-अथ स्थापना-
(तर्ज-करो कल्याण आतम का……)
नमन श्री नेमि जिनवर को, बालयति स्वात्मनिधि पायी।
तजी राजीमती कांता, तपो लक्ष्मी हृदय भायी।।
करूँ आह्वान हे भगवन्! पधारो मुझ मनोम्बुज में।
करूँ मैं अर्चना रुचि से, अहो उत्तम घड़ी आई।।
नमन श्री…।।टेक.।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
(तर्ज-ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…..)
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान -२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।टेक.।।
भव भव में नीर पिया, नहिं प्यास बुझा पाये।
तुम पद धारा देने, पद्माकर जल लाये।।
निज का अघमल धोने के लिए, जलधारा करने आये हैं।।
भगवान.।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
चंदन चंदा किरणें, नहिं शीतल कर सकते।
तुम पद अर्चा करने, केशर चंदन घिसके।।
तनु ताप शांत हेतू चंदन, चरणों में चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज सुख के खंड हुए, नहिं अक्षय पद पाये।
सित अक्षत ले करके, तुम पास प्रभो! आये।।
अविनश्वर सुख पाने के लिए, सित पुंज चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
हे नाथ! कामरिपु ने, त्रिभुवन को वश्य किया।
इससे बचने हेतू, बहु सुरभित पुष्प लिया।।
निज आत्म गुणों की सुरभि हेतु, ये पुष्प चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध पकवान चखे, नहिं भूख मिटा पाये।
इस हेतू चरु लेकर, तुम निकट प्रभो! आये।।
निज आत्मा की तृप्ती के लिए, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज मन में अंधेरा है, अज्ञान तिमिर छाया।
इस हेतू दीपक ले, प्रभु पास अभी आया।।
निज ज्ञानज्योति पाने के लिए, हम आरति करने आये हैं।।
भगवान.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
कर्मों ने दु:ख दिया, तुम कर्मरहित स्वामी।
अतएव धूप लेके, हम आये जगनामी।।
सब अशुभकर्म के भस्महेतु, हम धूप जलाने आये हैं।।
भगवान.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध के फल खाये, नहिं रसना तृप्त हुई।
ताजे फल ले करके, प्रभु पूजूँ बुद्धि हुई।।
इच्छाओं की पूर्ती के लिए, फल अर्पण करने आये हैं।।
भगवान.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
प्रभु तुम गुण की अर्चा, भवतारन हारी है।
भवदधि में डूबे को, अवलंबनकारी है।।
निज ‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ती के लिए, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
यमुना नदी का नीर, स्वर्णभृंग में भरूँ।
श्रीनेमिनाथ के चरण में, धार मैं करूँ।।
चउसंघ में सब लोक में भि शांति कीजिए।
बस ये ही एक याचना प्रभु पूर्ण कीजिए।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हे नेमि! नीलकमल आप चिन्ह शोभता।
ये सुरभि पुष्प भी तो घ्राण नयन मोहता।।
प्रभु पाद कमल में अभी पुष्पांजलि करूँ।
सब रोग शोक दूर हों निज संपदा भरूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
अथ पंचकल्याणक अर्घ्य
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रीसमुद्रविजय शौरीपुरि, नृप पितु मात शिवादेवी।
गर्भ बसे शुभ स्वप्न दिखाकर, तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी।।
गर्भकल्याणक पूजा करते, मिले राह कल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रावण शुक्ला छठ में मति श्रुत, अवधिज्ञानि प्रभु जन्मे थे।
मेरू पर जन्माभिषेक में, देव देवियाँ हर्षे थे।।
जन्मकल्याणक पूजा करते, मिले राह उत्थान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
