जैनधर्म एवं महावीर
भारत की धरती पर प्राचीन काल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है जो विशेष रूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है। इस धर्म के विषय में डा. विशुद्धानन्द पाठक एवं डॉ. जयशंकर मिश्र ने पुराना भारतीय इतिहास और संस्कृति के (१९९-२००) पृष्ठ पर लिखा है—‘‘विद्वानों का अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और प्राग्वैदिक है। सिन्धु घाटी की सभ्यता से मिली योग: मूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों में ऋषभ तथा अरिष्टनेमि जैसे तीर्थंकरों के नाम इस विचार के मुख्य आधार हैं। भागवत और विष्णुपुराण में मिलने वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा भी जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है।’’
जैनधर्म के विषय में कुछ लोगों की धारणा यह है कि यह निरीश्वरवादी और नास्तिक धर्म है तथा इसकी स्थापना ईसा से ५४० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने की है किन्तु इस धर्म के प्राचीन ग्रन्थों से विदित होता है कि सृष्टि का कर्ता कोई महृासत्ता ईश्वर नहीं है अपितु प्रत्येक जीवात्मा अपने—अपने कर्मों का कर्त्ता स्वयं होता है। वही जब कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मोक्ष में चला जाता है तो ईश्वर, भगवान, परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है और ऐसा ईश्वर जैन मान्यतानुसार पुनः संसार में कभी जन्म नहीं धारण करता है, प्रत्युत् लोक शिखर पर निर्मित एक सिद्धशिला नामक सर्व सुखसम्पन्न स्थान पर वह सदा-सदा के लिए अनन्तसुख में निमग्न रहता है। ईश्वर के प्रति यही मान्यता उनकी ईश्वरवादिता एवं आस्तिकता समझी जाती है। ईश्वर सृष्टिकर्त्तत्व एवं पुनः—पुनः उनके संसार में जन्म धारण करने की बात जैनधर्म में दोषास्पद मानी गई है, अष्टसहस्री नामक ग्रन्थ में इस विषयक अति सुन्दर सामग्री उपलब्ध होती है।
जैनधर्म के प्राचीन मनीषी आचार्यों ने इस धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है—‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’ ‘‘जिनो देवता यस्यास्तीति जैनः’’ अर्थात् कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं और जिन को देवता मानने वाले उपासक ‘‘जैन’’ माने गये हैं। इस विस्तृत व्याख्या वाले जैनधर्म के प्रति अनेक विद्वान भी अपनी यह विचारधारा प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘जैनधर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है। जैन तीर्थंकरों की महान आत्माओं ने संसार के राज्यों के जीतने की चिन्ता नहीं की थी। राज्यों का जीतना कुछ ज्याद कठिन नहीं है। जैन तीर्थंकरों का ध्येय राज्य जीतने का नहीं, बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का रहा है। यही एक महान् ध्येय है और मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है।’’
इस प्रकार जैनधर्म जाति के रूप में नहीं बल्कि एक धर्म के रूप में ही भारतदेश की धरती पर कब से चल रहा है यह किसी को पता नहीं है किन्तु समय-समय पर तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर इस जैनधर्म की सार्वभौमिकता से परिचित कराया है। इस तीर्थंकर परम्परा में वर्तमान जैन इतिहास के अन्दर
२४ नाम प्रमुखता से आते हैं—
१. ऋषभदेव (आदिनाथ), २. अजितनाथ, ३. संभवनाथ,
