-स्थापना (शंभु छंद)-
तीर्थंकर प्रभु की भक्ति सदा ही, सच्चे सुख को देती है।
वह दुर्गति का वारण करके, भव-भव के दुख हर लेती है।।
श्रीवादिराज मुनि ने प्रभु भक्ति से, तन का कुष्ट मिटाया था।
निज काया को कर स्वस्थ स्वर्णमय, धर्मरूप दर्शाया था।।१।।
-दोहा-
प्रभु भक्ती में रच दिया, एकीभाव स्तोत्र।
तब से ही यह बन गया, रोग निवारक स्रोत।।२।।
मैं भी तन-मन स्वस्थता, हेतु जजूँ प्रभु आप।
आह्वानन स्थापना, करूँ बनूँ निष्पाप।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-कहूँ मैं जिनवर जिनवर…….
नीर की झारी लेकर, करूँ त्रयधार प्रभू पद,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर-२।।कलश.।।
सरयू नदि का जल लाकरके, पूजन करूँ जल धारा करके।
जनम मरण मेरा नाश करो हे प्रभुवर! हे प्रभु मुझपर।।नीर की.।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधित चन्दन लेकर, करूँ चर्चन मैं प्रभु पद,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।सुगंधित.।।टेक.।।
मन मेरा शीतल हो जावे, प्रभु पूजन में जब रम जावे।
भव आतप नश जावे मेरा अब प्रभुवर, हे प्रभु मुझपर।।सुगंधित.।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अखण्डित तन्दुल लेकर, पुंज अर्पूं प्रभु सम्मुख,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।अखण्डित.।।टेक.।।
मेरे सब दु:खों का क्षय हो, प्रभु पूजन का फल अक्षय हो।
वह अक्षय पद मिल जावे मुझे प्रभुवर, हे प्रभु मुझ पर।।अखण्डित.।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प अंजलि में लेकर, चढ़ाऊँ जिनवर सम्मुख,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।पुष्प.।।टेक.।।
विषयसुखों में अब न रमूँ मैं, पूजन कर प्रभु पद में नमूँ मैं।
कामबाण नश जावे मेरा अब प्रभुवर, हे प्रभु मुझ पर।।पुष्प.।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
थाल नैवेद्य का लेकर, चढ़ाऊँ जिनवर सम्मुख,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझपर।।थाल.।।टेक.।।
सरस मधुर व्यंजन बहु खाए, फिर भी भूख नहिं मिट पाए।
पूजन कर क्षुधरोग नशे मेरा प्रभुवर, हे प्रभु मुझपर।।थाल.।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण का दीपक लेकर, आरती कर लूँ प्रभुवर,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।स्वर्ण.।।टेक.।।
मोहतिमिर छाया है जग में, दीपक ले पूजन करूँ अब मैं।
मोहतिमिर नश जावे मेरा अब प्रभुवर, हे प्रभु मुझ पर।।स्वर्ण..।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुरभित मैं लेकर, जलाऊँ जिनवर सम्मुख,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझपर।।धूप.।।टेक.।।
काल अनादि से कर्म लगे संग, करने आया मैं प्रभु पूजन।
कर्म मेरे नश जावें सभी अब प्रभुवर, हे प्रभु मुझपर।।धूप.।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फलों की थाली लेकर, चढ़ाऊँ जिनवर सम्मुख,
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।फलों.।।टेक.।।
खट्टे मीठे फल बहु खाए, फिर भी तृप्ति नहिं कर पाए।
पूजन कर शिवफल मिल जावे हे जिनवर, हे प्रभु मुझ पर।।फलों की.।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्यों को लेकर, अर्घ्य अर्पूं प्रभु सम्मुख।
तीर्थंकर प्रभु करना कृपा अब मुझ पर, हे प्रभु मुझ पर।।अष्ट.।।टेक.।।
पूज्य परमपद पाने हेतू, अर्घ्य ‘चन्दनामती’ समर्पूं।
भव भव में नहिं भ्रमण करूँ अब जिनवर, हे प्रभु मुझ पर।।अष्टद्रव्यों.।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्री तीर्थंकरपरमदेवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
तन मन शीतल हेतु मैं, कर लूँ शांतीधार।
श्री जिनवर पद सेतु हैं, भवदधि होने पार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि प्रभु पद करूँ, पुष्प सुगंधित लाय।
नरतन निज सुरभित करूँ, गुण सुगंधि को पाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
नाथ! आपकी अर्चना, सब सुख देन समर्थ।
पुष्पांजलि कर प्रार्थना, करूँ आत्म सिद्ध्यर्थ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-मन्दाक्रान्ता छंद-
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्म-बन्धो,
घोरं दु:खं भव-भव-गतो दुर्निवार: करोति।
तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेज्-
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:।।१।।
(1)
तर्ज-चन्दाप्रभु के दर्शन करने सोनागिरि को जाऊँगी…..
