मंगलाचरण
सिद्धान् सर्वान् नमस्कृत्य, सिद्धस्थानं जिनेशिनाम्।
पूज्यं सम्मेदशैलेन्द्रं, भक्त्या संस्तौमि सिद्धये।।१।।
विंशतितीर्थकर्तार:, कूटेषु विंशतौ शिवम्।
असंख्ययोगिनश्चापि, जग्मु: सर्वान्नमाम्यहम्।।२।।
सिद्धों को कर नमस्कार, सम्मेदगिरीन्द्र स्तवन करूँ।
सिद्धभूमि के वंदन से कटु, कर्मकाष्ठ को दहन करूँ।।
बीस कूट पर बीस जिनेश्वर, और असंख्य महामुनिगण।
उनको वंदूँ भक्ती से जो, सिद्धवधू को किया वरण।।
।।इति श्री जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय जिनप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
-अथ स्थापना- शंभु छन्द-
गिरिवर सम्मेदशिखर पावन, श्रीसिद्धक्षेत्र मुनिगण वंदित।
सब तीर्थंकर इस ही गिरि से, होते हैं मुक्तिवधू अधिपति।।
मुनिगण असंख्य इस पर्वत से, निर्वाण धाम को प्राप्त हुए।
आगे भी तीर्थंकर मुनिगण का, शिवथल यह मुनिनाथ कहें।।१।।
-दोहा-
सिद्धिवधू प्रिय तीर्थकर, मुनिगण तीरथराज।
आह्वानन कर मैं जजूँ, मिले सिद्धिसाम्राज्य।।२।।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
चाल-नन्दीश्वर पूजा
भव-भव में शीतल नीर, जी भर खूब पिया।
नहिं मिटी तृषा की पीर, आखिर ऊब गया।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।१।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-भव में त्रयविध ताप, अतिशय दाह करे।
चंदन से पूजत आप, अतिशय शांति भरे।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।२।।
ॐ ह्रीं वशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ! सर्वसुखहेतु, सबकी शरण लिया।
अब अक्षय सुख के हेतु, तुम पद पुंज किया।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।३।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु वर्ण वर्ण के फूल, चरण चढ़ाऊँ मैं।
मिल जाये भवदधिकूल, समसुख पाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।४।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी पेड़ा पकवान, नित्य चढ़ाऊँ मैं।
हो क्षुधा व्याधि की हान, निजसुख पाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।५।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूरज्योति उद्योत, आरति करते ही।
हो ज्ञानज्योति उद्योत, भ्रम तम विनशे ही।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।६।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूप अग्नि में खेय, कर्म जलाऊँ मैं।
जिनपद पंकज को सेय, सौख्य बढ़ाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।७।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
लेकर बहुफल की आश, बहुत कुदेव जजे।
अब एक मोक्षफल आश, फल से तीर्थ जजें।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।८।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वर अर्घ रजत के फूल, लेकर नित्य जजूँ।
होवे त्रिभुवन अनुकूल, तीरथराज जजूँ।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।९।।
ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकर-असंख्यमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
झरने का अतिशीत जल, शांतीधार करंत।
त्रिभुवन में हो सुख अमल, सर्वशांति विलसंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब ले, तीर्थराज को नित्य।
पुष्पांजली चढ़ावते, मिले सर्वसुख इत्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-सोरठा-
तीर्थराज सुर वंद्य, पूजत निज सुख संपदा।
मिले ज्ञान आनंद, पुष्पांजलि कर मैं जजूँ।।१।।
(इति मण्डलस्योपरि पंचविंशतितमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
