-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
समवसरण में सप्तमभूमि, भवनभूमि मुनि कहते।
उनमें भवन बने अति ऊँचे, देव देवियाँ वहँ रहते।।
चारों गलियों में नव-नव, स्तूप बने मणियों के।
उनमें रत्नमयी जिनप्रतिमा, पूजूँ श्रद्धा करके।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-वसंततिलका छंद-
गंगा नदी सलिल उज्ज्वल भृंग में है।
धारा करूँ जिनपदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशर घिसी भर के कटोरी।
चर्चन करूँ जिनपदाम्बुज में रुची से।।अर्हंत.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत धुले धवल लेकर थाल भर के।
मैं पुंज धर जिनपदाम्बुज में रुची से।।
अर्हंत सिद्ध प्रतिमा नित पूजहूँ मैं।
नौ लब्धिवत् नव नवों स्तूप में जो।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा जुही वकुल केतकि पुष्प लेके।
अर्पूं सदा जिन पदाम्बुज में रुची से।।अर्हंत.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू सुहाल बरफी भर थाल में ले।
अर्पण करूँ जिन पदाम्बुज में रुची से।।अर्हंत.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती दश दिश प्रकासे।
आर्ती उतार कर पूजूँ मैं रुची से।।अर्हंत.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊं सुगंधि वर धूप सुधूप घट में।
हों कर्म भस्म उड़ती बहु धूम्र दीखे।।अर्हंत.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता बदाम अखरोट भराय थाली।
अर्पण करूँ सुफल हेतु तुम्हें फलों को।।अर्हंत.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ उसमें बहु रत्न ले के।
अर्पण करूँ रत्नत्रय फल लाभ हेतू।।अर्हंत.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिनवनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में मुझमें सदा, करो शांति भगवन्त।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
पुण्यराशि जिनबिंब, अतिशय महिमा को धरें।
जो पूजें हर डिंभ१, वो न भ्रमें भव वन विषें।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-नरेन्द्र छंद-
श्री वृषभदेव की पूर्व गली में, नव स्तूप बखाने।
उसमें जिन सिद्धों की प्रतिमा, भविजन के अघ हाने।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवल लब्धी हेतू ही, नित प्रति यजन करूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की दक्षिण वीथी, नव स्तूप खड़े हैं।
उनमें जिन प्रतिमा को पूजत, धन जन सुयश बढ़े हैं।।नव.।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में तृतिय गली में, नवस्तूप मनोहर।
गणधर मुनिगण जिनप्रतिमा को, वंदत सर्व तमोहर।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवल लब्धी हेतू ही, नित प्रति यजन करूँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवनभूमि चौथी वीथी में नव स्तूप दिपे हैं।
पूजत ही दुख दारिद संकट, तन मन व्याधि खिपे१ हैं।।नव.।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के समवसरण में, भवन भूमि सप्तम है।
प्रथम गली में सुर नर वंदित, नव स्तूप उत्तम हैं।।नव.५।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में द्वितिय गली में, नवस्तूप अति ऊँचे।
मुनिगण प्रदक्षिणा दे करके, वंदत निज में पहुँचे।।नव.।।६।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव स्तूप रत्नों से निर्मित, मणिमय जिन बिंबों युत।
अष्ट द्रव्य से पूजन करते, भविजन बहु भक्ती युत।।नव.।।७।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मराग मणियों से निर्मित, नवस्तूप अति शोभे।
जिन प्रतिमा को पूजें भविजन, सुर किन्नर मन लोभें।।नव.।।८।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवजिन के समवसरण में, भवनभूमि भवनों युत।
दर्शन करते प्रथम गली में, नव स्तूप बिंबों युत।।नव.।।९।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में भवन भूमि में, ऊँचे भवन बने हैं।
द्वितीय गली में नव स्तूप की, प्रतिमा भविक नमें हैं।।नव.।।१०।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवन भूमि के महलों में नित, सुर जिन न्हवन रचाते।
नृत्य करें बहु नव स्तूप की, जिनप्रतिमा गुण गाते।।नव.।।११।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो त्रय चार पांच खन महलों, में सुर खग रहते हैं।
जिनगुण गाते नवस्तूप की प्रतिमा को यजते हैं।।नव.।।१२।।
ॐ ह्रीं संभवनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन प्रभु सवसरण में, भवन भूमि अतिसुन्दर।
वापी पर्वत बने मनोहर, नवस्तूप प्रतिमा धर।।नव.।।१३।।
ॐ ह्रीं अभिनन्दनजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवन भूमि में उपवन सुंदर, बहुविध वृक्ष फले हैं।