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
हे जिनसूर्य! मेरी आत्मा के, संग कर्म तन्मयता से।
बंधते रहते हैं अनादि से, दुख देते निर्दयता से।।
उनसे मुक्ती पाने हेतू, तेरी भक्ती करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जब ये दुर्निवार बन्धन भी तुम वन्दन से कटते हैं।
तब भौतिक संताप भला क्यों नहिं जीते जा सकते हैं।।
सब संताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं एकीभावसदृशकर्मबंधनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्योतीरूपं दुरित-निवहध्वान्त-विध्वंस-हेतुं,
त्वामेवाहुर्जिनवर! चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ता:।
चेतोवासे भवसि च मम स्फार-मुद्भासमान-
स्तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे।।२।।
(2)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तत्त्वज्ञानि गणधर मुनि सब, चिरकाल से तुमको ध्याते हैं।
पाप तिमिर के नाश हेतु, तुमको ही ज्योति बताते हैं।।
तेरी दिव्यज्योति से प्रभुवर! अन्तस्तम को हरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
निज मानस में मैंने तुमको, अच्छी तरह बिठाया है।
पाप तिमिर बस इसीलिए, नहिं पास फटकने पाया है।।
सब संताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं हृदयस्थितपापान्धकारविनाशनसमर्थाय ज्योतीरूपाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनन्दाश्रु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्,
यश्चायेत त्वयि दृढ-मना: स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम्।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यान्-
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:।।३।।
(3)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
अन्तर्मन का हर्ष अश्रु बन, जब आँखों से छलकता है।
वही समर्पण भक्तों की, शारीरिक व्याधि को हरता है।।
तन वामी की सभी व्याधियाँ, दूर मुझे अब करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जैसे मंत्रों से वामी के, सांप भी बाहर आते हैं।
वैसे ही प्रभु भक्ती से, तन रोग सभी भग जाते हैं।।
सब संताप निवारणहित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं स्तोत्रमंत्रप्रभावेन देहस्थविषमव्याधिनिष्कासनसमर्थाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रागेवेह त्रिदिव-भवनादेष्यता भव्यपुण्यात्,
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम्।
ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त-गेहं प्रविष्ट-
स्तत्ंिक चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि।।४।।
(4)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भव्यों के पुण्योदय से, हे नाथ! धरा पर आते हो।
मातगर्भ में आने से, पहले हि रतन बरसाते हो।।
पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती, आगम का यह कहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
वैसे ही मम ध्यान द्वार से, हो प्रविष्ट मन में तन को।
व्याधिरहित कर दो सुवर्णमय, इसमें क्या आश्चर्य अहो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं गर्भावतारप्राक्पृथ्वीकनकमयकरणसमानभाक्तिकतनुसुवर्णीकरण-समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निर्निमित्तेन बन्धु-
स्त्वय्येवासौ सकल-विषया शक्तिरप्रत्यनीका।
भक्ति-स्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:।।५।।
(5)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नाथ! आप जग भर के अकारण, बन्धु सदा कहलाते हो।
सब पदार्थ के ज्ञाता बाधा रहित, सुखी कहलाते हो।।
अद्वितीय तुम शरण प्राप्त कर, शाश्वत सुखमय बनना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मेरी मनरूपी पवित्र, शय्या पर सदा निवास करो।
मुझमें संभव दुख समूह को, जिनवर! शीघ्र विनाश करो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भक्तजनहृदयस्थिततत्सर्वक्लेशविनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरम-देवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा,
प्राप्तैवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयूष-वापी।
तस्या मध्ये हिमकर-हिम-व्यूह-शीते नितान्तं,
निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:।।६।।
(6)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
स्वामिन्! मैंने काल अनादी से, जग में परिभ्रमण किया।
अब अमृतरसभरी बावड़ी, बड़े कष्ट से प्राप्त किया।।
स्याद्वाद नय कथा आपकी, मगन उसी में रहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
चन्द्रबिम्ब अरु बर्फ से भी, शीतल जल भरा बावड़ी में।
उसमें कर स्नान मेरे, सारे दुख क्षय होंगे क्षण में।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं त्वन्नयकथापीयूषवापीमध्यनिर्मग्नभाक्तिकदु:खदावोपतापशांतकरण-समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं,
हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे,
श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति।।७।।
(7)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
श्रीविहार से प्रभो! आपने, सारा जगत पवित्र किया।
तुम पदतल स्पर्श मात्र से, कमल सुगंधित स्वर्ण हुआ।।
लक्ष्मीगृह बन गया कमल, इस अतिशय का क्या कहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मैंने तो सर्वांग से प्रभुवर, आपको है स्पर्श किया।
अत: सर्वकल्याणमयी, सुख को अब मैंने प्राप्त किया।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं पादन्यासस्थलस्वर्णकमलमिव त्वत्स्पृशन्ममभक्तस्य सर्वश्रेय:-प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पात्र्या पिबन्तं,
कर्मारण्यात्पुरुषमसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्।
त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं,
क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति।।८।।
(8)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
कर्मरूप वन से अनुपम, आनन्द धाम शिवपद पाया।
दुर्जय कामदेव का मद हर, विजयपताका लहराया।।
ऐसे हे जिन! तुमको लखकर, नेत्र सफल अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
भक्ति कटोरे से तव वचनामृत, का पान करें जो भी।
क्रूराकार रोग कण्टक, उनके नश जाते शीघ्र सभी।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भक्तिपात्र्या त्वद्वचनामृतपिबन् भाक्तिकदुर्वाररोगनिवारणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न-मूर्ति-
र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्ग:।
दृष्टिं प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां,
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:।।९।।
(9)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
पाषाणों से निर्मित, मानस्तंभ इतर पत्थर सम है।
रत्नमयी होने पर भी, उसमें विशेषता ही कम है।।
उस विशेषता में केवल, प्रभु का अतिशय ही कहना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मान नष्ट होता है सबका, मानस्तंभ देखने से।
प्रभु सामीप्य बिना नहिं संभव, है यह मात्र निरखने से।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं मानस्तम्भसदृश-त्वत्समीपत्वप्राप्तभाक्तिकजनमानरोगहरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही,
सद्य: पुंसां निरवधि-रुजा धूलिबन्धं धुनोति।
ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट-
स्तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:।।१०।।
(10)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तव तन पर्वत निकट से बहने, वाली वायु मनोहर से।
जन जन के बहुतेक रोग, नश जाते धूलि धरोहर से।।
उसी वायु से मुझे भी अपने, रोग नष्ट सब करना है।
मनमंदिर में तुुुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जो जन तुम्हें ध्यान के द्वारा, हृदय कमल में धरते हैं।
इस जग में वे भव्योत्तम, लोकोपकार बहु करते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं त्वन्मूर्तिस्पर्शितवायुना निरवधिरोगधूलिधुन्वन्समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जानासि त्वं मम भवे-भवे यच्च यादृक् च दु:खं,
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या,
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव! एव प्रमाणम्।।११।।
(11)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भव भव में मैंने अगणित दुख, जो भी पाए हैं जिनवर!