४. अभिनंदननाथ, ५. सुमतिनाथ, ६. पद्मप्रभु, ७. सुपार्श्वनाथ, ८. चन्द्रप्रभु, ९. पुष्पदन्तनाथ, १०. शीतलनाथ, ११. श्रेयांसनाथ, १२. वासुपूज्यनाथ, १३. विमलनाथ, १४. अनंतनाथ, १५. धर्मनाथ, १६. शांतिनाथ, १७. कुंथुनाथ, १८. अरहनाथ, १९. मल्लिनाथ, २०. मुनिसुव्रतनाथ, २१. नमिनाथ,
२२. नेमिनाथ, २३. पार्श्वनाथ, २४. महावीर स्वामी।
जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त—उपर्युक्त सभी तीर्थंकर अपने-अपने समय पर इस धरती पर क्षत्रिय कुल में जन्में बड़े राजा के रूप में माने गये हैं। एक तीर्थंकर के निर्वाण प्राप्ति के बाद ही दूसरे तीर्थंकर अवतरित होते थे और जब तक दूसरे का जन्म नहीं होता था तब तक पहले वाले तीर्थंकर का ही शासनकाल माना जाता था क्योंकि उनकी वाणी परम्परा से उनके मुनि शिष्यगण आगे भक्तों तक प्रेषित करते थे।
जैनधर्म ने अवतारवाद को पूर्णतः अस्वीकार करते हुए सिद्ध महापुरुषों का संसार में पुनरागमन नहीं माना है।
ये सभी तीर्थंकर मूलतः पाँच महाव्रतों (अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) को धारण कर दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण करते थे पुनः मयूरपंख की पिच्छिका और काष्ठ का कमंडलु इनकी मुख्य पहचान मानी जाती थी। दीक्षा के बाद मौन धारण करके ये तपस्या करते और कभी-कभी जंगल से नगर में आकर जैन गृहस्थों के घरों में ही जैनविधि अनुसार करपात्र में शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करते थे। उनको भोजन देने के लिए लोग बड़े भक्ति भाव के साथ अपने-अपने घर के द्वार पर खड़े होकर आदरपूर्वक बोलते थे—
‘‘हे स्वामिन्! नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है।’’
पुनः अपने दरवाजे पर पधारे उन अतिथि महापुरुष को घर के अन्दर ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार (भोजन) देकर गृहस्थजन अपने को धन्य समझते थे। जैन पुराणों के अनुसार तो उनके ऐसे आहार के अवसरों पर आकाश से देवता भी रत्न, पुष्प एवं गन्धोदक आदि पंचाश्चर्यों की वृष्टि करते थे जिसे पूरा नगर एकत्रित होकर देखता था। आज के कलियुग में नहीं दिखने वाला यह दृश्य कुछ लोग काल्पनिक मानकर उन महान जैन सन्तों को भिक्षुक के रूप में जानने लगते हैं किन्तु परम सत्यता एवं जितेन्द्रियता वâा पाठ पढ़ाने वाली यह दिगम्बर मुनिचर्या आज भी भारत के विभिन्न भागों में पदविहार करने वाले प्रत्येक दिगम्बर जैन मुनि के भोजन के समय देखी जा सकती है। अजा के इस कलियुग में देवता द्वारा रत्नवर्षा आदि तो नहीं होती है किन्तु उनकी भोजन प्रक्रिया से तीर्थंकरों की कठिन चर्या का सहज ही ज्ञान हो सकता है।
इन सभी तीर्थंकरों ने अनादि परम्परानुसार दीक्षा एवं तपस्या के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा प्रमुख रूप से निम्न
पाँच व्रतों का उपदेश दिया—
१. अिंहसा, २. सत्य, ३. अचौर्य, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अपरिग्रह।
इन पाँच व्रतों को पूर्ण रूप से पालन करने वाले दिगम्बर मुनि होते हैं और इन्हें तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी ग्रहण करते हैं इसलिए ये ‘‘महाव्रत’’ नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं पाँचों व्रतों का आंशिक रूप में पालन गृहस्थजन करते हैं अतः ‘अणुव्रत’ संज्ञा से भी इनकी पहचान होती है। आज भी जैन समाज के पुरुष-स्त्रियाँ अपनी-अपनी श्रद्धा, शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार महाव्रत एवं अणुव्रत को ग्रहण करते हुए अपनी सांसारिक इच्छाओं पर अंकुश लगाते देखे जाते हैं।