द्वितिय भूमि में नवस्तूप में, जिनवर बिंब भले हैं।।नव.।।१४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में नवस्तूप में, चित्र विचित्रित रचना।
अर्हत सिद्ध बिंब को नमते, भव भव दुख से बचना।।नव.।।१५।।
ॐ ह्रीं अभिनन्दनजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवनभूमि में बावड़ियों में, सुंदर कमल खिले हैं।
नव स्तूप को नमते मुनि के, चित्त सरोज खिले हैं।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवल लब्धी हेतू ही, नित प्रति यजन करूँ मैं।।१६।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पद्धड़ी छंद-
जिनसुमतिनाथ का समवसर्ण, उत१ भवनभूमि है विविध वर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।१७।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण में भवन भूमि, वंदन से मिलती मोक्ष भूमि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।१८।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन भवन भूमि है सौख्यकार, मुनिगण वहाँ करते नित विहार।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।१९।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसमवसरण में भवन पंक्ति, जहं रमती हैं सुर मनुज पंक्ति।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२०।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनपद्मप्रभू का समवसर्ण, सब भव्यों ने ली वहाँ शर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२१।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो जिन पूजें तज सकल आधि, वो पा लेते अंतिम समाधि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समवसरण दर्शन करंत, वो भव्य भवोदधि को तरंत।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२३।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण में महलतुंग, सब जन का करते मानभंग।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२४।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सुपार्श्व का समवसर्ण, उसमें रचना है विविध वर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२५।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समवसरण से करे प्रेम, उनके हर क्षण ही सकल क्षेम।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२६।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण में सभी जंतु, सब वैर भाव तज बने बंधु।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण में साधु वृंद, ले स्वात्म सुधारस का अनंद।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२८।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन चंद्रनाथ से जग सनाथ, गणधर नित नमते नमां माथ।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।२९।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन समवसरण में भवन भूमि, वंदन से मिलती सिद्धभूमि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।३०।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदप्रभु हरते जगत ताप, उन नाम मंत्र सब हरे पाप।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।३१।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन से होते कर्मक्षार, जिनसमवसरण अतिशय अपार।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित पूजूँ जिन सिद्ध बिंब।।३२।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौपाई-
पुष्पदंत त्रिभुवन भगवंत, समवसरण उन अतिशयवंत।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३३।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर समवसरण सुखसार, भविजन को शिवसुख दातार।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३४।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्श गंध रस वर्ण विहीन, श्री जिननाथ विविध गुणलीन।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३५।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आतम परमात्म समान, जिनवर भक्ति करे भगवान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३६।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल समवसरण अभिराम, तुम पद भक्त लहे निजधाम।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३७।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतल जग शीतल करें, साम्य सुधारस वर्षा करें।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३८।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय चिंतामणि भगवान, भक्त लहे इच्छित वरदान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।