-शंभु छंद-
जिनने रत्नत्रय धारण कर, परमेष्ठी का पद प्राप्त किया।
अर्हंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय, साधु का पद स्वीकार किया।।
इन पाँचों परमेष्ठी के, श्रीचरणों में मेरा वंदन है।
रत्नत्रय की प्राप्ती हेतू, रत्नत्रय को भी वंदन है।।१।।
रत्नत्रय के धारक श्री चारितचक्रवर्ती गुरु को वंदन।
बीसवीं सदी के प्रथम सूर्य, आचार्य शांतिसागर को नमन।।
श्री वीरसागराचार्य प्रथम, जो पट्टाचार्य उन्हें वंदन।
उनकी शिष्या हैं ज्ञानमती जी, गणिनीप्रमुख उन्हें वन्दन।।२।।
रत्नत्रय की इन प्रतिमाओं के, वरदहस्त को मैं चाहूँ।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञानचरण की, स्वयं पूर्णता पा जाऊँ।।
रत्नत्रय व्रत का यह विधान, रचने की मन भावना जगी।
फिर सकल-विकल रत्नत्रय आराधक की आराधना सजी।।३।।
यूँ तो यथाशक्ति रत्नत्रय, पालन सब कर सकते हैं।
लेकिन रत्नत्रय का व्रत बिरले, मानव ही कर सकते हैं।।
चैत्र भाद्रपद माघ मास में, रत्नत्रयव्रत आता है।
शुक्ल द्वादशी से एकम् तक, इसे मनाया जाता है।।४।।
तीन दिवस उपवास तथा, दो दिन एकाशन जो करते।
वे उत्कृष्ट१ रूप में रत्नत्रय व्रत का पालन करते।।
पाँच दिवस एकाशन करना, मध्यम२ व्रत कहलाता है।
तीन दिवस एकाशन करना, व्रत जघन्य३ बन जाता है।।५।।
रत्नत्रय व्रत के उद्यापन में, इस विधान को करते हैं।
रत्नत्रय की वृद्धी हेतू, स्वाध्याय ध्यान को करते हैं।।
रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना, मुनियों में साकार कही।
रत्नत्रय की मध्यम जघन्य, साधना श्रावकों में भी कही।।६।।
रत्नत्रय का मण्डल विधान, हम सबको रत्नत्रय देवे।
मिथ्यात्व सहित संसार भ्रमण का, अन्त हमारा कर देवे।।
यह अभिलाषा ‘‘चन्दनामती’’, लेकर विधान प्रारंभ करो।
रत्नत्रय की जय-जयकारों से, शुभ कर्मों का बंध करो।।७।।
-दोहा-
रत्नत्रय के मार्ग पर, चलते रहो सदैव।
पा जाओगे एक दिन, शाश्वत सुख हे जीव!।।८।।
मण्डल पर पुष्पांजली, करो करावो भव्य।
पूजन को प्रारंभ कर, पाओ निजसुख नव्य।।९।।
।।अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।