चले ब्याहने राजुल को, पशु बंधे देख वैराग्य हुआ।
श्रावण सुदि छठ सहस्राम्र वन, में प्रभु दीक्षा स्वयं लिया।
दीक्षा तिथि जजते मिल जावे, बुद्धि आत्मकल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, ऊर्जयंत गिरि पर तिष्ठे।
केवलज्ञान सूर्य प्रगटा तब, प्रभु को बांसवृक्ष नीचे।।
समवसरण में किया सभी ने, पूजा केवलज्ञान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
प्रभु गिरनार शैल से मुक्ती, रमा वरी शिवधाम गये।
सुदि आषाढ़ सप्तमी सुरगण, वंद्य नेमि जगपूज्य हुए।।
जो निर्वाण कल्याणक पूजें, मिले राह निर्वाण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
नेमिनाथ की वंदना, करे नियम को पूर्ण।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करत, होवें सब दुख चूर्ण।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—दोहा—
नेमिनाथ भगवंत को, वंदूं शीश नमाय।
पुष्पांजलि से पूजते, भव भव दु:ख नशायं।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—दोहा—
समीचीन गुण के निमित, अतिशय स्थूल महान्।
‘स्थविष्ठ’ प्रभु नेमि को, नमत बनूँ गुणवान्।।१।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादिकगुण वृद्ध प्रभु, इससे ‘स्थविर’ आप।
दर्शन ज्ञान चरित्र हित, नमूँ नेमि नत माथ।।२।।
ॐ ह्रीं स्थविराय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में सुप्रशस्त हो, ‘ज्येष्ठ’ नेमि भगवान्।
आत्म सुधारस प्राप्त हो, नमते निज पर ज्ञान।।३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबमें अग्रेसर तुम्हीं, ‘प्रष्ठ’ नाम से ख्यात।
आत्मसुरभि पैâले जगत, नमत आत्मसुख सात्।।४।।
ॐ ह्रीं प्रष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब भव्योें को प्रिय अधिक, ‘प्रेष्ठ’ आप जगमीत।
गुण अनन्तयुत नेमिप्रभु, जजूं नमूँ धर प्रीत।।५।।
ॐ ह्रीं प्रेष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुबुद्धि तुम, अति विस्तीर्ण प्रसिद्ध।
प्रभु ‘वरिष्ठधी’ तुम नमूँ, गुणमणि धरूं समृद्ध।।६।।
ॐ ह्रीं वरिष्ठधिये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अग्र पर तिष्ठते, अतिशय स्थिर नित्य।
इसीलिये प्रभु स्थेष्ठ, नमत लहूँ सुख नित्य।।७।।
ॐ ह्रीं स्थेष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन के गुरु आप हैं, नाथ ‘गरिष्ठ’ प्रधान।
स्वात्मामृत के पान से, बनूँ स्वस्थ अमलान।।८।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणपेक्षा बहुरूप को, धारण करते नाथ।
प्रभु ‘बंहिष्ठ’ तुम्हें नमूँ, मिले सौख्य श्रीसाथ।।९।।
ॐ ह्रीं बंहिष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु प्रशंसनीया सुगुण, प्रभो ‘श्रेष्ठ’ तुम नाम।
अनुपम गुणनिधि हेतु मैं, नमूँ नेमि शिवधाम।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चर्मचक्षु से आप हैं, अतिशय सूक्ष्म जिनेश।
प्रभु ‘अणिष्ठ’ तुमको नमूँ, मिटे जगत् का क्लेश।।११।।
ॐ ह्रीं अणिष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत्पूज्य वाणी विमल, प्रभु ‘गरिष्ठगी’ नाम।
मम रसना हो रसवती, शत शत करूँ प्रणाम।।१२।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठगिरे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती संसार को, नष्ट किया भगवान्।
नमूँ ‘विश्वमुट्’ नेमिप्रभु, पाऊँ सौख्य निधान।।१३।।
ॐ ह्रीं विश्वमुचे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसृष्टि रचना किया, आप ‘विश्वसृट्’ मान्य।
धर्म संपदा पूर्ण हो, नमते सुख धन धान्य।।१४।।