३९।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोक प्रकाशी ज्ञान, ज्ञान मेरा वैâवल्य समान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में रहें जिनेश, श्री श्रेयांस जगत् परमेश।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर जिनगुण में लवलीन, आत्म सुधारस पिये प्रवीण।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर की दिव्यध्वनि खिरे, परमानंद सुख झरना झरे।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन श्रेयांस त्रिभुवन के नाथ, द्वादश गण को करें सनाथ।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत वâटें कर्म कटुनिंब।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य वासवगण१ पूज्य, भक्त बने भी क्षण में पूज्य।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४५।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जिनगुणमणिराशि, पूजत पावें निज गुणराशि।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४६।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर भवन भूमि फलदायि, वंदत पुण्य बंधे अतिशायि।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४७।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य को पूजें भव्य, निजसमरस सुख पावें नव्य।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, पूजत कटें कर्म कटुनिंब।।४८।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
श्री विमलनाथ जी के समोसर्ण में,
सातवीं भूमि नित सौख्य देवे हमें।
स्तूप के बिंब को पूजते शोक ना,
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग ना।।४९।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समोसर्ण में वंदते नाथ को।
प्राप्त हों स्वात्म की सौख्य संपत्ति को।।स्तूप.।।५०।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्षमाभाव से क्रोध को वारते।
स्वात्म पीयूष आनंद वो पावते।।स्तूप.।।५१।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मृदूभाव से मान को मारते।
इन्द्र से भी सदा मान वो पावते।।स्तूप.।।५२।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अनंतेश की दिव्यध्वनि को सुनें।
वे स्वयं शुद्ध निज तत्त्व को ही गुने।।स्तूप.।।५३।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सदा भक्ति से नाथ गुण गावते।
इन्द्र भी प्रीति से उन सुयश गावते।।
स्तूप के बिंब को पूजते शोक ना,
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग ना।।५४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो करें नृत्य संगीत भक्ती भरे।
इन्द्र उनके निकट नृत्य तांडव करें।।स्तूप.।।५५।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो प्रभू पास में आ चमर ढोरते।
इन्द्र भी उनके ऊपर चमर ढोरते।।स्तूप.।।५६।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मतीर्थेश वीहार करते भले।
धर्म का चक्र उन आगे आगे चले।।स्तूप.।।५७।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो तुम्हारे उपरि छत्र को धारते।
इन्द्र भी उसके ऊपर छतर लावते।।स्तूप.।।५८।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो करें नित्य अभिषेक जिनबिंब का।
इन्द्र करते न्हवन मेरु पे उन्हीं का।।स्तूप.।।५९।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तूप के बिंब की जो करें अर्चना।
आधि व्याधी कभी भी उन्हें रंच ना।।स्तूप.।।६०।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांति तीर्थेश चक्रीश कामेश हैं।
शांति के हेतु हम नाथ को पूज हैं।।स्तूप.।।६१।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ शांतीश का जो समोसर्ण है।
वो भवांभोधि तारण तरण एक है।।स्तूप.।।६२।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तूप पे छत्र फिरते चंवर ढुर रहें।
तोरणों पुष्प हारों से शोभित रहें।।स्तूप.।।६३।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तूप के बिंब को नित्य मुनि वंदते।
जो नमें वे महामोह को खंडते।।स्तूप.।।६४।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चामर छंद-
कुंथुनाथ का समोसरण महान् विश्व में।
सातवीं मकान पंक्ति भूमि सौख्य दे हमें।।
स्तूप के अर्हंत सिद्धबिंब को सदा जजूँ।
ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य स्वात्म संपदा भजूूं।।६५।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ भक्ति कर्म पंक धोवने समर्थ है।
स्थान सप्त परम को प्रदान हेतु दक्ष है।।
स्तूप के अर्हंत सिद्धबिंब को सदा जजूँ।
ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य स्वात्म संपदा भजूूं।।६६।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित्य वंदना करें जिनेश की शतेन्द्र भी।
आप भक्ति से पशू व नारकी न हों कभी।।स्तूप.।।६७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक नाथ भक्ति सर्व पाप नाश हेतु है।
घोर भव समुद्र पार हेतु एक सेतु है।।स्तूप.।।६८।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अर जिनेश का समोसरण अपूर्व है।
आप भक्ति भाव से रचे उसे कुबेर हैं।।स्तूप.।।६९।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप पादपद्म का शरण लिया मुनीश ने।
आत्म सौख्य प्राप्ति हेतु बार बार ही नमें।।स्तूप.।।७०।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य कर्म से विहीन आत्मा स्वतंत्र है।
नाथ भक्ति के प्रताप आत्मा पवित्र है।।स्तूप.।।७१।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वकर्म से छुड़ाय मोक्ष में पठावते।
ध्यान आपका धरें निजात्म धाम पावते।।स्तूप.।।७२।।
ॐ ह्रीं अरनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ का समोसरण त्रिलोक ख्यात है।
नाथ के अनंत गुण उन्हीं में आत्मसात् हैं।।स्तूप.।।७३।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप नाम मात्र िंचतितार्थ वस्तु दे सके।
आप ध्यान से हि जन्म की परंपरा मिटे।।स्तूप.।।७४।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काम मल्ल मोहमल्ल मृत्युमल्ल हैं बड़े।
आपका प्रभाव देख आप के चरण पड़ें।।स्तूप.।।७५।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तूप आप देह से ही बारहे गुणे कहे।
पद्मराग से बने मुनींद्र वंद्य हो रहे।।स्तूप.।।७६।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ मुनिसुव्रतेश का समोसरण दिपे।
नौ निधी वहाँ प्रतेक द्वार पे सदा दिखें।।स्तूप.।।७७।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु भी महाव्रतादि ले पवित्र हो रहे।
आत्म तत्त्व शुद्ध ध्याय कर्म पंक धो रहे।।स्तूप.।।७८।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ पाद वंदना अनंत पाप खंडती।
स्वर्ग सौख्य देय गुण अनंत पे भि मंडती।।
स्तूप के अर्हंत सिद्धबिंब को सदा जजूँ।
ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य स्वात्म संपदा भजूूं।।७९।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सदा चित्त में आप को धारते।
वे महात्मा पुरुष सर्व को तारते।।स्तूप.।।८०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
नमिजिन त्रिभुवन वंद्य, समवसरण में राजते।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८१।।
ॐ ह्रीं नमिजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजको निज में ध्याय, मुक्तिरमा को वश किया।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८२।।
ॐ ह्रीं नमिजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करे मोह का खंड, जिन प्रतिमा जिन सारखी।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८३।।
ॐ ह्रीं नमिजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजानंद रसमग्न, फिर भी तिहुं जग देखते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८४।।
ॐ ह्रीं नमिजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ जग वंद्य, समवसरण महिमा प्रगट।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८५।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महिमा आप अचिन्त्य, गणधर भी नहिं कह सके।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८६।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम दर्शन से रम्य, सुख संपति नवनिधि मिले।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८७।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमानंद निमग्न, परम ज्योति को धारते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८८।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ भगवंत, समवसरण त्रिभुवन शरण।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।८९।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रोग शोक दुख द्वंद, तुम भक्ती से दूर हों।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९०।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैर कलह जगनिंद्य, दूर भगे तुम भक्ति से।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९१।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कलियुग कष्ट अनंत, नश जाते तुम नाम से।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९२।