नियमसार प्राभृत-एक अनुचिन्तन
मंगलाचरण
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं।।
आचार्य कुन्दकुन्द देव ने पांच सार रूप ग्रंथों को लिखा है उन्हीं में से नियमसार भी एक है। भगवान महावीर एवं गौतम गणधर के पश्चात् जिनका नाम हम परम आदरपूर्वक लेते हैं, उनकी महिमा शब्दों में वणर््िात नहीं की जा सकती। जिन्होंने स्वयं अध्यात्म रस में निमग्न होकर अपनी अनुभवपूर्ण लेखनी से उस प्राप्त आनंद का अंश लिपिबद्ध किया है उस रस का आस्वाद स्वयं चखने वाले को ही अनुभव में आ सकता है।
जब आत्मा की बात पढ़ने व सुनने में ही सुखद लगती है तो जो स्वयं उसमें सराबोर हो जाते हैं, उनके आनंद का तो कहना ही क्या है। वैसे सारा संसार आनंद की प्राप्ति के लिए अहर्निश प्रयत्नशील है किन्तु उस जन्य पुरुषार्थ विपरीत दिशा में चल रहा है जिसके कारण उसकी प्राप्ति की दूरी बढ़ती जा रही है।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भक्ति रस में गोते लगाकर जो रत्नकण एकत्रित किये हैं उसी के फलस्वरूप उनमें से एक यह नियमसार ग्रन्थ की ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ नाम की संस्कृत टीका एवं उन्हीं के द्वारा लिखी गई हिन्दी टीका ‘नियमसार प्राभृत ग्रन्थ के रूप में समाज के सामने आई है।
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं।
वोच्छाामि णियमसारं केवलिसुदकेवली भणिदं।।१।।
अन्वयार्थ—(अणंतवरणाणसहावं) अनंतवर ज्ञान दर्शन स्वभाव वाले (जिणं वीरं) जिनवीर को (णमिऊण) नमस्कार करके (केवलीसुदकेवलीभणिदं) केवली, श्रुतकेवली द्वारा कथित (णियमसारं) नियमसार ग्रन्थ को मैं (वोच्छामि)कहूंगा।
नियमसार ग्रंथ के इस मंगलाचरण से ग्रन्थ का विषय और ग्रन्थकर्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव के भावों का अच्छी तरह से परिचय प्राप्त हो जाता है।
‘णमिऊण’ गाथा के इस प्रथम अक्षर से श्रद्धा, भक्ति, विनय के भाव प्रतिभासित होते हैं। जब नमस्कार किया जाता है तो यह बात निश्चित हो जाती है कि जिसे नमस्कार किया है वह महान है, गुणवान है, पूज्य है। नमस्कार मन, वचन, काय तीनों से होता है। गुणों का अनुरागी ही गुणवान को नमस्कार करता है। यहां तो नमस्कार करने वाले स्वयं ही महान आचार्य हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जिन्हें नमस्कार किया है वे उनसे भी अधिक महान हैं। आचार्य से महान तो अरहंत, सिद्ध हो सकते हैं।
आचार्य देव ने अपने आराध्य का नाम भी स्पष्ट कर दिया है कि मेरी आराधना के के पात्र वीर जिन हैं। वैâसे हैं वे वीर महावीर ? अनंत ज्ञान, दर्शन स्वभाव वाले हैं।
नमस्कार सकारण ही किया जाता है या अकारण ? अकारण नमस्कार भी सकारण ही होता है किन्तु सकारण में कोई विशेष विषय लक्षित रहता। चूंकि यहां आचार्य देव नियमसार नामक ग्रन्थ का सृजन कर रहे हैं इसलिए सकारण नमस्कार है। यहां नमस्कार में यह भावना निहित है कि अभीष्ट की सिद्धि हो अर्थात् नियम का सार स्वपर हितकारी हो।
मंगलाचरण में दिये गये ‘ केवलिसुदकेवलीभणिदं ’ शब्दों से ग्रन्थकर्ता आचार्य के परिणामों की सुकोमलता एवं लाघवता भी दृष्टिगत होती है। साथ ही उन्होंने अपने आपको प्रतिज्ञाबद्ध भी किया है कि मैं इस ग्रंथ में उसी बात को कहूंगा जिसे केवली एवं श्रुतकेवलियों ने कहा है। विषय की प्रमाणता उसके कहने वाले से जानी जाती है। यदि कहने वाला प्रामाणीक नहीं है तो उसकी बात अप्रमाणीक ही होगी।
इस प्रकार मंगलाचरण में आचार्यश्री ने सब बातों का स्वयं स्पष्टीकरण कर दिया है जिससे कि पाठक के मन में किसी प्रकार का कोई ऊहापोह न होने पावे। क्या कहेंगे यह भी बता दिया कि ‘नियमसार’ को कहूंगा। नियम ‘शब्द रत्नत्रय भेद तथा अभेद दो रूप से है।
आचार्य कुन्दकुन्द देव कृत इन गाथाओं पर पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने विस्तारपूर्वक ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ नाम से संस्कृत टीका रची है जिसमें शब्दों की भावात्मक व्युत्पत्ति करते हुए विषय को स्पष्ट किया है।
‘वीर’ शब्द का प्रयोग तीन प्रकार से किया जा सकता है। ‘वि’—विशिष्ट ‘ई’—लक्ष्मी तां रराति ददाति इति ‘वीर’। संसारीजनों को सदा से लक्ष्मी-धन सम्पदा की अभिलाषा रही है। जहां धन प्राप्त होता है वहीं मनुष्य जाता है तथा जैसे भी धन प्राप्त हो वह कार्य करता है। पारमार्थिक दृष्टि से अन्तरंग लक्ष्मी समवशरण आदि की विभूति है। उसे जो दे सकते हैं वे ‘वीर’ हैं अतः भगवान महावीर का यह वीर नाम सार्थक ही है। जो उनका आश्रय करता है, भक्ति करता है, उनके गुणों में तन्मय होता है उसे उपरोक्त दोनों प्रकार की लक्ष्मी की सहज रूप से प्राप्ति हो जाती है।
लौकिक सम्पदा प्राप्ति के लिए जितना प्रयास संसारी जन करते हैं वह वास्तव में निरर्थक है क्योंकि वह तो भाग्याधीन है। यदि पूर्व पुण्य का उदय हुआ तब तो लाभ होता है अन्यथा कितना भी परिश्रम किया जाये निरर्थक ही जाता है। उसकी अपेक्षा पारमार्थिक पुरुषार्थ जितना अधिक किया जाता है उतना अधिक आत्मशांति रूप लाभ भी मिलता है। अंतरंग लक्ष्मी की प्राप्ति से स्थाई सुख मिलता है जबकि बाह्य सम्पत्ति क्षणिक सुख प्रदान करती है।
‘भुक्ति मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर ’ जो अंतरंग अभ्युदय को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है उसे लौकिक सुख तो अनाज के साथ उत्पन्न हुए घास की तरह स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं, फिर सच्चा सुख तो मुक्ति में ही है। सांसारिक सुख को आचार्यों ने सुखाभास कहा है।
दूसरे अर्थ में जो ‘वी’ विशेष रीति से ‘ईर्ते ’ अर्थात् जानते हैं। संपूर्ण पदार्थ और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायें जिनके ज्ञान में एक साथ झलकती रहती हैं ऐसे वीर जिन हैं अथवा जिन्होंने कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपना वीर नाम सार्थक किया है।
गाथा में वीर के पहले ‘जिन’ विशेषण उनके महान गुणों का द्योतक है। अनंत संसार के कारणभूत संपूर्ण मोह, राग-द्वेष आदि का नाश करके जिन्हें यह जिन संज्ञा प्राप्त हुई है, घातिया कर्मों का नाश करके अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य रूप महान गुणों के स्वामी बने।
यहां अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरण रूप भाव नमस्कार किया गया है। जो कि अशुद्ध निश्चयनय से है। ‘नत्वा’ शब्द के द्वारा वचनात्मक नमस्कार व्यवहारनय की अपेक्षा से किया गया है। शुद्ध निश्चयनय से तो अपनी आत्मा में ही आराध्य भाव है। इस प्रकार नयों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
इसमें से आदि के दो नमस्कार तो छठे गुणस्थान तक होते हैं तथा शुद्ध निश्चयनय से जो नमस्कार किया जाता है वह सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है, उसके आगे तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली अर्हंत भगवान और गुणस्थान से परे सिद्ध भगवान हैं, वे तो नमस्कार के योग्य ही होते हैं।
व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय अवलम्बन से शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना या शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हो जाना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है।
आगे आचार्य देव आत्मा का हित और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हैं।
मग्गो मग्गफलंत्ति य दुविहंजिणसासणे समक्खादं।
मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं।।२।।
अन्वयार्थ—(जिणसासणे) जिनेन्द्र भगवान के शासन में (मग्गो य मग्गफलंति) मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार (समक्खादं) कहे गये हैं। (मोक्खउवायो मग्गो) मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग है और (तस्स फलं णिव्वाणं होइ) उसका फल निर्वाण है।
जिसके द्वारा अपना इष्ट स्थान अथवा इष्ट वस्तु खोजी जाती है वह मार्ग कहलाता है। व्याकरण में मृग धातु ढूंढने अर्थ में है उससे ही मार्ग शब्द बना है। उस मार्ग से चलकर अर्थात् उपाय को करके जो प्राप्त किया जाता है वही उस मार्ग का फल है।
यहां इष्ट स्थान अथवा इष्ट वस्तु मोक्ष है। मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक रहता है। कथंचित् देशसंयम रूप पंचम गुणस्थान से भी प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान तक रहता है अथवा चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत भी यह रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग माना गया है।
तात्पर्य यह है कि अपनी आत्मा की उपलब्धिस्वरूप मोक्ष है, नित्य, निरंजन, निर्विकार, निज शुद्ध आत्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुष्ठान रूप जो अभेद रत्नत्रय है वही मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। इसी प्रकार से अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टविध सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र ये तीनों समुदाय रूप से भेद रत्नत्रय हैं जो कि अभेद रत्नत्रय के लिए साधन है।
ये दोनों भेदाभेद रत्नत्रय भी मोक्षमार्ग हैं ऐसा जानकर शक्ति के अनुसार इन पर चलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मोक्ष ही उपादेय है अतः उसके लिए साक्षात् उपाय अभेद रत्नत्रय उपादेय है और अभेद रत्नत्रय के लिए साधनभूत भेदरत्नत्रय भी उपादेय ही है।
आत्महित की प्राप्ति का उपाय बताकर नियमसार नाम की सार्थकता तथा उसके लक्षण को इस प्रकार कहा है-
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।।
अन्वयार्थ—(णियमेण य जं कज्जं) नियम से ही जो कार्य करने योग्य है (तं णियमं णाणदंसणचरित्तं)वह नियम-ज्ञान,दर्शन और चारित्र है। (विवरीय परिहरत्थं) विपरीत का परिहार करने के लिये (खलु सारं इति वयणं भणिदं) निश्चय से इसमें ‘‘सार’’ यह वचन कहा गया है।
यहां मोक्षमार्ग में नियमपूर्वक करने योग्य कार्य दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही हैं। नियम के साथ जो ‘‘सार’’ शब्द का प्रयोग किया है वह मिथ्यात्व के निराकरण के लिए ही है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र भी मोक्षमार्ग न हो जावे इसलिए गाथा में ‘‘सार’’ शब्द रखा है अथवा ‘‘सार’’ सम्यक्वाची है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हो मोक्षमार्ग है।
ग्रन्थ को आद्योपांत देखने से इसका ‘नियमसार’ नाम सार्थक ही प्रतीत होता है। प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक सभी संयत्—मुनिराज ‘नियमसार’ होते हैं अथवा छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के सभी साधु नियमसार हैं क्योकि वे भेद-अभेद रत्नत्रय का अनुष्ठान कर रहे हैं और वे नियम ‘शब्द’ से वाच्य विषय के आधारभूत हैं।
तब यहां यह शंका हो सकती है कि इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकार मुनियों को ही है, देशव्रती तथा असंयत सम्यग्दृष्टि को नहीं। सो यह कहना ठीक ही है। मुख्य रूप से तो मुनियों को ही इसके पठन—पाठन का अधिकार है किन्तु गौण रूप से छठे गुणस्थान से नीचे वाले (श्रावक) भी पढ़ सकते हैं क्योंकि सागार—गृहस्थ भी मुनिधर्म के अनुरागी होते हैं।
वैसे तो कुछ ग्रंथ मुनियों को प्रधान करके तथा कुछ ग्रन्थ श्रावकों को प्रधान करके पूर्वाचार्यों ने लिखे हैं। कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जिनमें श्रावक तथा साधु दोनों को संबोधन है। ऐसा अभ्यासी ही आगे चलकर महान मुनिधर्म को धारण करने में सक्षम हो पाता है किन्तु कुछ स्थान, कुछ परिणाम ऐसे भी हैं जहां मुनि ही उसके योग्य पात्र हैं। ऐसी स्थिति में श्रावकों को वहां अनधिकृत चेष्टा नहीं करनी चाहिये।
परिणामों की जहां तक बात है वह गुणस्थान से संबंधित है। किसी श्रावक के कितने भी विशुद्ध परिणाम हों किन्तु उसके गुणस्थान अधिकतम पांचवाँ ही हो सकेगा। इसके यही तात्पर्य निकलता है कि श्रावक अपने पद के अनुसार महामुनियों के गुणों का अनुरागी बने और तदनुरूप धर्माराधन करते हुए गृहस्थाश्रम को सार्थक बनावे।
नियम शब्द की सफलता और उसका फल
णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि।।४।।
अन्वयार्थ—(मोक्ख उवायो णियमं) मोक्ष का उपाय नियम है, (परमणिव्वाणं तस्स फलं हवदि) परम निर्वाण उसका फल है (एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होदि) इन तीनों में से अब प्रत्येक का वर्णन करते हैं।
स्याद्वादचन्द्रिका टीका१-नियम शब्द का अर्थ मोक्ष का उपाय तथा उसका फल परम निर्वाण है। गाथा दो में मोक्ष के उपाय को स्वयं आचार्यदेव ने मार्ग कहा है और मार्ग का फल निर्वाण—मोक्ष कहा है। यहाँ इस चौथी गाथा में आचार्यश्री ने नियम को मोक्ष का उपाय कहा है और उसके फल को निर्वाण कहा है।
पूर्व कथन में और इसमें इतना ही अंतर है कि वहां मार्ग की प्रधानता है और यहां नियम शब्द की। दूसरी बात यह है कि मार्ग ही नियम है और नियम ही मार्ग है। तीसरी गाथा में नियम शब्द का वही लक्षण किया है जो कि मार्ग का है, जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है।
संपूर्ण कर्मों से छूट जाना मोक्ष है अथवा अनन्त चतुष्टय की प्रकटता हो जाना भी मोक्ष है।
श्री ब्रह्मदेव सूरी ने कहा भी है-
यद्यपि संपूर्ण कर्ममल कलंक के दूर हो जाने पर शरीर रहित आत्मा को आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत और अनुपम ऐसे सकल, विमल केवलज्ञान आदि अनंत गुणों के स्थान रूप एक अवस्था विशेष का हो जाना ‘मोक्ष’ कहा गया है, फिर भी वह मोक्ष भेद रूप से भावमोक्ष और द्रव्य मोक्ष की अपेक्षा दो प्रकार का है-