इन पाँचों महाव्रतों को ग्रहण करने वाले पुरुष आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन श्रेणियों में विभक्त हैं तथा जो स्त्रियाँ (कुमारी कन्या, सौभाग्यवती अथवा विधवा) इन महाव्रतों को धारण करती हैं उन्हें दिगम्बर जैन परम्परा में आर्यिका अथवा गणिनी की संज्ञा प्राप्त होती है। ये साध्वियाँ एक सफेद साड़ी धारण कर मुनियों के समान ही समाज में अपने संघों के साथ विचरण करती हुई धर्मोपदेश, साहित्य लेखन एवं धार्मिक कार्यकलापों की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भद्रबाहु मुनिराज के समय से दो भागों में विभाजित जैन समाज दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नाय में से दिगम्बर आम्नाय के ग्रन्थों में पाँचों महाव्रतों की बात सभी तीर्थंकरों द्वारा अपनाने और उपदेश देने की बात कही गई है, जबकि श्वेताम्बर मान्यतानुसार पार्श्वनाथ तीर्थंकर के द्वारा ब्रह्मचर्य को छोड़कर चार व्रतों का उपदेश देने की बात कही है और महावीर को उसमें ब्रह्मचर्य को जोड़कर पाँच महाव्रतों का उपदेष्टा माना है।
उपर्युक्त पाँचों व्रतों के विपरीत पाँच पाप होते हैं—
१. िंहसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. कुशील, ५. परिग्रह।
इन पापों में लिप्त रहने वाले मनुष्य तामसी वृत्ति के धारक और नरक-पशु आदि गतियों के दुःख भोगते हैं जबकि व्रतों से सहित सदाचारी जीवन जीने वाले स्वर्ग सुखों को प्राप्त करते हैं ऐसा पुनर्भव का सिद्धान्त मानने वाले सभी जैन (आस्तिकवादी) मानते हैं।
इसी प्रकार से जैन ग्रन्थों में मानव को सदाचारी जीवन व्यतीत करने हेतु व्यसनों से दूर रहने की प्रेरणा प्रदान की गई है। वे व्यसन सात होते हैं—
१. जुआ खेलना, २. मांसाहार करना, ३. मदिरा (शराब) पीना, ४. वेश्यासेवन करना, ५. शिकार खेलना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना।
इन सातों व्यसनों का सेवन करने वाले मानव अगले जन्म में सातों नरकों में जाने का मानो द्वार ही खोल लेते हैं, इनके विपरीत व्यसनमुक्त जीवन देवताओं का सुख प्रदान करने वाला माना गया है।
जैनधर्म का मूल मंत्र भी अनादि प्राकृतिक रूप से चला आ रहा है, जो निम्न प्रकार हैं—
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
इस मंत्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच उत्तम पद के धारी महापुरुषों को नमन करते हुए उन्हें पंचपरमेष्ठी के रूप में स्वीकार किया गया है। इनमें से अरिहंत और सिद्ध तो ईश्वर परमात्मा हैं जो पूर्ण कृतकृत्य अवस्था में रहते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु व तीन परमेष्ठी वर्तमान में भी चतुर्विध संघ के साथ विचरण करते हुए आत्मकल्याण एवं जनकल्याण में प्रवृत्त देखे जाते हैं।
जैनधर्म ने अिंहसा के सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है जो केवल पशु-पक्षियों के प्रति ही नहीं वरन् पेड़-पौधे और जल-अग्नि आदि के रूप में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की आत्मा के लिए भी दयाभाव रखने का उपदेश देता है तथा किसी अन्य के प्रति होने वाले गलत विचार को भी जैनधर्म ने भाव िंहसा माना है इसलिए अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म की अिंहसा अत्यधिक व्यापक कही गयी है किन्तु िंहसक व्यक्ति से अपनी, परिवार की, धर्म की एवं देश की रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र उठाने को इस धर्म ने विरोधी िंहसा कहकर गृहस्थ के लिए स्वीकार किया है।