आप जानते हैं सबको, जिनका सुमिरन भी है दुखकर।।
शस्त्र सदृश आघात पहुँचता, उसे याद नहिं करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
आप दयालू सबके स्वामी, अत: आप ढिग आया अब।
करना है जो करो आप ही, हो प्रमाण यह पाया अब।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भाक्तिकजनभव-भवदु:खनिवारणसमर्थपरमदयालुसर्वेशाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रापद्दैवं तव नुति-पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:,
पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम्।
क: सन्देहो यदुपलभते वासव-श्री-प्रभुत्वं,
जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्।।१२।।
(12)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जीवन्धर ने इक कुत्ते को, णमोकार का मंत्र दिया।
मरण समय वह पापाचारी, सुन करके यक्षेन्द्र हुआ।।
मुझको भी तुम पद में नत हो, नाम तुम्हारा जपना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मणियों की माला से जो भी, नाममंत्र तुम जपते हैं।
इसमें नहिं संदेह कि वे, इन्द्रों का वैभव लभते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं मणिजयमालिकया त्वन्नमस्कारमंत्रजपद्भाक्तिकगणस्वर्गलक्ष्मीप्रभुत्व-करणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा,
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्।
शक्योद्धाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो,
मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम्।।१३।।
(13)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
शुद्ध ज्ञान निर्मल चरित्रयुत, जो नर तुमको ध्याते हैं।
अनवधि सुख की हेतु भक्ति, कुंजी को साथ में लाते हैं।
इस कुंजी से मुक्तिद्वार को, खोल सिद्धि को वरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
इस युक्ती के बिना मुमुक्षू, सुख का सार न तोल सकें।
महामोह मुद्रा से अंकित, दृढ़ कपाट नहिं खोल सकें।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं अनवधिस्त्वदुत्कृष्टभक्तिकुञ्चिकानिमित्तेन मुक्तिद्वारोद्घाटन-कारणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रच्छन्न: खल्वयमघमयैरन्धकारै: समन्तात्,
पन्था मुक्ते: स्थपुटित-पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:।
तस्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी,
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती रत्न-दीप:।।१४।।
(14)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
यह शिवपथ पापाधंकार से, ढका हुआ चौतरफा है।
दुखरूपी गड्ढों से है यह, विषम न मारग दिखता है।।
वहाँ पहुँचने हेतु मात्र प्रभु! तत्वज्ञान का शरणा है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
तव वाणी सम रत्न दीप का, यदि प्रकाश नहिं हो आगे।
तब न कोई नर चल सकता है, उस पथ पर आगे आगे।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भवद्भारतीरत्नदीपेन मुक्तिपथावलोकनसामर्थ्यप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म-ज्योतिर्निधि-रनवधि-र्द्रष्टुरानन्द-हेतु:,
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाज:,
स्तोत्रैर्बंध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:।।१५।।
(15)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
आत्मज्ञान की ज्योतिरूप, सम्पत्ति कर्म से आच्छादित।
मिथ्यात्वी को प्राप्त न हो यह, ज्ञानी होते आल्हादित।।
यही आत्म ज्योती अब मुझको, प्राप्त हृदय में करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
प्रकृति बंध आदिक कठोर, भूमी को भक्ति कुदाली से।
खोद खोद कर भव्य शीघ्र, हो जाते गुणमणि माली हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं कर्मक्षोणीपिहितात्मज्योतिनिधिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरे-रायता चामृताब्धे:,
या देव! त्वत्पद-कमलयो: संगता भक्ति-गङ्गा
चेतस्तस्यां मम रुचि-वशादाप्लुतं क्षालितांह:,
कल्माषं यद्भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:।।१६।।
(16)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नय हिमगिरि से निकली तव, पदकमल भक्ति की गंगा है।
मुक्तिरूप सागर तक लम्बी, यह सच्ची शिवगंगा है।।
उसमें रुचिवश डूब डूब कर, स्वच्छ निजातम करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
इस भक्ति गंगा में नहाकर, पाप कालिमा धुलती है।