-शंभु छंद-
श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं।।
इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी।
निर्वाण गये सबको पूजूँ, मैं पाऊँ निज चैतन्यमणी।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, अनुक्रम से निज राज्य।।१।।
ॐ ह्रीं सिद्धवरकूटात् सद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धवल कूट नं. 2
श्री संभव जिनवर धवलकूट से, हजार मुनिसह मोक्ष गये।
इससे नौ कोड़िकोड़ि बाहत्तर, लाख बयालिस हजार ये।।
पुनि पाँच शतक मुनिराज सर्व, निर्वाण धाम को प्राप्त किये।
इन सबके चरण कमल पूजूँ, निज ज्ञानज्योति हो प्रगट हिये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
ब्यालिस लाख उपवास फल, अनुक्रम से शिवराज्य।।२।।
ॐ ह्रीं धवलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित सम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनन्द कूट नं. 3
अभिनंदन जिन आनंद कूट से, हजार मुनिसह सिद्ध बने।
बाहत्तर कोड़िकोड़ि सत्तर, कोटी मुनि सत्तर लाख भने।।
ब्यालीस सहस अरु सातशतक, मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे हैं।
इन सबके चरण कमल वंदूँ, ये सबको भवदधि तारे हैं।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक लाख उपवास फल, मिले स्वात्म सुख नित्य।।३।।
ॐ ह्रीं आनन्दकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अविचल कूट नं. 4
श्री सुमतिनाथ अविचल सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये।
इक कोड़िकोड़ि चौरासि कोटि, बाहत्तर लाख महामुनि ये।।
इक्यासी सहस सात सौ, इक्यासी मुनि इससे मोक्ष गये।
इन सबके चरण कमल पूजूँ, हो शांति अलौकिक प्रभो ! हिये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि बत्तीस लख, मिले सुफल उपवास।।४।।
ॐ ह्रीं अविचलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित सुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहन कूट नं. 5
श्री पद्मप्रभू मोहन सुकूट से, तीन शतक चौबिस मुनि सह।
निर्वाण पधारे आत्मसुधारस, पीते मुक्तिवल्लभा सह।।
इससे निन्यानवे कोटि सत्यासी, लाख तेतालिस सहस तथा।
मुनि सात शतक सत्ताइस सब, शिव पहुँचे पूजत हरूँ व्यथा।।
-दोहा-
जो वंदें इस टोंक को, स्वर्ग मोक्ष फल लेय।
एक कोटि उपवास फल, तत्क्षण उन्हें मिलेय।।५।।
ॐ ह्रीं मोहनकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभास कूट नं. 6
जिनवर सुपार्श्व सुप्रभासकूट से, पाँच शतक मुनि साथ लिए।
उनचास कोटिकोटि चौरासी, कोटि सुबत्तिस लाख सु ये।।
मुनि सात सहस सात सौ ब्यालिस, कर्मनाश शिवनारि वरी।
मैं सबके चरण कमल पूजूँ, मेरी होवे शुभ पुण्य घड़ी।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, मिले मोक्ष सुख राज्य।।६।।
ॐ ह्रीं प्रभासकूटात्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ललित कूट नं. 7
श्री चंद्रनाथ जिन ललितकूट से, सहस मुनी सह मोक्ष गए।
इससे नव सौ चौरासि अरब, बाहत्तर कोटि अस्सि लख ये।।
चौरासि हजार पाँच सौ पंचानवे, साधुगण सिद्ध हुए।
इनके चरणों में बार-बार, प्रणमूँ शिवसुख की आश लिए।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे लाख उपवास फल, मिले सरें सब काज।।७।।
ॐ ह्रीं ललितकूटात्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुप्रभ कूट नं. 8
श्री पुष्पदंत सुप्रभ सुकूट से, सहस साधु सह सिद्ध हुये।
इससे ही इक कोड़ाकोड़ी, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।