ॐ ह्रीं विश्वसृजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखिल लोक के शीश हो, नेमि प्रभो! ‘विश्वेट्’।
सप्तपरम स्थान हित, वंदूं मस्तक टेक।।१५।।
ॐ ह्रीं विश्वेशे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग की रक्षा करो, अभयदान दे नाथ।
नाम ‘विश्वभुक्’ मैं नमूँ, पूजत बनूँ सनाथ।।१६।।
ॐ ह्रीं विश्वभुजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ले जाते शुचिकर्म में, सब जीवों को नाथ।
नेमि! ‘विश्वनायक’ तुम्हीं, नम्ाूँ नमाऊँ माथ।।१७।।
ॐ ह्रीं विश्वनायकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुरश्मि से, व्यापा लोकालोक।
‘विश्वाशी’ भगवान को, वंदूँ देऊँ धोक।।१८।।
ॐ ह्रीं विश्वाशिषे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वरूप आत्मा’ तुम्हीं, सकल विश्व में आप।
व्याप्त लोकपूरण प्रथित, समुद्घात से नाथ।।१९।।
ॐ ह्रीं विश्वरूपात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व विश्व से पार हैं, आप ‘विश्वजित्’ नाम।
सकल गुणों की राशि हित, करूँ अनंत प्रणाम।।२०।।
ॐ ह्रीं विश्वजिते श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विजितान्तक’ मृत्यूजयी, नेमि! नमूँ रुचि धार।
शक्ती दो प्रभु मोह यम, काम मल्ल दूं मार।।२१।।
ॐ ह्रीं विजितान्तकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नष्ट किया भव भ्रमण तुम, नाथ ‘विभव’ जग मान्य।
जन्ममरण दुख क्षय करो, तुम जग में प्राधान्य।।२२।।
ॐ ह्रीं विभवाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सात भयों से दूर प्रभु, ‘विभय’ करो भय दूर।
सर्वकांति नित नेमि को, नमत मिले सुखपूर।।२३।
ॐ ह्रीं विभयाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत बलशालि तुम, ‘वीर’ नाम से ख्यात।
मेरी नंतचतुष्टयी, दीजे श्रुत विख्यात।।२४।।
ॐ ह्रीं वीराय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘विशोक’ त्रिलोक में, किया शोक को दूर।
मेरे शोक हरो सभी, नमूँ नेमि गुणपूर।।२५।।
ॐ ह्रीं विशोकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृद्धावस्था से रहित, ‘विजर’ नाम से ख्यात।
जरा जीर्ण मेरी करो, मेटो भव भव त्रास।।२६।।
ॐ ह्रीं विजराय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहीं जीर्ण होते कभी, ‘अजरन्’१ नाम धरंत।
सभी व्याधि दुख क्षीण हों, नमूँ नाथ शिवकांत।।२७।।
ॐ ह्रीं अजरते श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग रहित हो देव तुम, अत: ‘विराग’ प्रसिद्ध।
नमूँ विरागी मैं बनूँ, पाऊँ निजगुण रिद्धि।।२८।।
ॐ ह्रीं विरागाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पाप से ‘विरत’ हो, भवसुख विरत महान्।
मेरे महाव्रत पूरिये, नमूँ तपोधनवान।।२९।।
ॐ ह्रीं विरताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वपरिग्रह शून्य हो, नाथ! ‘असंग’ अनूप।
परिग्रह ग्रंथि से छुटूूं पाऊँ निज चिद्रूप।।३०।।
ॐ ह्रीं असंगाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विषयों से भिन्न हो, पूर्ण पवित्र ‘विविक्त’।
मुझको भेदविज्ञान दो, होऊँ पर से रिक्त।।३१।।
ॐ ह्रीं विविक्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मत्सर आदिक दोष से, रहित गुणों की राशि।
नमॅूँ ‘वीतमत्सर’ तुम्हें, पाऊँ निज सुखराशि।।३२।।
ॐ ह्रीं वीतमत्सराय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिष्यों के बांधव सहज, हित उपदेशी सूर्य।
‘विनेयजनताबंधु’ को, नमूँ तमोहर सूर्र्य।।३३।।
