आधुनिक युग में चन्द्रलोक की यात्रा का िंडडिम घोष सर्वत्र सुनाई पड़ता है। वैज्ञानिकों ने वहाँ जाकर वहाँ के वायुमण्डल का, वहाँ की मिट्टी का और वहां पर होने वाली जलवायु का भी अध्ययन किया है। यह भी निश्चित हो चुका है कि चन्द्रलोक में मानव का जाना संभव है और कतिपय सामग्री के सद्भाव में मानव वहाँ जीवित भी रह सकता है।
किन्तु जैनाचार्यों ने इस धारणा को मिथ्या बताया है। उनका कहना है कि चाहे आधुनिक वैज्ञानिक अपनी चन्द्रलोक यात्रा को सफल समझ लें किन्तु वे अभी असली चन्द्रमा पर नहीं पहुंच पाए हैं। आकाशमण्डल में अनेकों ग्रह, नक्षत्र ही नहीं इसी प्रकार के अन्य भ्रमणशील पुद्गल स्कंध भी शास्त्रों में बताए गए हैं। हो सकता है कि आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसे ही किसी पुद्गल स्कंध पर पहुंच गए हों। जैन वाङ्मय के अनुसार उनका चन्द्रमा पर पहुँचना संभव नहीं है, जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ होते हैं अन्यथावादी नहीं होते अत: उनके द्वारा कथित तत्त्व भी अन्यथा नहीं हो सकते और यह बात सत्य भी है कि जो—जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं वे ही सर्वज्ञ कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड की विशालता के समक्ष मानव एक क्षणभंगुर प्राणी है, उसका ज्ञान सीमित है परन्तु अनादिनिधन जैन सिद्धान्त में परम्परागत सर्वज्ञ भगवान ने सम्पूर्ण जगत को केवलज्ञान रूपी दिव्य चक्षु से प्रत्यक्ष देखकर प्रत्येक वस्तु का वास्तविक वर्णन किया है। उनमें कुछ ऐसे भी विषय हैं जो कि हम लोगों की बुद्धि एवं जानकारी से परे हैं। उसके लिए कहा है कि—
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते।
आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिना:।।
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया कोई—कोई तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है। किसी भी हेतु के द्वारा उसका खण्डन नहीं हो सकता है परन्तु ‘जिनेन्द्र देव ने ऐसा कहा है’’ इतने मात्र से ही उस पर श्रद्धान करना चाहिए क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं हैं।
श्लोकवार्तिक, तिलोयपण्णत्ति और लोकविभाग आदि प्राचीन ग्रंथानुसार आकाश के दो भेद हैं—(१) लोकाकाश (२) अलोकाकाश। लोकाकाश के ३ भेद हैं—(१) अधोलोक (२) मध्यलोक (३) ऊर्ध्वलोक। अनन्त अलोकाकाश के बीचोंबीच में यह पुरुषाकार तीनलोक है जिसकी ऊंचाई १४ राजू प्रमाण एवं मोटाई सर्वत्र ७ राजू है। तीनों लोकों के बीचोंबीच में १ राजू चौड़ी और १४ राजू लम्बी त्रसनाली है जिसमें त्रस जीव पाए जाते हैं। इन्हीं तीनों लोकों में मध्य में मध्यलोक है जिसमें जम्बूद्वीप को आदि लेकर असंख्यात द्वीप—समुद्र हैं। इन द्वीप—समुद्रों में जो सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे अवस्थित हैं वे ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। इनके विमान चमकीले और अर्ध गोलक के सदृश हैं तथा मणिमय तोरणों से अलंकृत होते हुए निरन्तर देव—देवियों से एवं जिनमंदिरों से सुशोभित रहते हैं। अपने को जो सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं यह उनके विमानों का नीचे वाला गोलाकार भाग है।
ये सभी ज्योतिर्वासी देव मेरू पर्वत को ११२१ योजन अर्थात् ४४, ८४००० मील छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्रमा एवं सूर्य ग्रह ५१०—४८/६१ योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक््â—पृथक््â गमन करते हैं परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी—अपनी एक परिधि रूप मार्ग में ही गमन करते हैं। इन ग्रंथों में इनका सविस्तार वर्णन है और अगर इन्हें और सरलता से जानना है तो हम परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ‘जैन ज्योतिर्लोक’ पुस्तक से इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जैनागम को अपनी ३०० अमूल्य साहित्यिक कृतियां प्रदान करने वाली पूज्य माताजी की प्रत्येक कृति में आगम का गूढ़ रहस्य अत्यन्त सरस, रुचिकर एवं परिष्कृत भाषा शैली में वर्णित है। उसी शृंखला में भक्तिमार्ग में अपूर्व कीर्तिमान स्थापित करने वाली पूज्य माताजी ने अनेक वृहद् एवं लघु विधानों की रचना की है जिसमें वर्णित एक—एक पंक्ति में माताजी ने आगम का सार भर दिया है। जिसके माध्यम से जिनेन्द्रभक्ति के साथ आगम के गूढ़ रहस्यों का सहज ही परिज्ञान हो जाता है। विधानों के क्रम में पूज्य माताजी द्वारा लिखित ‘‘तीन लोक विधान’’ नामक अनूठी कृति है जिसमें तीन लोक के समस्त अकृत्रिम जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं की पूजा है। ये जिनमंदिर अनादिकाल से स्वयं पृथ्वीकाय रूप से बने हुए हैं और अनन्त काल तक ऐसे ही बने रहेंगे। इनमें विराजमान जिनप्रतिमाएं भी अनादिनिधन हैं, रत्नमई हैं। आचार्यों ने कहा है कि ये पृथ्वीकायिक रत्न ही इन जिनप्रतिमारूप से परिणत हो रहे हैं। इन प्रतिमाओं की सुन्दरता और वीतराग छवि इन्हीं में है अन्यत्र असम्भव है। हाँ, इन्हीं की प्रतिकृति रूप कृत्रिम प्रतिमाएं बनवाई जाती हैं किन्तु उतनी सुन्दरता नहीं आ सकती है।
इस मध्यलोक में ही चित्रा पृथ्वी से सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई पर आकाश में अधर इन ज्योतिष देवों के विमानों का वर्णन यहाँ शास्त्रानुसार वर्णित हैं जिसके माध्यम से हम यहीं बैठे—बैठे चन्द्रलोक-ज्योतिर्लोक की यात्रा का आनन्द उठा सकते हैं। उसी का संक्षिप्त रूप से यहां कथन किया जा रहा है—