संंपूर्ण द्रव्यभाव रूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्मों के क्षय में हेतु, निश्चयरत्नत्रयात्मक कारण समयसार रूप जो आत्मा का परिणाम है वह भावमोक्ष है। अयोगी केवली भगवान जो कि टंकोत्कीर्ण शुद्ध बुद्ध एक ज्ञायक स्वभाव वाले परमात्मा हैं उनके चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में आयु, वेदनीय, नाम और गोत्र इन चारों अघातिया कर्मों का भी अत्यन्त रूप से पृथक हो जाना द्रव्य मोक्ष है।
इस कथन से यह ज्ञात होता है कि अर्हंत अवस्था को प्राप्त कर लेना भाव मोक्ष है और सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेना द्रव्य मोक्ष है।
यह नियम नाम से जो मोक्ष का उपाय है अर्थात् रत्नत्रय है वह यद्यपि व्यवहारनय से क्षीणकषायी मुनि के अन्तिम समय का परिणाम है फिर भी अघाति कर्म के निमित्त से केवली भगवंतों के चारित्र गुणों में आनुषंगिक दोष संभव है तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान भी उनके वहां पर उपचार से कहा गया है इसलिए निश्चयनय से अयोगी केवलियों का अन्तिम समय का परिणाम भी रत्नरूप मोक्षमार्ग ही है।
आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने श्लोकवार्तिक ग्रंथ में कहा है-
‘‘निश्चयनय से अयोगीकेवली का अंतिम समयवर्ती रत्नत्रय मुक्ति का हेतु है यह बात व्यवस्थित है।’’१
इस कथन से यह निर्णीत होता है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक ‘मार्ग’ है और उसके आगे मार्ग का फल है क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मार्ग है इनमें से एक, दो का कम होना नहीं है।
श्री भट्टाकलज्र्देव ने भी कहा है-
‘‘ये तीनों ही मिलकर मोक्षमार्ग हैं, एक-एक अथवा दो-दो से मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि तीनों के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं हेै, रसायन के समान (मोक्षमार्ग रूप ज्ञान से ही मोक्ष का सम्बन्ध नहीं है क्योंकि दर्शन और चारित्र का अभाव है। श्रद्धान मात्र से भी मोक्ष नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग का ज्ञान और उस पूर्वक क्रिया के अनुष्ठान का अभाव है। क्रिया मात्र से भी मोक्ष नहीं है क्योंकि उसमें ज्ञान और श्रद्धान का अभाव है।
बात यह है कि ज्ञान और श्रद्धान से रहित क्रिया भी निष्फल ही है। ज्ञान मात्र से कहीं पर भी कार्य की सिद्धि नहीं देखी जाती है अतः मोक्षमार्ग के तीन अवयवों की कल्पना-व्यवस्था उत्कृष्ट ही है।’’
प्रवचनसार गं्रथ में भी ऐसा ही देखा जाता है-
‘‘णहि आगमेण सिज्भâदि सद्दहणं जदि विणत्थि अत्थेसु।
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वाण णिव्वादि।।२३७।।
‘यदि पदार्थों का श्रद्धान नहीं है तो वह आगम के ज्ञान मात्र से सिद्ध नहीं होगा और पदार्थों का श्रद्धान करते हुए भी यदि वह असंयत है तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता।’
इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं—
श्रद्धान से शून्य ऐसे आगमजनित ज्ञान से कोई भी मनुष्य सिद्ध नहीं होगा वैसे ही ज्ञान और श्रद्धान से सहित भी कोई यदि संयम से शून्य है, तो भी वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा क्योंकि जो असंयत है उसका आगम कथित आत्मा की प्रतीति रूप श्रद्धान अथवा आगम में कथित आत्मतत्व की अनुभूतिरूप ज्ञान भी क्या कर सकेंगे ? इसलिए संयम से रहित श्रद्धान से अथवा ज्ञान से सिद्धि नहीं है अतः आगमज्ञान तत्वार्थश्रद्धान और संयत अवस्था-सकल चारित्र ये तीनों यदि एक साथ नहीं हैं तो उनके ‘मोक्षमार्ग’ नहीं बनता।
इस कथन से छठे गुणस्थान से मुनियों के ही मोक्षमार्ग होता है इसके नीचे नहीं है अथवा देशव्रती श्रावकों के भी मोक्षमार्ग माना है। जैसा कि श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय गं्रथ की टीका में कहा है-
‘वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों रत्न गृहस्थ एवं तपोधन मुनि इन दोनों में समान हैं किन्तु जो चारित्र है वह मुनियों के तो आचार ग्रन्थ आदि चारित्र गं्रथो में कहे गये मार्ग रूप से छठे व सातवें गुणस्थान के योग्य होता है जो कि पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति और छह आवश्यक क्रिया आदि रूप है।
गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन नामक ग्रन्थ में कहे गये मार्ग के अनुसार पंचम गुणस्थान के योग्य होता है जो कि दान, शील, पूजा और उपवास इन चार धर्म रूप है अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमा से ग्यारह स्थान रूप है यह सब व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है।
पंचास्तिकाय ग्रन्थ में इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्र सूरि ने यहां पर भी यतियों के ही मोक्षमार्ग कहा है गृहस्थों के नहीं।
इन उपरोक्त प्रकरणों से यह बात लक्षित होती है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों के मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि उनके चारित्र का अभाव है और यदि मानो भी तो उपचार से ही है।
दूसरी बात यह है कि जो स्वयं तो श्रद्धान से शून्य हैं और इन रत्नत्रय में से किसी एक से या किन्हीं भी दो से मोक्षमार्ग मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो ‘इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है’ ऐसा मानकर श्रद्धान करते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं।
अथवा छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त—अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है क्योंकि वह परम्परा से मोक्ष का कारण है। निश्चयनय से तो अयोगकेवलियों का अंतिमसमयवर्ताr रत्नत्रय परिणाम ही मोक्षमार्ग है क्योंकि वह साक्षात् अनंतरक्षण में मोक्ष को प्राप्त करने वाला है अथवा भावमोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवर्ती मुनि का अंतिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है।
तात्पर्य यह निकला कि चित्चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्व है, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है, यही निश्चय मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय मानकर भेद रत्नत्रय स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिये। यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है तो अणुव्रती बनकर देशचारित्र का अवलम्बन लेना चाहिये और महाव्रतों की भावना करनी चाहिये।
यदि अणुव्रत भी नहीं ले सकें तो सम्यक्त्व को दृढ़ रखते हुए देशचारित्र की भावना करनी चाहिये क्योंकि क्रम का उल्लंघन न करते हुए ही की गई भावना भव का नाश करने वाली होती है।
इस स्याद्वाचन्द्रिका टीका का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकलता है कि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। आचार्य उमास्वामी ने भी तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में कहा है-
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’।
सम्यग्दर्शन तो चारों गतियों में हो सकता है और उसके साथ जो ज्ञान होता है वह भी सम्यक््âरूप में परिणत हो जाता है। यहां तक कि ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान में भी द्वादशांग के अंशरूप में उपलब्ध चारों अनुयोगों का ज्ञान भी हम और आप जैसे मनुष्यों के लिये ही संभव है इसलिए सम्यग्ज्ञान की आराधना भी तीनों गतियों में नहीं है। हां! सर्वार्थसिद्धि आदि के देव सम्यग्दृष्टि हैं। यहां जो मुनि अवस्था में ज्ञानाभ्यास किया है उसके संस्कार रूप वहां पर सागरोपम आयु तक तत्वचर्चा किया करते हैं।
अब रही सम्यक्चारित्र की बात। नरकगति एवं देवगति में अविरत सम्यग्दृष्टि नाम तक के चार गुणस्थान ही हो सकते हैं। देशविरत नाम का पांचवां गुणस्थान वहां हो ही नहीं सकता। तिर्यंचगति में पंचेंद्रिय तिर्यंच जो कि पर्याप्त हो जैसे-सिंह, हाथी आदि कदाचित् गुरुओं के मुख से उपदेश सुनकर या देवों के द्वारा संबोधन प्राप्त कर सम्यदृष्टि बन जाते हैं और पंच अणुव्रत ग्रहण कर देशविरत नामक पांचवां गुणस्थान भी प्राप्त कर लेते हैं।
श्री जयसेनाचार्य के शब्दों में-‘ये देशव्रती तिर्यंच भी मोक्षमार्गी हैं और मनुष्य भी पंच अणुव्रत से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तक क्षुल्लक या ऐलक हैं, वे सब मोक्षमार्गी हैं किन्तु अमृतचन्द्र सूरि के शब्दों में ‘‘महाव्रतों का पालन करने वाले रत्नत्रय के धारी मुनि हैं वे मोक्षमार्गी हैं’’ यह बात माताजी ने प्रवचनसार की २३७ वीं गाथा उद्धृत कर स्पष्ट कर दी है और अमृतचन्द्र सूरी की टीका का अंश भी उद्धृत कर दिया है।
इससे यही बात समझना चाहिये कि अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य रत्नत्रय के अन्तर्गत चारित्र का धारी न होने से मोक्षमार्गी नहीं है क्योंकि उसने मोक्षमार्ग की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है। आज के युग में यह आगम ही हमें सही मार्ग को बतलाने वाले हैं। इनका अच्छी तरह स्वाध्याय करना चाहिये बल्कि गुरुओं के मुख से इनके स्वाध्याय का लाभ मिले तो अपना अहोभाग्य ही समझना चाहिये।
सम्यग्दर्शन
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेई सम्मत्तं।
ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।।५।।
अन्वयार्थ—(अत्तागमतच्चाणं) आप्त, आगम और तत्वों के (सद्दहणादो सम्मत्तं हवेइ) श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। (ववगदअसेसदोसो) समस्त दोषों से रहित (सयलगुणप्पा)सकल गुणों से सहित आत्मा (अत्तो हवे) आप्त है।
स्याद्वाद चंद्रिका टीका-आप्त, आगम और तत्व, इनका श्रद्धान करना, इनमें रुचि, प्रतीति और विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है। यह व्यवहार सम्यक्त्व का कथन है। इसके आधार से निश्चयनय से अपनी शुद्ध, बुद्ध परमानंदमय आत्मा में रुचिरूप श्रद्धान होना निश्चय सम्यक्त्व है। यह साध्य है और व्यवहार सम्यक्त्व साधन है इसीलिए यहां आचार्य देव ने पहले व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा हेै।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि आप्त कौन हैं ? जिनके श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है।
समाधान-सर्वदोष रहित और सर्व गुणों से सहित आत्मा ही आप्त है। शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक रूप नाना प्रकार के दुःख हैं, उनके कारण ऐसे जन्म, जरा, मरण आदि संपूर्ण दोषों से विमुक्त जो कोई आत्मा है वही आप्त है तथा जिनके संपूर्ण गुणस्वभाव प्रगट हो चुके हैं वे ही आप्तदेव हो सकते हैं।
आगमभाषा में जो कोई भी महापुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से घति कर्मों को नष्ट कर कर्म पर्वतों का भेदन करके वीतरागता को, सर्व तत्वों को जान लेने से सर्वज्ञता को और मोक्षमार्ग के नेता होने से हितोपदेशिता को अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप तीनों गुणों को प्राप्त करके अर्हंत परमात्मा हो चुके हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं।
अध्यात्म भाषा में निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से परिणत निर्विकल्प समाधिरूप अभेदरत्नत्रय लक्षण रूप जो कारण समयसार है उ
शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव अनंत चतुष्टय स्वभाव वाले होने से आप्त ही हैं। इस कारण मेरी आत्मा भी वर्तमान काल में शक्ति रूप से आप्त है, सच्चा देवा है, परमात्मा है जो कि इस देहरूपी देवालय में रह रहा है, ऐसा मानकर तत्व विचार के काल में तीनों संध्या के सामायिक काल में ‘‘मैं अर्हत्स्वरूप हूँ , मैं आप्त हूँ, मैं सर्वज्ञ हूँ, मै वीतराग हूँ, मैं दोष रहित हूँ ’’, ऐसा चिंतवन करना चाहिये।
अन्यकाल में आप्त भगवान-जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के सान्निध्य में बैठकर उन्हीं अर्हंत परमेष्ठी की भक्ति, स्तुति, वंदना, उपासना और आराधना करना चाहिए क्योंकि आप्त स्वरूप से अपनी आत्मा साध्य है और ये आप्त देव साधनभूत हैं अतः साधन के अवलम्बन से साध्य को सिद्ध करना चाहिए।
गुणस्थान की विवक्षा में व्यक्तरूप आप्त तेरहवें गुणस्थान में हैं और शक्ति रूप से सभी संसारी जीवों में हैं। वह आप्त कारण रूप से अभेदरत्नत्रय से परिणत शुद्धोपयोगी मुनियों में है, कारण कारणरूप से भेद रत्नत्रय के आराधक आचार्य,उपाध्याय और साधुओं में है और परंपराकारणरूप से चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थों में विराजमान है ऐसा जानना चाहिये।
तात्पर्य यह निकला कि आप्त आदि का श्रद्धान सम्यक्त्व है और आप्त दोषों से रहित, गुणों से सहित हैं, उन्हीं आप्त को उपादेय करके शक्ति रूप से अपनी आत्मा को भी उनके सदृश मानकर तब तक इन आप्त की आराधना करनी चाहिए जब तक कि यह अपनी आत्मा आप्त न हो जावे।
विशेष-यहाँ सम्यग्दर्शन के लक्षण में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने आप्त, आगम और तत्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। अन्य ग्रन्थों में इन्हीं आचार्यों ने सम्यग्दर्शन के भिन्न लक्षण भी किये हैं तथा अन्य—अन्य ग्रन्थों में अन्य—अन्य आचार्यों ने भी सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न लक्षण किये हैं।
इन लक्षण भेदों से न सम्यग्दर्शन में कोई भेद आता है और न किसी भी सम्यग्दर्शन के लक्षण में अव्याप्ति व असम्भव दोष ही आते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन में सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होना चाहिये सो सभी सम्यग्दर्शन के लक्षणों में यह लक्षण अवश्य रहेगा।
