-स्थापना-गीता छंद-
तीर्थेश जिनवर सप्त को, प्रणमूँ सदा वर भाव से।
श्री सप्तपरमस्थान हेतु, नित्य पूजूूँ चाव से।।
आह्वान थापन सन्निधापन, भक्ति श्रद्धा से करूँ।
सज्जाति से निर्वाण तक, पद सप्त की अर्चा करूँ।।१।।
-दोहा-
ऋषभदेव श्रीचंद्रप्रभ, नेमि पार्श्व भगवान।
शीतल जिन श्री शांतिप्रभु-महावीर गुणखान।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव-चन्द्रप्रभ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-शीतलनाथ-
शांतिनाथ-महावीरस्वामितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।                            
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव-चन्द्रप्रभ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-शीतलनाथ-
शांतिनाथ-महावीरस्वामितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।                                      
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक! श्री ऋषभदेव-चन्द्रप्रभ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-शीतलनाथ
-शांतिनाथ-महावीरस्वामितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।           
अथाष्टक-(चाल-नंदीश्वर-श्रीजिनधाम)
जल शीतल निर्मल शुद्ध, केशर मिश्र करूँ।
अंतर्मल क्षालन हेतु, शुभ त्रय धार करूँ।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित अलिचुंबित गंध, कुुंकुम संग मिला।
भव दाह निकंदन हेतु, चर्चत सौख्य मिला।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफल सम वर शुभ्र, तंदुल धोय धरूँ।
वर पुंज चढ़ाऊँ आन, उत्तम सौख्य वरूँ।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार वकुल मचकुंद, सुरभित पुष्प लिया।
मदनारि विनाशन हेतु, अर्चूं खोल हिया।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध उत्तम पकवान, घृत से पूर्ण भरे।
निज क्षुधा निवारण हेतु, अर्चूं भक्ति भरे।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक ज्योति प्रकाश, जगमग ज्योति करे।
दीपक से पूजा सत्य, ज्ञान उद्योत करे।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेवत पाप जरें।
वर सप्त पदों को पूज, उत्तम सौख्य वरें।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम सुपारी दाख, एला थाल भरे।
फल से पूजत शिव सौख्य, अनुपम प्राप्त करें।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से युक्त, उत्तम अर्घ्य किया।।
मैं सप्तपरमपद हेतु, सप्त जिनेन्द्र जजूँ।
सब कर्म कलंक विदूर, परिनिर्वाण भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
शांतीधारा देय, सप्तपरमपद को जजूँ।
परम शांति सुख हेतु, सब जग शांती हेतु मैं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित लायके।
सप्तपरमपद हेतु, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र- (१) ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादि- सप्ततीर्थंकरेभ्यो नम:।
(२) ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेव-चंद्रप्रभ-नेमिनाथ-
पार्श्वनाथ-शीतलनाथ-शांतिनाथ-महावीर- तीर्थंकरेभ्यो नम:।जयमाला  
-दोहा-
गुणरत्नाकर सप्तजिन, भव्यकुमुद भास्वान।
सप्तपरमपद पाय के, भोगें सुख निर्वाण।।१।।
चाल-श्रीपति जिनवर……..                                                      
शुभजाति गोत्र वरवंश तिलक, जो सज्जाती के जन्मे हैं।
जो उभय पक्ष की शुद्धि सहित, औ उच्चगोत्र में जन्मे हैं।।
वे प्रथम परम पद सज्जाती, पाकर छहपद के अधिकारी।
वह सज्जाती स्थान सदा, भव भव में होवे गुणकारी।।२।।
धर्मार्थ काम त्रय वर्गों को, जो बाधा रहित सदा सेते।
पंचाणुव्रत औ सप्तशील, धारण कर सद्गृहस्थ होते।।
वे ही भव भोगों से विरक्त, जिनदीक्षा धर मुनि बनते हैं।
प्राव्राज्य तृतीय परम पद पा, निज आतम अनुभव करते हैं।।३।।
विधिवत् सन्यास मरण करके, देवेन्द्र परम पद पाते हैं।
स्वर्गों के अनुपम भोग-भोग, फिर चक्रीश्वर बन जाते हैं।।
सोलह कारण भावन भाकर, तीर्थंकर पद को पाते हैं।
छठवें आर्हन्त्य परम पद को, पाकर शिवमार्ग चलाते हैं।।४।।
सब कर्म अघाती भी विनाश, निर्वाण रमापति हो जाते।
जो काल अनन्तानन्तों तक, सुखसागर में निमग्न होते।।
इन सप्त परमस्थानों को, क्रम से भविजन पा लेते हैं।
जो सप्तपरमपद व्रत करते, वे अंतिमपद वर लेते हैं।।५।।
श्री ऋषभदेव सज्जाति परम, स्थान प्रदाता माने है।
श्री चंद्रप्रभू जिन सद्गृहस्थ स्थान विधाता माने हैं।।
श्रीनेमिनाथ पारिव्राज परमस्थान प्रदायक मुनि कहते।
श्री पार्श्वनाथ की पूजा से स्थान सुरेन्द्र भव्य लहते।।६।।
श्री शीतलप्रभु की पूजा से साम्राज्य परम पद मिलता है। 
श्री शांतिनाथ का मंत्र जपें आर्हन्त्य परमपद मिलता है।।
श्री वीरप्रभु की भक्ती से निर्वाण परम पद पाते हैं।
जो भक्ती से पूजन करते वे अंतिम पद पा जाते हैं।।७।।
ये एक-एक तीर्थंकर भी सम्पूर्ण परमपद देते हैं। 
फिर भी आराधन पृथक्-पृथक्, आगम में मुनिगण कहते हैं।।
जो सप्त परमस्थान भजें, व्रत करें भक्ति से यजन करें।
वे लौकिक सुख संपत्ति पाय, लोकोत्तर लक्ष्मी वरण करें।।८।।
-घत्ता-
जय सप्तपरमपद, त्रिभुवन सुखप्रद, 
जय जिनवर पद नित्य नमूँ।
‘सज्ज्ञानमतीधर’, शिव लक्ष्मीवर, 
जिनगुण सम्पत्ती परणूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्राप्तये श्रीऋषभदेवादितीर्थंकरेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो सप्तपरमस्थान तीर्थंकर विधान सदा करें।
वे भव्य क्रम से सप्तपरमस्थान की प्राप्ती करें।।
संसार के सुख प्राप्त कर फिर सिद्धिकन्या वश करें।
सज्ज्ञानमति रविकिरण से भविमन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