ॐ ह्रीं विनेयजनताबंधवे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कल्मष से दूर हो, नमत पाप हो क्षीण।
‘विलीन सर्व कल्मष’ तुरत, करो सौख्य अक्षीण।।३४।।
ॐ ह्रीं विलीनाशेषकल्मषाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिरमा के साथ में, योग ‘वियोग’ महान।
इष्टवियोगादिक सभी, दु:ख हरो भगवान।।३५।।
ॐ ह्रीं वियोगाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ अंग लक्षण कहा, योग ‘योगवित्’ नाथ।
ध्यानयोग के हेतु मैं, नमूँ जोड़ द्वय हाथ।।३६।।
ॐ ह्रीं योगविदे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पदार्थ को जानते, आप श्रेष्ठ ‘विद्वान’।
विद्याधन मुझको मिले, नमूँ नंत गुणवान्।।३७।।
ॐ ह्रीं विदुषे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म उभय सृष्टी किया, प्रभो ‘विधाता’ सिद्ध।
मुनीधर्म मुझको मिले, नमूँ करूँ यमविद्ध।।३८।।
ॐ ह्रीं विधात्रे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निरतिचार चारित्रधर, ‘सुविधि’ कहाए आप।
पंचम चारित हेतु मैं, नमूूँ हरो भव ताप।।३९।।
ॐ ह्रीं सुविधये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम ध्यानी थे तुम्हीं, ‘सुधी’ जगत में श्रेष्ठ।
धर्म शुक्ल की सिद्धि हो, नमूूूँ नमूूँ प्रभु ज्येष्ठ।।४०।।
ॐ ह्रीं सुधिये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षमारूप हो क्रोधरिपु, का करके संहार।
‘क्षांतिभाक्’ को नमत ही, बनूँ क्षमा भंंडार।।४१।।
ॐ ह्रीं क्षांतिभाजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथिवीमूर्ति’ स्वरूप हो, सर्वंसहा महेश।
सहनशीलता गुण मिले, नमूँ हरो भव क्लेश।।४२।।
ॐ ह्रीं पृथिवीमूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्यंतिक शांती सहित, ‘शांतिभाक्’ जिनराज।
परम शांति मुझको मिले, नमत पूर्ण हो काज।।४३।।
ॐ ह्रीं शांतिभाजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल सम शीलत स्वच्छ हो, किया कर्ममल दूर।
‘सलिलात्मक’ मन स्वच्छ कर, भरो ज्ञानसुख पूर।।४४।।
ॐ ह्रीं सलिलात्मकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीवों के प्राणसम, ‘वायुमूर्ति’ भगवान।
मैं निसंग बन जाऊँ प्रभु, नमूँ नमूँ सुखदान।।४५।।
ॐ ह्रीं वायुमूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतर बाहर उपधि से, रहित अमूर्त असंग।
नमूँ ‘असंगात्म’ तुम्हें, रहूँ मुक्ति के संग।।४६।।
ॐ ह्रीं असंगात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामाrति स्वाहा।
कर्मकाष्ठ को भस्म कर, ‘वह्रिमूर्ति’ श्रुतमान्य।
ध्यान अग्नि मुझको मिले, नमॅूँ आप गुरु मान्य।।४७।।
ॐ ह्रीं वह्रिमूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसा आदिक पाप सब, जला दिये प्रभु शीघ्र।
प्रभु ‘अधर्मधक्’ सिद्ध हो, नमूँ भक्ति है तीव्र।।४८।।
ॐ ह्रीं अधर्मदहे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मरूप सामग्रि को, होमा सम्यक् आप।
प्रभो! ‘सुयज्वा’ मैं नमूँ, मैं होमूं सब पाप।।४९।।
ॐ ह्रीं सुयज्वने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वभाव आराधते, ‘यजमानात्मा’ सिद्ध।
आराधूं निज तत्त्व मैं, पाऊँ नवनिधि रिद्धि।।५०।।
ॐ ह्रीं यजमानात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—रेखता छंद—
प्रभो! स्वात्मासुखाम्बुधि में, किया अभिषेक नित उसमें।
अत: ‘सुत्वा’ कहाते हो, जजत ही सौख्य भरते हो।।५१।।
ॐ ह्रीं सुत्वने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! इन्द्रादि पूजित हो, अत: ‘सूत्रामपूजित’ हो।
जजत ही दृग्विशुद्धी हो, मुझे बोधी समाधी हो।।५२।।