उदाहरण के लिए देखिये-
श्री गुणधर आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार से किया है-
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कचाचित् अज्ञानवश सद्भूत कार्य को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है।१
इस सम्यग्दर्शन के लक्षण में भगवान के द्वारा कथित आगम का श्रद्धान विवक्षित है। इस प्रवचन के श्रद्धान में भी आप्त, आगम और तत्वों का श्रद्धान आ ही जावेगा।
इसी प्रकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने दर्शनपाहुड़ में सम्यक्त्व का लक्षण बताया है कि-‘‘छह द्रव्य, नव पदार्थ, पांच अस्तिकाय, सात तत्व ये जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये हैं। इनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है।’’
इन छह द्रव्य आदि के श्रद्धान से भी आप्त, आगम व तत्वों का श्रद्धान निश्चित ही है। ऐसे ही उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण किया है-‘‘तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं’’ यथार्थ तत्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इस लक्षण में भी आप्त और आगम का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इस लक्षण में भी आप्त और आगम का श्रद्धान हो ही जाता है क्योंकि जीव तत्व के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा। परमात्मा के श्रद्धान से आप्त का श्रद्धान और उनके द्वारा कथित आगम का श्रद्धान होना आवश्यक ही है।
बहुत प्रसिद्ध लक्षण श्रीसमंतभद्र स्वामी का है-
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्।।
श्री समन्तभद्रस्वामी ने सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरू का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है। यहाँ यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है कि श्री कुन्दकुन्ददेव ने तो नियमसार ग्रन्थ में ‘‘अत्तागम-तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं’’आप्त, आगम और तत्व इन तीन के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन नहीं कहा, पुनः समन्तभद्र स्वामी ने वैâसे कहा, अथवा ऐसा क्यों है ? क्या कुन्दकुन्ददेव का लक्षण अधूरा है ? ऐसी बात नहीं है। आप्त में पांच परमेष्ठियों को ले सकते हैं। पांचों परमेष्ठियों में अरहंत, सिद्ध तो पूर्ण रूप से आप्त हैं, परमात्मा हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु भी एकदेश रूप से आप्त हैं क्योंकि ये भावी परमात्मा हैं अथवा जीव तत्व के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद हैं यह सर्व विदित है। अन्तरात्मा में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अन्तरात्मा हैं। पांचवे से लेकर ग्यारहवें तक मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थानवर्ती उत्तम अन्तरात्मा हैं। इन अंतरात्मा में सच्चे गुरू आ गये और उनके श्रद्धान से सम्यग्दर्शन हो गया।
परमात्मा में सकल निकल परमात्मा विवक्षित ही है इसलिये श्री कुन्दकुन्द देव के नियमसार में सम्यग्दर्शन के लक्षण में अव्याप्ति दोष नहीं है क्योंकि इस लक्षण में भी आप्त, आगम और तत्व में गुरू को गर्भित किया जाता है। कोई कहे कि अलग-अलग ग्रन्थों के अलग-अलग सम्यग्दर्शन के लक्षण एक— दूसरे के पूरक हैं, यह बात नहीं है बल्कि एक-एक लक्षण स्वयं में पूर्ण हैं जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि अव्याप्ति, अतिव्याप्ति एवं असंभव दोष किसी भी लक्षण में नहीं है। इसी एक लक्षण में भी अन्य गं्रथो में कहे लक्षण पूर्ण रूप से घटित हो जाते हैं।
जो निश्चय सम्यक्त्व का लक्षण है आत्मा का श्रद्धान करना, वह लक्षण भी इन लक्षणों में घटित है क्योंकि जब किसी भी व्यक्ति को सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन होगा तब ‘तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं’ आदि किसी भी लक्षण को ले लीजिये। तत्व के श्रद्धान में, जीव तत्व के श्रद्धान में जीव शुद्ध, सिद्ध है, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव है, ज्ञाता दृष्टा है, पर द्रव्य से पुद्गल आदि से सर्वथा भिन्न है यह श्रद्धान अवश्य होगा और जीव तत्व के वास्तविक श्रद्धान से आत्मा का श्रद्धान होने पर भेद विज्ञान अवश्य होगा इसलिए प्रत्येक लक्षण में आत्मा का श्रद्धान भेद विज्ञान भी गर्भित है।
इस पांचवी गाथा के उत्तरार्ध में अर्थात् दूसरी लाइन में आप्त का लक्षण कहा है ‘‘ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो’’ अशेष दोषों से रहित और सकल गुणों से सहित आत्मा ही आप्त है। आगे स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव उन दोषों के नाम और गुणों के नाम संकेत करेंगे। मुख्य रूप से आत्मा में तीन गुण अवश्य होना चाहिये जैसा कि श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थसूत्र जैसे गं्रथ की रचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण में कहा है-मोक्षमार्गस्य नेतारं-मोक्षमार्ग के जो नेता हैं, भेत्तारंं कर्मभूभ्रताम्-जो कर्म रूपी पर्वतों का भेदन करने वाले हैं और ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां अर्थात् संपूर्ण विश्व के तत्वों को जानने वाले हैं।
इस एक मंगलाचरण के ऊपर श्री समन्तभद्र स्वामी ने आप्त को कसौटी पर कसते हुए आप्तमीमांसा नाम से गं्रथ रचना की, उस गं्रथ के ऊपर श्री अकलंक देव ने अष्टशती नाम से भाष्य बनाया। इस आप्तमीमांसा एवं अष्टशती को लेकर श्री विद्यानन्द आचार्य ने एक हजार वर्ष पूर्व अष्टसहस्री नाम से ग्रंथ रचा। इस पूरे गं्रथ का अनुवाद करते हुए पूज्य माताजी ने यह अच्छी तरह अनुभव किया और आप्त के इन तीनों गुणों को सिद्ध करके यह निश्चित किया कि जिनमें तीनों में से एक गुण भी नहीं है या एक गुण कम है वह आप्त नहीं अनाप्त है।
इन्हीं तीनों गुणों को विवक्षित करके श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आप्त का लक्षण किया है-
आप्तेनोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना,
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।
यहां कर्मरूपी पर्वत का भेदन करने से वीतरागता विवक्षित है क्योंकि जब तक कर्मों का सम्बन्ध रहेगा तब तक अठारह दोषों में से कोई भी दोष रहेंगे और जब दोष रहेंगे तो वीतरागता नहीं आ सकती। वीतरागता का अर्थ ही राग-द्वेष और उनसे होने वाले आनुषंगिक दोषों का अभाव है।
तात्पर्य यह रहा कि सच्चे आप्त वे ही हो सकते हैं जिनमें ये तीन गुण पाये जावें। ये गुण ऐसे हैं कि जिनमें ये पाये जाएंगे उनमें केवलज्ञानादि अनंत गुणों का वैभव अपने आप आ जावेगा और उनमें अठारह दोष नहीं होंगे, उनमें दोषों के निमित्त से होने वाले जो अनंत दोष हैं जो कि संसारी प्राणियों में विद्यमान हैं वे सब दोष समाप्त हो जावेंगे क्योंकि मोहनीय कर्म के निमित्त से अनंत दोष इस जीव मेंं पाये जाते हैं।
इसीलिए जो सम्पूर्ण दोषों से रहित पूर्ण निर्दोष हैं और सम्पूर्ण गुणों के भण्डार हैं ऐसे अर्हंतदेव ही सच्चे आप्त हो सकते हैं।
सच्चे आप्त वैâसे होते हैं ?
प्रश्न-अर्हंतदेव में कौन—कौन से दोष नहीं होते हैं ?
उत्तर-अर्हंतदेव १८ दोषों से रहित होते हैं। जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी नियमसार की गाथा नं० ६ में कहा है—
छुहतण्हभीरूरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रूजा मिच्चू।
सेदं खेद मदो रइ, बिम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो।।६।।
भूख, प्यास, भय, क्रोध, राग, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और अरति ये १८ दोषों के नाम हैं।
प्रश्न- समस्त संसारी जीवों में क्या ये सभी दोष नष्ट हो गए हैं ?
उत्तर-इस बात को पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने उपर्युक्त गाथा की ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ टीका में बताया है-
‘‘इमेऽष्टादश महादोषाः, नैते जीवस्वभावाः, यद्यपि अशुद्धनयेन सर्वसंसारिजीवेषु दृश्यन्ते, तथापि ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ इति वचनात् शुद्धनयाभिप्रायेण तेषामपि न संति।’’
अर्थात् ये अठारह महादोष हैं, ये जीव के स्वभाव नहीं हैं। यद्यपि अशुद्धनय से ये दोष सभी संसारी जीवों में दिख रहे हैं, फिर भी ‘‘सभी जीव शुद्धनय से शुद्ध हैं’’ इस वचन के अनुसार शुद्धनय के अभिप्राय से ये संसारी जीवों में नहीं हैं।
प्रश्न– ये सभी किन-किन गुणस्थानों में जीव नष्ट करता है ?
उत्तर– नियमसार की स्याद्वादचन्द्रिका की संस्कृत और हिन्दी टीका में माताजी ने गुणस्थान व्यवस्था को बहुत सुचारू रूप से दर्शाया है। यहां हिन्दी टीका के वाक्य उद्धृत हैं—
‘ये सभी दोष प्रगट रूप से छठे गुणस्थान तक पाये जाते हैं। आगे सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें पर्यंत अव्यक्त—अप्रगट रूप हैं अथवा सत्तारूप से हैं। इसके आगे तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में तथा उससे परे सिद्धों में नहीं हैं।’’
प्रश्न– इसका मतलब है कि ये सभी दोष हम संसारी जीवों में सदा रहते हैं तो फिर हमें क्या करना चाहिए जिससे हम भी दोष रहित बन सकें ?
उत्तर– इसका समाधान भी हिन्दी टीका की पंक्तियों में देखिए—
‘‘जिस प्रकार सयोगकेवली गुणस्थान में अर्हंत भगवान इन दोषों से रहित होते हुए निर्दोष ‘आप्त’ कहलाते हैं, उसी प्रकार से सम्यग्दृष्टी श्रावकों-मुनियों को भी ‘निश्चयनय से मेरी आत्मा निर्दोष है’ ऐसा चिन्तवन करते रहना चाहिए और व्यवहारनय का अवलंबन लेकर ऐसा मानना चाहिए कि इन अठारह दोषों के मूल कारण राग, द्वेष और मोह ये तीन दोष ही हैं। पुनः ऐसा मान करके सम्यक् श्रद्धानपूर्वक वीतराग परमानंद अमृत को पीने की इच्छा रूप भावना को भाते हुए अपनी योग्यता के अनुसार चारित्र को ग्रहण करके रागादि दोषों का परिहार करना चाहिए।
नियमसार की इसी छठी गाथा में जो अठारह दोष के नाम हैं वे दोष अर्हंतदेव में नहीं हैं, सच्चे आप्त में नहीं हैं यह बात यहां दिखलाई गई है किन्तु विचार करके देखा जाय तो इसमें से कई दोष ऐसे हैं जो देवगति के देवों में नहीं होते। देवगति नामकर्म के उदय से जो देव होते हैं उनमें भूख—प्यास की बाधा नहीं होती, यथासमय जो उनके लिए निर्धारित है आयु के हिसाब से उस समय उनके कंठ से अमृत झर जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती है, उनको बुढ़ापा नहीं आता, रोग नहीं होता, पसीना नहीं आता, उन्हें निद्रा नहीं आती।
इस प्रकार अठारह दोषों में से ये ६ दोष नहीं होते। फिर भी इन दोषों में सबसे बड़े दोष मोह, राग, द्वेष, क्रोध अथवा जन्म—मरण ये तो उनमें मिलते हैं इसलिए वे देव सच्चे आप्त नहीं हो सकते। यद्यपि उनके वैक्रियक शरीर होने से और देवगति नामकर्म का उदय होने से पुण्य विशेष से ऊपर बताये गये छह दोष नहीं दिखते हैं फिर भी जब तक मिथ्यात्व कर्म का उदय है तब तक तो वे देव चिन्ता, राग, द्वेष, खेद, मद, रति, अरति, आश्चर्य इन दोषों से ग्रसित हैं और सबसे बड़े दोष तो संसार में जन्म—मरण के हैं इसलिए जो चार घातिया कर्मों को नष्ट करके अर्हंत अवस्था को प्राप्त होते हैं वे ही इन अठारह दोषों से रहित सच्चे आप्त कहलाते हैं।
केवलज्ञानादि गुण जब प्रगट हो जाते हैं तब यह आत्मा अनन्त गुणों के पुन्ज स्वरूप पूर्ण सुखी और पूर्ण स्वतन्त्र हो जाता है अनंत-अनंत काल के लिए।
प्रश्न-ये आप्त पुनः संसार में आते हैं क्या ?
उत्तर-नहीं, कोई—कोई तो परमात्मा का भी पुनरागमन मानते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इस बात को अच्छी तरह से सिद्ध किया है कि एक बार जड़मूल से मोहनीय कर्म का नाश हो जाने पर यह जीव पुनः संसार में नहीं आ सकता। उसकी ऐसी सुगति होती है कि जिससे सैकड़ों कल्पकाल बीत जाने पर भी इन सिद्ध प्राप्त जीवों में विकृति नहीं आती और उनके जन्म, मरण आदि दोष नहीं होते। अनंत-अनंत काल तक वे पूर्ण सुखी रहते हैं यह बात निश्चित है।
हम और आप सुखी होने के लिए आज जो भी पुरुषार्थ करते हैं और यदि जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार सही है तो हम एक न एक दिन अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं क्योंकि यह बात तो निश्चित है कि हमारी और आपकी आत्मा शक्ति रूप से परमात्मा है। इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में इस बात को बतलाया गया है कि सभी संसारी जीवों के जो आत्मा है वह भगवान परमात्मा है। किस दृष्टि से ? शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से अथवा शक्ति रूप से।
यह सर्व विदित है कि यदि बीज में वृक्ष होने की शक्ति है तो वह बीज यथासमय अच्छी उपजाऊ जमीन, खाद, पानी आदि को पाकर वृक्ष का रूप ले लेता है। यदि उस बीज में वृक्ष होने की शक्ति नहीं हो तो वह वृक्ष रूप कभी नहीं हो सकता। मिट्टी में घड़ा बनने की शक्ति है पुनः कुम्हार, चाक, चीवर आदि का निमित्त पाकर वह घड़े का रूप ले लेती है। वैसे ही हमारी आत्मा शक्ति रूप से परमात्मा है जब हमारे में यह दृढ़ श्रद्धान आ जाता है तो कितना आनन्द आता है। जब हम यह सोचते हैं कि हमारी आत्मा शक्ति रूप से परमात्मा है, भगवान आत्मा है तो हृदय गद्गद् हो जाता है किन्तु यदि हम परमात्मा बनने का पुरुषार्थ न करें, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताये हुए मार्ग पर न चलें तो भला हम आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं ? नहीं बना सकते। औषधि को जान लेने से कि यह औषधि इस रोग को दूर करेगी और जानते रहें, देखते रहें, गद्गद होते रहें किन्तु उसको खावें नहीं, उसका सेवन नहीं करें तो भला रोग वैâसे दूर हो सकता है ?