जैन सिद्धान्त के अनुसार चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर ११० योजन के क्षेत्र में अर्थात् ९०० योजन तक सभी ज्योतिषी देवों के विमान हैं जिनकी व्यवस्था इस प्रकार है-
धरती से ३१,६०,००० (इकतीस लाख साठ हजार) मील ऊपर ताराओं के विमान हैं।
धरती से ३२,००,००० (बत्तीस लाख) मील ऊपर सूर्यविमान हैं।
धरती से ३५,२०,००० (पैंतीस लाख बीस हजार) मील ऊपर चंद्रविमान हैं।
धरती से ३५,३६,००० (पैंतीस लाख छत्तिस हजार) मील ऊपर बुधग्रह के विमान हैं।
धरती से ३५,६४,००० (पैंतीस लाख चौसठ हजार) मील ऊपर शुक्रग्रह के विमान हैं।
धरती से ३५,७६,००० (पैंतीस लाख छियत्तर हजार) मील ऊपर गुरुग्रह के विमान हैं।
धरती से ३५,८८,००० (पैंतीस लाख अट्ठासी हजार) मील ऊपर मंगलग्रह के विमान हैं।
धरती से ३६,००,००० (छत्तिस लाख) मील ऊपर शनिग्रह के विमान हैं।
इन सभी विमानोें में ज्योतिषी देव निवास करते हैं और विमान में स्थित प्रत्येक जिनमंदिरों में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। तीन लोक मण्डल विधान में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने करणानुयोग के इस कठिन और नीरस विषय को भी अत्यन्त सरसता के साथ प्रस्तुत कर भक्तों को सहज में ही भक्तिरस में निमग्न होकर चन्द्रलोक की यात्रा करने का अवसर प्रदान किया है। विधान की पूजा नं. ४६ की जयमाला में इस सुन्दर वर्णन को स्तुतिरूप में पढ़ने से ज्योतिर्लोक के चैत्यालयों की वंदना का पुण्य बिना वहाँ गये ही प्राप्त हो जाता है—
-दोहा-
ज्योतिर्लोक विमान के, जिनगृह संख्यातीत।
नमूँ नमूँ कर जोड़ के, बनूँ स्वात्म के मीत।।१।।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर धाम जग में, इंद्र सौ से वंद्य हैं।
जय जय जिनेश्वर मूर्तियां, चिंतामणी शुभ रत्न हैं।।
जय जय गणाधिप साधुगण, नित ध्यावते हैं चित्त में।
जय भव्य पंकज बोध भास्कर, मूर्तियां रवि बिंब में।।२।।
इस भू से इकतिस लाख साठ हजार मील सुगगन में।
तारा विमान सुशोभते नित, घूमते हैं अधर में।।
बत्तीस लाख सुमील ऊपर, रवि विमान सदा रहें।
पैंतीस लाख सुबीस सहस, सुमील पे चंदा रहें।।३।।
नक्षत्र पैंतीस लाख छत्तिस, सहस मीलों पे रहें।
बुध लाख पैंतिस सहस बावन, मील पे भ्रमते कहें।।
फिर लाख पैंतिस सहस चौंसठ, मील पे ग्रह शुक्र हैं।
पैंतीस लाख सहस छियत्तर, मील पर गुरु बिंब हैं।।४।।
मंगल सुपैंतिस लाख अट्ठासी सहस ही मील पे।
शनि ग्रह सुछत्तीस लाख मीलों के उपरि अति उच्च पे।।
चित्रा धरा से सात सौ, नब्बे से नौ सौ योजनों।
तक एक सौ दस योजनों में, ज्योतिषी जग हैं भणों।।५।।
शशि सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, के विमानहिं चमकते।
ये अर्ध गोलक सम इन्हीं में, सुर नगर में सुर बसें।।
सबसे बड़े शशि बिंब तारा, के विमान लघू रहें।
त्रय सहस इक सौ सयेंतालिस, मील कुछ अधिकहिं कहें।।६।।
ये बड़े हैं तारा लघु दो सौ पचासहिं मील के।
इनमें बने हैं महल उनमेंं, देवगण रहते सबे।।
ये देव देवी मनुज सम अतिरूप वान् वहां रहें।
इनके विमानहिं चमकते दिन रात इनसे बन रहें।।७।।
बस पांच सौ दस सही अड़तालिस बटे इकसठ कहे।
योजन महा यह जानिये, इनका गमन का क्षेत्र है।।
इसमें गली इकसौ तिरासी, सूर्य की मानी गई।
पंद्रह गली हैं चंद्र की, दो पक्ष में विचरें यहीं।।८।।
इन सब विमानहिं मध्यमें, उत्तुुंग स्वर्णिम कूट हैं।
उन पर जिनेश्वर भवन शाश्वत, शोभते अति पूत हैं।।
सब में जिनेश्वर बिंब इकसौ आठ इक सौ आठ हैं।
जो देवगण इनको जजें नित, भजें मंगल ठाठ हैं।।९।।
जो नर बहुत विध तप तपें, बहु पुण्य संचय भी करें।
सम्यक्त्वनिधि नहिं पासके, वे ही यहाँ पर अवतरें।।
जिनदर्श करके तृप्त हों, जातिस्मृती वृष श्रवण से।
जिन पंचकल्याणक महोत्सव, देखते अन विभव से।।१०।।
सम्यक्त्वलब्धी प्राप्त कर, निज में मगन जिन भक्त हों।
भव पंच परिवर्तन मिटा कुछ, ही भवों में मुक्त हों।।
सम्यक्त्वनिधि अनुपम निधी, जिन भक्त ही करते सुलभ।
सुख भोग कर नर तन धरें फिर, आत्म निधि उनको सुलभ।।११।।
धन धन्य है यह शुभ घड़ी, धन धन्य जीवन सार्थ है।
जिन अर्चना का शुभ समय, आया उदय में आज है।।
जिन वंदना से आज मेरे चित्त की कलियां खिलीं।
मैं ‘ज्ञानमति’ विकसित करूँ अब रत्नत्रय निधियाँ मिलीं।।१२।।
इस वर्णन से पाठकों को यही समझना है कि इन ज्योतिषी देवों के विमान चमकने के कारण ही धरती पर दिन-रात की व्यवस्था बनती है। इसी प्रकार सूर्य-चन्द्रमा के भ्रमण की गलियों का वर्णन है, प्रत्येक विमानों के मध्य में उत्तुंग स्वर्णिम कूटों पर जिनभवन बने हैं। उनमें स्थित प्रतिमाओं को नमन करते हुए सम्यग्दर्शन के दृढ़ता की भावना भाई गई है कि मेरा भी सम्यग्दर्शन दृढ़ होवे तथा चन्द्रलोक की वास्तविक यात्रा का पुण्य होवे।
मध्यलोक के असंख्यात द्वीप-समुद्रों में तो असंख्यात सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं किन्तु ढाई द्वीपों तक (मनुष्यलोक तक) इनकी व्यवस्था विशेष बताई गई है कि चित्रा पृथ्वी से ८८० योजन (३५,२०००० मील) ऊपर आकाश में २ चंद्रमा जम्बूद्वीप के अंदर होते हैं और ४ चन्द्रमा लवणसमुद्र में होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय धातकीखण्ड द्वीप में १२ चन्द्रमा और कालोदधि में ४२ चन्द्रमा तथा तृतीय पुष्करार्ध द्वीप में ७२ चन्द्रमा पाये जाते हैं जो सदैव पंचमेरु पर्वतों की प्रदक्षिणा करते हैं और इन चंद्र विमानों में शिखरबन्द जिनमंदिर होते हैं।
