-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
समवसरण में छठी भूमि है, कल्पवृक्ष की सुंदर।
चारों दिश में एक-एक, सिद्धार्थ वृक्ष हैं मनहर।।
इनमें चारों दिश इक इक हैं, सिद्धों की प्रतिमायें।
हम पूजें आह्वानन करके, इच्छित फल पा जायें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
चाल-नंदीश्वर पूजा
सीतानदि को जल स्वच्छ, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधारा देते चर्ण, भव भव तपन हरूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, प्रभु के चरण जजूँ।
पाऊँ निज अनुभव गंध, जिनवर शरण भजूँ।।मैं.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अतिधवल अखंड, धोकर थाल भरूँ।
होवे मुझ ज्ञान अखंड, तुम ढिग पुंज धरूँ।।मैं.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुलादि सुगंधित पुष्प, लाऊँ चुन चुन के।
पाऊँ निज समरस सौख्य, प्रभु चरणों धरके।।मैं.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:सिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू है मोतीचूर, अर्पूं तुम सन्मुख।
हो क्षुधा वेदनी दूर, पाऊँ स्वातम सुख।।मैं.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रजाल, आरति करते ही।
नशे मोह तिमिर का जाल, ज्योति प्रगटे ही।।मैं.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, अग्नी में खेऊँ।
उड़ जावे चहुँदिश धूम्र, तुम पद को सेवूँ।।मैं.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, फल से यजन करूँ।
हो निजपद में विश्राम, भव भव भ्रमण हरूँ।।मैं.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल से अर्घ बनाय, रत्न मिलाऊँ मैं।
सिद्धों के चरण चढ़ाय, गुणमणि पाऊँ मैं।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रयधारा प्रभु पद देत, हो जग में शांति।
जिनपूजा भवदधि सेतु, मिटती मन भ्रांति।।मै.।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जूही केतकी गुलाब, पुष्पांजलि करके।
पाऊँ निज गुण यशलाभ, चहुंगति दुख हरके।।मै.।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
नित्य निरंजन सिद्ध, परमहंस परमातमा।
पाऊं निजगुण सिद्धि, पुष्पांजली चढ़ायके।।१।।
।।इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
चाल-हे दीनबंधु…………..
श्री आदिनाथ का समोसरण विशाल है।
ध्वजभू को वेढ़ रजतमयी तृतिय साल१ है।।
सिद्धार्थ नमेरू तरू है, कल्पभूमि में।
पूजूँ सदा चउसिद्ध की प्रतिमा प्रसिद्ध मैं।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दक्षिण सुकल्प भूमि में मंदार तरू है।
उस मूल में चतुर्दिशा में सिद्धबिंब हैं।।
प्रत्येक बिंब के समक्ष मानथंभ हैं।
पूजूँ सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम सुकल्पभूमि में संतानकांघ्रिपा१।
सिद्धार्थ वृक्ष है इसी के चार हों दिशा।।
एकेक सिद्ध बिंब साधु वृंद वंद्य हैं।
पूजूँ सदा इन्हें ये चक्रवर्ति वंद्य हैं।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर सुकल्प भू में पारिजात वृक्ष है।
ये सिद्ध की प्रतिमाओं से सिद्धार्थ सार्थ है।।
जो इनको जजें उनके सर्वकार्य सिद्ध हैं।
पूजूँ सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश अजितनाथ की समवसरण कथा।
भू कल्पतरू पूर्व में नमेरु वृक्ष था।।
सिद्धार्थ नाम इसमें चार सिद्धबिंब हैं।
पूजूँ सदा ये सिद्धबिंब इंद्र वंद्य हैं।।५।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनराज समोसरण में जो कल्पवृक्ष हैंं।
दक्षिणदिशी मंदार नाम सिद्ध२ अर्थ है।।
उस मूल में चतुर्दिशा में सिद्धबिंब हैं।
पूजूँ सदा इन्हें ये तीन लोक वंद्य हैं।।६।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतानकाख्य नाम के सिद्धार्थ वृक्ष में।
चारों दिशा में सिद्ध की प्रतिमा नमूँ उन्हें।।
जो पूजते जिनराज समोसर्ण को सदा।
वे स्वर्ग सौख्य भोग के शिव पावें शर्मदा।।७।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पारिजात नाम के सिद्धार्थ वृक्ष को।
नित पूजते हैं भक्ति से उन सिद्धबिंब को।।
वे गणपती सुरेंद्र चक्रवर्ति वंद्य भी।
अतिशय अनंत सौख्य धाम प्राप्त करें ही।।८।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनेश समोसर्ण में विराजते।
दशविध के कल्पवृक्ष वहां पे हि राजते।।
पूरबदिशी नमेरू सिद्धार्थ वृक्ष है।
पूजूँ उन्हें चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।९।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो भी मनुष्य कल्पवृक्ष के निकट आते।
जो कुछ भी मांगते वो क्षणमात्र में पाते।।
दक्षिण में जो मंदार ही सिद्धार्थ वृक्ष है।
पूजूँ वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१०।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस कल्पभूमि में कहिं पे बावड़ी बनी।
लघु पर्वतों पे देवियाँ क्रीड़ा करें घनी।।
पश्चिम दिशी संतानक सिद्धार्थ वृक्ष है।