उसी प्रकार से औषधि सेवन करना अथा&त् चारित्र ग्रहण करना है। मोक्षमाग& में आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान और पुनः व्यवहार चारित्र के बल से निश्चय चारित्र को प्राप्त करने का प्रयास इस पंचमकाल में हम जितना पुरुषाथ& कर सकते हैं उतना तो करके अपने भवों को घटा लें। फिर एक समय ऐसा भी आवेगा कि अगले भव में या इससे तीसरे भव में हम ऐसा पुरुषाथ& कर सकेंगे कि जिसे कारण परमात्मा कहते हैं अथवा अभेद रत्नत्रय रूप परिणति में, शुद्धोपयोग में स्थित होकर एकाग्र चिन्तानिरोध रूप ध्यान को करते हुए अपनी आत्मा को काय& परमात्मा बना सकेंगे।
आज जो रत्नत्रय है वह व्यवहार रत्नत्रय है, यह कारण कारण परमात्मा की अवस्था है। यद्यपि यह नियम है कि भेद रत्नत्रय अभेद रत्नत्रय के बिना नहीं होता है इसीलिए मुनियों के छठा और सातवां गुणस्थान माना है। सातवें गुणस्थान में अभेद रत्नत्रय का स्पश& होता है, आगे के गुणस्थानों में अभेद रत्नत्रय पूण& रूप से प्रकट होता है और क्रिया में, चया& में छठे गुणस्थान में भेद रत्नत्रय होता है।
यदि हम मुनि अवस्था को प्राप्त न कर सकें, महिलायें आर्यिका अवस्था को प्राप्त न कर सकें तो भी यह कत&व्य हो जाता है कि श्रावक और अणुव्रती बनें। गुरुओं के वचनों पर विश्वास करते हुए, आगम के वाक्यों पर प्रतीति रखते हुए सच्चे सम्यग्दृष्टि बनें; तभी स्वाध्याय करने का फल हमेंं प्राप्त होगा। जब तक हम अपने आपमें चारित्र धारण नहीं करेंगे तब तक भला स्वाध्याय का लाभ हमें क्या मिलेगा ?
यदि कोई हाथ में दीपक लेकर चलते हुए जानबूझ कर, देखकर भी गड्ढे में गिर जाय तो उसके हाथ में दीपक रखने से भी क्या लाभ है ? जिनवाणी का स्वाध्याय हमारे लिए दीपक है, उस आगम के प्रकाश में हम हित—अहित को समझते हैं-देखते हैं और देख समझकर भी यदि पांचों पापों से एकदेश भी निवृत्ति न करें तो स्वाध्याय का जो फल हमें मिलना चाहिये वह नहीं मिल पायेगाद्ध इसलिए हमारा कत&व्य है कि शक्ति रूप जो परमात्मा हमारे में विराजमान है उसे व्यक्त करने के लिए सव& शक्ति से प्रयत्न करना चाहिये।
जिनागम का लक्षण
प्रश्न- जिनागम किसे कहते हैं ?
उत्तर-आचाय& श्री कुन्दकुन्द देव नियमसार की आठवीं गाथा में जिनागम का स्वरूप बताते हैं-
तस्स मुहग्गदवयणं, पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं।
आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवन्ति तच्चत्था।।८।।
अन्वयाथ&-(तस्स मुहग्गदवयणं)उन आप्त के मुख से निकले हुये वचन (पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं) जो पूवा&पर दोष से रहित और शुद्ध हैं (आगममिदि परिहरियं)वही ‘‘आगम’ ऐसा कहा गया है। (तेण दु कहिया तच्चत्था हवन्ति) उस आगम में कहे गये ही तत्वाथ& हैं।।८।।
उन पूव& कथित गुणों से सहित परमात्मा के मुख से निकला हुआ वचन परस्पर विरोध रूप पूवा&पर विरोध आदि दोषों से रहित और शुद्ध है। गणधर आदि महामुनियों ने उसे ही ‘आगम’ कहा है और उस आगम में जो भी कहे गए हैं वे ही तत्वाथ& हैं, उससे भिन्न नहीं।
प्रश्न-संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी ने कुछ न कुछ उपदेश दिये हैं तो क्या वे सब जिनागम की कोटि में जाएंगे ?
उत्तर– इसी ८ वीं गाथा की स्याद्वादचंद्रिका टीका में पू० गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है-
पांच महाकल्याण, चौंतीस अतिशय और आठ महाप्रातिहायों& से सहित देवाधिदेव परम तीथं&कर आप्त हैं। उनके मुखकमल से प्रगट हुआ शब्द ब्रह्म ही परमब्रह्म है, वही परमागम है। क्यों ? क्योंकि उसमें पहले और पश्चात् में परस्पर में विरोध नहीं है इसीलिए वही आगम है। माताजी ने स्वयं उसमें शंका का समाधान किया है।
शंका-तो क्या यह पूवा&पर विरोध दोष किसी आगम में है ?
समाधान-हां, जो सव& को प्रकाशित करने वाले ‘स्यात्पद’ मुद्रा से चिन्हित नहीं हैं ऐसे शास्त्रों में यह दोष पाया जाता है।
न्यायकुमदचन्द्र में कहा भी है-
किसी शास्त्र में एक जगह कहा गया है कि ‘सभी जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।’ पुनः उसी में आगे कहा है कि ‘स्वयं ही विधाता ने यज्ञ के लिये पशुओं को बनाया है।’ इस प्रकार एक ही शास्त्र में पहले हिंसा के निषेध का कथन है पुनः उसी में हिंसा को करने का कथन है। उसी प्रकार से किसी शास्त्र में एक जगह तीथ&स्नान का फल दिखलाया है और उसी में तीथ&स्नान का निषेध भी किया है। जैसे-
गंगाद्वार में, कुशावत& में, बिल्वक में, नीलपव&त के तीथ& में और कनखल तीथ& में स्नान करने से पुनज&न्म नहीं होता है। पुनः लिखते हैं-जिनका अन्तरंग मन दुष्ट है वह तीथ&स्नान से शुद्ध नहीं होता है, जैसे शराब के भांड को सैकड़ों बार भी जल से धोने पर वह पवित्र नहीं होता है।
इत्यादि प्रकार के आगम में एकरूपता नहीं है क्योंकि पूवा&पर विरोध दिख रहा है किन्तु ‘स्यात्पद’ से चिन्हित यह आगम इन दोषों से रहित ही है। पुनः वह आगम वैâसा है ? शुद्ध है। पापसूत्र के समान हिंसादि पाप क्रिया का प्रतिपादन नहीं करता है अथवा शुद्ध अथा&त् निदो&ष है क्योंकि यह युक्ति और शास्त्र से अविरोधी कथन करने वाला है। भगवान जिनेन्द्रदेव के वचन मोक्ष, मोक्ष के कारण, संसार और संसार के कारण इन चार तत्वों के प्रतिपादक हैं इसलिए जिनवचन ही आगम हैं अन्य के वचन आगम नहीं हैं, यह अथ& हुआ।
प्रश्न-तीथं&कर भगवान की वाणी को साक्षात् सुनकर लिखा किसने है?
उत्तर– हां देखो! इन सभी प्रश्नों का उत्तर बड़े सरल ढंग से स्याद्वादचन्द्रिका टीका में किया गया है। इस ग्रन्थ का एक ब्ाार स्वाध्याय करने से भगवान कुन्दकुन्द का सारा अभिप्राय समझ में आ जाता है। टीका का ही अंश देखें-
इन गुणों से सहित आगम तीर्थंकर परमदेव से ही उत्पन्न होता है। गणधरदेव उनकी दिव्यध्वनि को सुनकर अवधारण करके पुनः द्वादशांग श्रुत रूप से रचते हैं अनन्तर अन्य भी आचार्य उसी परम्परा से ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर उसी का निरूपण करते हैं। इस भरतक्षेत्र में आज पंचमकाल में जो कोई आचार्य हुये हैं; उन्होंने भी नदी के जल को नये घड़े में भर लेने के सदृश उसी आगम को ही कहा है-
इससे यह निष्कर्ष निकला कि भावश्रुत के तथा अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर भगवान हैं। गणधर देव उनसे श्रुत को ग्रहण करते हैं। पुनः ग्रहण किये हुये से वे स्वयं श्रुतपर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिए वे द्रव्यश्रुत के कर्त्ता हैं।
श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी है-
‘भावश्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर से गौतमस्वामी श्रुतपर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिये द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम हैं। उनसे ही ग्रन्थरचना हुई है।
प्रश्न-इस गाथा में जो तत्वार्थ शब्द है वह क्या बतलाता है ?
उत्तर-इसका उत्तर भी देखें—‘तेन श्रुतेन कथिताः प्रतिपादिता ये केचन पदार्थास्त एव तत्वार्थः’ अर्थात् उस श्रुत से कहे गये जो कुछ भी पदार्थ हैं वे ही तत्वार्थ कहलाते हैं। इसको तो अलग-अलग भी बता रहे हैं।
शंका-‘तत्व’ इस शब्द से क्या समझना ?
समाधान-यहाँ ‘तत्व’ शब्द भाववाची है। तत् यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम पद सामान्य अर्थ में रहते हैं। ‘तस्य भावः तत्वं’ उसका जो भाव है वह तत्व हेै।
शंका-‘उसका’से किसको लेना ?
समाधान-जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है उसका उसी प्रकार होना, यह अर्थ इस तत्व शब्द से समझना।
शंका-‘अर्थ’ किसे कहते हैं ?
समाधान-‘ऋ’ धातु से ‘अर्यते’ बनता है। यह गत्यर्थ धातु है इसलिए जो ‘अर्यते’ अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अर्थ है अथवा जो गुण, पर्यायों से प्राप्त किये जाते हैं वे ‘अर्थ’ कहलाते हैं-इन्हें ही द्रव्य कहते हैं। तत्वरूप जो अर्थ है वह तत्वार्थ है अथवा भाव से भाव वाले को कहना तत्वार्थ है क्योंकि ये दोनों परस्पर में अभिन्न हैं। या तत्व ही अर्थ है वही तत्वार्थ है मतलब परमार्थभूत पदार्थ को अर्थ कहते हैं। यहां पर तत्वार्थ शब्द से द्रव्यों को लेना ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्ददेव का ऐसा अभिप्राय है क्योंकि आगे वे ३४ वीं गाथा में ‘ये छह द्रव्य हैं’ ऐसा कहेंगे।
तात्पर्य यह हुआ कि जिनेंद्रदेव के मुखकमल से निकले हुये वचन पूर्वापर विरोध रहित हैं, निर्दोष हैं अतः वे ही ‘आगम’ हैं, उसमें कहे गये विषय ‘तत्वार्थ’ हैं। ऐसा श्रद्धान करते हुये भव्य जीवों को सकल, विमल केवलज्ञान के लिये बीजभूत अपने आत्मा के अभिमुख हुये अनुभव स्वरूप जो भावश्रुत है उसी को उपादेय करके द्रव्यश्रुत के आधार से निजशुद्ध परमात्म तत्व की सतत भावना करनी चाहिये।
प्रश्न-उन तत्वार्थों के नाम क्या हैं ?
उत्तर-स्वयं कुंदकुंद स्वामी नियमसार में उनके नामों का प्रतिपादन करते हैं-
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।।९।।
अन्वयार्थ– (जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं तच्चत्था इति भणिदा)जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्वार्थ कहे गये हैं। णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता) ये नाना गुण पर्यायों से संयुक्त हैं।।९।।
जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को ‘तत्वार्थ’ इस नाम से चार ज्ञानधारी गणधरदेव आदि ने कहा हेै। ये अनंतगुण पर्यायों से सहित होते हैं, यह क्रिया कारक संबंध हुआ।
स्याद्वादचंद्रिका टीका में इन सभी तत्वों का अच्छा खुलासा वर्णन मिलता है।
उसी को कहते हैं—जो ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि लक्षण द्रव्य प्राणों से जीते हैं, जियेंगे और जीते थे, वे ‘जीव’ हैं। शुद्ध जीव मुक्त हैं, वे भाव प्राणों से ही जीते हैं। अशुद्ध जीव संसारी हैं, वे भी अशुद्ध निश्चयनय से शुद्ध चैतन्य प्राणों से अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध मतिज्ञान आदि चैतन्य प्राणों से तथा व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य प्राणों से तीनों काल में जीते हैं।
पूरन गलन स्वभाव वाले होने से पुद्गल हैं अथवा पुरुष द्वारा गिले जाने से पुद्गल हैं—पुरुष—जीव, इन जीवों द्वारा आहार, शरीर, पंचेंद्रियों के विषय, इंद्रियां आदि रूप से गिले जाते हैं—ग्रहण किये जाते हैं इसलिये ये पुद्गल कहलाते हैं। ये पुद्गल काय के सदृश बहुप्रदेशी होने से पुद्गलकाय कहलाते हैं।
जो स्वयं क्रियारूप से परिणामी जीव-पुद्गलों को सहायता देता है वह धर्म द्रव्य है। इससे विपरीत अर्थात् जीव पुद्गलों को ठहरने में सहायता करता है, यह अधर्म द्रव्य है। जो गणना कराता है वह काल द्रव्य है। इस प्रकार यहाँ पर व्याकरण से व्युत्पत्ति की अपेक्षा रखते हुये पुद्गल आदि द्रव्यों का यह अर्थ किया गया है।
ये सभी तत्वार्थ नाना गुण, पर्यायों से युक्त हैं। क्योंकि ‘गुणपर्यायों के समूह’ का नाम द्रव्य है। यह द्रव्य का लक्षण सूत्र में कथित है। जिनके द्वारा द्रव्य विशिष्ट किया जाए, अन्य द्रव्यों से पृथक किया जाए उन्हें गुण कहते हैं। जो स्वभाव विभावरूप से सब तरफ से प्राप्त करते हैं वे पर्यायें हैं, यह व्युत्पत्ति अर्थ है।
अन्वयी गुण हैं और व्यतिरेकी पर्यायें हैं अथवा जो सदा साथ-साथ रहते हैं वे गुण हैं और जो क्रम क्रम से होती हैं वे पर्याये हैं। वे स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेदरूप हैं। अन्य द्रव्यों में विभाव गुण-पर्यायें नहीं हैं। जीव तत्व की गुण-पर्यायें चेतन हैं और अजीव तत्व की अचेतन गुण पया&यें हैं। ये छहों ही तत्वाथ& अपने—अपने गुण पया&यों से संयुक्त हैं, उनकी आधारभूत हैं अथवा उन गुण पया&यस्वरूप ही हैं। ये न तो अपने गुण, पया&यों को छोड़ते हैं और न पर के गुण, पया&यों को ग्रहण करते हैं।
पंचास्तिकाय ग्रन्थ में कहा भी है—
‘ये सभी द्रव्य एक—दूसरे में प्रवेश करते हुए और एक दूसरे को अवकाश देते हुये तथा परस्पर में मिलते हुये भी सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।’
अभिप्राय यह निकला कि जब तक यह जीव चित्चैतन्य चिंतामणिरूप अपने स्वभाव को नहीं जानता है और न श्रद्धान करता है तब तक यह मिथ्यादृष्टि है और जब वह जानता है, श्रद्धान करता है तब सराग सम्यग्दृष्टि होता हुआ रत्नत्रय के बल से वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर निवि&कल्प समाधि में स्थित होकर अपने स्वभाव का ही अनुभव करता है तभी स्वस्थ हो जाता है। ऐसा निश्चय करके अपनी आत्मा में निश्चल ध्यान करना चाहिये और जब तक ऐसी शक्ति नहीं प्राप्त हो तब तक विशुद्ध ज्ञान, दश&नस्वरूप निज शुद्ध आत्मतत्व की भावना करनी चाहिये।
परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने दीक्षा धारण करने के अगले वष& से ही गहन अध्ययन प्रारंभ कर दिया। ग्रन्थों का रसास्वादन लेने के लिए तथ पठन—पाठन के लिए अत्यंत उपयोगी कातंत्र व्याकरण का सव&प्रथम अध्ययन करके कंठस्थ कर लिया। उसके पश्चात् एक-एक करके कई ग्रन्थों का पठन स्वयं किया तथा अनेक ग्रन्थों का अध्ययन शिष्य—शिष्याओं को पढ़ाकर किया। बीस—पच्चीस वषों& में जिनागम के उपलब्ध अधिकतम ग्रन्थों का सार ग्रहण कर लिया। चाहे न्याय हो, व्याकरण, साहित्य हो या अलंकार, अध्यात्म हो या सिद्धांत। चारों अनुयोगों का तलस्पशी& ज्ञान अजि&त किया।
गहन अध्ययन के बाद ही लेखनी प्रांरभ की। पूज्य माताजी ने जीवन भर में जो कुछ भी जिनागम को मथकर मक्खन रूप में प्राप्त किया था ; उसे इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ की टीका में भर दिया। ग्रन्थ की प्रत्येक पंक्ति सार रूप है। प्रत्येक विषय के पुष्टीकरण में अनेक आचायों& एवं ग्रन्थों के सप्रमाण उद्धरण दिये हैं। नियमसार की यह टीका एक नहीं अनेक बार पठनीय है। जितनी बार इसका स्वाध्याय किया जाएगा उतनी ही बार कुछ न कुछ विशेष उपलब्धि होगी।
अब आचाय&देव गाथा के पूवा&ध& से भेदसहित जीव का स्वरूप और गाथा के उत्तराध& से ज्ञानोपयोग के प्रकार निरूपित करते हुए कहते हैं—
अन्वयाथ&-(जीवो उवओगमओ) जीव उपयोगमयी है। (उवओगो णाणदंसणो होइ) उपयोग और दश&न इन दो भेदरूप है। (सहावणाणं विहावणाणं ति)स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान इस प्रकार से (णाणुवजोगो दुविहो) ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है।।१०।।
प्रश्न-आचाय&देव ने छः द्रव्यों के नाम का उल्लेख पूव& में किया है, उनमें मुख्य रूप से जीव का स्वरूप क्या है यह जाने बिना भेद विज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा। सो उसका यथाथ& स्वरूप क्या है बतलाइये ?