ढाई द्वीप से आगे अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत से बाहर शेष आधे पुष्कर द्वीप में १२६४ चंद्रमा हैं जो अपनी जगह स्थिर ही रहते हैं। पुष्कर समुद्र में ३२ वलय होते हैं जो २५२८ में ८ बार ४-४ की संख्या प्रतिवलय के अनुसार बढ़ाने से कुल मिलाकर वहाँ बयासी हजार आठ सौ अस्सी (८२८८०) चन्द्रमा होते हैं। चौथे वारुणीवर द्वीप में इसी प्रकार ६४ व्ालय है अत: वहाँ चंद्रमा की संख्या पुष्कर समुद्र से दूनी होती है। पुन: इसी प्रकार द्वीप और समुद्रों में उस संख्या को दूनी-दूनी करके वहाँ की वलय संख्यानुसार उनमें ४-४ जोड़कर कुल संख्या निकालने पर सभी द्वीप-समुद्रों में असंख्यात चन्द्रमा माने गये हैं। उन सभी चंद्रविमानों के अकृत्रिम जिनमंदिरों में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं जो संख्या में असंख्यात होती हैं। इनका वर्णन इस स्तुतिरूप जयमाला में पढ़कर आप प्रतिदिन घर बैठे ज्योतिर्लोक के चैत्यालयों की वन्दना कर सकते हैं—
-शंभु छंद-
जय जय जय चन्द्र विमानों के, जिनमंदिर मुनिगण नित वंदें।
जय जय जिनप्रतिमाएं शाश्वत, वंदत ही पापतिमिर खंडें।।
जय जय मंदिर के मानस्तंभ, जय जय तोरण की जिनप्रतिमा।
जय वनभूमी के चैत्य वृक्ष, जय पद्मासन सोहें प्रतिमा।।१।।
यह शशिविमान है अर्धगोल, चमकीलि धातु से बना हुआ।
पृथ्वीकायिक उद्योत कर्म वाले जीवों से सना हुआ।।
यह लगभग तीन सहस छह सौ बहत्तर मील व्यास धारे।
इसकी बारह हजार किरणें, जो शीत चांदनी विस्तारें।।२।।
सोलह हजार अभियोग्य देव, विक्रिय से वाहन बनते हैं।
दिशक्रम से केशरि गज व वृषभ हय रूप धार के जुतते हैं।।
ये सतत खींचते हैं, विमान, ये मेरु परिक्रमा करते हैं।
इनसे दिन रात विभाग बने, ये बिंब घूमते रहते हैं।।३।।
शशि के नीचे राहु विमान नित, अपनी गति से चलता है।
एकेक कला ढकता क्रम से, फिर एकहि एक छोड़ता है।।
इससे ही कृष्ण पक्ष अरु शुक्ल पक्ष हो जाते महिने में।
छह छह महिने में ग्रहण पड़े, राहु से शशि के ढकने में।।४।।
इस चंद्र इंद्र के चार महादेवी सुंदरता से सोहें।
चंद्राभा और सुसीमा प्रभंकरा व अर्चिमालिनी हैं।।
सोलह हजार देवियाँ हैं बहुतेरे परिकर देव कहें।
शशि देह सात धनु तुंग आयु इक पल्य एक लख वर्ष रहे।।५।।
इस शशिविमान के मध्य कूट पर, शाश्वत जिनमंदिर सोहें।
चउदिश में शशि के भवन बनें, जिसमें शशि इंद्र राजते हैं।।
सामानिक तनुरक्षक प्रकीर्ण, किल्विषक देव वहाँ रहते हैं।
ये देव विक्रिया के तनु से, सर्वत्र विचरते रहते हैं।।६।।
जिनवर के पंच कल्याणक में, नंदीश्वर मेरु जिनालय में।
जाते बहु पुण्य करें अर्जन, क्रीड़ा से विचरें बहुथल में।।
जातिस्मृति धर्मश्रवण करके, जिनमहिमा या देवर्द्धि लखें।
सम्यग्दर्शन निधि पा जाते निज आतमसुख पीयूष चखें।।७।।
जिनमंदिर रत्न चंदोवों से, अठ मंगल द्रव्यों से शोभें।
घंटा िंककिणि वंदनमाला, चामर छत्रादिक से शोभें।।
मंगलघट धूप घड़े वहाँ पे, मुक्ता सुवरण की मालाएं।
जिन प्रतिमा इक सौ आठ वहाँ, भव्यों को शिवपथ दिखलायें।।८।।
-दोहा-
मणिमय शाश्वत जिनभवन, जिनवर बिंब अनूप।
नमूँ नमूँ मुझको मिले, ‘ज्ञानमती’ निजरूप।।९।।
उपर्युक्त वर्णन से चन्द्रलोक की पूरी कहानी ज्ञात हो जाती है कि ३६७२ मील व्यास वाले चंद्रविमान का निर्माण अनादिकाल से उद्योत नामकर्म वाले पृथ्वीकायिक जीवों से निर्मित है और इसकी १२००० किरणें शीतल चांदनी प्रदान करती हैं। आभियोग्य जाति के सोलह हजार देव विक्रिया से सिंह, हाथी, बैल और घोड़े का रूप धारण कर चन्द्रविमान को सतत खींचते रहते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार ये विमान प्रतिक्षण चलते ही रहते हैं अत: आज के वैज्ञानिकों का चन्द्रलोक पर पहुँचना एवं वहाँ से मिट्टी लाना आदि बातें विशेष अनुसंधान का विषय है। यद्यपि प्रगतिशील इस वैज्ञानिक युग में अंतरिक्ष यात्राएं भी दुर्लभरूप से सुलभ हो गई हैं तथापि जैनधर्म में वर्णित भूगोल और खगोल के अनुसार तो धरती स्थिर और सूर्य, चन्द्र, तारे आदि भ्रमणशील माने गये हैं अत: वहाँ तक किसी का पहुँचना कठिन ही नहीं असंभव भी प्रतीत होता है। हाँ, इनका शास्त्रीय वर्णन पढ़कर भावों से अवश्य प्रतिदिन चन्द्रलोक की यात्रा करते हुए इनमें विराजमान भगवन्तों की वन्दना की जा सकती है।
चन्द्रग्रहण का विशेष वर्णन भी इसमें बताते हुए स्पष्ट किया गया है कि यह भी एक प्राकृतिक व्यवस्था है, उसमें चन्द्रविमान के नीचे जो राहु ग्रह का विमान अपनी गति से चलता है वह चंद्रमा की एक-एक कला को जब ढकता है तब क्रमश: कृष्णपक्ष (प्रत्येक माह की एकम तिथि से अमावस्या तक) होता है और जब चन्द्रमा की एक-एक कला को छोड़ता है है तब शुक्ल पक्ष (प्रत्येक माह की एकम से पूर्णिमा तक) होता है। इसी प्रकार प्रत्येक छह माह में राहु विमान जब चन्द्र विमान को पूर्णरूपेण ढक लेता है तब चन्द्रग्रहण पड़ता है।
चन्द्रमा के विमान में जो चन्द्र नामक इन्द्र या उसके परिवार देव-देवी आदि हैं वे सभी सैद्धान्तिक नियमानुसार यद्यपि मिथ्यात्वयुक्त पुण्यक्रियाओं के फलस्वरूप वहाँ जन्म धारण करते हैं फिर भी वे वहाँ देवपर्याय में पूर्व जन्म के जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन एवं देवर्द्धि दर्शन इन चार कारणों के द्वारा कभी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
चन्द्रलोक के इस वर्णन को पढ़कर जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा मानकर उस पर श्रद्धा करते हुए आप भी अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखें यही सम्यग्दर्शन की पहचान होगी।
अब तीन लोक विधान की पूजा नं. ४८ की जयमाला के माध्यम से आप सूर्य विमानों के बारे में जानकारी प्राप्त करें—
इस प्रथम जम्बूद्वीप में, दो सूर्य दिन-दिन चमकते।
ये ढाई द्वीपों तक सु इक सौ, बत्तिसे दिनकर दिपें।।
ये अर्धगोलक सम सभी, भास्कर विमान प्रकाशते।
इन मध्य जिनमंदिर जजूँ ये आत्म ज्योति प्रकाशते।।