पुनि सात सहस चार सौ अस्सी, मुनी मोक्ष को पाए हैं।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर के, ये गुण अनंत निज पाए हैं।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदें कर जोड़।
एक कोटि उपवास फल, लहें विघ्न घनतोड़।।८।।
ॐ ह्रीं सुप्रभकूटात्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत्वर कूट नं. 9
श्री शीतलजिन विद्युत् सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये।
इससे अठरा कोड़ाकोड़ी, ब्यालीस कोटी साधु गये।।
बत्तीस लाख ब्यालिस हजार, नव शतक पाँच मुनि मोक्ष गये।
इनके चरणारविंद पूजूँ, परमानंद सुख की आश लिये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से निज साम्राज्य।।९।।
ॐ ह्रीं विद्युत्वरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित शीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संकुल कूट नं. 10
श्रेयांस प्रभू संकुल सुकूट से, एक सहस मुनि के साथे।
निर्वाण पधारे परम सौख्य को, प्राप्त किया भवरिपु घाते।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, छ्यानवे कोटि छ्यानवे लक्ष।
नव सहस पाँच सौ ब्यालिस मुनि, शिव गये जजूँ कर चित्त स्वच्छ।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, मिले पुन: शिवराज।।१०।।
ॐ ह्रीं संकुलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवीर कूट नं. 11
श्री विमल जिनेंद्र सुवीर कूट से, छह सौ मुनि सह सिद्ध हुए।
इससे सत्तर कोड़ाकोड़ी अरु, साठ लाख छह सहस हुए।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबके चरण कमल पूजूँ, मेरे सब कारज सिद्ध भये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।११।।
ॐ ह्रीं सुवीरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित विमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
स्वयंभू कूट नं. 12
वर कूट स्वयंभू से अनंत जिन, निज अनंत पद प्राप्त किया।
उन साथ सात हज्जार साधु ने, कर्मनाश निज राज्य लिया।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, सत्तर करोड़ मुनि मोक्ष गये।
पुनि सत्तर लख सत्तर हजार, अरु सात शतक मुनि मुक्त भये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
नव करोड़ उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।१२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभूकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुदत्त कूट नं. 13
श्री धर्मनाथ जिन सुदत्त कूट से, कर्मनाश कर मोक्ष गये।
उनके साथ आठ सौ इक मुनि, पूर्ण सौख्य पा मुक्त भये ।।
उससे उनतिस कोड़ाकोड़ी, उन्निस कोटी साधू पूजूँ।
नौ लाख नौ सहस सात शतक, पंचानवे मुक्त गये पूजूँ।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से अनुपम रिद्धि।।१३।।
ॐ ह्रीं सुदत्तकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद प्रभ कूट नं. 14
श्री शांतिनाथ जिन कुंद कूट से, नव सौ मुनि सह मुक्ति गये।
नव कोटि कोटि नव लाख तथा, नव सहस व नौ सौ निन्यानवे।।
इस ही सुकूट से मोक्ष गये, इन सबके चरण कमल वंदूँ।
प्रभु दीजे परम शांति मुझको, मैं शीघ्र कर्म अरि को खंडूँ।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, मिले ज्ञान सुख नित्य।।१४।।
ॐ ह्रीं कुंदप्रभकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहितशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानधर कूट नं. 15
-शंभु छन्द-
श्री कुंथुनाथ जिन कूट ज्ञानधर, से निर्वाण पधारे हैं।
उन साथ में इक हजार साधू, सब कर्मनाश गुण धारे हैं।।
इससे छ्यानवे कोड़ाकोड़ी, छ्यानवे कोटि बत्तीस लाख।