उत्तर-उसी को इस १० वीं गाथा में कहा है और टीका में स्पष्ट किया है।
जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग के ज्ञान, दश&न ये दो भेद हैं। उसमें भी ज्ञानोपयोग के स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान ये दो प्रकार हैं।
उसी को कहते हैं-बाह्य और आभ्यंतर दोनों हेतुओं के मिलने पर यथासंभव आत्मा का चैतन्य से अनुस्यूत सहित परिणाम उपयोग है। यही जीव का लक्षण है और जीव का लक्ष्य है। परस्पर मिले रहने पर जिसके द्वारा पृथक् लक्षित किया जाय वह लक्षण है। यह आत्मभूत लक्षण है जैसे अग्नि की उष्णता। यहां पर जीव गुणी धमी& है और यह उपयोग गुण धम& है।
इस उपयोग के दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दश&नोपयोग। इसमें भी ज्ञानोपयोग मुख्य रूप से स्वभाव-विभाव की अपेक्षा दो प्रकार का है।
प्रश्न-क्या जीव स्वभाव अथवा विभाव रूप से परिणत होता है ?
उत्तर-हाँ, होता है टीका में देखिये।
यद्यपि निगोद जीवों से लेकर सिद्धराशि जीव पयं&त सभी जीव सामान्य से ज्ञान दश&न स्वभाव वाले हैं फिर भी विशेष की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पयं&त जीव विभावज्ञान दश&न वाले हैं। इसके आगे के जीव स्वभावज्ञान दश&न वाले ही हैं अथवा शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव स्वभाव ज्ञानदश&नोपयोगमय होते हुये भी अशुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव विभावज्ञान और विभाव दश&न से परिणत ही हैं, तपाये हुये लोहपिण्ड के समान।
यही बात प्रवचनसार ग्रन्थ में कही भी है-
‘जिस रूप में द्रव्य परिणमन करता है उस काल में वह उस रूप तन्मय हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।’
तात्पय& यह हुआ कि-शुद्ध और अशुद्ध इन दोनों नय विभाग से अपने आत्मतत्व को जानकर अशुद्ध स्वभाव की ही भावना करनी चाहिये और जिस तरह भी उसकी प्राप्ति हो सके वैसा ही प्रयत्न और वैसा ही आचरण करना चाहिये।
अब आचाय& स्वभावज्ञान का स्वरूप और विभावज्ञान के भेदों को बतलाते हुये गाथा सूत्र कहते हैं।
केवलिंमदयरहियं असहायं तं सहावणणत्ति।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं।।११।।
अन्वयाथ&-(केवलं इन्द्रियरहियं असहायं) जो केवल, इन्द्रिय रहित और असहाय है। (सहावणाण त्ति) वह स्वभावज्ञान है।(सण्णाणिदरवियप्पे दुविहं विहावणाणं हवे) संज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का विभावज्ञान होता है।।११।।
टीका-जो केवल एक, अतीन्द्रिय और सहाय की अपेक्षा से रहित है वह केवलज्ञान स्वभावज्ञान है।
इसी का विस्तार-अथी&जन जिसलिये बाह्य आभ्यन्तर चारित्र का सेवन करते हैं, आचरण करते हैं वह केवलज्ञान है।
श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है-
इच्छा रखने वाले जिसके लिये वचन, मन और काय के आश्रित, बाह्य-अभ्यन्तर ऐसी उभय रूप जिन तपश्चरण की क्रियाओं का सेवन करता है, उसी का नाम केवलज्ञान है।
प्रश्न-केवलज्ञान के होने पर पदार्थों को जानने के लिए क्या इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता रहती है ?
उत्तर-इस ग्यारहवीं गाथा की टीका में इसका विशेष स्पष्टीकरण दिया है। यह ज्ञान असहाय है, अकेला होता है। केवलज्ञान के होने पर अन्य ज्ञान उसी में विलीन हो जाते हैं तथा यूं कहें कि नष्ट हो जाते हैं।
इसे ही टीका में दिखाया है।
यह स्वभावज्ञान इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय है क्योंकि यह इन्द्रिय और मन के व्यापार से रहित है। यह इन्द्रियज्ञान आकाश आदि अमूर्त पदार्थों में, देश से जिनमें व्यवधान है ऐसे अर्थात् अति दूरवर्ती मेरूपर्वत आदि में, काल से जिसमें अन्तराल पड़ चुका है ऐसे अतीत और अनागत कालवर्ती राम-रावण, महापद्म तीर्थंकर आदि में, स्वभाव से अंतरित नहीं दिखने वाले ऐसे भूत पिशाच आदि में और उसी प्रकार अतिसूक्ष्म पर के मन की प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। दूसरी बात यह है कि ये इन्द्रियाँ स्थूल, मूर्तिक, मर्यादित और वर्तमान काल के अपने—अपने विषयों को ही ग्रहण करती हैं किन्तु अतीन्द्रिय और तीन लोक के अन्तर्गत स्थूल, सूक्ष्म, मूर्तिक, अमूर्तिक, अनंत पदार्थों को तथा भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालीन सभी पदार्थों को एक साथ ही जान लेता है, क्योंकि उसमें क्रम का व्यवधान और इन्द्रियों का व्यवधान नहीं है।
इसी बात को प्रवचनसार में कहा है-
‘जो ज्ञान अप्रदेशी, सप्रदेशी, मूर्त, अमूर्त ऐसे सभी पदार्थ को तथा जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी अनागत एवं जो पर्यायें नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीत सभी पर्यायों को जानता है वह ज्ञान अनिन्द्रिय कहा गया है।’
इसी का विस्तार यह है कि जो ज्ञान कालाणु, परमाणु आदि अप्रदेशी द्रव्यों को जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सप्रदेशी द्रव्योें को, मूर्तिक-पुद्गल द्रव्य को और कर्मबन्धन से बद्ध हुये की अपेक्षा संसारी जीव-समूह को, अमूर्तिक-शुद्ध जीव द्रव्य को और पुद्गल से अतिरिक्त शेष अचेतन द्रव्यों को भी जानता है। उसी प्रकार जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी भविष्यत्कालीन और जो नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीतकालीन पर्यायों को अर्थात् त्रिकालगत सभी पर्यायों सहित संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों को जानता है, वह ज्ञान जैनशासन में अतीन्द्रिय कहा गया है।
शंका-आपके द्वारा मान्य अतींद्रिय ज्ञान सूक्ष्म आदि वर्तमान पदार्थों को जान लेवे िंकतु जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो अभी उत्पन्न नहीं हुये हैं उनको वैâसे जान सकता है ?
समाधान-आपका कहना सत्य है किन्तु वे अतीत, अनागत पदार्थ भी उस केवलज्ञान में वर्तमान के समान झलकते हैं , जैसे कि दीवाल पर बने हुए चित्र आदि।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही अन्य ग्रन्थ में यही बात कही है-
‘‘विशेष रीति से सभी द्रव्य-समूह की विद्यमान और अविद्यमान (अतीत-अनागत) सम्पूर्ण पर्यायें वर्तमानकालीन पर्यायों के समान ही उस ज्ञान में वर्तती हैं। जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं ये पर्यायें असद्भूत अविद्यमान हैं, ये सब पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष हैं। यदि भविष्यत् पर्यायें और नष्ट हुई भूतकालीन पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष नहीं हैं तो वह ज्ञान दिव्य है ऐसे कौन कहेंगे ?
उन सभी द्रव्यों से सम्बन्धित अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार आदि विशेषता को लिये हुए जो भी सद्भूत-वर्तमान, और असद्भूत-अविद्यमान पर्यायें हैं वे सब अतीन्द्रिय केवलज्ञान में तत्काल हुई वर्तमान पर्यायों के समान ही झलकती हैं।
जैसे कि दीवाल पर बने हुये चित्रों में बाहुबली, भरत आदि हो चुके मनुष्यों के रूप और महापद्म तीर्थंकर आदि आगे होने वाले महापुरुषोें के रूप भी वर्तमान के समान ही देखे जाते हैं, जैसे ही केवलज्ञान में भी तीनकाल की समस्त पर्यायें वर्तमान के समान ही स्फुरायमान हो जाती हैं अथवा अतीत और अनागत पर्यायों के जो ज्ञेयाकार हैं वे उस ज्ञान में वर्तमान ही रहते हैं इसलिये जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं वे पर्यायें यद्यपि असद्भूत हैं तो भी केवलज्ञान में प्रत्यक्ष ही हैं। यदि वे उस ज्ञान में प्रत्यक्ष न होवें तो उस ज्ञान को ‘‘दिव्य है’’ ऐसा निश्चय से कौन कहेंगे अर्थात् कोई भी नहीं कहेंगे।
वह ज्ञान असहाय है क्योंकि अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है और क्षायोपशमिक ज्ञान से मिश्रित नहीं है। इस कारण वही स्वभावज्ञान कहलाता है क्योेंकि वह इक्षु की मधुरता के समान आत्मा का सहज स्वभाव है। टीकाकार श्री पद्मप्रभ मलधारी देव ने इस स्वभाव ज्ञान के कार्य कारण की अपेक्षा दो भेद कर दिये हैं। उसमें सहज, विमल केवलज्ञान ‘कार्य स्वभाव ज्ञान’ है और परम पारिणामिक भाव में स्थित तीनों काल में उपाधिरहित जो सहजज्ञान है वह ‘कारण स्वभाव-ज्ञान’ है क्योंकि वह केवलज्ञान का कारण है अथवा केवलज्ञान कार्य है और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान कारण है क्योंकि उसकी उत्पत्ति में वह कारण है।
प्रश्न-यह केवलज्ञान किनको तथा कब प्रकट होता है ?
उत्तर-केवलज्ञान चार घातिया कर्मों का नाश करने वालों को तेरहवें गुणस्थान में होता है। नीचे टीका में विशेष रूप से स्पष्ट है।
यह केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान है। निर्ग्रंथसंज्ञक क्षीणकषाय गुणस्थ्ाानवर्ती मुनि के अन्तिम समय में कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों का अभाव हो जाने पर प्रगट होता है। श्री पूज्यपादाचार्य ने ऐसा ही कहा है—
‘जिनके सर्व कर्म का अभाव हो जाने पर स्वयं अपने स्वभाव की प्राप्ति हो चुकी है उन संज्ञानस्वरूप परमात्मा को मेरा नमस्कार होवे।
यद्यपि शुद्धनय से संसारी जीव भी हमेशा कमंडल से अस्पृष्ट होने से स्वभावज्ञानमय ही हैं फिर भी अशुद्धनय से अनादि कर्मबन्धन के वशीभूत हो रहे हैं अतः स्वभाव ज्ञान से शून्य ही हैं अथवा शक्तिरूप से वे भी स्वभावज्ञान युक्त हैं, व्यक्तरूप से नही। ऐसा जानकर जो संयत निर्विकल्प समाधिरूप स्वसंवेदन ज्ञान में समस्त विभाव परिणामों का त्याग करके ही रति करते हैं, वे ही परम आल्हादरूप एक लक्षण वाले सुख से अविनाभूत स्वभाव ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं।
पुनः विभाव ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान से दो प्रकार का है। यह ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है अतः ‘विभाव’ नाम को प्राप्त है क्योंकि यह उपाधिसहित है।
तात्पर्य यह निकला कि संपूर्ण ज्ञानावरण कर्म का अभाव हो जाने पर सर्वथा अपनी आत्मा से उत्पन्न होने वाला होने से सहजविमल केवलज्ञान ‘स्वभावज्ञान’ है क्योंकि कर्मों की उपाधि सहित होने से क्षायोपशमिक ज्ञान के बल से ही निज शुद्ध, बुद्ध परमात्मस्वरूप, स्वभावज्ञान के लिये प्रयत्न करना चाहिये।
प्रश्न-केवलज्ञान के होने पर वर्तमान के समान ही क्या भूत, भविष्यत्—कालीन पदार्थ भी झलकते हैं ?