चन्द्र विमान की भांति ही सम्पूर्ण व्यवस्था एवं संख्या आदि सूर्य नामक प्रतीन्द्र की मानी गई है। चित्रा पृथ्वी से ऊपर आकाश में २ सूर्य जम्बूद्वीप के अंदर होते हैं और ४ सूर्य लवणसमुद्र में होते हैं इसी प्रकार द्वितीय धातकी खण्डद्वीप में १२ चन्द्रमा और कालोदधि में ४२ सूर्य नित्य भ्रमण करते रहते हैं इससे आगे तृतीय पुष्करार्ध द्वीप में ७२ सूर्य मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए संसार का अंधकार नष्ट करते रहते हैं इस प्रकार ढाई द्वीपों तक कुल १३२ सूर्य विमान माने गए हैं इन सभी सूर्य विमानों में शिखरबंद जिनमंदिर होते हैं।
इसमें एक विशेष बात यह है कि जम्बूद्वीप के अन्तभाग में १८० योजन एवं लवणसमुद्र में ३३० योजन अर्थात् कुल ५१० योजन क्षेत्र में १८४ गलियाँ हैं जिनमें जम्बूद्वीप के २ सूर्य घूमते रहते हैं। ये सूर्य जब विदेह क्षेत्र में पहुँच जाते हैं तो भरत और ऐरावत क्षेत्र में रात हो जाती है।
ढाई द्वीपों से आगे-मानुषोत्तर पर्वत से बाहर शेष आधे पुष्करद्वीप में स्थित आठ वलयों में १२६४ सूर्य हैं जो अपने स्थान पर स्थिर ही रहते हैं। पुष्करवर समुद्र में ३२ वलय होते हैं जो २५२८ में ८ बार ४-४ की संख्या प्रतिवलय के अनुसार बढ़ाने से कुल मिलाकर वहाँ बयासी हजार आठ सौ अस्सी (८२८८०) सूर्य होते हैं। चौथे वारुणीव द्वीप में इसी प्रकार ६४ वलय हैं अत: वहाँ सूर्य की संख्या पुष्कर समुद्र से दूनी है पुन: इसी प्रकार द्वीप और समुद्रों में उस संख्या को दूनी-दूनी करके वहाँ की वलय संख्यानुसार उनमें ४-४ जोड़कर कुल संख्या निकालने पर सभी द्वीप-समुद्रों में असंख्यात सूर्य माने गए हैंं। उन सभी सूर्य विमानों के अकृत्रिम जिनमंदिरों में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं जो संख्या में असंख्यात होती हैं। इसके अतिरिक्त इन सूर्यविमानों के बारे में और भी अधिक जानकारी इस स्तुतिरूप जयमाला में पढ़कर आप प्रतिदिन घर बैठे सूर्य विमान में स्थित चैत्यालयों की वंदना करके असीम पुण्य का संचय कर सकते हैं—
-दोहा-
सूर्य बिंब जो दिख रहे, देव विमान विशाल।
इनमें श्री जिनभवन को, नमूँ नमूँ त्रयकाल।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय जय रवि विमान के मधि, जिनमंदिर शाश्वत सुंदर हैं।
जय जय जय मणिमय अकृत्रिम, जिनप्रतिमा भव्य हितंकर हैं।।
जय जय पद्मासन जिन प्रतिमा, नासाग्रदृष्टि छवि सौम्य धरें।
जय जय जिनवर सम जिनप्रतिमा, वंदत ही आतम सौख्य भरें।।२।।
ये रवि विमान पृथिवी कायिक, चमकीलि धातु से बने हुए।
जो आतप नाम कर्म वाले, वे जीवकाय ले जनम लिये।।
इनकी किरणें बस उष्ण रहें, नहिं मूल में किंचित् गर्मी है।
ये लगभग तीन सहस इकसौ, सैंतालिस मील के विस्तृत हैं।।३।।
मोटाई इससे आधी है, समतल में नगर बसा सुंदर।
मधि तुंग कूट पर जिनमंदिर, वंदन करते गणधर मुनिवर।।
मंदिर के चारों तरफ महल, उनमें भास्वान प्रतीन्द्र रहें।
उनके सामानिक आत्म रक्ष, प्राकीर्णकादि सब देव रहें।।४।।
मुखदेवी द्युतिश्रुति प्रभंकरा, सूर्य प्रभा अर्चिंमालिनी हैं।
प्रत्येक के चउ चउ सहस प्रमित, परिवार देवियाँ मानी हैं।।
रवि देव की आयू एक पल्य, इक सहस वर्ष की होती है।
देवी की आयु निज पति की, आयू से आधी होती है।।५।।
ये रविविमान इक मिनट में हि, बहु दूर गमन कर लेते हैं।
चउ लाख सैंतालिस हजार छह सौ, तेइस मील चल लेते हैं।।
इस जंबूद्वीप में दो सूरज, इक यहाँ द्वितिय ऐरावत में।
दोनों मेरू परिक्रम देते, पहुँचे विदेह तब रात्रि बने।।६।।
जब सूर्य प्रथम गलि में आता, तब नगर अयोध्या के चक्री।
निजगृह की छत से रविविमान, जिनबिंब दर्श करते चक्री।।
सैंतालिस सहस दो सौ त्रेसठ, योजन कुछ अधिक नेत्र विषया।
इतनी दूरी से चक्रवर्ति, जिन दर्श करें हर्षित हृदया।।७।।
जो रवि के जिनमंदिर वंदें, उनके भवताप शांत होते।
वे रवि सम चमकें त्रिभुवन में, अतिशय सुख कीर्ति कांत होते।।
अज्ञान तिमिर को दूर भगा, निज आत्म सूर्य को पा लेते।
निज ‘ज्ञानमती’ शुभ ज्योती से, त्रिभुवन में प्रकाश छा देते।।८।।
दोहा-
सूर्य विमान असंख्य में, जिनवर धाम महान्।
कोटि कोटि वंदन करूँ, बनूँ पूर्ण धनवान्।।९।।
उपर्युक्त जयमाला को पढ़ने से सूर्यलोक की पूरी जानकारी प्राप्त हो जाती है कि ३१४७ मील विस्तृत इस सूर्य का विमान आतप नामकर्म वाले पृथ्वीकायिक जीवों से निर्मित है। एक बहुत ही विशेष बात यह है कि सूर्य की किरणेंं ही उष्ण होती हैं जबकि इनके मूलभाग में किंचित् भी उष्णता नहीं है। ये सूर्य विमान इतनी शीघ्र्रता से गमन करते हैं कि एक मिनट में चार लाख सैंतालिस हजार छह सौ तेईस मील की दूरी तय कर लेते हैं पुन: चक्रवर्ती द्वारा सूर्य बिम्ब के दर्शन का उल्लेख किया है कि १ करोड़ ८९ लाख ५३ हजार ४ सौ मील की दूरी से चक्रवर्ती सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं वह दिवस श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का होता है।
इस प्रकार की अनेक आश्चर्यकारी बातों की जानकारी प्राप्त करके उसे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा मानकर उस पर दृढ़ श्रद्धान करते हुए अपने जीवन को धर्ममयी बनाना चाहिए।
जैसा कि आप तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र पढ़ते हैं ‘‘सूर्याचन्द्रमसौग्रहनक्षत्र प्रकीर्णकतारकाश्च’’ अर्थात् ज्योतिषी देव के ५ भेद हैं-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारे। इनमें से सूर्य और चन्द्रमा के बारे में तो आपने पढ़ा अब आपको यह जानना है कि ग्रह कितने और कौन-कौन से होते हैं? ये ग्रह क्या करते हैं तथा हमें इन ग्रहों की शांति के लिए क्या करना चाहिए?