छ्यानवे सहस सात सौ ब्यालिस, शिव पहुँचे मुनि पूजूँ आज।।
-दोहा–
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदे सिर नाय।
एक कोटि उपवास फल, लहे स्वात्मनिधि पाय।।१५।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित कुंथुनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाटक कूट नं. 16
श्री अरहनाथ नाटक सुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इस ही से निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।
नव सौ निन्यानवे सर्व साधु, निर्वाण पधारे पूजूँ मैं।
सम्यक्त्व कली को विकसित कर, संपूर्ण दुःखों से छूटूँ मैं।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे कोटि उपवास फल, पाय लहँ निजराज।।१६।।
ॐ ह्रीं नाटककूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित अरनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संबल कूट नं. 17
श्री मल्लिनाथ संबल सुकूट से, मोक्ष गये सब कर्म हने।
मुनि पाँच शतक प्रभु साथ मुक्ति को, प्राप्त किया गुण पाय घने।।
इस ही से छ्यानवे कोटि महामुनि, सर्व अघाती घाता था।
मैं परमानंदामृत हेतू, इन पूजूँ गाऊँ गुण गाथा।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
एक कोटि प्रोषधमयी, फल उपवास जु सार।।१७।।
ॐ ह्रीं संबलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित मल्लिनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्जर कूट नं. 18
श्री मुनिसुव्रत निर्जरसुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इससे निन्यानवे कोटिकोटि, सत्यानवे कोटि महामुनि ये।।
नौ लख नौ सौ निन्यानवे सब, मुनिराज मोक्ष को प्राप्त हुये।
हम इनके चरणों को पूजें, निज समतारस पीयूष पियें।।
-दोहा-
कोटि प्रोषध उपवास फल, टोंक वंदते जान।
क्रम से सब सुख पायके, अंत लहें निर्वाण।।१८।।
ॐ ह्रीं निर्जरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित मुनिसुव्रतनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मित्रधर कूट नं. 19
-दोहा-
नमिजिनवर कूट मित्रधर से, इक सहस साधु सह मुक्ति गये।
इससे नव सौ कोड़ाकोड़ी, इक अरब लाख पैंतालिस ये।।
मुनि सात सहस नौ सौ ब्यालिस, सब सिद्ध हुए उनको पूजूँ।
निज आत्म सुधारस पान करूँ, दुःख दारिद संकट से छूटूँ।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करें वंदना भव्य।
एक कोटि उपवास फल, लहें नित्य सुख नव्य।।१९।।
ॐ ह्रीं मित्रधरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित नमिनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवर्णभद्र कूट नं. 20
श्री पार्श्व सुवर्णभद्र कूट से, छत्तिस मुनि सह मुक्ति गये।
इससे ही ब्यासी कोटि चुरासी, लाख सहस पैंतालिस ये।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबको पूजूँ भक्ती से, इससे मनवांछित पूर्ण भये।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
सोलह कोटि उपवास फल, मिले भवोदधि पार।।२०।।
ॐ ह्रीं सुवर्णभद्रकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित पार्श्वनाथजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभदेव भगवान की टोंक नं. 21
-शेर छंद-
वैलाशगिरि से ऋषभदेव मुक्ति पधारे।
उन साथ मुनि दस हजार मोक्ष सिधारे।।
मैं बार बार प्रभूपाद वंदना करूँ।
निजात्म तत्त्व ज्ञानज्योति से हृदय भरूँं।।२१।।
ॐ ह्रीं वैलाशपर्वतात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित ऋषभदेवजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य भगवान की टोंक नं. 22
चंपापुरी से वासुपूज्य मोक्ष गये हैं।