पूजूँ वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।११।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर में पारिजात जो सिद्धार्थ वृक्ष है।
उस मूल में चउदिश में सिद्ध बिंब रम्य हैं।।
प्रतिमा समक्ष मानथंभ जगत वंद्य हैं।
पूजूँ वहां चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१२।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदनेश समोसर्ण में विराजते।
उसमें छठी धरा पे कल्पवृक्ष राजते।।
पूरबदिशी नमेरू सिद्धार्थ वृक्ष है।
पूजूँ वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दक्षिणदिशी कहा है मंदार वृक्ष जो।
उसके चतुर्दिशा में चउ सिद्धबिंब जो।।
सुरपति व चक्रवर्ती नरपति से वंद्य हैं।
पूजूँ वहाँ चउदिश भी जो मानथंभ हैं।।१४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिशी संतानक सिद्धार्थ वृक्ष है।
उसके चतुर्दिशा में चउ सिद्धबिंब हैं।।
निज साम्य सुधारस के स्वादी मुनी वहाँ।
वन्दन करें सतत ही हम पूजते यहाँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर में पारिजात जो सिद्धार्थ वृक्ष है।
मुनिगण से वंद्य नित्य ही सुरगण से पूज्य है।।
इसके चतुर्दिशा में चउ सिद्धबिम्ब हैं।
हम पूजते इन्हें ये सर्वार्थसिद्ध हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोलाछंद-
सुमतिनाथ जिनराज, समवसरण में राजें।
छठी कल्पतरु भूमि, कल्पवृक्ष से साजें।।
पूरब दिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरू मानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।१७।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो भवि पूजें नित्य, सिद्धों की प्रतिमायें।
समवसरण में जाय, अतिशय पुण्य कमायें।।
दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।१८।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु मुमुक्षू नित्य, स्वात्मसुधारस पीते।
सिद्धबिंब को ध्याय, कर्म अरी को जीतें।।
पश्चिमदिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानो।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।१९।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावक भक्ति समेत, सिद्धबिम्ब को पूजें।
भवदधि शोषण हेत, करें प्रयत्न सुनीके।।
उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानो।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२०।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभु भगवान, समवसरण में तिष्ठें।
उन अतिशय से भव्य, असंख्य मिलकर बैठें।।
पूरबदिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरू मानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२१।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र सभी परिवार, लेकर वहाँ पे आवें।
भरें पुण्य भंडार, जिनवर गुण को गावें।।
दक्षिणदिशमंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धन जन सुख परिवार, बढ़ता जिन भक्ती से।
मिले मुक्ति का द्वार, स्वपर भेद युक्ती से।।
पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२३।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिले राज्य सन्मान, जग में मान्य कहावें।
जो करते गुणगान, जिनवर भक्ति बढ़ावें।।
उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२४।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्वजिनराज, भविजन मन तम हरते।
जो पूजें प्रभुपाद अतिशय सुख निधि भरते।।
पूरब दिश सिद्धार्थ वृक्ष नमेरु जानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२५।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन वैभव पूर्ण, समवसरण सुखकारी।
भव्य करें भवचूर्ण, नित पूजें मनहारी।।
दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानो।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२६।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिंतामणि जिनभक्ति, चिंतित फल को देवे।
जो पूजेंं निज शक्ति, झट प्रगटित कर लेवें।।
पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानों।
सिद्धबिम्ब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष की भूमि, मुंह मांगा फल देवे।
दर्श करें जो भव्य, सब उत्तम सुख लेवें।।
उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।
सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२८।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदा प्रभु भगवान, समवसरण नभ में है।
उन वचनामृतपान, करके भव्य नमें हैं।।
पूरबदिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरू जानों।
सिद्धबिम्ब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।२९।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र सदृश आल्हाद, करते जिनवच जग में।
जो जजते चरणाब्ज, झट पहुँचे शिवपद में।।
दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।