तो आइए, हम पढ़ते हैं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित तीन लोक विधान में पूजा नं. ४९ की कुछ पंक्तियाँ, जिनमें ग्रहों की संख्या का वर्णन किया गया है-
एकेक चन्द्र के अट्ठासी-अट्ठासी ग्रह श्रुत में माने।
ये ज्योतिर्वासी देव अर्ध-गोलक विमान में सरधाने।।
इन सब विमान में दिव्यकूट, उन पर शाश्वत जिनमंदिर हैं।
जिनप्रतिमा इक सौ आठ-आठ, नित वंदन करें मुनीश्वर हैं।।
इन चार पंक्तियों के माध्यम से ही काफी कुछ जानकारी प्राप्त हो जाती है कि प्रत्येक चन्द्रमा के ८८-८८ ग्रह होते हैं, ये अर्धगोलक विमान में रहते हैं, इन सब विमानों में निर्मित दिव्यकूट पर शाश्वत जिनमंदिर हैं, प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं तथा इन जिनप्रतिमाओं की मुनिगण नित्य वंदना करते हैं।
इन्हीं ८८ ग्रहों में से बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि, सोम, मंगल, राहू और केतू ये नव प्रमुख ग्रह ‘‘नवग्रह’’ के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हैं।
आगे इसी पूजा की जयमाला में बहुत ही सुन्दर शब्दों के माध्यम से वर्णित किया गया है कि सर्वप्रथम इस चित्रा पृथ्वी से ८८८ योजन ऊपर आकाश में बुध ग्रह रहते हैं तथा इनके ऊपर-ऊपर क्रम से शुक्र, गुरु, मंगल और शनिग्रह के विमान हैं इन पाँच ग्रह विमानों के अतिरिक्त जो ८३ ग्रह विमान हैं, वे भी आकाश में ही रहते हैं और वे सब बुध और शनि ग्रह विमान के बीच में ही स्थित होते हैं।
पुन: बताया गया है कि राहू और केतू ग्रह के विमान कुछ कम चार हजार मील के हैं चूँकि ये दोनों विमान चन्द्र और सूर्य विमान से बड़े हैं फिर भी इनके नीचे ही चलते हैं।
यहाँ एक विशेष बात यह है कि इन्हीं राहू और केतू ग्रह विमान की गति से सूर्य-चन्द्र विमान के बिम्ब प्रत्येक छह-छह महीने में ढक जाते हैं, इसी को सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण कहते हैं, इनमें दीक्षा आदि मंगलीक कार्य नहीं किये जाते हैं।
इस प्रकार प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक शब्द में सार को समेटे हुए इस जयमाला को पढ़ने से अनेक प्रकार की नई-नई बातों का ज्ञान प्राप्त होता है। पढ़ें जयमाला नं. ४९ की सारगर्भित पंक्तियाँ-
इस चित्रा भू से आठ शतक, अट्ठासी योजन पर नभ में।
बुध ग्रह रहते इससे ऊपर, ग्रह शुक्र गुरु मंगल शनि हैं।।
इन पाँचों के अतिरिक्त तिरासी, ग्रह विमान नभ में ही हैं।
ये बुध अरु शनि के अंतराल में, सदा रहें नित भ्रमते हैं।।१।।
राहु केतु ग्रह के विमान, कुछ कम चउ सहस मील के हैं।
ये चंद्र सूर्य से बड़े कहे, इनके नीचे ही चलते हैं।।
इनकी ही गति से शशि रवि के, छह-छह महिने में बिंब ढकें।
इसको ही ग्रहण कहें श्रुत में, दीक्षादिक कार्य न हों इसमें।।२।।
इन ग्रह के आठ हजार देव, वाहन जाती के होते हैं।
केहरि गज वृषभ अश्व विक्रिय, धरके चउ दिश में जुतते हैं।।
सुर होकर भी पशु रूप धरें, जीवन भर वाहन बने रहें।
जो नर गुरु का अविनय करते, वे तप से वाहन गती लहें।।३।।
जो निज चारित्र मलिन करते, बहुविध मिथ्या तप करते हैं।
जिनधर्म की आसादन करते, वे ही ज्योतिष सुर बनते हैं।।
वह जाकर जिन महिमादि देख, सम्यक्त्व ग्रहण कर सकते हैं।
फिर नर हो मुनि बन तप करके, निजआत्म सुधारस चखते हैं।।४।।
बुध शुक्र गुरू मंगल व शनी, राहू केतू ये ग्रह माने।
शशि रवि दो को भी गिन लीजे, ये नवग्रह हैं सब जग जाने।।
जो ग्रह के जिनगृह नित पूजें, उनको ग्रह कष्ट न दे सकते।
जो इनकी जिन प्रतिमा वंदे, नवग्रह उनको अभीष्ट फलते।।४।।
जिनभक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनुकूल बना देती।
जिनभक्ति अकेली ही जन को, दुर्गति से शीघ्र बचा लेती।।
जिनभक्ति अकेली ही जन के, तीर्थंकर आदि पुण्य पूरे।
जिनभक्ति अकेली ही जन को, शिवसुख देकर भव दुख चूरे।।६।।
मैं नमूँ अनंतों बार प्रभो! मेरे सब दु:ख विनाश करो।
मैं नमूँ अनंतों बार प्रभो! मुझ में निजज्ञानप्रकाश भरो।।
मैं नमूँ अनंतों बार प्रभो! सम्यग्दर्शन अक्षय कीजे।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरी होने तक, चरण शरण में रख लीजे।।७।।
वर्तमान में यह देखा जाता है कि कोई-कोई मंगल, शनि आदि ग्रहों से पीड़ित रहते हैं इसके निराकरण के लिए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर में एक ‘‘नवग्रहशांति जिनमंदिर’’ का निर्माण किया गया जिसमें नव कमलों पर नवतीर्थंकर भगवन्तों को विराजमान किया गया है। जब से मंदिर निर्मित हुआ है तब से बहुत लोग उस नवग्रह शान्तिकारक तीर्थंकरों के दर्शन-पूजन-वन्दन आदि करके अपने-अपने ग्रहों की शान्ति करते हुए देखे जाते हैं।
आप सभी भक्तगण भी तीर्थंकरों की भक्ति करके अपने कर्मों की निर्जरा करें, यही भावना है।
आप प्रतिदिन रात्रि में नक्षत्रों को देखते हैं, वे चूँकि पृथ्वी से इतनी अधिक ऊँचाई पर स्थित हैं अत: हमें बहुत छोटे आकार के दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक चन्द्रमा के २८-२८ नक्षत्र आकाशमण्डल चमकते हैं। इनका आकार अर्धगोलक के समान अर्थात् आधे कटे संतरे के समान होता है। इस विषय को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित ‘‘तीन लोक’’ विधान की पूजा नं. ५० की पंक्तियों में देखें-
एकेक शशि के नखत अट्ठाईस नभ में चमकते।
सब अर्धगोलक सदृश निचले, भाग से ही दमकते।।
इन सब विमानन मध्य स्वर्णिम, कूट पर जिनधाम हैं।
पूजूँ जिनेश्वर बिम्ब मैं, आह्वान कर इत ठाम हैं।।