उन साथ छह सौ एक साधु मुक्त भये हैं।।
इनके पदारविंद को मैं भक्ति से नमूँ।
निज सौख्य अतीन्द्रिय लहूँ संसार सुख वमूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं चंपापुरीक्षेत्रात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित वासुपूज्यजनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ भगवान की टोेंक नं. 23
गिरनार से नेमी प्रभू निर्वाण गये हैं।
शंबू प्रद्युम्न आदि मुनी मुक्त भए हैं।।
ये कोटि बाहत्तर व सात सौ मुनी कहे।
इन सबकी वंदना करूँ ये सौख्यप्रद कहे।।२३।।
ॐ ह्रीं ऊर्जयंतगिरिक्षेत्रात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित नेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवान महावीर की टोंक नं. 24
पावापुरी सरोवर से वीरप्रभू जी।
निज आत्म सौख्य पाया निर्वाण गये जी।।
इनके चरणकमल की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण रोग दुःख की मैं खंडना करूँ।।२४।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसरोवरात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर कूट नं. 35
चौबीस जिनेश्वर के गणीश्वर उन्हें जजूँ।
चौदह शतक उनसठ१ कहे उन सबको मैं भजूँ।।
ये सर्व ऋद्धिनाथ रिद्धि सिद्धि प्रदाता।
मैं अर्घ चढ़ाके जजूँ ये मुक्ति प्रदाता।।२५।।
ॐ ह्रीं वृषभसेनादिगौतमान्त्य सर्वगणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छन्द)-
नंदीश्वर द्वीप बना कृत्रिम, उसमें बावन जिनमंदिर हैं।
इनमें जिनप्रतिमाएँ मनहर, उनकी पूजा सब सुखकर है।।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर के, संसार भ्रमण का नाश करूँ।
निज आत्म सुधारस पी करके, निज में ही स्वस्थ निवास करूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर का शुभ समवसरण, अतिशायी सुंदर शोभ रहा।
श्री गंधकुटी में तीर्थंकर प्रभु, राज रहें मन मोह रहा।।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, तीर्थंकर को जिनबिंबों को।
सब रोग शोक दारिद्र हरूँ, पा जाऊँ निज गुणरत्नों को।।२७।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थितसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ-शंभु छन्द-
गिरिवर सम्मेदशिखर से ही, अजितादि बीस तीर्थंकर जिन।
निज के अनन्त गुण प्राप्त किये, मैं उन्हें नमूँ पूूजूँ निशदिन।।
यह ही अनादि अनिधन चौबीसों, जिनवर की निर्वाणभूमि।
मुनि संख्यातीत मुक्तिथल हैं, पूजत मिलती निर्वाणभूमि।।१।।
ॐ ह्रीं त्रैकालिक सर्वतीर्थंकरमुनिगणसिद्धपदप्राप्तसम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-१. ॐ ह्रीं तीर्थंकरनिर्वाणकल्याणकपवित्रसम्मेदशिखरतीर्थक्षेत्राय नम:।
२. ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतानंतप्रमसिद्धेभ्यो नमो नम:।
(कोई भी एक मंत्र जपें)
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिन्मय ज्योतीपुंज।
गाऊँ गुणमणिमालिका, चिन्मय आतमकुंज।।१।।
-शंभु छन्द-
जय जय सम्मेदशिखर पर्वत, जय जय अतिशय महिमाशाली।
जय अनुपम तीर्थराज पर्वत, जय भव्य कमल दीधितमाली।।
जय कूट सिद्धवर धवलकूट, आनंदकूट अविचलसुकूट।
जय मोहनकूट प्रभासकूट, जय ललितकूट जय सुप्रभकूट।।२।।
जय विद्युत संकुलकूट सुवीरकूट स्वयंभूकूट वंद्य।
जय जय सुदत्तकूट शांतिप्रभ, कूट ज्ञानधरकूट वंद्य।।
जय नाटक संबलकूट व निर्जर, कूट मित्रधरकूट वंद्य।
जय पार्श्वनाथ निर्वाणभूमि, जय सुवरणभद्र सुकूट वंद्य।।३।।
जय अजितनाथ संभव अभिनंदन, सुमति पद्मप्रभ जिन सुपार्श्व।
चंदाप्रभु पुष्पदंत शीतल, श्रेयांस विमल व अनंतनाथ।।
जय धर्म शांति कुंथू अरजिन, जय मल्लिनाथ मुनिसुव्रत जी।