ॐ ह्रीं सूत्रामपूजिताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुशल ‘ऋत्विक्’ तुम्हीं सच में, यज्ञ ज्ञानैक करने में।
स्व कर्मेंधन दहन कर दूं, प्रभो यह शक्ति दो वंदूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं ऋत्विजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं हो ‘यज्ञपति’ जग में, प्रमुख हो यज्ञ की विधि में।
जलाकर ध्यान अग्नी को, हवन कर लूँ नमत तुमको।।५४।।
ॐ ह्रीं यज्ञपतये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शतेन्द्रों ने किया पूजा, न तुम सम अन्य है दूजा।
इसी से ‘याज्य’ हो स्वामी, नमूँ मैं आप अभिरामी।।५५।।
ॐ ह्रीं याज्याय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हवन के अंग परधाना, अत: ‘यज्ञांग’ शिवधामा।
नमूँ मैं नित्य श्रद्धा से, तपोग्नी प्राप्त हो तुमसे।।५६।।
ॐ ह्रीं यज्ञांगाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न मरते आप ‘अमृत’ हैं, परम अमृत रसायन हैं।
प्रभो! तुमको नमन करके, विषय तृष्णा व दु:ख भगते।।५७।।
ॐ ह्रीं अमृताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्मानंद में रत हो, अशुद्धी हवन करते हो।
नमूँ ‘हवि’ आपको रुचि से, सुखामृत प्राप्त हो तुमसे।।५८।।
ॐ ह्रीं हविषे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गगनवत् व्याप्त हो जग में, केवलज्ञान किरणों से।
इसी से ‘व्योममूर्ती’ हो, नमत सुज्ञान मुझमें हो।।५९।।
ॐ ह्रीं व्योममूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्ण रस गंध से रहिता, ‘अमूर्तात्मा’ ज्ञानसहिता।
अमूर्तिक मैं बनूँ स्वामी, तुम्हें पूजूँ जगन्नामी।।६०।।
ॐ ह्रीं अमूर्तात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म मल लेप से हीना, प्रभो! ‘निर्लेप’ गुणलीना।
बनूं निर्लेप मैं पर से, करूँ पूजा अत: रुचि से।।६१।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी रागादिमल शून्या, तुम्हीं ‘निर्मल’ बने पूर्णा।
आधि व्याधी सभी विनशें, नमत ही पूर्ण सुख विलसे।।६२।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचल’ हो सिद्ध सुस्थिर हो, लोक के अग्र अविचल हो।
अचल हो जाऊँ मैं निज में, यही फल प्राप्त कर लूँ मैं।।६३।।
ॐ ह्रीं अचलाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्र सम शांति देते हो, परम आल्हाद भरते हो।
‘सोममूर्ती’ नमूँ तुमको, स्वात्म आल्हाद दो मुझको।।६४।।
ॐ ह्रीं सोममूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौम्यरूपी ‘सुसौम्यात्मा’, सिद्धपद प्राप्त परमात्मा।
नमूँ मैं आत्म शुचि हेतू, साम्यगुण पूर्ण कर दीजे।।६५।।
ॐ ह्रीं सुसौम्यात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूर्यसम पूर्ण तेजस्वी, ज्ञान किरणों से ओजस्वी।
‘सूर्यमूर्ती’ नमूँ तुमको, स्वात्म का तेज दो मुझको।।६६।।
ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभ’ केवली प्रभु हो, धर्म किरणोें सहित तुम हो।
नमूँ मैैं आपको शुचि हो, प्रगट कर लूं स्वात्म रवि को।।६७।।
ॐ ह्रीं महाप्रभाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामंत्रों के ज्ञाता हो, ‘मंत्रवित्’ नाम पाते हो।
नमूॅँ मैं मुक्ति के हेतू, मंत्र मिल जाय भवसेतू।।६८।।
ॐ ह्रीं मंत्रविदे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंत्र चारों हि अनुयोगा, उन्हीं के आप उपदेष्टा।
‘मंत्रकृत्’ आप को प्रणमूँ, ज्ञान वाराशि को पालूँ।।६९।।
ॐ ह्रीं मंत्रकृते श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंत्रमय मंत्ररूपी हो, प्रभो! ‘मंत्री’ मंत्रतनु हो।