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर भगवंत, कल्पवृक्ष दाता तुम्हीं।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९३।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविजन वहां असंख्य, समवसरण में बैठते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९४।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धारथ के नंद, त्रिभुवन जन के हो पिता।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९५।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण जग वंद्य, भवन भूमि से शोभता।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।९६।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
प्रत्येक गली के नव नव ये, चारों के सब छत्तीस हुये।
चौबीस समवसृति के स्तूप, ये आठ शतक चौसष्ठ हुये।।
शिर छत्र फिरें अरु चंवर ढुरें, वंदनवारों से शोभ रहें।
हम इनकी जिन प्रतिमाओं को, नित अर्घ चढ़ाकर कर्म दहें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिमध्यवीथीसंबंधि-चतुषष्ट्यधिकअष्टशतस्तूपमध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणसंबंधिस्तूपमध्यविराजमानसर्वजिनसिद्ध- प्रतिमाभ्यो नम:।
(श्वेत सुगंधित पुष्प या लवंग या पीले चावल से १०८ बार
या २७ बार जाप्य करना)
-दोहा-
परमब्रह्म परमातमा, परमपिता परमेश।
गाऊँ तुम गुण मालिका, मिटे सकल भवक्लेश।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय जिनवर के समवसरण, सातवीं भवनभूमि प्यारी।
जय जय स्तूप जिन सिद्धबिंब, जय जय इनकी महिमा न्यारी।।
जय जय स्तूप पर छत्र फिरें, बहुवर्णध्वजायें फहरातीं।
जय मंगल द्रव्य वहां रक्खें, रत्नों की रचना मनभाती।।२।।
इन भवन भूमियों में ऊँचे, बहु महल बने सुर युगलों के।
संगीत नृत्य से देव वहां, अभिषेक करें जिनबिंबों के।।
कहिं स्वर्ण हिंडोले में बैठीं, देवी सब झूला झूल रहीं।
कहिं खिले कमल से हंसों से, वापी सब जन मन मोह रहीं।।३।।
प्रत्येक गली के मध्य बने, स्तूप विविध रत्नों के हैं।
उनके मधि मकराकार धरें, सौ-सौ तोरण रत्नों के हैं।।
ये अपने अपने जिनवर से, बारह गुणिते ऊँचे माने।
इनमें जिनबिंब बने मणिमय, उनकी पूजा भवदुख हाने।।४।।
वहं छत्र चंवर भृंगार कलश, पंखा ठोना ध्वज दर्पण हैं।
ये मंगल द्रव्य आठ मानें, प्रत्येक एक सौ आठ रहें।।
इन स्तूपों के आसपास, मुनियों के सभाभवन दिखते।
जो पूजें इन सब मुनियों को, उनके सब पाप अरी भगते।।५।।
जहाँ प्रभु का समवसरण रहता, षट्ऋतु के फल फल जाते हैं।
सब ऋतु के फूल खिले सुंदर, दश दिश को भी महकाते हैं।।
सब जात विरोधी क्रूर पशू, आपस में मिलकर रहते हैं।
सुर मनुज पुराने वैर छोड़ आपस में प्रीति करते हैं।।६।।
यह समवसरण का ही प्रभाव, वहाँ जाते भव्य कहाते हैं।
मिथ्यात्व हलाहल विष उगलें, सम्यक्त्व निधी पा जाते हैं।।
निज में ही निज को पाकरके, निजआत्मा को ही ध्याते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ पूरी करके, क्रम से शिवपद पा जाते हैं।।७।।
-दोहा-
धन्य धन्य जिनराज तुम, धन्य धन्य तुम भक्त।
धन्य तुम्हारी अर्चना, धन्य धन्य यह वक्त।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितभवनभूमिसंबंधिसर्वस्तूपमध्य-विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—चौबोल छंद—
जो समवसरण स्तूपों के, जिन सिद्धबिम्ब का यजन करें।
वे सर्व अमंगल दूर करें, नित–नित नव मंगल प्राप्त करें।।
फिर समवसरण का दर्शन कर, प्रभु की दिव्यध्वनि श्रवण करें।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करके, निज सिद्धिरमा को वरण करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
-दोहा-
श्री ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर भगवान।
समवसरण को नित नमूं, कोटि नमूं शुभ ध्यान।।१।।
मूलसंघ में कुंदकुंद—अन्वय सरस्वति गच्छ।
बलात्कारगण में हुए, सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम गुरु महान आचार्य।
चारित्र चक्री श्री — शांतिसागराचार्य।।३।।
इनके पहले शिष्य श्री—वीरसागराचार्य।
प्रथमहि पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।४।।
यहां रत्नत्रयनिलय में, जिनवर चरण समीप।
जिनवर गुरुवर सरस्वती, इन चरणों में प्रीत।।५।।
समवसरणस्तूप का, यह विधान सुखकार।
पूर्ण किया जिनभक्तिवश, करो भव्य रुचि धार।।६।।
जब तक नहिं हो ‘ज्ञानमती’, केवल एक महान्।
तब तक जग में स्थायि हो, यह स्तूप विधान।।७।।
हस्तिनागपुर तीर्थ पर, जब तक तेरहद्वीप।
तब तक स्तूप विधान यह, बने सिद्धिपथ दीप।।८।।
।।इति समवसरणस्तूपविधानं संपूर्णम्।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।