इसमें नहिं संदेह है कोई, मुक्ति इसी से मिलती है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं त्वद्भक्तिगंगामध्यावगाहकभक्तगणसर्वकल्मषक्षालनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद-सुखं त्वामनुध्यायतो मे,
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति-मभ्रेषरूपां,
दोषात्मानोऽप्यभिमत-फलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति।।१७।।
(17)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
निश्चल सुख को प्राप्त तुम्हारा, ध्यान हृदय को भाता है।
जो तुम हो मैं भी वह हूँ, यह भाव उपज ही जाता है।।
यद्यपि यह मिथ्या है फिर भी, मन सन्तुष्ट तो करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
ऐसा चिन्तन भी अविनाशी, सुख को प्राप्त कराता है।
तव प्रसाद से क्योंकि सदोषी, भी इच्छित फल पाता है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं त्वद्ध्यायन्भाक्तिकस्य सोऽहमितिमतिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथ्यावादं मल-मपनुदन्सप्तभ्ाङ्गी-तरङ्गै-
र्वागम्भोधि-र्भुवन-मखिलं देव! पर्येति यस्ते।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्-चेतसैवाचलेन,
व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृतासेवया तृप्नुवन्ति।।१८।।
(18)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
सप्तभंगमय अनेकान्त, लहरों का सागर लहराता।
तव वचनों के वारिधि से, मिथ्यात्व दुराग्रह नश जाता।।
परवस्तू में आत्मबुद्धि की, मिथ्या भ्रान्ती तजना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मिथ्या एकान्तों का घेरा, सारे जग में पैâला है।
उसे हटाने में समर्थ, बस तव वच सिन्धु अकेला है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं सप्तभंगीतरंगयुत-त्वद्वाक्समुद्रमंथनोद्भवपरमामृतप्रापकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:,
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां,
तत्किं भूूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:।।१९।।
(19)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जो स्वभाव से सुंदर नहिं, वे वस्त्राभरण पहनते हैं।
जो अयोग्य हैं विजय प्राप्ति में, शस्त्र ग्रहण वे करते हैं।।
मुझको स्वाभाविक आत्मिक, सौंदर्य प्राप्त अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
नाथ आप सर्वांग सुभग हो, शत्रु न जीत तुम्हें सकते।
वस्त्राभरण व शस्त्रों के, अतएव न तुम धारण करते।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं शस्त्रवसनभूषाविरहितपरमसुंदरस्वरूपाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते,
तस्यैवेयं भव-लय-करी श्लाघ्यता-मातनोति।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धि-कान्ता-पतिस्त्वं,
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्।।२०।।
(20)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
इन्द्र आपकी सेवा करता, इससे आप बड़े नहिं हैं।
किन्तु इन्द्र की सेवा उसके, लिए प्रशंसित जग में है।।
मुझको भव दुख नाश हेतु, अब तुम सेवा ही करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
तुम संसार जलधि से सबको, पार लगाने वाले हो।
सिद्धिप्रिया के पति त्रिभुवन-अधिपति सबके रखवाले हो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भवसमुद्रपारंगतसिद्धिकान्तापतित्रैलोक्यप्रभुस्तुतिश्लाघनाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृत्तिर्वाचामपर-सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:,
स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टा-
स्ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति।।२१।।
(21)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नाथ! हमारी वाणी तो, सब अल्पज्ञों के ही सम है।
किन्तु आप तो अतुलनीय, तीनों लोकों में अनुपम हैं।।
स्तुति के उद्गार हमारे, फिर भी स्वीकृत करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
चाहे वचन न पहुँचे तुम तक, नाथ हमारी भक्ती के।
फिर भी इच्छित फल देंगे, क्योंकी भक्ती में शक्ती है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं भक्तिपीयूषपुष्टभव्यगणाभिमतफलप्रदपारिजाताय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो,
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयै-वानपेक्षम्।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि-र्वैर-हारी,