हमें भी मंत्र दे दीजे, नमूँ मैं मुक्तिश्री दीजे।।७०।।
ॐ ह्रीं मंत्रिणे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंत्रमूर्ती’ तुम्हीं भगवन्, मंत्र अक्षरमयी तुम तन।
नमूँ तुम नाम मंत्रों को, प्राप्त कर लूं स्वात्म पद को।।७१।।
ॐ ह्रीं मंत्रमूर्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनंतग’ मोक्ष में राजें, ज्ञान से विश्व में व्यापें।
नमूँ मैं मोक्ष प्राप्ती हित, यही भक्ती फलेगी नित।।७२।।
ॐ ह्रीं अनंतगाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण स्वातन्त्र्य हो करके, ‘स्वतंत्रात्मा’ तुम्हीं चमके।
नमूँ मैं स्वात्म संपति दो, सभी विपदा दूर कर दो।।७३।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्राय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तंत्रकृत्’ शास्त्र के कर्ता, तुम्हीं प्रभु भावश्रुत कर्ता।
दिव्यध्वनि द्वादशांगी है, नमत ही स्वात्म निधिकर है।।७४।।
ॐ ह्रीं तंत्रकृते श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुशोभन है निकट प्रभु का, अत: तुम ‘स्वन्त’ हो शिवदा।
नमूँ मैं दुख दरिद नाशूं, तुम्हें पा निज को परकाशूं।।७५।।
ॐ ह्रीं स्वन्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु का अंत कर दीना, ‘कृतान्तान्त’ नाम लीना।
नमूँ मैं सर्व दुख भागें, मृत्यु भयभीत हो भागे।।७६।।
ॐ ह्रीं कृतान्तान्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जैन सिद्धांत के कर्ता, सभी के क्षेम सुख भर्ता।
नमत ‘कृतान्तकृत्’ प्रभु को, जगत में सौख्य शांती हो।।७७।।
ॐ ह्रीं कृतान्तकृते श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृती’ हो पुण्य फल पायो, पुण्यराशी मुनी गायो।
नमूँ मैं पाप को नाशूं, पुण्य से स्वात्म को भासूं।।७८।।
ॐ ह्रीं कृतिने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार पुरुषार्थ को कह के, ‘कृतार्था’ नाम पा करके।
आपने मोक्ष पद पाया, नमूँ मैं स्वस्थ हो काया।।७९।।
ॐ ह्रीं कृतार्थाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सत्कृत्य’ हो जग में, सत्य कर्तव्यप्रद सच में।
प्रजा पोषण किया तुमने, नमॅूँ मैं स्वात्म रुचि मन में।।८०।।
ॐ ह्रीं सत्कृत्याय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया सब आत्म कार्यों को, प्रभो! ‘कृतकृत्य’ तुम ही हो।
बनूं कृतकृत्य प्रभु मैं भी, इसी से पूजहॅूँ नित ही।।८१।।
ॐ ह्रीं कृतकृत्याय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तपस्या यज्ञ कर करके, प्रभो! ‘कृतक्रतू’ ज्ञान धर के।
तपस्या पूर्ण कर पाऊँ, इसी से आपको ध्याऊँ।।८२।।
ॐ ह्रीं कृतक्रतवे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा अस्तित्व से स्थित हो, ‘नित्य’ प्रभु तीन जग में हो।
नमूँ निज आत्म गुण पाऊँ, स्वस्थ हो नित्य बन जाऊँ।।८३।।
ॐ ह्रीं नित्याय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम मृत्यु को जीता, सु ‘मृत्युंजय’ कर्म जीता।
नमूँ मैं भक्ति धर नित ही, बनूं मृत्युंजयी झट ही।।८४।।
ॐ ह्रीं मृत्युंजयाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहीं है अन्त इस जग में, ‘अमृत्यू’ नाम श्रुत वर्णें।
मोक्ष पद प्राप्त है तुमको , नमूँ मैं कालजयि प्रभुु को।।८५।।
ॐ ह्रीं अमृत्यवे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृत सम शांति पुष्टी कर, प्रभो! ‘अमृतात्मा’ जिनवर।
ज्ञान अमृत पिऊँ निश दिन, तुम्हें पूजूँ नमूँ प्रतिदिन।।८६।।