प्रारंभ से ही पूज्य माताजी की यही इच्छा रहती है कि प्राचीन शास्त्रों में लिखी अधिकाधिक बातों को मैं जनसाधारण के सामने प्रस्तुत कर दूँ अत: कुछ पंक्तियों में ही वे ‘गागर में सागर’’ की भांति काफी सार को समाहित कर देती हैं।
आगे इन २८ नक्षत्रों के प्रत्येक अर्घ्य में नक्षत्रों के आकार का सुन्दर वर्णन किया है कि किसीं ग्रह का आकार वीजना के समान है, किसी का गाड़ी की उद्धिका के समान। किसी ग्रह का आकार मृग के सिर के समान है तो किसी का दीपक के समान है। इस प्रकार अट्ठाइसों नक्षत्र के आकार अलग-अलग बताए गए हैं। अत्यधिक ऊँचाई पर होने के कारण ये नक्षत्र हमें एक ही आकार के दिखाई देते हैं।
जैसा कि पिछले अंकों के माध्यम से आपने जाना कि सम्पूर्ण ढाई द्वीप के अन्दर १३२-१३२ सूर्य और चन्द्रमा होते हैं तो एक चन्द्रमा के २८ नक्षत्र के हिसाब से १३२ ² २८ · ३६९६ अर्थात् पूरे ढाई द्वीप में छत्तीस सौ छ्यानवे नक्षत्र होते हैं इससे आगे संख्यातीत नक्षत्र हैं यथा-
नर लोक मध्य इक सौ बत्तिस, शशि के छत्तिस छ्यानवे हैं।
इस आगे संख्यातीत नखत, सबमें जिनगृह को वंदन है।।
इन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा नहीं समझें कि मध्यलोक में मात्र छत्तिस सौ छ्यानवे ही नखत हैं आगे कहा है कि-
प्रत्येक नखत के छह आदि, मूल तारा बतलाये हैं।
ग्यारह सौ ग्यारह से गुणिते, परिकर तारा कहलाये हैं।।
इन सब ताराओं की संख्या, इस मध्य लोक में असंख्य हैं।
सब के विमान में जिन मंदिर, ये मुनिगण से भी वंदित हैं।।
अर्थात् प्रत्येक के परिकर ताराओं को मिलाकर नक्षत्रों की संख्या असंख्य हो जाती है। उपर्युक्त पद्य की अंतिम पंक्ति देखिए-‘‘सब के विमान में जिनमंदिर ये मुनिगण से भी वंदित हैं।’’ हम और आप जैसे साधारण बुद्धि वाले लोग कभी यह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि जो नक्षत्र हमें इस पृथ्वीतल से नन्हें-नन्हें दिखाई पड़ते हैं उनमें भी जिनमंदिर हो सकते हैं। वास्तव में पूज्य माताजी ने इन सब कल्पनातीत विषयों को प्रस्तुत करके बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। आगे की सुन्दर पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
इन पर जिनमंदिर बने हुए, जिनप्रतिमा इक सौ आठ-आठ।
इन सब असंख्य जिनप्रतिमा को, पूजत हो मंगल ठाठ बाट।।
अर्थात् इन जिनमंदिरों में भी एक-दो नहीं अपितु १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। हम यहाँ से भी उन जिनप्रतिमाओं को प्रतिदिन नमन करके अपने असंख्य कर्मों की निर्जरा कर सकते हैं।
पुन: जयमाला के अन्तर्गत सम्यक्त्व की महिमा को प्रतिपादित किया गया है-
जय जय जिनेन्द्र धाम सर्व पाप हरंता।
जय जय जिनेन्द्र धाम श्रेष्ठ पुण्य भरंता।।
जय जय जिनेन्द्र बिंब रत्न मणिमयी बनें।
चेतन इन्हें नमें स्वयं चिन्मूर्ति परिणमें।।१।।
नक्षत्र के विमान पृथिवी काय धातु के।
एकेंद्रि जीव इनमें जन्म धारते मरते।।
इन जीव के उद्योत नाम कर्म उदय से।
ये बिंब नित्य चमकते हैं शीत किरण से।।२।।
इनके हैं चउ हजार देव विक्रिया करें।
सिंहादि रूप धार के वाहन बना करें।।
ये अल्प पुण्य से यहाँ नित क्लेश धारते।
सम्यक्त्व यदि मिले तो चित्त शांति पावते।।३।।
सम्यक्त्व की महिमा अचिन्त्य पार नहीं है।
सम्यक्त्व के बिना जगत की पार नहीं है।।
सम्यक्त्वरत्न शीघ्र मुक्ति प्राप्त करावे।
सम्यक्त्वरत्न आत्म सुधापूर पिलावे।।४।।
जो नित्य इन विमान के जिनगेह वंदते।
वे निज अनंत गुण से स्वयं को हि मंडते।।
वे मोह को यमराज को भि खंड खंडते।
बस तीन रत्न से हि स्वयं स्वात्म मंडते।।५।।
देवाधिदेव! आपकी मैं वंदना करूँ।
सम्यक्त्वरत्न ना छुटे ये प्रार्थना करूँ।।
बस बार बार इसी हेतु अर्चना करूँ।‘सुज्ञानमती’ पूर्ण करो याचना करूँ।।६।।
उपर्युक्त जयमाला को पढ़कर प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन यह चिन्तन करना चाहिए कि जिस प्रकार तीन लोक में सुमेरुपर्वत सबसे ऊँचा है, चक्रवर्ती का वैभव अन्य जनों के लिए दुर्लभ है, तीर्थंकर जैसा पुण्य अन्य किसी को प्राप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सम्यक्त्व के सिवाय इस जग में दूसरा कोई मित्र नहीं है अत: अधिकाधिक पुरुषार्थ करके अपने सम्यक्त्व की भली प्रकार रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह सम्यक्त्व ही संसार सागर से पार करने के लिए नौका के सदृश अवलम्बन है।
नक्षत्र विमान के पश्चात् अब आपको प्रकीर्णक तारे नामक पंचम भेद के बारे में बताते हैं—आप आकाशमण्डल में सूर्य, चन्द्रमा आदि के साथ प्रकीर्णक तारामण्डल को देखते हैं। इनका आकार अर्धगोलक के समान है जिसका वर्णन करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘तीनलोक विधान’’ की पूजा नं ५१ की जयमाला में लिखा है—
एकेक शशि के प्रकीर्णक, तारे चमकते गगन में।
छ्यासठ सहस नौ सौ पचहत्तर, कोटिकोटी अधर में।।
ये अर्ध गोलक सम इन्हों के, मध्य ऊंचे कूट हैं।
उन पर जिनेश्वर धाम पूजूं, जैनप्रतिमा युक्त हैं।।
धरती से इकतीस लाख साठ हजार मील ऊपर इन ताराओं के विमान हैं जिनका सुन्दन वर्णन इस जयमाला में है। पूज्य माताजी द्वारा लिखे गए आप किसी भी विधान को उठाकर देख लें उसमें आगम का सार भरा हुआ है। पूर्वाचार्य प्रणीत प्राचीन ग्रंथों के आधार से रचित उनकी प्रत्येक कृति से अच्छा स्वाध्याय हो जाता है फिर जो भक्तिपरक कृतियां विधान आदि हैं उनसे तो असंख्य कर्मनिर्जरा और पुण्यबंध के साथ भक्ति करते—करते ही आगम के गूढ़ विषयों का ज्ञान सरलता से हो जाता है।