उत्तर-हाँ, वर्तमान के समान ही झलकते हैं। टीका के भावार्थ में माताजी ने विशेष समझा दिया है।
भावार्थ-कोई—कोई कहते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीत और अनागत पदार्थों को वर्तमानकालीन पदार्थ के समान ज्यों की त्यों नहीं जानता हैं उसी बात को यहां पर खुलासा किया है कि श्री कुन्दकुन्द देव ने ही प्रवचनसार में ‘तक्कालिगेव’ पद से स्पष्ट कर दिया है कि अतीन्द्रिय ज्ञान में सभी पदार्थ वर्तमान कालवर्ती के समान ही दिखते हैं, यदि ऐसा न मानें तो फिर उस ज्ञान को दिव्य ज्ञान कहने का मतलब ही क्या रहा ?
दूसरी बात इस टीका में यह है कि स्वभाव ज्ञान केवली भगवान् को है और उसके पूर्व बारहवें गुणस्थान तक भी क्षयोपशमिक विभावज्ञान ही है लेकिन विशेषता यही है कि इस विभावज्ञान से ही स्वभाव ज्ञान प्रगट होता है अतः निर्विकल्प स्वसंवेदन को इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में कारण स्वभाव ज्ञान’ कह दिया है जो कि कारण परमात्मा के सदृश मान्य है। इसमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये।
अब इस गाथाा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप विभाव ज्ञान के भेद बतलाते हैं-
सण्णाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं।
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव।।१२।।
अन्वयार्थ-(सण्णाणं चउभेदं) संज्ञान के चार भेद हैं (मदिसुदओही तहेव मणपज्जं) मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय (चेव मदियाई भेददो) और मति आदि के भेद से (अण्णाणं तिवियप्पं)अज्ञान भी तीन प्रकार का है।।१२।।
प्रश्न-ज्ञान तो आत्मा का गुण है फिर इसका विभाव परिणमन वैâसे होता है ?
उत्तर-इसी का समाधान करते हुए आचार्य देव ने बताया है कि ज्ञान में स्वयं विभाव रूप परिणमन की योग्यता होने से तथा अंतरंग एवं बहिरंग निमित्त कारणों से यह विभाव रूप परिणमन करता है। उसी को माताजी ने टीका में विस्तार से दिया है।
विभावज्ञान के पहले भेद का नाम संज्ञान है-उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये चार भेद हैं और विभावज्ञान के द्वितीय भेद का नाम अज्ञान है, इसके कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि नाम से तीन भेद हैं।
इसका विस्तार-विभावज्ञान सम्यक्त्व का सहचारी होने से समीचीनता को प्राप्त हो जाता है और मिथ्यात्व के साथ रहने से अज्ञान या मिथ्याज्ञान रूप हो जाता है। यद्यपि यह आत्मा केवलज्ञान दर्शनमय है फिर अनादि कर्मबन्ध के निमित्त से बाह्य और अभ्यन्तर इन दो हेतुओं के होने पर जिसके द्वारा जानता है वह ज्ञान कहलाता है। अभ्यन्तर में मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के तथा बहिरंग में पांच इन्द्रिय और मन के अवलम्बन से जो मूर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्ट रूप से जानता है वह मतिज्ञान है। यह ज्ञान यद्यपि परमार्थ से परोक्ष है फिर भी तर्क-शास्त्र के अनुसार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। अभ्यंतर में श्रुतज्ञान के क्षयोपशम से और मन के अवलंबन से तथा बहिरंग में प्रकाश उपाध्याय आदि सहकारी कारणों के मिलने से जो मूर्त-अमूर्त वस्तु को अस्पष्ट जानता है वह श्रुतज्ञान है। उसमें से जो शब्द रूप श्रुतज्ञान है, वह परोक्ष ही है और जो जीव—अजीव आदि बाह्य पदार्थों के जानने रूप है वह भी परोक्ष है क्योंकि अविशद है। पुनः जो अभ्यंतर में ‘‘मैं सुखी हूं’’ अथवा ‘मैं अनंत ज्ञान आदि रूप हूं, इत्यादि प्रकार से होता है ’ ‘वह ईषत, परोक्ष है’ और जो शुद्धात्मा की तरफ अभिमुख होकर उसके अनुभव रूप भाव श्रुतज्ञान है, वह अभेदनय से ‘आत्मा’ शब्द से वाच्य वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी, निर्विकल्प स्व संवेदन ज्ञान है यह प्रत्यक्ष कहलाता है क्योंकि यह परमसमाधि में लीन हुए मुनियों को स्वानुभवगम्य हो रहा है, यही ज्ञान स्वभावज्ञान-केवलज्ञान के लिये बीज है।
प्रश्न-ज्ञान के स्वभाव विभाव परिणमन को जानने से हमें क्या लाभ है?
उत्तर-इन भेदों को जानकर पहले तो ज्ञान का जो मिथ्यारूप परिणमन अनादिकाल से चल रहा है उसे दूर करके समीचीन/सम्यक् बनाने का पुरुषार्थ किया जा सकेगा। उसके पश्चात् इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रखने वाले समीचीन ज्ञान को भी निरालम्बी बनाने का प्रयत्न किया जा सकेगा अर्थात् केवलज्ञान प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ किया जावेगा क्योंकि पूर्व गाथा में बता आए हैं कि वह केवलज्ञान आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें पर की सहायता की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं रहती।
अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्तिक वस्तु को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह अवधिज्ञान है। उसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो पर के मन में स्थित मूर्तिक पदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों वास्तव में परोक्ष हैं किन्तु सांव्यवहार से और स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दोनों विकल्प प्रत्यक्ष हैं। बात यह है कि ये दोनों ज्ञान अपनी आत्मा से उत्पन्न होते हैं अतः प्रत्यक्ष हैं। फिर भी अपने—अपने आवरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ को नहीं जानते हैं। प्रत्युत कुछ—कुछ पर्यायों से युक्त, मूर्तिक, देश और काल की अवधि से मर्यादित पदार्थों को ही जानते हैं अतः विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
ये मति,श्रुत, अवधि ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से अज्ञान हो जाते हैं। ऐसा क्यों ? सो ही कहते हैं-जैसे रज सहित कडुवी तुम्बी में रखा हुआ दूध भी अपने गुण को छोड़ देता है, वैसे ही ये भी मति आदि ज्ञान मिथ्यादृष्टि रूप बर्तन में रहने से दूषित हो जाते हैं।
शंका-मणि, सुवर्ण आदि विष्ठागृह में गिर जाने पर भी स्वभाव नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार मतिज्ञान आदि भी स्वभाव न छोड़ें ?
समाधान-आपने ठीक कहा है, फिर भी सुनिये।
यद्यपि विष्ठागृह मणि, सोना आदि को विकारी—दूषित करने में समर्थ नहीं है फिर भी यदि उन्हें गलत परिणमन कराने वाला द्रव्य मिल जाय तो भी अन्यथा-विपरीत रूप हो जाते हैं। उसी प्रकार से अन्य भी परिणमनशाील वस्तुयें शक्ति-विशेष से विपरीत हो जाती हैं। वैसे ही ‘दर्शनमोहनीय’ का उदय होने पर ये तीनों ज्ञान भी विपरीत परिणमन कर जाते हैं इसमें कोई दोष नहीं है।
अब गुणस्थानों में विभाव ज्ञान को घटाते हैं।
मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में तीनों अज्ञान रहते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में ये तीनों ज्ञान और अज्ञान मिश्रित रहते हैं। चौथे ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों ज्ञान पाए जाते हैं और मनःपर्यय ज्ञान कुछ ऋद्धिसंपन्न, वृिंद्धगत चारित्र वाले किन्हीं-किन्हीं महामुनियों के ही होता है।
इन ज्ञानों में जो भावश्रुतज्ञान है वही केवलज्ञान का कारण है; क्योंकि अवधि, मनःपर्यय ज्ञान के न होने पर भी उस भावश्रुत ज्ञान से केवलज्ञान की उत्पत्ति संभव है। ऐसा जानकर द्रव्यश्रुत के अवलंबन से भावश्रुत ज्ञान की ही प्रार्थना करना चाहिये यहां यह अभिप्राय है।
भावार्थ-यहां पर अध्यात्म भाषा में श्री कुन्दकुन्द देव ने सम्यग्ज्ञान के चारोें भेदों को विभाव ज्ञान कह दिया है क्योंकि यहां विभाव से कर्मोपाधि सापेक्ष की ही विवक्षा है, यही कारण है कि मानस मतिज्ञान जो स्वसंवेदन—प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान के लिए सहकारी कारण है और भावश्रुत-ज्ञान जो कि केवलज्ञान के लिये बीजभूत है, इनको भी विभाव ज्ञान कह दिया। यहां टीका में यह स्पष्ट किया है कि मतिज्ञान सिद्धान्त भाषा में परोक्ष और न्यायग्रन्थों में इसे सांव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। तीन ज्ञान ही मिथ्यात्व के निमित्त से विपरीत परिणमन करके मिथ्याज्ञान हो जाते हैं। इस बात को उदाहरण देकर पुष्ट कर दिया है। यद्यपि ये चारों सम्यग्ज्ञान वीतराग छद्मस्थ महामुनियों के यथाख्यात चारित्र में भी पाये जाते हैं, फिर भी इन्द्रिय-मन आदि पर द्रव्य के अवलंबन से उत्पन्न होते हैं अतः बारहवें गुणस्थान तक अतीन्द्रियज्ञान नहीं है।
भेद सहित ज्ञानोपयोग का प्रतिपादन करके अब आचार्य गाथासूत्र के पूर्वार्ध से दर्शनोपयोग के भेदों को और गाथासूत्र के उत्तरार्ध से स्वभावदर्शन का प्रतिपादन करते हैं-
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो।
केवलिंमदिय रहियं असहायंं तं सहावमिदी भणिदं।।१३।।
अन्वयार्थ-(तह ससहावेदरवियप्पदो दंसण उवओगो दुविहो) वैसे ही स्वभाव और विभाव के भेद से दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का है। (इन्द्रिय रहियं असहायं) जो इंद्रियों से रहित और असहाय है (तं केवलं सहावमिदि भणिदं) वह केवलदर्शन स्वभाव दर्शन कहा गया है।।१३।।
उस ज्ञानोपयोग के सदृश ही यह दर्शनोपयोग भी ‘स्वभाव दर्शन’ और ‘विभाव दर्शन’ के भेद से दो प्रकार का है। जो केवल है, इन्द्रियरहित है और असहाय है वह स्वभावदर्शन है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है।
प्रश्न-दर्शनोपयोग के स्वभाव और विभाव रूप भेद क्या अन्यत्र किन्हीं आचार्यों ने माने हैं ?
उत्तर-इस नियमसार गं्रथ के अतिरिक्त ये भेद अन्यत्र देखने में नहीं आये।
इसका विस्तार करते हैं-यद्यपि यह आत्मा तीन लोक के अंतर्गत त्रिकालवर्ती संपूर्ण वस्तुओं के सत्ता—सामान्य को ग्रहण करने वाले ऐसे सकल, विमल केवलदर्शन स्वभाव वाला है, फिर भी संसार में अनादिकालीन कर्मबंधन से सहित होता हुआ काललब्धि आदि के वश जब सहज, शुद्ध सदा आनंद एक स्वरूप ऐसे परमात्मतत्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है तब उस अनुभव के बल से ‘केवल दर्शनावरण’ कर्म का नाश हो जाने पर समस्त वस्तु के सत्ता-सामान्य को जिसके द्वारा सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में देख लेता है उसी का नाम ‘स्वभाव दर्शनोपयोग’ है। वह पर के सम्बन्ध से रहित होने से ‘केवल’ है। लब्धि और उपयोग लक्षण वाली भावेंद्रिय और नोइंद्रिय के अवलम्बन के अभाव से इन्द्रिय रहित अतीन्द्रिय है। इन्द्रियां भी प्रकाश आदि बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रखने से असहाय हैं। यह आत्मा का सहज स्वभाव होने से ही स्वभाव दर्शन कहलाता है। यह भी लोक और अलोक में व्यापी है।
सो ही प्रवचनसार ग्रन्थ में कहा है-
‘‘ज्ञान पदार्थों के अन्त को प्राप्त है और दर्शन लोक—अलोक में पैâला हुआ है।’’
ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के अन्त को प्राप्त है-पार को प्राप्त है और दर्शन लोक—अलोक तक व्याप्त है। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव के अभिप्राय से यह स्वभाव दर्शन भी दो प्रकार का है-कारणस्वभाव दर्शन और कार्यस्वभावदर्शन। उनमें से जो पहला दर्शन है वह सहज पारिणामिक भाव स्वभाव जो ‘कारण समयसार’ रूप परम चैतन्य—सामान्य, उसके स्वरूप का अवलोकन मात्र ही है और कार्यस्वभावदर्शन तो दर्शनावरण आदि घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुआ केवलदर्शन ही है।
प्रश्न-जब प्रत्येक संसारी आत्मा अनंत-चतुष्टय से सहित है; तब फिर क्योें संसार में परिभ्रमण करके जन्म-मरण के दुःख उठा रहा है ?