ॐ ह्रीं अमृतात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष में आप जन्में हो, प्रभो! ‘अमृतोद्भव’ तुम हो।
धर्म अमृत झराते हो, जजत समरस पिलाते हो।।८७।।
ॐ ह्रीं अमृतोद्भवाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा शुद्धात्म में तन्मय, प्रभो! तुम ‘ब्रह्मनिष्ठा’ मय।
मुझे भी स्वात्मतन्मयता, मिले इस हेतु मैं जजता।।८८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मनिष्ठाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परंब्रह्मा’ जगत्पति हो, निजात्मा रूप परिणत हो।
नमूूँ निज ब्रह्मपद पाऊँ, जगत् के दु:ख विनशाऊँ।।८९।।
ॐ ह्रीं परंब्रह्मणे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! कैवल्य ज्ञानादी, गुणों से पूर्ण वृद्धी की।
नमूँ ‘ब्रह्मात्मा’ नित ही, प्राप्त कर लूं स्वगुण नित ही।।९०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं तो ‘ब्रह्मसंभव’ हो, स्वात्म से आप उत्पन्न हो।
आत्म के ज्ञानचारित को, प्राप्त कर लूं नमन तुमको।।९१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मसंभवाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मपती’ तुम ही, सिद्ध परमेष्ठी नित ही।
नम: सिद्धेभ्य: कह करके, धरी दीक्षा नमूँ रुचि से।।९२।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपतये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं तो मोक्ष के स्वामी, अत: ‘ब्रह्मेट्’ जगनामी।
स्वात्म सुख ज्ञान मुझको दो, नमूँ मैं ब्रह्मपद दे दो।।९३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेजे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मापदेश्वर’ हो, गणाधिप साधु वंदित हो।
समवसृति में विराजे हो, नमूँ प्रमुदितमना तुमको।।९४।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपदेश्वराय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हास्यमुख ‘सुप्रसन्ना’ हो, स्वर्गमुक्ती प्रदाता हो।
दु:खशोकादि हरने को, नमूँ प्रमुदितमना तुमको।।९५।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रसन्नात्मा’ स्वामी, स्वच्छ निर्मल गुण अभिरामी।
स्वच्छ शीतल मेरा मन हो, नमत ही स्वात्मसमरस हो।।९६।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञान अरु धर्म दम प्रभु’ हो, दयालू इन्द्रियविजयी हो।
केवली धर्मदम स्वामी, नमूँ मैं धर्म पथगामी।।९७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मदमप्रभवे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशमात्मा’ तुम्हीं भगवन्, क्रोध रिपु का किया मर्दन।
शांति से कर्म को जीता, नमूँ मैं जगत् से भीता।।९८।।
ॐ ह्रीं प्रशमात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशान्तात्मा’ तुम्हीं तो हो, घातिकर्मारि विजयी हो।
नमॅूँ मैं शांति सुख पाऊँ, निजात्मा में ही रम जाऊँ।।९९।।
ॐ ह्रीं प्रशान्तात्मने श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘पुराणपुरुषोत्तम’, पुराने सब में हो उत्तम।
मुक्तिलक्ष्मीपती विष्णू, नमूँ मैं होऊँ भवजिष्णू।।१००।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषोत्तमाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
‘महाकारुणिक’ आप, दया धर्म उपदेशिया।
नेमिनाथ प्रभु जाप, करत जन्म मृत्यू टले।।१०१।।
ॐ ह्रीं महाकारुणिकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नेमि भगवान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।१०२।।
ॐ ह्रीं मंत्रे श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नेमिनाथ तुमको जजूँ।।१०३।।