इन ताराओं के बिम्बों में जिनवर प्रतिमाएं विराजमान हैं। मध्यलोक में स्थित असंख्यात द्वीप—समुद्रों में जितने भी तारागण हैं उनका इसमें सुन्दर वर्णन है। जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा हैं उनके परिवार रूप में एक लाख तेतिस हजार नव सौ पचास कोड़ाकोड़ी तारे हैं जो आकाश में टिमटिमाते हुए मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। लवण समुद्र में चार चन्द्रमा हैं, उनके दो लाख सरसठ हजार नव सौ कोड़ाकोड़ी तारे परिकर रूप में हैं जिनमें मणिमय अकृत्रिम रत्नमयी जिनमंदिर हैं। धातकीखण्ड में बारह चन्द्रमा हैं जिनके आठ लाख तीन हजार सात सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं। कालोदधि में अट्ठाईस लाख बारह हजार नव सौ पचास कोड़ाकोड़ी तारे, पुष्करार्ध में अड़तालीस लाख बाईस हजार दो सौ कोड़ाकोड़ी तारे चमक रहे हैं और मानुषोत्तर से बाहर पुष्करार्ध से अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत असंख्यात चन्द्र परिवार के संख्यातीत तारा विमान हैं जिनमें संख्यातीत जिनालय हैं जिन्हें नमन करने से असंख्य कर्मों की निर्जरा होती है।
ध्रुवतारे—जम्बूद्वीप में आकाशमण्डल में छत्तिस ध्रुव तारे स्थिर हैं। यह अपने स्थानों पर ही रहते हैं, प्रदक्षिणा रूप से परिभ्रमण नहीं करते हैं। यह अर्ध गोलक के समान हैं जिनके बीचोंबीच में अतिशय दिव्य कूट हैं जिनमें अकृत्रिम रत्नमयी मणिमय जिनमंदिर में जिनप्रतिमाएँ विराजित हैं। लवणोदधि में एक सौ उनतालिस ध्रुव तारे चमकते हैं इस विमान के ठीक मध्य में स्वर्णिम कूट स्थित हैं। धातकीखण्ड में एक हजार दस ध्रुवतारे नित्य चमकते हैं, ये विमान शाश्वत भूकायिक दिव्यकूट से संयुक्त हैं। कालोदधि समुद्र में इकतालीस हजार एक सौ बीस ध्रुवतारे हैं और पुष्करार्ध में त्रेपन हजार दो सौ तीस ध्रुव तारे स्थित हैं। इस प्रकार तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार सम्पूर्ण तारामण्डल की गणना बताते हुए पूज्य माताजी ने कहा है—
अट्ठासी लाख चालिस हजार सात सौ कोड़ाकोड़ी ये।
सब तारे मनुज लोक में हैं इस आगे संख्यातीत भये।।
पंचानवे सहस पांच सौ पैंतिस ध्रुव तारे नरलोक में हैं।।
इन सबके जिनमंदिर पूजूं, ये आत्मशुद्धि में कारण हैं।।
पुन: बताया है—
प्रति ज्योतिष गृह में जिनमंदिर, प्रति जिनगृह में जिनप्रतिमाएं।
हैं इक सौ आठ—आठ मणिमय, शाश्वत प्रतिमाएं मन भाएं।।
प्रति प्रतिमा सन्निध मंगल द्रव्य हैं, आठ सु इक सौ आठ—आठ।
मंगल घट मुक्तामालादिक, जिनप्रतिमा वंदत भरें ठाठ।।
अर्थात् प्रत्येक ज्योतिष गृह में जिनमंदिर हैं जिसमें १०८ मणिमय शाश्वत जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। प्रत्येक प्रतिमा के निकट आठ मंगल द्रव्य हैं तथा १०८ मंगल घट आदिक हैं। इस विधान की जयमाला में जिनेन्द्र देव की स्तुति करते हुए इन तारकाओं का सुन्दर वर्णन हैं जिसके माध्यम से इनमें स्थित जिनबिम्बों की वन्दना का पुण्य यहां बैठे—बैठे ही प्राप्त हो जाता है—
जयमाला
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर देव तुमने, घातिकर्म विनाशिया।
जय जय जिनेश्वर देव तुमने, सर्व दोष विघातिया।।
जय जय जिनेश्वर देव तुमको, इंद्र शत मिल वंदते।
जय जय जिनेश्वर देव तुम, प्रतिमा मुनी भी वंदते।।१।।
ज्योतिष सुरों में तारका, सब से प्रथम आकाश में।
सबसे जघन्य विमान इनके, मील द्विशत पचास में।।
इनके सुवाहदेव दो हजार चउदिश में जुते।
ये बिंब मंद सुमंद किरणों, से उजेला कर सकें।।२।।
हैं गमन में शशि मंद उनसे, शीघ्रगामी सूर्य हैं।
ग्रह शीघ्रतर चलते उन्होंसे, शीघ्रतर नक्षत्र हैं।ं
इनमे अधिक भी शीघ्रतर, ये तारका गण विचरते।
नर लोक से आगे सभी, तारे गमन नहिं कर सकें।।३।।
इस प्रथम जम्बूद्वीप में दो, चंद्र परिकर तारका।
इस भरत में हैं सातसौ पण१ कोड़ि कोड़ी तारका।।
हिमवत् पे चौदह सौ देश, तारे सु कोड़ा कोड़ि हैं।
ये क्षेत्र२ पर्वत से द्विगुण, वीदेह तक फिर अर्ध हैं।।४।।
इन बिंब के मधि कूट पर, जिनगेह शाश्वत शोभते।
उनके चतुर्दिश महल में सब, देव देवी राजते।।
इन देव की उत्कृष्ट आयू, पाव पल्य सुख्यात है।
तनु तुंग सात धनुष कहा, विक्रिय तनू बहु भांति है।।५।।
ताराओं के जिनधाम में, जिनबिंब इकसौ आठ हैं।
विध आठ मंगलद्रव्य प्रत्येक इकसौ आठ हिं आठ हैं।।
बहु धूप घट मंगल घड़े, मालयों मोती स्वर्ण की।
चंदवा चंवर छत्रादि तोरण, ध्वज पताका शोभतीं।।६।।
वर धूप घट में अग्नि शाश्वत, जल रही जिन गेह में।
खेवें सुगंधित धूप सुरगण, धुआं पैâले अभ्र में।।
सब देव गण अति भक्ति से, जिन देव अर्चन कर रहे।
वीणा मृदंगी बांसुरी, संगीत नर्तन कर रहे।।७।।
ये देव पंच कल्याणक में, आते महात्म्य विलोकते।
देवर्द्धिदर्शन आदि से, मिथ्यात्व कर्म विलोपते१।।
सम्यक्त्वनिधि को पाय कर, संसार छोटा कर रहे।
जिन भक्ति में अति मग्न हो, जिन आत्म संपति भर रहे।।८।।
मिथ्या तपस्या आदि से, ज्योतिष सुरों में जन्म हो।
सम्यक्त्वनिधि को पायके, फिर श्रेष्ठ मानव जन्म हो।।
मुनि व्रत धरें शुचि तप करें, निर्वाण लक्ष्मी को वरें।
सम्यक्त्व रत्न महान यह, जिन भक्ति से अर्जन करें।।९।।
हे नाथ! आप प्रसाद से, सम्यक्त्व मेरा दृढ़ रहे।
जब तक नहीं हो मोक्ष तब तक, आपमें मन रमि रहे।।
प्रभु अंतक्षण तक आप का नाम स्मरण हो कंठ में।
बस ‘ज्ञानमती’ हो पूर्ण तबतक, रहूँ जिनवर पंथ में।।१०।।