जय नमि जिन पार्श्वनाथ स्वामी, इस गिरि से पाई शिवपदवी।।४।।
वैâलाशगिरी से ऋषभदेव, श्री वासुपूज्य चंपापुरि से।
गिरनारगिरी से नेमिनाथ, महावीर प्रभू पावापुरि से।।
निर्वाण पधारे चउ जिनवर, ये तीर्थ सुरासुर वंद्य हुए।
हुंडावसर्पिणी के निमित्त ये, अन्यस्थल से मुक्त हुए।।५।।
जय जय वैâलाशगिरी चंपा, पावापुरि ऊर्जयंत पर्वत।
जय जय तीर्थंकर के निर्वाणों, से पवित्र यतिनुत पर्वत।।
जय जय चौबीस जिनेश्वर के, चौदह सौ उनसठ गुरु गणधर।
जय जय जय वृषभसेन आदी, जय जय गौतम स्वामी गुरुवर।।६।।
सम्मेदशिखर पर्वत उत्तम, मुनिवृंद वंदना करते हैं।
सुरपति नरपति खगपति पूजें, भविवृंद अर्चना करते हैं।।
पर्वत पर चढ़कर टोेंक-टोंक पर, शीश झुकाकर नमते हैं।
मिथ्यात्व अचल शतखंड करें, सम्यक्त्वरत्न को लभते हैं।।७।।
इस पर्वत की महिमा अचिन्त्य, भव्यों को ही दर्शन मिलते।
जो वंदन करते भक्ती से, कुछ भव में ही शिवसुख लभते।।
बस अधिक उनंचास भव धर, निश्चित ही मुक्ती पाते हैं।
वंदन से नरक पशूगति से, बचते निगोद नहिं जाते हैं।।८।।
दस लाख व्यंतरों का अधिपति, भूतकसुर इस गिरि का रक्षक।
यह यक्षदेव जिनभाक्तिकजन, वत्सल है जिनवृष का रक्षक।।
जो जन अभव्य हैं इस पर्वत का, वंदन नहिं कर सकते हैं।
मुक्तीगामी निजसुख इच्छुक, जन ही दर्शन कर सकते हैं।।९।।
यह कल्पवृक्ष सम वांछितप्रद, चिंतामणि चिंतित फल देता।
पारसमणि भविजन लोहे को, कंचन क्या पारस कर देता।।
यह आत्म सुधारस गंगा है, समरस सुखमय शीतल जलयुत।
यह परमानंद सौख्य सागर, यह गुण अनंतप्रद त्रिभुवन नुत।।१०।।
मैं नमूँ नमूँ इस पर्वत को, यह तीर्थराज है त्रिभुवन में।
इसकी भक्ती निर्झरणी में, स्नान करूँ अघ धो लूँ मैं।।
अद्भुत अनंत निज शांती को, पाकर निज में विश्राम करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ ज्योती पाकर, अज्ञान तिमिर अवसान करूँ।।।११।।
-दोहा-
नमूँ नमूँ सम्मेदगिरि, करूँ मोह अरि विद्ध।
मृत्युंजय पद प्राप्त कर, वरूँ सर्वसुख सिद्धि।।१२।।
ॐ ह्रीं त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरमुनिगणसिद्धपदप्राप्तसम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-अनुष्टुप छंद-
सर्वान् सिद्धान् नमस्कुर्वे, स्वसंवेदनसिद्धये।
मनसा वपुषा वाचा, संततं भक्तिभावत:।।१।।
भरतेऽस्मिन्नयं मुक्त्यै, तीर्थेशां शाश्वतो गिरि:।
कालदोषाच्चतुस्तीर्थं-करा: सिद्धा: पृथक् पृथक्।।२।।
एतस्यामवसर्पिण्या-मस्मिन् शैले शिवं ययु:।
यावन्तोऽपि जनास्तेषां, जिनै: संख्या उदीरिता:।।३।।
उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योऽनंतातीतासु येऽत्र वै।
तीर्थंकरा मुनींद्राश्चा-नंता मुक्ता नमामि तान्।।४।।
भाविकाले तथानन्तास्तीर्थंकराश्च योगिन:।
अस्मात्सिद्धिं प्रयास्यंति, तान् सर्वान्नौम्यहं मुदा।।५।।
अनाद्यनिधनस्यास्य, माहात्म्यं केन वर्ण्यते।
भव्या एव प्रवंदंते, नाभव्यैर्वंद्यते कदा।।६।।
एकेन्द्रियादयो जीवा, उत्पद्यंतेऽत्र येऽपि ते।
सर्वे भव्या जिनै: प्रोक्तं, कदापि नान्यथा भवेत्।।७।।
अस्य वन्दनयासंख्यो-पवासानां फलं भवेत्।
किमन्यैर्जल्पनैर्यद्धि, निर्वाणसौख्यमश्नुते।।८।।
श्रुतभृतो मुनीन्द्राश्च, सिद्धा अगणितोऽन्यत:।
भूशैलाब्ध्यादिक्षेत्रेभ्य:, सिद्धान् क्षेत्राणि च स्तुवे।।९।।
द्वीपे सार्धद्वये यत्रा-र्हद्गणभृद् यतीश्वरा:।
सिद्धा: सिध्यंति सेत्स्यंति, तान् तत्क्षेत्राणि च स्तुवे।।१०।।
पंचकल्याणमेदिन्य:, सातिशयस्थलानि च।
वंदे कृताकृतांश्चापि, जिनचैत्यजिनालयान्।।११।।
पंचमहागुरून् वागी-श्वरीं प्राक्सूरियोगिन:।
अन्वायातान् मुनींद्रांश्च, स्तौमि स्वात्मोपलब्धये।।१२।।