श्रमण और गृहस्थ इन दो रूपों में उपदिष्ट जैनशासन के सूत्रों ने भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में भी
तीर्थंकर महावीर का जैनधर्म के प्रवर्तन में योगदान
जैनशासन की धार्मिक मान्यतानुसार प्रत्येक सतयुग (दुःषमासुषमा नामक चतुर्थकाल) में २४-२४ महापुरुष जन्म लेते हैं जिन्हें तीर्थंकर कहते हैं। इस तीर्थंकर शृंखला में अनेक बार २४ तीर्थंकर इस धरती पर पहले हो चुके हैं और आगे भविष्य में भी अनेक बार २४ तीर्थंकर होंगे जिनके जन्म सदा से ‘‘अयोध्या’’ में ही होने का वर्णन प्राचीन जैन शास्त्रों में मिलता है किन्तु ऋषभदेव से महावीर तक वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों में से कुछ तीर्थंकरों (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, अनन्तनाथ) का जन्म ही कालदोष से इस बार अयोध्या में हुआ तथा शेष तीर्थंकरों ने अलग-अलग नगरों में जन्म ले लिया। उन अनेक स्थानों में बिहार प्रान्त भी विशेष सौभाग्यशाली हो गया क्योंकि वह धरती २४वें तीर्थंकर महावीर के जन्म से पावन हुई। महावीर स्वामी का जीवनवृत्त निम्न प्रकार है—
आज से २६०० वर्ष पूर्व (ईसा से लगभग ५९९ वर्ष पूर्व) बिहार प्रान्त के ‘‘कुण्डलपुर’’ (वर्तमान नालन्दा जिले में स्थित) नगर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला (प्रियकारिणी) ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार की रात्रि में तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया था। उनका बचपन का नाम ‘‘वर्धमान’’ और दूसरा नाम ‘‘वीर’’ था। नाथवंश के राजघराने में जन्मे वर्धमान के नाना बिहार प्रान्त में ही ‘‘वैशाली’’ नगरी के राजा थे, उनके दस पुत्र थे तथा सात पुत्रियों में से सबसे बड़ी ‘‘त्रिशला’’ को वर्धमान की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
वर्तमान में कुछ आधुनिक इतिहासकार महावीर की जन्मभूमि के रूप में ‘‘वैशाली’’ के कुण्डग्राम को बताते हैं किन्तु इस विषय में प्राचीन दिगम्बर जैन आगम में बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर का वर्णन आता है कि वहाँ के राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के सिद्धार्थ नामक पुत्र थे। वे युवराज सिद्धार्थ ही आगे चलकर कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ कहलाये, उनका विवाह वैशाली के राजा चेटक और रानी सुभद्रा की पुत्री त्रिशला के साथ हुआ। पुनः त्रिशला के गर्भ में जब तीर्थंकर महावीर आये तो उनके नंद्यावर्त महल के आंगन में कुबेर ने रत्नों की वर्षा की थी और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि को महावीर का जन्म हुआ था। श्वेताम्बर जैनों के अनुसार बिहार के ही एक ‘लिछवाड़’ ग्राम को महावीर की जन्मभूमि माना जा रहा है। कुछ श्वेताम्बर ग्रंथानुसार कतिपय शोधकर्ताओं ने वैशाली के कुण्डग्राम को भी महावीर की जन्मभूमि माना है।
महावीर ने ३० वर्ष की युवावस्था में राजसुखों का त्यागकर जैनदीक्षा धारण की थी और बारह वर्ष कठोर तपस्या के बाद उन्हें वैâवल्य की प्राप्ति हुई थी।