सिद्धबिम्ब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।३०।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज परिवार समेत, चंद्रसूर्य सुर आवें।
निज पद पावन हेतु, प्रभु पूजें गुण गावें।।
पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानों।
सिद्धबिम्ब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।३१।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रकिरण समश्वेत, जिनवर तन अति सुंदर।
नेत्र हजार बनाय, दर्शन करें पुरंदर।।
उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।
सिद्धबिम्ब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।३२।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-वसंततिलका छंद-
श्री पुष्पदंत जिनसर्वहितानुशास्ता।
जो पूजते समवसर्ण हरें असाता।।
है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिम्ब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३३।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार वृक्ष प्रतिमा यजते सदा जो।
स्वात्मैक सौख्य संपति भरते सदा वो।।
सिद्धार्थ वृक्ष सुखदायि नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिम्ब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३४।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतानकाख्य तरु में प्रतिमा नमें जो।
संसार घोर वन में न कभी भ्रमें वो।।
सिद्धार्थ वृक्ष प्रतिमा नमते मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३५।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पारिजात तरु की प्रतिमा जजें हैं।
वे रोग शोक दुख संकट से बचे हैं।।
सिद्धार्थ वृक्ष सुखदायि नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३६।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतलेश वचनामृत तापहारी।
जो पूजते समोसर्ण न हों दुखारी।।
है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेन्द्रा।।३७।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतानकाख्य तरु में प्रतिमा यजें जो।
संतान मोह अरि को उनकी नशे जो।।
है कल्पभूमि सिद्धार्थ नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३८।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतानकाख्य तरु में प्रतिमा यजें जो।
संतान मोह अरि को उनकी नशे जो।।
है कल्पभूमि सिद्धार्थ नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।३९।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पारिजात तरु की प्रतिमा जजें हैं।
वे पाप ताप हर स्वात्म सुधा चखे हैं।।
है कल्पभूमि सिद्धार्थ नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४०।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेयांसनाथ जिनका जु समोसरण है।
सिद्धार्थ वृक्षदिक् पूर्व अपूर्व सो है।।
रम्या नमेरु प्रतिमा नमते मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार वृक्ष दिश दक्षिण में सुहाता।
जो भव्य नित्य जजते तम भाग जाता।।
भक्ती करें सम सुधा रसिका मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धार्थ वृक्ष संतानक को जजें जो।
संतान सौख्य धन धान्य समृद्धि ले वो।।
ऋद्धीधरा सतत ध्यान धरें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पारिजात तरु की प्रतिमा भजे हैं।
वे जन्म मृत्यु भय से निश्चित छुटे हैं।।
भक्ती भरे स्तुति पढ़ें नित ही मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य तनु लाल सरोज जैसा।
सुंदर लिखे समवसर्ण अपूर्व वैसा।।
है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४५।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार वृक्ष फलदायि अपूर्व सोहे।
जैनेन्द्र बिंबयुत मानस्तंभ मोहे।।
सर्वार्थसिद्धि सुख हेतु नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४६।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतानकादि तरु पश्चिम में खड़ा है।
इंद्रादि पूज्य गुण अतिशय से बड़ा है।।
आनंद धाम पद हेतु नमें मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४७।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है पारिजात तरु उत्तर में अनोखा।
जो पूजते फल लहें अतिशायि चोखा।।
आत्मा पवित्र करके नमते मुनींद्रा।
मैं सिद्धबिंब जजहूँ यजते सुरेंद्रा।।४८।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-भुजंगप्रयात छंद-
समोसर्ण को पूजते भक्ति से जो।
लहें सौख्य संपद नवों निद्धि को वो।।
नमेरू तरू में जजूूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।४९।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ का है समोसर्ण सोहे।
दिशा दक्षिणी वृक्ष मंदार मोहे।।
चतुर्दिक् तरू के जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५०।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरासुर व किन्नर सदा कीर्ति गाते।