श्रीवीरसागराचार्यं, महाव्रतप्रदायिनं।
तमनुसूरिसाधूंश्च, वन्दे समाधिसिद्धये।।१३।।
क्षेत्रस्य वन्दनास्तोत्रै-र्दग्ध्वा पापानि शुद्धधी:।
सम्यग् ‘‘ज्ञानमति’’ ध्यान-संपत्त्या सिद्धिमाप्नुयाम्।।१४।।
सब सिद्धों को नमूँ सदा, निज संवेदन सिद्धी हेतू।
मन वच तन से भक्ति भाव से, ये सब भववारिधि सेतू।।१।।
इस भरत क्षेत्र में चौबिस, तीर्थंकर का मुक्त क्षेत्र शाश्वत।
गिरि सम्मेदशिखर ही काल-दोष से ये शिव गये पृथक्।।२।।
इस अवसर्पिणी युग में श्री-सम्मेदशिखर शुभ पर्वत से।
सिद्ध हुए उनकी गणना हो, गयी वीर प्रभू की ध्वनि से।।३।।
अनन्त उत्सर्पिणि-अवसर्पिणि में अनंत तीर्थंकर मुक्त।
इस पर्वत से हुए अनंत मुनि-गण भी उनको नमूँ सतत।।४।।
तथा भविष्यत् में अनन्त, तीर्थंकर अनंत भी मुनिगण।
इस पर्वत से सिद्ध बनेंगे, उन सबको नित प्रति प्रणमन।।५।।
सिद्धशैल इस अनादि-अनिधन, की महिमा नहिं कह सकते।
भव्य जीव ही दर्शन पाते, नहिं अभव्य को मिल सकते।।६।।
यहाँ पर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव जितने।
जन्म धारते हैं जिनवर ने, भव्यराशि में कहा उन्हें।।७।।
असंख्य उपवासों का फल, इस पर्वत वंदन से मिलता।
अधिक और क्या जब त्रिभुवन, साम्राज्य सौख्य निश्चित मिलता।।८।।
श्रुतधर मुनिगण अगणित अन्यत-भू-पर्वत नद्यादिक से।
मुक्तधाम को प्राप्त हुए हैं, मुक्ति हेतु वंदूँ रुचि से।।९।।
ढाई द्वीप में जहाँ जहाँ से, तीर्थंकर गणधर मुनिगण।
सिद्ध हुए, होते हैं, होंगे, उन्हें उन क्षेत्रों को भी नमन।।१०।।
तथा पंचकल्याणक क्षेत्रों, को अतिशययुत क्षेत्रों को।
नमूँ सदा कृत्रिम अकृत्रिम, जिनचैत्यालय चैत्यों को।।११।।
पंचपरमगुरु श्री श्रुतदेवी, पूर्वाचार्य साधुगण को।
स्वात्मसिद्धि के लिए नमूँ मैं, अन्वायात सभी मुनि को।।१२।।
वीरसिंधु आचार्य प्रवर, महाव्रतदायक गुरुवर को।
नमूँ सदा गुरु परंपरागत, सूरि तथा साधूगण को।।१३।।
सिद्धक्षेत्र के वंदन संस्तव से, भवभव के पाप हरूँ।
सम्यग् ‘‘ज्ञानमती’’ समाधि के, बल से शिवसुख प्राप्त करूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं त्रैकालिकसर्व तीर्थंकरमुनिगण सिद्धपदप्राप्त-सम्मेदशिखरशाश्वत-
सिद्धक्षेत्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, सम्मेदगिरि को वंदते।
वे नरक-पशुगति से छुटें, सुरपद धरें आनंदते।।
चक्रीश पद तीर्थेश पद, पाकर अतुल वैभव धरें।
फिर ‘ज्ञानमति’ रवि किरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।
।। इत्याशीर्वाद:।।
-दोहा-
तीर्थक्षेत्र की वंदना, भव-भव भ्रमण हरंत।
आत्मा तीर्थ समान हो, बने मुक्ति के कंत।।१।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, तेरह श्रावण शुद्ध।
पार्श्वनाथ निर्वाण से, सप्तमितिथी विशुद्ध।।२।।
महातीर्थ सम्मेदगिरि, नमते सदा मुनीश।
यह विधान रचना किया, पूर्ण नमाकर शीश।।३।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शान्तिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य श्री वीरसागराचार्य।।४।।
उनकी शिष्या ज्ञानमति, गणिनी मैं अल्पज्ञ।
फिर भी जिनवर भक्ति से, हो जाते जन विज्ञ।।५।।
आगम के स्वाध्याय से, श्रद्धा बनी विशेष।
देव-शास्त्र-गुरु भक्ति से, मिला ज्ञान का लेश।।६।।
पूर्ण ज्ञान का बीज है, यही अल्प श्रुतज्ञान।
ज्ञानमती वैवल्य हो, जो अनन्त गुणखान।।७।।
जब तक जग में रवि-शशी, जब तक श्री जिन तीर्थ।
भव्य विधान प्रभाव से, करें स्वात्म को तीर्थ।।८।।
श्री सम्मेद गिरीन्द्र यह, शाश्वत तीर्थ प्रसिद्ध।
नमूँ अनन्तों बार मैं, नमूँ अनन्तों सिद्ध।।९।।
।। इति शं भूयात्।।