
मंगलमय श्री वीर हैं, मंगल गणधर देव।
कुन्दकुन्द मंगल करें, मंगल धर्म सदैव।। १।।
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।२।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।