बृहस्पति गुणों का नहीं पार पाते।।
सुसंतानकं के जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५१।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरों की वहाँ टोलियाँ आ रही हैं।
करें नृत्य भी अप्सरा गा रही है।।
जजूँ १पारिजाताग के सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५२।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंताधिपति का समोसर्ण पूजें।
नमेरू तरू को जजें पाप धूजें।।
सुसिद्धार्थ के मैं जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५३।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरो दु:ख मेरे अनंतों भवों के।
हमें सौख्य देवो अनंते स्वयं के।।
सुमंदार के मैं जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामोह अंधेर छाया हृदय में।
उसे दूर कर ज्ञान ज्योती भरूँ मैं।।
सुसंतानकांघ्रिप२ जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५५।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते चतुष्टय कि लक्ष्मी धरे हैं।
अठारह महादोष तुमसे परे हैं।।
महा पारिजातं जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५६।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धरमनाथ का है समोसर्ण दीपे।
वहाँ पूर्वदिक् में नमेरू तरू पे।।
नमूँ शीश नाके जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५७।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समोसर्ण में भूमि छट्ठी दिपे हैं।
नमूँ नित्य जो बिंब मंदार पे हैं।।
जजें इंद्र मैं भी जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५८।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भरी कल्पतरु से छठी भूमि दीखे।
सभी के वहाँ पे मनोरथ फले थे।।
महावृक्ष संतानकं सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५९।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुसिद्धार्थ तरु पारिजातं नमें जो।
चतुर्दिक्क प्रतिमा हरें कर्म सब वो।।
फलें सर्ववांछित जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६०।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो शांति ईश्वर जगत् शांति कर्ता।
नमेरू तरू को नमूँ सौख्य भर्ता।।
पुनर्जन्म नाशों जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६१।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनीचित्तपंकज खिलाते रवी हो।
महाशांतिदाता विधाता शशी हो।।
सुमंदार तरु के जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६२।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समोसर्ण शांतीश का सौख्यकारी।
वहाँ कल्पभूमी फलें इष्ट भारी।।
सुसंतानकांघ्रिप जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६३।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावृक्ष है पारिजाताख्य उसमें।
चतुर्दिक्क सुरपूज्य प्रतिमा उसी में।।
गणीश्वर नमें मैं जजूँ सिद्ध देवा।
करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६४।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
कुंथुनाथ जिनराज का, समवसरण अभिराम।
छट्ठी भूमि नमेरु के, जजूँ सिद्ध सुखधाम।।६५।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण दक्षिणदिशी, तरु मंदार महान्।
जजूँ सिद्ध प्रतिमा सदा, पाऊँ स्वात्मनिधान।।६६।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण पश्चिमदिशी, सन्तानक सिद्धार्थ।
सिद्ध बिंब चउदिश जजूँ, पूर्ण फलें सर्वार्थ।।६७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश में कल्पतरु, भूमि सर्व हितकार।
पारिजात तरु बिंब को, जजूँ सर्व सुखकार।।६८।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरहनाथ जिननाथ का, समवसरण जग श्रेष्ठ।
जजूँ सिद्ध प्रतिमा सदा, तरु नमेरु सब ज्येष्ठ।।६९।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थनाथ को पूजते, अंत मिले जिननाम।
सिद्धारथ मंदार के, सिद्ध जजूँ गुणधाम।।७०।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ तीर्थपति अर्चना, खंडित हो यमराज।
संतानक तरु बिंब को, जजत मिले निज राज्य।।७१।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर जिनवर की भक्ति से, मुक्तिरमा वश होय।
पारिजात तरु बिंब को, जजूँ स्वात्म सुख होय।।७२।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ का जगत् में, समवसरण अतिरम्य।
तरु नमेरु के बिंब को, जजत मिले शिवशर्म।।७३।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहराज यमराज को, जीत बने जगदीश।
दक्षिणदिश मंदार के, बिंब जजूँ नत शीश।।७४।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षमाभाव से क्रोध को, किया निमूल जिनेश।
संतानक तरु अपरदिश, जजूँ मिटे भव क्लेश।।७५।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ पाप को नष्ट कर, पाया त्रिभुवन राज्य।