श्वेताम्बर जैन साहित्य के अनुसार महावीर का यशोदा नामक राजकुमारी के साथ विवाह होना और एक पुत्री का पिता होना माना गया है। दिगम्बर जैन साहित्य ने सर्वत्र उन्हें बाल ब्रह्मचारी स्वीकार कर पंच बालयतियों (वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर) में उनकी विशेषता बतलाई है। इन आगम ग्रन्थों में चौबीस तीर्थंकरों में से उन्नीस को विवाहित और राज्यव्यवस्था संचालित करने के कारण राजा माना है एवं पाँच तीर्थंकरों ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा कर युवावस्था में ही दीक्षा ले ली इसलिए वे युवराज ही रहे और बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों की गणना में आये। प्रभु महावीर अपने बारहवर्षीय दीक्षित जीवन के मध्य एक बार कौशाम्बी नगरी में गये, वहाँ वैशाली के राजा चेटक की सबसे छोटी कन्या चन्दना एक सेठानी द्वारा सताई जाने के कारण बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। महावीर को देखते ही उसकी बेड़ियाँ स्वयं टूट गईं, उसके मुंडे सिर पर केश आ गये। कोदों का भात सुन्दर खीर बन गई अतः प्रसन्नतापूर्वक चन्दना ने उन्हें आहार देकर अपने सतीत्व का परिचय दिया। बाद में यही चन्दना महावीर के समवसरण की प्रमुख साध्वी (गणिनी) बनीं और इतिहास में उसकी घटना विशेष उल्लेखनीय बन गई।
महावीर के जीवनकाल में एक विशेष प्रसंग भी आया है कि पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों के समान केवलज्ञान होते ही उनकी दिव्यध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई और वे ६६ दिन तक मौनपूर्वक ही विहार करते रहे। इसमें कारण उनके शिष्य रूप गणधर का अभाव बताया गया है पुनः जब इन्द्र ने अपनी बुद्धि से एक गौतम गोत्रीय विद्वान को वहाँ उपस्थित किया तो वह महावीर के दर्शनमात्र से प्रभावित होकर ५०० शिष्यों के साथ उनके शिष्य बन गये, उनके दीक्षा धारण करते ही महावीर की दिव्यध्वनि प्रगट हो गई। वह दिन श्रावण कृष्णा एकम का था, जो आज भी जैन समाज में ‘‘वीर शासन जयन्ती’’ के रूप में मनाया जाता है। बिहार प्रान्त में राजगृही नगर में पंचपहाड़ी में एक विपुलाचल नामक पर्वत है जहाँ महावीर देशना के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं।
पुनः ३० वर्ष तक तीर्थंकर महावीर ने अपने दिव्यज्ञान से सारे संसार को उपदेश दिया और ७२ वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्णा अमावस के प्रभातकाल में बिहार के पावापुर नगर में उनका महानिर्वाण हो गया। जैन पुराणों के अनुसार उस दिन स्वर्ग से देवताओं ने भी आकर अंधेरी रात को दीपमालिका से जगमगा दिया था अतः तभी से वीर निर्वाण सम्वत् भारत में प्राचीन संवत्सरों में प्रचलित है।
महावीर के द्वारा उपदिष्ट समस्त सिद्धान्तों को उनके गणधर शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप में प्रस्तुत किया, वही क्रम परम्परा से आज तक विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हो रहा है। दिगम्बर जैन शासन ने यह श्रुतज्ञान चार अनुयोग रूप (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग) में प्रतिपादित अंग और पूर्व का अंश माना है और श्वेताम्बर जैन मान्यता ने अंग और पूर्वरूप सभी आगम ग्रन्थों का अपने आचार्यों द्वारा लेखन स्वीकार किया है। महावीर के समवसरण में प्रविष्ट होते ही सबसे पहले इन्द्रभूति गौतम ने संस्कृत भाषा में स्तुति की थी जो चैत्यभक्ति के रूप में ‘‘जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचार-विजृम्भिता……’’ इत्यादि सुन्दर पठनीय है, पुनः उन्होंने भगवान की ऊँकारमयी वाणी को श्रमण और गृहस्थों तक पहुँचाने के लक्ष्य से प्राकृत भाषा में सुदं में आउस्संतो!……… इत्यादि शिष्ट और मिष्ट भाषा का प्रयोग करके उनके आचार-विचार की बात बताई।