ॐ ह्रीं महामंत्राय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नेमिनाथ तुम पूजहूँ।।१०४।।
ॐ ह्रीं महायतये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नेमिनाथ मैं नित जजूँ।।१०५।।
ॐ ह्रीं महानादाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भवतीर, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।१०६।।
ॐ ह्रीं महाघोषाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नेमिनाथ मैं पूजहूूँ।।१०७।।
ॐ ह्रीं महेज्याय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
नेमिनाथ भवताप, हरण करो मैं पूजहूँ।।१०८।।
ॐ ह्रीं महसांपतये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
नेमिनाथ को नियम से, जपूं भक्ति चितधार।
नित्य अर्घ्य से पूजते, होऊं भवदधि पार।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जाप्य- ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथतीर्थंकराय नम:।
(तर्ज-चंदन सा बदन…….)
नेमी भगवन्! शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
कर जोड़ खड़े, तव चरण पड़े, हम शीश झुकाते चरणों में।।टेक.।।
यौवन में राजमती को वरने, चले बरात सजा करके।
पशुओं को बांधे देख प्रभो! रथ मोड़ लिया उल्टे चल के।।
लौकांतिक सुर संस्तव करके, पुष्पांजलि की तव चरणों में।।१।।
प्रभु नग्न दिगंबर मुनी बने, ध्यानामृत पी आनंद लिया।
कैवल्य सूर्य उगते धनपति ने, समवसरण भी अधर किया।।
तब राजमती आर्यिका बनी, चतुसंघ नमें तव चरणों में।।नेमी.।।२।।
वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, अठरह हजार मुनिराज वहाँ।
राजीमति गणिनी आदिक, चालिस हजार संयतिकाएँ वहाँ।।
इक लाख सुश्रावक तीन लाख, श्राविका झुकीं तव चरणों में।।नेमी.।।३।।
सर्वाण्ह यक्ष अरु कूष्मांडिनि, यक्षी प्रभु शंख चिन्ह माना।
आयू इक सहस वर्ष चालिस, कर सहस देह उत्तम जाना।।
द्वादशगण से सब भव्य वहाँ, शत-शत वंदें तव चरणों में।।नेमी.।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउ दिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्म कहें।।
सौ इन्द्र मिले पूजा करते, नित नमन करें तव चरणों में।।नेमी.।।५।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहुकोशों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।
तनु नीलवर्ण सुंदर प्रभु को, सब वंदन करते चरणों में।।नेमी.।।६।।
तरुवर अशोक था शोकरहित, सिंहासन रत्न खचित सुंदर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
निज सात भवों को देख भव्य, प्रणमन करते तव चरणों में।। नेमी.।।७।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चंवर।
सुरपुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि फैले योजन भर।।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, अतिभक्ति लीन तव चरणों में।।नेमी.।।८।।
हे नेमिनाथ! तुम बाह्य और अभ्यंतर लक्ष्मी के पति हो।
दो मुझे अनंत चतुष्टयश्री, जो ज्ञानमती सिद्धिप्रिय हो।।
इसलिए अनंतों बार नमें, हम शीश झुकाते चरणों में।।नेमी.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीबालयतिनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो पांच बालयति का विधान, श्रद्धा भक्ती से करते हैं।
वे त्रिभुवन पूजित ब्रह्मचर्य, पाकर स्वात्मा में रमते हैं।।
देवर्षिदेव लौकांतिकसुर, होकर अंतिम भव लभते हैं।
कैवल्य ज्ञानमति भास्कर हो, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
इत्याशीर्वाद:।