पारिजात तरु बिंब को, जजत लहूँ निजराज्य।।७६।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत भगवान का समवसरण सुरवंद्य।
तरु नमेरु के बिंब को, पूजूँ जग अभिनंद्य।।७७।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ सदा जिनदेव का, समवसरण अतिशायि।
सिद्धबिंब मंदार के, जजूँ सर्व सुखदायि।।७८।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन जनता पूज्य है, समवसरण गुणधाम।
संतानक तरु बिंब को, जजूँ मिले निजधाम।।७९।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामोह अज्ञानहर, ज्ञान ज्योति से पूर्ण।
पारिजात के बिंब को, जजत करूँ यम चूर्ण।।८०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई-
नमि जिन समवसरण अभिरामा, जजत भव्य बनते निष्कामा।
तरु नमेरु के चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा१।।८१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिजिनवर दुख संकट हारी, जो जन नमें वरें शिव नारी।
तरु मंदार चतुर्दिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८२।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमिनाथ स्वात्मसुख भोगें, जो जन नमें परम सुख भोगें।
संतानक तरु चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८३।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिजिन पाद सरोज जजें जो, सर्व उपद्रव दूर भगें जो।
पारिजात तरु चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८४।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ करुणा के सिंधू, जजत चखूँ समरस सुखबिंदू।
तरु नमेरु के चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८५।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवललना के जिनवरस्वामी, त्रिभुवन के प्रभु अंतर्यामी।
तरु मंदार चतुर्दिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८६।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत्पूज्य सुरनर खग ईशा, जो पूजें सो लहें मनीषा।
संतानक तरु चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८७।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौधर्मेन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्रा, जिनचरणांबुज नमें मुनींद्रा।
पारिजात तरु चउदिश सिद्धा, पूजत करूँ विघन अरिविद्धा।।८८।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिन पारसनाथा, पद्मावति फणपति नत माथा।
तरु नमेरु के चउदिश मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।८९।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण सुरवंद्य जिनंदा, वंदत सुरनर खग रविचंदा।
तरु मंदार चतुर्दिश मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९०।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमठ मान भंजन जिनराजा, भविजन पूजें निजहित काजा।
संतानक तरु चउदिश मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९१।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कलियुग पाप दलन जगख्याता, तुम यश गातीं शारद माता।
पारिजात तरु चउदिश मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९२।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिनगुण मणिमाली, जजत बने नर महिमाशाली।
तरु नमेरू में सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९३।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में राजें वीरा, महावीर सन्मति अतिवीरा।
तरु मंदार सिद्ध की मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९४।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्द्धमान जिनवर को वंदे, पाप अद्रि हों सौ सौ खंडे।
संतानक तरु सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९५।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वोत्तम कल्पद्रुम वीरा, बिन मांगे फल पावें धीरा।
पारिजात तरु सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९६।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-गीता छंद-
इस कल्पतरु की भूमि में, सिद्धार्थ तरु चारों दिशी।
श्री सिद्धबिंब विराजते, प्रत्येक तरु के चहुँदिशी।।
एकेक मानस्तंभ हैं, प्रत्येक प्रतिमा के निकट।
उनमें चतुर्दिश बिंब जिनवर पूजते ही शिव निकट।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पतरुभूमिसंबंधिषण्णवतिसिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुरशीत्यधिकिंत्रशतसिद्धप्रतिमातत्संबंधितावत्प्रमाणमानस्तम्भचतुर्दिक्-विराजमानषट्त्रिंशदधिकपंचदशशतजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणसिद्धार्थवृक्षस्थितसर्वसिद्धप्रतिमाभ्यो नम:।
(लवंग, श्वेतपुष्प या पीले चावल से १०८ बार
या २७ बार जाप्य करना।)
-दोहा-
कल्पवृक्ष चतामणी, जिनभक्तों के दास।
गाऊँ जिन गुणमालिका, पहुँचे जिनवर पास।।१।।
चाल-हे दीन बंंधु……….