क्वैवं भूतं भुवन-तिलकं प्राभवं त्वत्परेषु।।२२।।
(22)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नहीं किसी पर क्रोध आपको, नहीं किसी से प्रेम करें।
स्वार्थ रहित है चित्त आपका, केवल निज में नेह धरें।।
जग से उदासीन हो क्योंकी, आतम में बस रमना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
फिर भी जग आधीन आपकी, ही समीपता चाह रहा।
नहीं आपसे भिन्न किसी में, यह आकर्षण बांध रहा।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं कोपप्रसादविरहितपरमोपेक्षि-भुवनतिलकप्राभवसहिताय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव! स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं,
तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान-मूर्तिर्जनो य:।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था:
तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मर्त्य:।।२३।।
(23)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जिनकी कीर्ति के गीत, देवियों का समूह भी गाता है।
सकल विषय के ज्ञाता जिनवर, का यश बढ़ता जाता है।।
मुझे आपकी धवल कीर्ति का, सुमिरन ही अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, त्ान को स्वर्णिम करना है।।१।।
ऐसे प्रभु के भक्त कभी, शिवपथ से नहीं भटकते हैं।
तत्त्वग्रंथ स्मरण विषय में, मूर्च्छित हो न अटकते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं सकलतत्त्वग्रन्थस्मरणविषयिबुद्धिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चित्ते कुर्वन्निरवधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूपं,
देव! त्वां य: समय-नियमादाऽऽदरेण स्तवीति।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृतिस्तावता पूरयित्वा,
कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम्।।२४।।
(24)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तुम अनन्तसुख ज्ञान दर्श अरु, वीर्य चतुष्टय धारी हो।
तुमको मन में धारण करने-वाला नर अविकारी हो।।
तीनों कालों में प्रभु तुम प्रति, विनयभाव को धरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
निश्चय ही स्तोता नर को, पंचकल्याणक मिलते हैं।
श्रेयोमार्ग प्राप्त करके वे, सिद्धिप्रिया से मिलते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपाय भाक्तिकजनपञ्चकल्याणप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शार्दूलविक्रीडितछंद-
भक्ति-प्रह्व-महेन्द्र-पूजित-पद! त्वत्कीर्तने न क्षमा:
सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम्।
अस्माभि: स्तवन-च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम:।।२५।।
(25)
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भक्ति विनत इन्द्रों से पूजित, जिनवर पदयुग मनहारी।
उनके गुणकीर्तन में नहिं, सक्षम हैं सूक्ष्मज्ञानधारी।।
योगी भी नहिं हैं समर्थ यदि, तो मेरा क्या कहना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
फिर भी स्तुति के छल से, मम आदर भाव प्रदर्शित है।
हो कल्याणकल्पद्रुम तुम, हम आतम सुख के इच्छुक हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ॐ ह्रीं स्वात्माधीनसुखेच्छुकजनकल्याणकल्पद्रुमाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-स्वागता छंद-
वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किक-सिंह:।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय:।।२६।।
(26)
वादिराज मुनि के चरणों में, शत शत वन्दन करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।टेक.।।
वादिराज मुनि शब्द अर्थ के, ज्ञाता तार्किक सिंह कहे।
वादिराज की काव्य कृती यह, सारे जग में अमर रहे।।
भव्यों पर उपकार हेतु, इस कृति को वन्दन करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।१।।
इस स्तोत्र से वादिराज, मुनिवर का रोग समाप्त हुआ।
तन मन की स्वस्थता हेतु, मैंने हिन्दी अनुवाद किया।।
आत्म स्वस्थता हेतु ‘‘चन्दनामती’’ वन्दना करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।
ॐ ह्रीं शाब्दिक-तार्किक-काव्यकृत-भव्यगणोत्कृष्टश्रीवादिराजसूरिकृत-एकीभावस्तोत्रस्वामिने
श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं सर्वव्याधिविनाशनसमर्थाय श्रीएकीभावस्तोत्रमाहात्म्य-प्रदर्शकाय श्री तीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
तर्ज-यह शान्त छेवी तेरी……………..
