—अनुष्टुप् छंद—
ॐ नमो मंगलं कुर्यात्, ह्रीं नमश्चापि मंगलम्।
मोक्षबीजं महामंत्रं, अर्हं नम: सुमंगलम्।।१।।
चतुर्विंशतितीर्थेशान्, तेषां दिव्यसभा नुम:।
ते सर्वे ता: सभाश्चापि, नित्यं कुर्वन्तु मंगलम्।।२।।
तीर्थकृत्समवसृतौ, जिनबिंबसमन्विता:।
मानस्तंभाश्चतुर्दिक्षु, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।३।।
—स्रग्धरा छंद—
मानस्तंभा: सरांसि, प्रविमल—जल—सत्खातिका—पुष्पवाटी।
प्राकारो नाट्यशालाद्वितयमुपवनं वेदिकांतर्ध्वजाद्या:।।
शाल: कल्पद्रुमाणां, सुपरिवृत—वनं स्तूप—हर्म्यावली च।
प्राकार: स्फाटिकोन्त—र्नृसुर—मुनिसभा पीठिकाग्रे स्वयंभू:।।४।।
—शंभुछंद—
चौबिस तीर्थंकर वंदन कर, उन प्रभु के समवसरण प्रणमूं।
प्रभु समवसरण में चारों दिश, मानस्तंभों को नित्य नमूं।।
मानस्तंभों में चारों दिश, जिनवर प्रतिमा को कोटि नमूं।
जिनप्रतिमा को वंदन कर—कर, क्षायिक सम्यक्त्व सदा प्रणमूं।।५।।
एकेक प्रभू के चार—चार, हैं मानस्तंभ चमत्कारी।
चौबिस प्रभु के छ्यानवे कहे, ये सब अतिशायि सौख्यकारी।।
मानी का मान गलित करते, सम्यक्त्व रत्न को देते हैं।
इनकी पूजा करते जो जन, संसार भ्रमण हर लेते हैं।।६।।
मानस्तंभों में चारों दिश, जिनप्रतिमायें सुंदर शोभें।
गणधर मुनिगण सुरगण नमते, भविजन वंदें दु:ख से छूटें।।
इनका वंदन कर गौतम को, प्रभु का गणधर पद प्राप्त हुआ।
मैं नमूं नमूं नित श्रद्धा से, मेरा जीवन भी धन्य हुआ।।७।।
—दोहा—
मानस्तंभ विधान यह, सुखसंपति दातार।
सर्व अमंगल दूर कर, नित नव मंगलकार।।८।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।