उत्तर-प्रत्येक आत्मा में शक्ति रूप से अनंत चतुष्टय होते हुए भी कर्मों का आवरण होने से वह प्रगट नहीं हो पाता है। उसे पुरुषार्थ के बल पर प्रगट किया जा सकता है। उसके लिए सबसे पहले आत्मा की शक्तियों को जानना आवश्यक है।
ये स्वभावदर्शन केवली भगवान् के ही है किन्तु शक्तिरूप से संसारी जीवों के भी है इसलिए अपनी दर्शन-शक्ति को प्रगट करने के लिए ‘‘मैं एक हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं ज्ञान—दर्शन स्वभाव वाला हूं।’’ इस प्रकार की भावना को करते हुए सतत अपने आत्मस्वरूप में ही अविचल दृष्टि रखनी चाहिए।
अब आचार्यवर्य गाथा के पूर्वार्ध से विभाव दर्शन के भेदों को और उत्तरार्ध से पर्यायों के भेदों को कहते हैं-
चक्खु अचक्खू होही तिण्णि, विभणिदं विभावदिच्छि त्ति।
पज्जाओ दुवियप्पो, सपरावेक्खो य णिरवेक्खो।।१४।।
अन्वयार्थ-(चक्खु अचक्खू ओही तिण्णिवि विभावदिच्छित्ति भणिदं) चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों विभाव दर्शन कहे गये हैं। (पज्जाओ दुवियप्पो) पर्याय के दो भेद हैं। (सपरावेक्खो य णिरवेक्खो) स्वपराक्षेप और निरपेक्ष।।१४।।
टीका-चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीनो ‘विभाव दर्शन’हैं। यह आत्मा अनादिकाल से कर्मरज से ढका हुआ है। यही आत्मा अभ्यंतर में चक्षुदर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम होने से और बहिरंग में चक्षु नाम की द्रव्येंद्रिय का अवलंबन लेकर जिसके द्वारा मूर्तिक वस्तु के सत्ता-सामान्य को परोक्ष रूप से अवलोकन करता है, उसका नाम ‘चक्षुदर्शन’ है। उसी प्रकार अंतरंग में चक्षु इन्द्रिय से अतिरिक्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियावरण और मन इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से तथा बहिरंग में अपनीr—अपनी द्रव्येन्द्रियों के अवलम्बन से जिसके द्वारा यह आत्मा मूर्तिक वस्तुओं के सत्तासामान्य को परोक्षरूप से अवलोकन करता है वह ‘अचक्षुदर्शन’ है। वही आत्मा अवधि दर्शनावरण के क्षयोपशम से मूर्तिक वस्तुगत सत्तासामान्य का जिसके द्वारा एकदेश प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन करता है वह ‘अवधिदर्शन’ है। ये तीनों ही विभावदर्शन हैं क्योंकि ये कर्म की उपाधि से सहित हैं।
गुणस्थानों में इन दर्शन को बताते हैं-
आदि के दो दर्शन ‘मिथ्यात्व’ गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक होते हैं और अवधिदर्शन चौथे गुणस्थान से बारहवें तक रहता है।
यद्यपि ये विभावदर्शन अशुद्धनय से आत्मा के स्वभाव हैं, फिर भी पर के आश्रित होने से हेय हैं, ऐसा जानकर सहज विमल केवलदर्शन स्वरूप जो परमात्म तत्त्व है, उसी की भावना करनी चाहिये। यहां तक आचार्यदेव ने ज्ञान दर्शन लक्षण जीव का स्वरूप कहा है।
प्रश्न-जब जीव अनादिकाल से कर्मोपाधि के निमित्त से अशुद्ध अवस्था में परिणमन कर रहा है तब जीव को सदा शुद्ध वैâसे कहा जा सकता है ?
उत्तर-जीव के परिणाम जैसे होते हैं उसी के अनुसार पुद्गल परमाणु कर्म रूप से परिणमन कर जाते हैं और उसी के अनुसार सुख—दुख रूप फल की प्राप्ति होती है।
अब पर्याय का स्वरूप कहते हैं-
पर्याय के दो भेद हैं-स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष।
जो ‘परि’ सब तरफ से ‘एति-भेद को प्राप्त होता है वह पर्याय है। जिसमें स्व और पर इन दोनों की अपेक्षा रहती है, वह स्वपरापेक्ष विभाव पर्याय है और जिसमें स्व पर इन दोनों की अपेक्षा नहीं है वह निरपेक्ष स्वभाव पर्याय है। इन दोनों का लक्षण अगली गाथा में आचार्य स्वयं करेंगे।
यहां अभिप्राय यह हुआ कि जीव के स्वभाव और विभाव इन दोनों प्रकार के गुणों को जानकर पर्यायों को जानना चाहिये। अनन्तर स्वभाव गुण पर्यायों से परिणत जीवद्रव्य ही उपादेय है और विभावगुण पर्यायों से परिणत जीवद्रव्य हेय है। ऐसा मानकर निज शुद्ध स्वभावगुण पर्याय से परिणत हुए सिद्ध परमात्मा स्वरूप का ही िंचतवन करना चाहिए।
भावार्थ-यहां टीका में चक्षुदर्शन आदि को अशुद्धनय से आत्मा का स्वभाव कहा है और तत्वार्थसूत्रकार ने जीव के क्षयोपशम आदि पांचों भावों को स्वतत्व अर्थात् स्वभाव कहा है। वह भी उसी दृष्टि से कहा है। यहां इस ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने तो इन्हें जीव के विभाव ही कहा है। यहां पर भी इन विभाव दर्शन को गुुणस्थ्ाानों में घटित करके नयों की अपेक्षा से भी घटित किया है।
जैसे ज्ञान में मिथ्यात्व के निमित्त से तीन ज्ञान हो जाते हैं वैसे यहां दर्शन में मिथ्यात्व के निमित्त से कुदर्शन की बात नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि यह अवधिदर्शन अवधिज्ञान के पूर्व क्षण में माना गया है किन्तु विभंगावधि के पूर्व नहीं माना है।
भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव दोनों पर्यायों का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं-
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया, ते विभावमिदी भणिदा।
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया, ते सहावमिदि भणिदा।।१५।।
अन्वयार्थः-(णरणारयतिरियसुरा) जो नर, नारक, तिर्यंच और देव (पज्जाया) पर्यायें हैं (ते विभावमिदि भणिदा) वे विभाव इस नाम से कही गई हैं। (कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया) और जो कर्मों की उपाधि से रहित पर्यायें हैं (ते सहावमिदि भणिदा) वे स्वभाव इस नाम से कही गई हैं।।१५।।
जो स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप से होती हैं वे मनुष्यगति, नरकगति, तिर्यंचगति और देवगति इन चार गतिरूप ‘‘नाम कर्म’ के उदय से मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव अवस्थारूप विभाव पर्यायें हैं। ये शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकार ज्ञानदर्शन लक्षण वाले जीव की स्वभाव नहीं है और जो अपने से ही उत्पन्न होती हैं अथवा आत्मा का ही स्वभाव परिणाम हैं, वे स्वभाव पर्यायें हैं, ये कर्मों के संपर्क से रहित होती हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव इन पांच प्रकार के संसार में भ्रमण कराने वाले राग—द्वेष आदि विभाव भावों से रहित सर्वज्ञ भगवान ने इन पर्यायों का स्वरूप कहा है।
इनमें से जो स्वभावपर्यायें हैं वे शुद्ध हैं और जो विभावपर्यायें हैं वे अशुद्ध हैं अथवा अर्थ पर्यायें और व्यंजन पर्याय की अपेक्षा भी पर्यायें दो प्रकार की हैं। जिसके द्वारा जाना जाता है-निश्चय किया जाता है, वह ‘अर्थ पर्याय’ है। जिसके द्वारा व्यक्त होता है-प्रगट किया जाता है वह ‘व्यंजन पर्याय’ है। ये दोनों ही स्वभाव व विभाव के भेद से दो—दो प्रकार हैं। ‘स्वभाव अर्थ पर्याय’ बारह प्रकार की हैं-छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप। विभाव अर्थपर्याय छह प्रकार की हैं-ये मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य और पापरूप परिणाम हैं। कर्मों की उपाधि से रहित तो सिद्धपर्याय है यह स्वभावव्यंजन पर्याय हैं। नर, नारक आदि रूप विभावव्यंजन पर्यायें हैं।
ये विभावपर्यायें ‘अयोग केवली’ भगवान् तक अर्थात् चौदहवें गुणस्थान तक रहती हैं क्योंकि वहां तक मनुष्यगति, मनुष्य आयु आदि विद्यमान हैं। इसके आगे सिद्ध भगवान ही स्वभाव पर्याय से परिणत हैं। शुद्धनय की अपेक्षा से तो भव्य और अभव्य सभी संसारी जीवों के भी विभाव पर्यायें नहीं हैं।
सरागसम्यग्दृष्टि चतुर्थ,पंचम और छठे गुणस्थानवर्ती जीव निश्चयनय से समीचीन निज तत्व का श्रद्धान करने से अपनी आत्मा को विभाव पर्याय से भिन्न केवल श्रद्धान करते हैं। वीतराग चारित्र का अवलम्बन लेने वाले वीतराग सम्यग्दृष्टि महामुनि निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अपने उपयोग से उस विभाव पर्याय को पृथक् करते हैं और सयोगकेवली अर्हंत भगवान सहज स्वाभाविक अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य स्वरूप से परिणत हो जाने से शुद्ध ही हैं अतः उनके जो मनुष्यगति आदि पर्याय रूप से विभाव पर्यायें हैं वह केवल अस्तित्व मात्र से ही हैं अर्थात् नाममात्र से ही हैं।
भगवान सिद्ध परमेष्ठी सर्व कर्ममल कलंक से रहित होने से शुद्ध सिद्ध पर्यायरूप से ही परिणमन करते हुये सदाकाल रहते हैं अतः शुद्ध सिद्ध पर्याय ही उपादेय है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये, तथा अशुद्ध मनुष्य पर्याय में रहते हुये भी शुद्धनय से ‘मैं सिद्ध सदृश हूं’ ऐसी भावना करनी चाहिये।
प्रश्न-जब जीव के साथ अनादिकाल से कर्मों का सम्बन्ध चला आ रहा है तब किस प्रकार से उन्हें जीव से अलग किया जा सकता है क्योंकि कर्म जब उदय में आते हैं तब तो वैसे परिणाम हो जाते हैं और वैसे परिणाम होते ही पुनः कर्म बन्ध जाते हैं पुनः मोक्ष होना सम्भव प्रतीत नहीं होता है ?
उत्तर-यद्यपि अनादिकाल से जीव तथा कर्मों का एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध चला आ रहा है फिर भी जीव का एक प्रदेश ना तो पुद्गल रूप हुआ और न पुद्गल का एक अणु जीवरूप हुआ। आत्मा की स्वाभाविक शक्ति को पहचान कर पुरुषार्थ के बल से कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
भावार्थ-यहां पर ग्रन्थकार ने चारों गतियों को विभाव पर्याय कहा है। इस दृष्टि से अर्हंत भगवान् के भी मनुष्यगति होने से वे भी विभावपर्याय सहित हो जाते हैं किन्तु नयविवक्षा से टीका में इस बात को स्पष्ट किया है कि छठे गुणस्थान तक के जीव निश्चयनय से ‘अपनी आत्मा विभाव पर्याय से रहित है’ ऐसा श्रद्धान मात्र करते हैं। आगे शुद्धोपयोगी महामुनि अपने उपयोग में आत्मा का ही चिन्तवन करने से उन विभाव पर्यायोें से उपयोग में नहीं लाते हैं अतः वे उपयोग से पृथक् करते हैं। इसके आगे अर्हंत भगवान् साक्षात् अनंतचतुष्टय के धनी हैं अतः उनके भी ये विभाव पर्यायें नहीं हैं, फिर भी मनुष्यगति, आयु, शरीर आदिरूप से उनका अस्तित्वमात्र है। यहां टीका में अर्थव्यंजन पर्यायों का भी अन्य ग्रन्थों के आधार से संक्षिप्त कथन किया गया है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य यूं तो जनमानस की श्रद्धा के केन्द्र हैं फिर भी कुछ दिगम्बर गुरुओं ने उनकी कृतियों पर कार्य करके अपनी आत्मा की विशुद्धि तो की ही है उसके साथ-साथ विद्वत्समाज को भी अपने ज्ञान से लाभान्वित किया है। इसी शृंखला में दि. जैन साधुओं की चतुर्विध संघ परम्परा में गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने श्री कुन्दकुन्द देव की कृतियों पर अनेक अविस्मरणीय कार्य किये हैं। जैसे—१. मूलाचार की हिन्दी टीका, २. समयसार की दोनों संस्कृत टीकाओं की हिन्दी ज्ञानज्योति नामक टीका, ३. दशभक्ति का हिन्दी पद्यानुवाद, ४. नियमसार का संस्कृत टीका का हिन्दी पद्यानुवाद, ५. नियमसार की मूल गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद, ६. नियमसार पर स्वतन्त्र स्याद्वाद चन्द्रिका नामक संस्कृत टीका एवं हिन्दी टीका।
इसके साथ ही माताजी ने कुन्दकुन्द स्वामी के समस्त उपलब्ध ग्रन्थों का आलोढ़न करके उनमें से सार रूप में १०८ गाथाओं का समूह निकाला है जिसकी कुन्दकुन्द मणिमाला नाम से पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इस प्रकार कुन्दकुन्द स्वामी की कृतियों पर ६ प्रकार की रचनाएँ पूज्य ज्ञानमती माताजी ने की हैं। शायद इतना कार्य किसी एक विद्वान द्वारा अभी तक नहीं हुआ होगा। यहाँ हमारा प्रतिपाद्य विषय है नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका टीका। आचार्यों एवं मुनियों की श्रेणी में किसी आर्यिका के द्वारा लिखी गई यह प्रथम संस्कृत टीका है जो श्रीजयसेनाचार्य की टीका शैली के आधार पर लिखी गई है।
नियमसार के बारे में स्वयं कुन्दकुन्द देव ने बतला दिया है कि यह रत्नत्रय प्रतिपादक अध्यात्म ग्रन्थ है। वे आचार्य कुंदकुंद जिन्होंने नियमसार के रूप में साधु समूह को रत्नत्रय की धरोहर प्रदान की, कितनी तन्मयतापूर्वक उन्होंने इन ग्रन्थों का निर्माण किया होगा यह अनुमान हम पूज्य माताजी द्वारा रचित टीका को पढ़कर भी लगा सकते हैं। मैने एक भजन में इन्हीं भावों को प्रदर्शित किया है।
‘‘कुन्दकुन्द अकलंक देव निंह देखे,
उनके लिखे हुए ग्रंथ मैंने देखे।
अरे माता, तेरे लिखे ग्रन्थों में,
दिखती है वैसी ही छवि प्यारी’’।।
मैंने स्वयं पूज्य माताजी को नियमसार की संस्कृत टीका लिखते हुए देखा है। जब वे स्वयं बाह्य सुधबुध से बिलकुल बेखबर होकर अपनी अविरल लेखनी चलाती हुर्ईं मानों आत्मतत्व में ही लीन हो जाती थीं। इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता कि पंचम गुणस्थान की चरमोत्कर्ष कर्मनिर्जरा उन्होंने उन क्षणों में अवश्य की होगी क्योंकि इससे आगे पहुँचने में उनकी स्त्री पर्याय बाधक थी।
नियमसार सर्वाधिक प्रिय क्यों ? समय की मांग और पैâशन के अनुसार तो ‘‘समयसार’’ ग्रन्थ आज हर मंदिर के स्वाध्याय कक्ष में अवश्य देखा जा रहा है। यद्यपि वह उच्चकोटि के दिगम्बर मुनिराजों के लिए कुंदकुंद स्वामी ने कहा है फिर भी आज तो उसका स्वाध्याय श्रावकों के मध्य ही अधिक देखा जा रहा है। जिसका प्रतिफल आत्मोन्नति की बजाय अवनति के रूप में ही दिख रहा है।
स्वयं नग्न दिगम्बर भाविंलगी मुनिवर के द्वारा रचित ‘‘समयसार’’ को पढ़कर मुनियों के प्रति अश्रद्धा करने लग जाना तीव्र अशुभ कर्मोदय नहीं तो क्या है ?