प्रभु भक्ती करने से मुक्ति श्री मिलती है।
मन उपवन की मुरझाई सब कलियाँ खिलती हैं,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।टेक.।।
इस पूजन की बड़ी महिमा-है बड़ी महिमा।
तन रोग नष्ट करने हेतू इसे करना।।
इस एकीभाव की रचना-हाँ रचना।
किया वादिराज मुनिराज ने इसे समझना।।
इसकी कथा पुराणों में ऐसी ही मिलती है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।१।।
चौलुक्य नरेश थे जयसिंह-हाँ हाँ जयसिंह।
मुनि वादिराज का आशिर्वाद था उन पर।।
वे कट्टर भक्त थे गुरु के-हाँ हाँ गुरु के।
पर धर्मद्वेषि विद्वान् भी थे कुछ उनके।।
इक दिन धर्मद्वेषि द्वारा मुनि निंदा चलती है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।२।।
हुआ कुष्टरोग मुनिवर को-हाँ मुनिवर को।
मुनि विद्वेषी ने कहा बात राजन को।।
राजन् इनको मत पूजो-हाँ मत पूजो।
ये मुनि कुष्टी होते हैं इनको देखो।।
गुरुनिन्दा सुन राजश्रेष्ठि की वाणी खिरती है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।३।।
बोला वह राजन सुन लो-हाँ हाँ सुन लो।
गुरुवर तो कंचन कायासम हैं समझो।।
मुनिवर ने सुनी ये बातें-हाँ हाँ बातें।
प्रभु भक्ति लीन होकर स्तोत्र रचा ये।।
कुष्ट दूर हो काया उनकी स्वर्णिम लगती है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।४।।
विद्वान् श्रेष्ठि औ राजा-हाँ हाँ राजा।
पहुँचे मुनि ढिग तो तप का तेज वहाँ था।।
कर नमन झुके गुरुपद में-हाँ गुरुपद में।
विद्वेषी थर थर काँप उठा तब मन में।।
मुनि बोले राजन! यह भक्ति की महिमा दिखती है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।५।।
यह महिमा देखके सबने-हाँ हाँ सबने।
जिनधर्म किया स्वीकार हृदय से सबने।।
हम भी आए प्रभु पद में-हाँ प्रभु पद में।
‘‘चन्दनामती’’ तन मन की स्वस्थता करने।।
एकीभाव स्तोत्र की पूजा सब दुख हरत् है,
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं।।प्रभु.।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वरोगनिवारक एकीभावस्तोत्रनायक श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
एकीभाव स्तोत्र का, यह विधान सुखकार।
करो ‘‘चन्दनामति’’ सभी, भरो सुगुण भण्डार।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
-दोहा-
वीर संवत् पच्चीस सौ, सैंतिस वर्ष महान।
चैत्र शुक्ल तेरस तिथी, मन में आया ध्यान।।१।।
तन मन की आरोग्यता, हेतु पढूँ स्तोत्र।
दो दिन में ही बन गया, हिन्दी में स्तोत्र।।२।।
ज्ञानमती जी मात हैं, गणिनीप्रमुख महान।
उनकी शिष्या चन्दना-मति है मेरा नाम।।३।।
वादिराज मुनि कृती में, मुझसे यदि कुछ भूल।
हुई मुझे वे क्षमाकर, देवें सुख अनुकूल।।४।।
भक्ति शब्द जल बूंद ये, करें हृदय को शांत।
मुक्ताफल सम ये हरें, मन का सब संताप।।५।।