-दोहा-
ताराओं के जिनभवन, हैं असंख्य परिणाम।
नमूँ अनंतों बार मैं झुक झुक करूँ प्रणाम।।।११।।
उपर्युक्त जयमाला को पढ़कर पाठकों को पूरी कथा ज्ञात हो जाती है कि जिनेन्द्र भगवान ने घातिया कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) का नाश कर जब अर्हंत अवस्था की प्राप्ति की तब चतुर्णिकाय के देवों ने आकर उनकी वन्दना की, गणधर, मुनिगण ने भी आपकी वन्दना की और आपकी प्रतिमा की भी मुनिगण तो वन्दना करते ही हैं, सौ इन्द्र भी सतत आपकी स्तुति करते हैं। उन्हीं सौ इन्द्रों में से ज्योतिर्वासी देवों का यहाँ वर्णन किया गया है। उन ज्योतिर्वासी देवों में आकाशमण्डल में सबसे प्रथम तारका विमान हैं जिसमें सबसे जघन्य विमान दो सौ पचास मील विस्तार वाले हैं, इनके २००० वाहनदेव चारों दिशाओं में जुते हुए हैं जो मंद—मंद किरणों से प्रकाश पैâला रहे हैं। गमन क्षेत्र में चन्द्रमा की गति जितनी है उससे शीघ्रगामी गति सूर्य की है, सूर्य से शीघ्र गति ग्रहों की और उनसे भी तेज गति नक्षत्रों की है तथा इन सबसे भी तीव्र गति तारागणों की है किन्तु मनुष्यलोक से आगे ये तारे गमन नहीं कर सकते हैं, इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा हैं, भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक और हैरण्यवत ऐसे सात क्षेत्र हैं तथा हिमवान आदि छ: पर्वत हैं, जिनमें इन चन्द्रमा के परिवार रूप ताराओं की संख्या का प्रमाण इस प्रकार है—भरतक्षेत्र में ७०५ कोड़ाकोड़ी तारे हैं, हिमवान पर्वत पर दूने, आगे हैमवत क्षेत्र में दूने, इससे दूने महाहिमवान पर, इससे दूने हरि क्षेत्र में, इससे दूने निषध पर, इससे दूने विदेह क्षेत्र में पुन: आगे पर्वत क्षेत्रों में आधे—आधे होते हुए ऐरावत क्षेत्र में ७०५ कोड़ाकोड़ी तारे हैं जिसमें जिनबिम्ब शोभायमान हैं जिनके बीचोंबीच में जिनप्रतिमा विराजमान हैं, उसकी चारों दिशाओं में बने महलों में देव—देवी निवास करते हैं, इन देवों की उत्कृष्ट आयु पाव पल्य और शरीर की ऊँचाई सात धनुष है, ये विक्रिया से अनेक रूप बना सकते हैं। ताराओं में अवस्थित जिनमंदिरों में प्रत्येक में १०८—१०८ जिनप्रतिमाएं हैं और १०८—१०८ आठों प्रकार के मंगलद्रव्य हैं। वहां का वैभव दिव्य और अचिन्त्य है, जिनमंदिरों में स्थित धूपघटों में शाश्वत अग्नि प्रज्वलित हैं जहाँ सुरगणों के धूप खेने से चहुं ओर उसका धुंआ पैâलता रहता है। वहां रहने वाले देवगण अति भक्ति से वीणा, बांसुरी, मृदंगी आदि संगीतध्वनिपूर्वक नृत्य गान कर भगवान की स्तुति आदि करते रहते हैं। ये सभी देव भगवान के पंचकल्याणक में आते हैं और देवद्धिदर्शन आदि से मिथ्यात्व कर्म को नष्ट कर सम्यक्त्व ग्रहण कर अपने संसार को अल्प कर लेते हैं।
जो जीव इस पृथ्वीलोक में खोटी तपस्या आदि मिथ्यात्व करते हैं वही ज्योतिर्वासी देवों में जन्म प्राप्त करते हैं और पुन: सम्यक्त्व निधि को प्राप्त कर मनुष्य जन्म में मुनिव्रत धारण कर तपस्या करके निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं इस सम्यग्दर्शन की ऐसी अचिन्त्य महिमा है इसलिए हमें सदैव यही भावना भानी चाहिए कि हमारा सम्यक्त्व रत्न दृढ़ बना रहे और जब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती तब तक जिनधर्म और जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में ही मन रमा रहे तथा अंत समय तक भगवान के नाम का ही स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक मरण की प्राप्ति होवे।
तर्ज—फूलों सा चेहरा तेरा……
इस युग की माँ शारदे, तू धर्म की प्राण है।
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।टेक.।।
महावीर प्रभु के शासन में अब तक,
कोई भी नारी न ऐसी हुई।
साहित्य लेखन करने की शक्ति,
तुझमें न जाने वैâसे हुई।।
शास्त्र पुराणों में, भक्ति विधानों में, तेरा प्रथम नाम है विश्व में-२
कलियुग की माँ भारती, पूनो का तू चांद है,
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।
इस युग…।।१।।
तीर्थंकरों की जन्मभूमि का,
उत्थान माता तुमने किया।
हस्तिनापुरी में जंबूद्वीप को,
साकार माता तुमने किया।।
तीर्थ अयोध्या की, कीर्ति प्रसारित की, मस्तकाभिषेक आदिनाथ का हुआ-२
तू जग की वागीश्वरी, धरती का सम्मान है,
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।
इस युग…।।२।।
गणिनी शिरोमणि तेरी तपस्या,
का लाभ इस वसुधा को मिला।
चारित्र चक्री गुरु के सदृश ही,
‘‘चंदना’’ इक पुष्प जग में खिला।
पुष्प महकता है, चाँद चमकता है, ज्ञानमती माता के रूप में-२
युग युग तू जीती रहे, हम सबके अरमान हैं,
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।
इस युग…।।३।।
तर्ज—तुझसे मिलने को……
तेरे दर्शन को मन करता है-२
हे माता! तेरे……।।टेक.।।
बालपन से तुम्हें धर्म भाता रहा।
मोह का तुमसे कोई न नाता रहा।।
तेरे चरणों में सिर झुकता है-२।। माता……।।१।।
ब्राह्मी और चन्दना की कथाएं सुनीं।
तुमको संयोग से मिल गए फिर मुनी।।
तुम सम बनने को मन करता है-२।। माता……।।२।।
बालसतियों की बगिया का पहला कुसुम।
ज्ञानमति नाम से खिल गया था प्रथम।।
ज्ञान लेने को दिल करता है-२।। माता……।।३।।
तेरी कृतियों ने अमरत्व को पा लिया।
युग का इतिहास तुमने स्वयं लिख दिया।।
उन्हें पढ़ने को मन करता है-२।। माता……।।४।।
शब्दों की माला चरणों में अर्पण करूँ।
‘‘चन्दनामति’’ तुझे सब समर्पण करूँ।।
तेरे चरणों में सिर झुकता है-२।। माता……।।५।।