पूज्य ज्ञानमती माताजी ने भी यूं तो पचास बार ‘‘समयसार’’ का स्वाध्याय किया एवं हम लोगों को भी ८-१० बार उसका अध्ययन कराया है किन्तु ‘‘समयसार’’ के साथ-साथ उन्होंने शिष्यों को ‘‘आलाप पद्धति’’ अवश्य पढ़ाया जिसमें नयों का सुन्दर प्रकरण है। आलाप पद्धति की नयशैली जानने के बाद ‘‘समयसार’’ के स्वाध्यायी स्त्री-पुरुषों को ‘‘आलाप पद्धति’’ का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
रत्नत्रयसाधिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का चरम लक्ष्य अपने रत्नत्रय की वृद्धि करने की ओर रहता है इसलिए उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र ‘‘नियमसार’’ ग्रन्थ चुना है ताकि व्यवहार रत्नत्रय का इस भव में पालन करते हुए अगले भव में निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त कर सकें।
नियमसार की ‘‘स्याद्वाद चन्द्रिका’’ टीका में उन्होंने ६२ ग्रन्थों का आधार लिया है जिसमें न्याय, व्याकरण, कोष, सिद्धान्त, भूगोल, अध्यात्म, भक्ति, आचार, इतिहास आदि भरा हुआ है अतः यह टीका पूर्णरूपेण आर्षमार्गी बन गई है।
जैसे—मंगलाचरण रूप प्रथम गाथा की ही टीका में ‘‘वीर’’ शब्द से चौबीसों तीर्थंकर महापुरुषों को नमस्कार किया है। यथा—
‘कटपभपुरस्यवणैर्नवनव पञ्चाष्टकल्पितैः क्रमशः।
स्वरञनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यं।।
इति सूत्र नियमेन वकारेण चतुरंको र शब्देन च द्व्यंकस्तथा ‘‘अंकानां वामतो गतिः’’ इत न्यायेन चतुर्विंशत्यज्र्ेन (२४) वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशतितीर्थंकराणामिति ग्रहणं भवति।
पुनः पृष्ट ११ पर गाथा ३ की टीका में गुणस्थान प्रकरण खोलते हुए सिद्धान्त ‘‘नियमसार’’ किस आत्मा में सार्थक होता है यह बताया है जिसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है ‘‘प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त सभी संयत मुनिराज ‘‘नियमसार’’ होते हैं अथवा छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक के सभी साधु नियमसार हैं क्योंकि वे भेद—अभेद रत्नत्रय का अनुष्ठान कर रहे हैं और नियम शब्द से वाच्य विषय के आधारभूत हैं।
इस टीका का सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो इसमें चारों अनुयोगों का समावेश देखने को मिलता है। कई जगह उदाहरण में महापुरुषों के लघु कथानक लेकर माताजी ने विषय को रोचक बना दिया है। जैसे कि सम्राट भरत के बारे में कहा जाता है कि दीक्षा लेते ही उन्हें केवलज्ञान हो गया था अतः उन्होंने मुनि अवस्था में व्यवहार चारित्र का पालन ही नहीं किया।
इस सम्बन्ध में ‘‘निश्चयपरमआवश्यक’’ अधिकार में गाथा १५८ में पूज्य माताजी ने स्पष्ट किया है कि—
‘‘भरतेश्वर ने दीक्षा लेकर अन्तर्मुहूर्त काल में ही असंख्यात बार छठे-सातवें गुणस्थानों में चढ़ना उतरना किया था, अनंतर केवली हुए थे अतः उनके अन्तर्मुहूर्त काल में ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान दोनों रूप अवस्थाएँ प्राप्त हुई थीं। इसी प्रकार बाहुबली भगवान् के भी दीक्षा के समय व्यवहारनय की अपेक्षा से आवश्यक और एक वर्ष पर्यंत ध्यान में निश्चयनय की अपेक्षा से सभी आवश्यक क्रियाएं परिपूर्ण हुई थीं।’’
इसी प्रकार करणानुयोग तो पूज्य माताजी का प्रिय एवं अभिन्न विषय रहा है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की भौगोलिक रचना उनके करणानुयोग ज्ञान का ही द्योतक है। तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों के गहन स्वाध्याय का प्रतिफल ही मानो धरती पर साकार करके दिखा दिया है।
नियमसार जैसे अध्यात्मग्रन्थ में भी उन्होंने अवसर पाकर अपने विषय को प्रतिपादित किया है। गाथा नं.१६-१७ ‘‘माणुस्सा दुवियप्पा……. इत्यादि की टीका में चतुर्गति के जीवों का निवास स्थान जो लोकाकाश है उसका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया है तथा कर्म एवं कर्मों के फल का भी बोध प्रदान किया है। इसमें माताजी ने ऋद्धियों का भी कुछ वर्णन किया है जिसे पढ़कर तपस्या करके ऋद्धि प्राप्त करने की सहज भावना बनती है। गाथा नं.—१८ की टीका में तो गोम्मटसार कर्मकांड ही साकार हो गया है, जहाँ गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्व को दर्शाया है। यहाँ आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने आत्मा को पुद्गल कर्मों का कर्ता, भोक्ता कहा है इसीलिए कर्मव्यवस्था को बताते हुए कहा है कि दशवें गुणस्थान तक ही कर्तृत्व—भोक्तृत्व समझना चाहिए।
चरणानुयोग पूज्य माताजी के जीवन की आधारशिला ही है। स्वयं अपने जीवन में वे आर्यिका के २८ मूलगुणों का पालन करती हैं तथा मूलाचार ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करके साधु जीवन की क्रियाओं को दर्पण के समान देखने हेतु संहिताग्रन्थ समाज को प्रदान कर दिया है। इनकी अविरल लेखनी एवं ज्ञान से कोई भी उच्चकोटि का ग्रन्थ अछूता नहीं रह पाया है। पूरे विद्वत्समाज में इनकी एक अलग ही प्रतिभा है जिसके समक्ष हर प्राणी नतमस्तक हो जाता है। मैंने एक छोटी सी झ्दास् में भाव प्रस्तुत किये हैं—
Your life is a beautiful garden.
Where flowers of Gyan are blooming.
I want to walk in your garden.
O Mother ! Please ! give me knowledge.
यह स्याद्वाद चन्द्रिका टीका तो वास्तव में विद्वत्समाज के लिए चन्द्रमा की शीतल चांदनी स्वरूप है। इसके नाम की सार्थकता बतलाते हुए गणिनी आर्यिकाश्री स्वयं अपनी लेखनी में लिखती हैं कि—
‘‘अयं ग्रन्थो नियम कुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदयः तस्य चन्द्रोदयस्य (ग्रन्थस्य) टीका चन्द्रिका’’ अर्थात् इस नियम (रत्नत्रय) रूपी कमल को विकसित करने के लिए यह ग्रन्थ (नियमसार) चन्द्रोदय के समान है। इस ग्र्रंथ की यह टीका चन्द्रिका (चाँदनी) के समान है।
इस टीका के लेखन में जहां माताजी ने चारों अनुयोगों के ग्रंथों का उपयोग किया है वहीं सर्वाधिक उद्धरण इसमें धवला, तिलोयपण्णत्ति, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, गोम्मटसार, जयधवला आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के हैं जिससे हर जगह गुणस्थानों का खुलासा हो जाता है कि कौन सी अवस्था कहाँ तक किनके होती है।
‘‘पद्मनन्दि पद्मिंवशतिका’’ नामक ग्रन्थ का भी माताजी ने इसमें कई जगह आधार लिया है। वह ग्रन्थ तो उनके वैराग्य की ऐतिहासिकता को अपने में संजोए हुए है। उनके नानाजी ने वह ग्रन्थ उनकी माँ मोहिनी को दहेज में दिया था जिसे मोहिनी जी ने तो पढ़ा ही तथा अपनी पुत्री मैना (ज्ञानमती माताजी) को भी उसका स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी जिससे उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उस ‘‘पद्मनन्दिपंचिंवशतिका’’ के धर्मोपदेशामृत अधिकार का उपयोग उन्होंने ‘‘परमसमाधि अधिकार’’ में गाथा नं. १२६ की टीका में किया है। वहाँ पर मुनियों को समस्त प्राणियों के प्रति समताभाव धारण करने की प्रेरणा देते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी के भावों को स्पष्ट करने के लिए पद्मनंदि आचार्य की पंक्तियाँ दी हैं—
‘‘संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृतः के के न पित्रादयो,
जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहताः।
पुंसात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेषु ध्रुवं,
हंतारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो न क्रुधः।।९।।
अर्थात् श्री पद्मनन्दि आचार्य जगत् के प्राणियों को सम्बोधित करते हैं कि संसार में चिरकाल से भ्रमण करते हुए प्राणी के कौन से जीव माता-पिता व भाई आदि नहीं हुए हैं ? अर्थात् सभी जीव संबंध से अपने हो चुके हैं अतएव उन जीवों के घात में प्रवृत्त हुआ प्राणी निश्चय से सबको मारता है। आश्चर्य तो यह है कि अपने आपका भी घात कर लेता है क्योंकि इस भव में जो दूसरे के द्वारा मारा गया है वह निश्चय से भवान्तरों में क्रोध की वासना से अपने उस घातक का बहुत बार घात करता है, यह बड़े खेद की बात है।’’
इसी प्रकार तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं धवला पुस्तक १३ के आधार से गाथा की टीका में सिद्धान्त का रहस्य खोलते हुए लिखा है—
‘‘धर्म्यध्यानं चतुर्थगुस्थानातारभ्य सप्तमपर्यन्तम्,
सूक्ष्मसांपरायनामदशमगुणस्थानपर्यंत वा परमागमे श्रूयते।
इसका अर्थ यह है कि धर्म्यध्यान चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ करके सातवें गुणस्थान पर्यंत होता है ऐसा तत्त्वार्थराजवार्तिवâ में लिखा है अथवा चौथे गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय नामक दशवें गुणस्थान से प्रारंभ करके सातवें गुणस्थान पर्यंत होता है ऐसा तत्त्वार्थराजवर्तिक में लिखा है अथवा चौथे गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय नामक दशवें गुणस्थान तक भी होता है—ऐसा षट्खंडागम सूत्र में कथन आया है।’’
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों को शुक्ल ध्यान, स्वरूपाचरण चारित्र, निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती है।
परमभक्ति नामक अधिकार में माताजी ने प्रथमानुयोग के आदिपुराण एवं हरिवंश पुराण का कुछ प्रकरण लिया है। जैसे उन्होंने अपनी स्याद्वादचंद्रिका टीका के अन्दर श्री जिनसेनाचार्य द्वारा प्रतिपादित ‘नम: सिद्धम्’’ पद को गूंथा है—‘‘सर्वेऽपि वृषभादितीर्थकरा प्रव्रज्याग्रहणकाले मोक्षंगतपुरुषाणां सिद्धानां भक्तिरूपां निर्वाणभक्तिं नमः सिद्धं इति मंत्र पदोच्चारणेन कृत्वा शिरः केशानुत्पाट्य योगवरभक्तिं कृत्वा योगे तस्थुः।’’
इसका अभिप्राय यह है कि सभी तीर्थंकर भगवान सिद्धों की साक्षीपूर्वक स्वयं दीक्षा लेते हैं और उस समय ‘‘नमः सिद्धं’’ मंत्र का उच्चारण करते हैं। वे अपने जीवन में किसी को भी गुरु नहीं बनाते हैं क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व के निमित्त से उन्हें गर्भ, जन्मकल्याणक वैभव एवं इन्द्रादिकों द्वारा पूजा प्राप्त हो जाने से उस भव में उनका कोई गुरु हो नहीं सकता है।
इस टीका में संस्कृतज्ञ विद्वानों को सम्बोधित करने का विशेष अभिप्राय प्रतीत होता है कि ‘‘नमः’’ के योग में व्याकरण सूत्र ‘‘नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाअलं वषट्योगे चतुर्थी’’ के अनुसार सिद्धाय या सिद्धेभ्यः होना चाहिये था किन्तु श्री जिनसेन स्वामी ने द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया है अतः उसमें किसी संशोधन के बिना ही सभी को ‘‘नमः सिद्धं ’’ पद मान्य करना चाहिए। सिद्धं नमः १यह मंत्र ब्राह्मी सुन्दरी को विद्याध्ययन कराते समय आया है।
इसी प्रकरण में आगे और खुलासा है कि तीर्थंकर भगवान् के समान ही यदि कोई स्वैराचारी मुनि भी यह कहने लग जावे कि मैंने भी तीर्थंकर प्रतिमा के सानिध्य में दीक्षा ली है वर्तमान में मेरा कोई गुरु होने योग्य नहीं है। तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि तीर्थंकर भगवान के अतिरिक्त कोई भी स्वयं दीक्षा नहीं ले सकते हैं।
इस प्रकार पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित ग्रंथों का सार इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में भरा हुआ है। इसका असली रसास्वादन तो पूरी टीका पढ़ने पर ही किया जा सकता है। मैंने यहां केवल सागर की एक बूंद के समान टीका के िंकचित् प्रसंगों को उद्धृत किया है।
टीका के अन्त में टीकाकर्त्री गणिनी आर्यिकाश्री ने ३७ श्लोकों में एक प्रशस्ति दी है जो ग्रन्थ की ऐतिहासिकता को युग—युगों तक बनाए रखने में वरदान स्वरूप है। उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा आदि का वर्णन करते हुए टीका समापन के समय चल रहे देश में तत्कालिक शासन का भी उल्लेख किया है तथा जिस समय वे इस प्रशस्ति को लिख रही थीं उसी समय संयोगवश उसी दिन ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ’’ जो उनकी पावन प्रेरणा से ४ जून १९८२ को प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तित किया था उसका उत्तर प्रदेश में उद्घाटन ज्ञानमती माताजी की जन्मभूमि टिवैâतनगर से हुआ था अतः इस प्रकरण का उल्लेख भी उन्होंने प्रशस्ति में किया है। पुनः कुन्दकुन्द स्वामी एवं शांतिनाथ भगवान् को नमस्कार करते हुए उन्होंने प्रशस्ति पूर्ण की है।
श्री कुन्दकुन्ददेवाय नमः परमोपकारिणे।
यस्य ग्रथितग्रन्थेभ्यः सत्पथोऽद्यापि दृश्यते।।
त्रैलोक्यचक्रवर्तिन्। हे शांतीश्वर। नमोऽस्तु ते।
त्वन्नामस्मृतिमात्रेण, शान्तिर्भवति मानसे।।