धनि धन्य सिद्ध वृंद जो सिद्धालयों में हैं।
धनि धन्य सिद्ध बिंब जो सिद्धार्थ तरु में हैं।।
धनि धन्य तीर्थकृत समोसरण महान हैं।
धनि धन्य समोसरण स्वात्म गुणनिधान हैं।।२।।
जो कल्पतरु नाम की छट्टी धरा वहाँ।
हैं कल्पवृक्ष दशविधा चउदिश दिखे वहाँ।।
जन मांगते जो कुछ भी वे वृक्ष दे रहे।
सुरगण वहाँ पे आके क्रीड़ा में रत रहें।।३।।
पानांग वृक्ष बहुते विध पेय दे रहे।
तूर्यांग वाद्यवीणा मृदंग दे रहे।।
तरु भूषणांग बहुत से गहने दिया करें।
वस्त्रांग बहुत वस्त्र धोतियाँ दिया करें।।४।।
तरु भोजनांग विविध भोज्य वस्तु दे रहे।
तरु आलयांग महल कोठियाँ भी दे रहे।।
दीपांग दीप दे रहे सुंदर प्रकाशयुत।
तरु भाजनांग थाल आदि पात्र दें विविध।।५।।
मालांग वृक्ष सुरभि पुष्पमाल दे रहे।
तेजांग वृक्ष कोटि सूर्य ज्योति हर रहे।।
उस भूमि में कहीं पर ऊँचे भवन बनें।
कहिं बावड़ी जलों में फूले कुसुम घनें।।६।।
प्रत्येक दिश में इक इक सिद्धार्थ वृक्ष हैं।
तरु मूल में चतुर्दिक् श्री सिद्धबिम्ब हैं।।
प्रत्येक बिम्ब आगे इक मानथंभ हैं।
ये तीन कोट सहिते त्रयपीठ उपरि हैं।।७।।
एकेक समवसृति में, सिद्धार्थ चार-चार।
एकेक तरु में सिद्धों के बिंब चार-चार।।
एकेक मानथंभों में बिंब चार-चार।
सिद्धों के बिंब सोलह, चौसठ सु जिनाकार।।८।।
चौबीस समवसृति में, तरु छयान्वे सिद्धार्थ।
वे तीन सौ चुरासी, तरु सिद्धबिंब सार्थ।।
इतने हि १मानथंभों, में बिंब चतुर्दिश।
वे बिंब सर्व इक हजार पाँच सौ छत्तिस।।९।।
सौ इंद्र भक्ति से वहाँ पे वंदना करें।
नर नारियाँ भि द्रव्य लेय अर्चना करें।।
सुर अप्सरायें नित्य वहाँ नृत्य कर रहीं।
सुर किन्नरी वीणा व बांसुरी बजा रहीं।।१०।।
चारोें गली में चार चार नाट्य२ शालिका।
बत्तीस रंगभूमियुक्त पांच खन युता।।
प्रत्येक में बत्तीस हि ज्योतिष्क देवियाँ।
वे नृत्य करें भक्ति भरीं, पुण्य देवियाँ।।११।।
इस भूमि के आगे चतुर्थ वेदिका बनी।
गोपुर पे देव भावन रक्षा करें घनी।।
प्रतिद्वार मंगलद्रव्यइक सौ आठ इकसौ आठ।
प्रत्येक तोरणद्वार पे नवनिधि के रहें ठाठ।।१२।।
बहुविध अनेक वर्णना कोई न कह सके।
धनपति वहाँ जिनके प्रभाव से हि रच सके।।
मैं सिद्धबिंब की सदैव वंदना करूँ।
तीर्थेश भक्ति से दुखों को रंच ना धरूँ।।१३।।
-दोहा-
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।
ज्ञानमती की याचना, पूरो नाथ अबार।।१४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पभूमिसंबंधिसर्वसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानसर्वसिद्धप्रतिमाभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भव्य भक्ति से समवसरण के, सिद्धार्थवृक्ष को यजते हैं।
सिद्धों के प्रतिबिम्बों का अर्चन, करके सुख संपति लभते हैं।।
वे समवसरण दर्शन करके, सब ऋद्धि—सिद्धि पा जाते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ वैवल्य पाय, निश्चित सिद्धालय जाते हैं।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
-शंभुछंद-
श्री शांति कुंथु अरनाथ प्रभू ने, जन्म लिया इस धरती पर।
यह हस्तिनागपुरि इंद्रवंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।
यहाँ जंबूद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं अनेक सुखप्रद।
मेरा यहाँ वर्षायोग काल, स्वाध्याय ध्यान से है सार्थक।।१।।
इस युग के चारित्र चक्री श्री, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथमसूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।२।।
सिद्धार्थ वृक्ष का लघु विधान, सिद्धों की प्रतिमा भक्तीवश।
यह रोग शोक दारिद्र्य दु:ख, संकट हरने वाला संतत।।
जब तक चौबीसों तीर्थंकर प्रभु का जग में गुणगान रहे।
तब तक यह गणिनी ज्ञानमती, विरचित विधान जयशील रहे।।३।।
।। इति समवसरणसिद्धार्थवृक्षविधानम् संपूर्णम्।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।