जैन शास्त्रों के अनुसार महावीर के जन्म से लेकर निर्वाण जाने तक इन्द्र देवता और बड़े-बड़े सम्राट राजा सदैव उनकी भक्ति में तत्पर रहते थे तथा उनके व्यक्तित्व में ऐसा चुम्बकीय आकर्षण था कि पास आने वाला प्रत्येक प्राणी उनका भक्त बन जाता था। मनुष्यों की बात तो दूर, शेर और गाय जैसे प्राणी भी उनके पास आकर वैर भाव छोड़कर एक घाट पर पानी पीने लगते थे।
ऐसे अिंहसामयी जैनधर्म के पुनरुद्धारक भगवान महावीर की सर्वोदयी शिक्षाएँ आज भी विश्वशान्ति के लिये महान उपयोगी हैं।
मुक्तक
ओजस्वी है वाणी माँ की, अद्भुत इनकी गुणगाथा,
गुरु से पाकर ज्ञानरश्मियाँ, बनीं चंदनामति माता।
आर्षमार्ग संरक्षण में रत, संवर्धन करने वाली,
प्रवचनपटु हे प्रज्ञाश्रमणी, मन तामस हरने वाली।।१।।
बड़े-बड़े कार्यों को करतीं, कहलातीं छोटी माता,
अहंकार नहिं पास फटकता, भक्त सदा तव गुण गाता।
वत्सलता की वर्षा से अभिसिंचित करती रहती हैं,
गुरुपथ की अनुगामिनि है, वात्सल्य की शिक्षा देती हैं।।२।।
धर्मविमुख प्राणी को अद्भुत, शैली में माँ समझातीं,
भूले भटके पथिकजनों को, धर्ममार्ग तुम सिखलातीं।
जीवन में गुणवान बने अरु बनता कुल जाती का मान,
आत्मतोष पा भवि प्राणी वह चढ़ता उन्नति का सोपान।।३।।
हम जैसेअज्ञानी को माँ, ज्ञानामृत को पिला दिया,
अगणित दोष हुए फिर भी, वात्सल्य से उसको भुला दिया।
हे माँ! तेरे उपकारों से, उऋण नहीं हो पाऊँगी,
जब तक जन्मूं इस धरती पर, तव गुणगाथा गाऊँगी।।४।।
स्वस्थ और दीर्घायु रहो माँ, आदिप्रभु से अभिलाषा,
मेरी आयु तुझे लग जाए, एक यही मन में आशा।
ज्ञान चन्दना की सुरभी से, निज जीवन को महकाऊँ
तेरी रजकण पाते-पाते मुक्तिवल्लभा को पाऊँ।।५।।
भजन
-आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी
तर्ज-हम लाए हैं तूफान से …….
दुनिया में जैनधर्म सदा से ही रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।टेक.।।
जब से है धरा आसमाँ सौन्दर्य प्रकृति का।
तक से ही प्राणियों में है विश्वास धर्म का।।
हर जीव के सुख का यही आधार रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।१।।
जो कर्म शत्रुओं को जीत ले जिनेन्द्र है।
जिनवर के उपासक ही असलियत में जैन हैं।।
यह धर्म जाति भेद से भी दूर रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।२।।
चांडाल सिंह सर्प भी धारण इसे करें।
मिश्री की भाँति मिष्ट फल को प्राप्त वे करें।।
यह सार्वभौम विश्व धर्मरूप रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।३।।
इस प्राकृतिक उद्यान को सींचा है सभी ने।
इससे ही अहिंसा धरम सीखा है सभी ने।।
यह आदि अंत से रहित अनादि कहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।४।।
इसका कभी न अंत होगा सदा रहेगा।
कलियुग के कालचक्र का संकट भी सहेगा।।
यह धर्म ‘‘चंदनामती’’ जिन सूर्य कहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।५।।